Tuesday, 20 July 2021

द्वारांत प्रवेश

महात्मा सतसाधक जगन्नगर शीघ्रता से पार कर जब उस महाद्वार से होकर चलने लगा तो आस पास के सुख साधनों या वैभव विलास ,अथवा उसकी अत्यंत अदभुत रचना पर जरा भी ध्यान नहीं दिया । सत्साधक जगननगर के परम कष्ट और कालपुरुष के नित्य के भय त्रास से सदा के लिए मुक्त होने का अमूल्य प्रसंग जानता था और यह भी जानता था कि पल भर भी जरा सी अविध्या में फांस जाने से जो प्रसंग निकल जाएगा ,वह प्राप्त होना दुर्लभ है ऐसे दुर्लभ प्रसंग को सहज ही न खोकर जैसे बने उस द्वार से बाहर निकल जाए यह सोच वह अपने मन को मजबूत कर दृढ़ निष्ठा से चला जाता था और बार बार भोले भाले अनुयायियों को सचेत करता था कि: "हे जिज्ञासुओं ! चलो शीघ्र चलो ,इधर उधर कुछ न देखो ,सामने नजर रख कर चलो कानों में दो हाथ दाब और मन को थाम कर मेरे पीछे दृढ़ता पूर्वक चले आओ । किसी में लुभाना नहीं ,किसी से लिपटना नहीं परिश्रम से घबराना नहीं ।हम लोगो की रक्षा करने वाले समर्थ अच्युत प्रभु परमब्रह्म का ही मुख से नाम स्मरण करते जाओ, एक बार द्वार को लांघकर हम कुशल पूर्वक बाहर निकल जाएं तो मानो जग  जीत लिया, कृतार्थ हुए और सब काम कर लिया जो जितेंद्रिय और वैराग्य वाले हैं वे ही भीतर बाहर का त्याग कर सकते हैं और ये त्याग तभी होता है जब मोक्ष की इच्छा होती है तो याद रखो कि "इस जीव को मुक्ति रूप बड़े महल पर चढ़ने के लिए  वैराग्य तथा बोध पंख हैं" ।
                  जैसे पक्षी दो पंखों के बिना उड़ नहीं सकता वैसे ही मनुष्य इन दो के बिना नहीं चढ़ सकता, इसलिए वैराग्य को दृढ़ रखो, इस द्वार में रहने वाले विषय आदि बाह्य पदार्थों का अनुसंधान एक से एक अधिक दुष्ट वासना रूप फल देने वाला है इसलिए विवेक से समझ बाह्य पदार्थों का भोग त्यागकर अपने स्वरूप की खोज करने में ही सफलता है बाह्य पदार्थों की ओर जाती हुई दृष्टि को रोकने से मन पवित्र होता है ,मन पवित्र होने से अच्युत परमात्मा का ज्ञान होता है ,योग्य ज्ञान होने से बंधन रूप माया छूटती है माया से मुक्त होने पर अपने स्वरूप का बोध होता है इसलिए भाग्यवान पथिकों ! "अपने बहुकालीन परिश्रम का फल यही है कि एक बार हम लोग कुशलता पूर्वक इस पुरद्वार से होकर बाहर निकल जाएं "।
                  इस प्रकार कहता हुआ वह सत्साधक  तेजी से चल पड़ा और उसके पीछे पीछे सभी चल पड़े और कुछ लोग माया के प्रभाव से आगे पीछे रुक रुक कर चलने लगे ,संघ के लोगो ने सचेत कर उन्हें कहा कि संघ आगे निकल जाएगा और तुम यहीं पीछे छूट जाओगे , जहर के समान विषयों की आशा को काट डालो , क्योंकि यह आशा ही मृत्यु का पाशरूप है ! अरे तुम जानते नही कि दृश्य पदार्थ कल्पित हैं और इसी से न उनमें अच्युत का अंश है और न अच्युत में उनका अंश है ऐसा होने पर भी इन दृश्य पदार्थों में मोहे क्यों करते हो ? परंतु असंख्य पथिक मन को रोक न सके और विश्राम करने में रुक गए ,निद्रा देवी ने घेर लिया और सो गए आलस्य में बहुत समय बीत गया और संघ से बड़ा फासला पड़ गया फिर उन्हे कौन सचेत करता ।
                     मनुष्य को हमेशा अपने मन को सचेत रखना चाहिए " जो मनुष्य महाढीठ , दृढ़ मन वाले सावधान " , गुरुबचन पर पूर्ण विश्वास रखने वाले तथा अपने कल्याण के लिए बिल्कुल एक निष्ठ थे  वे चुपचाप थकने पर भी धड़ाधड़ महात्मा सत्साधक के पीछे पीछे चले ही गए बुद्धिमान ,पंडित,चतुर सुजान और अति सूक्ष्म विषयों का ज्ञाता होने तथा बहुत समझाने पर भी जो पुरुष यदि तमोगुण से घिरा हुआ हो और माया में लुब्ध हो तो वह सत्य बात नही समझ सकता और भ्रांति से भ्रमित होकर अपने माने हुए असत्य को सत्य मानता है अपने ही गुणों के वश होता है यही बड़ी और प्रबल आवरण शक्ति है परंतु अंत में इस से नीचता को प्राप्त होता है ,ज्ञाता के लिए स्वस्वरूप में प्रमाद से बढकर और कोई अनर्थ नहीं है । प्रमाद से मोह, मोह से अहम बुद्धि , ममता ,प्रेम,अहम बुद्धि, अहम बुद्धि से बंधन और बंधन से व्यथा होती है,परंतु मूढ़ जीव इसे नही जानता , जिनका अंतः करण वश में है उन्हे वैराग्य सारे पदार्थों के त्रिस्कार से बढ़कर सुख देने वाला दूसरा कुछ नही है ।मुक्तिरूप  स्त्री से विवाह करने का यही द्वार है इसलिए जो जीव, परम कल्याण के वास्ते सबकी स्प्रह त्याग देता है वही जीव विजय प्राप्त करता है , अनात्म पदार्थों पर प्रीति ही इस संसार में संकट का कारण है।