बटुकजी की आज्ञा-जीवन मुक्त दशा का प्रारम्भ
राजन ! सब कुछ दान करने से तू मेरा हो गया है इस यज्ञ की पूर्णाहुति हो गयी है सौ अश्वमेघ यज्ञ रूपी तेरा यज्ञ पूरा हुआ। किसी भी तरह की कोई कमी नहीं रही । अब इस यज्ञ कार्य का विधिवत विसर्जन कर ऋषियों को संतुष्ट कीजिये । प्रजा की रक्षा के लिए मैं राज्य तुझे पुनः सौपता हूँ उसको नियम से भोग ,तूने अपना सब कुछ मेरे द्धारा परमात्मा को अर्पण किया है सब ब्रह्मार्पण किया है तूने सब इच्छाओ को त्याग कर कामना रहित होकर नियम से अर्पण किया है इसलिए यह ब्रह्मसमर्पण हुआ है ।
मैं इन्हें प्रजा की रक्षा के लिए तुझको ही सौपता हूँ । तू "मेरा" , "मैं " छोड़कर परमात्मा का समझकर तुझे सेवक की भाँति इसकी रक्षा करनी है मेरा इसमें कुछ भी नहीं है ऐसा जानकर प्रजा का पालन करना है तू इस राज्य को मेरी आज्ञा से निरपेक्ष रूप से पालन कर अर्थात अपना न समझकर न्याय से बर्ताव कर ,अनुराग न कर किसी भी तरह का । तेरा समय अभी पूरा नहीं हुआ है तुझे अभी पृथ्वी पर ही रहना है।
बटुकजी की यह आज्ञा सुनकर वरेप्सु को चिन्ता होने लगी यह मन बड़े नीच स्वभाव का है जरा भी इसे संसार का स्वाद मिलेगा तो उसमे पुनः अनुराग कर बैठेगा मुझे फिर अपराधी बनना पड़ेगा। बड़ी मुश्किल से इन प्रपंचो से छूटा हूँ । गुरूजी मेरे गले मे फिर से फांसी का फंदा क्यों डाल रहे है परन्तु गुरूजी की आज्ञा माननी ही पड़ेगी ।
इस चंचल मन को अनुरागरहित बनाये रखने के लिए गुरु कृपा ही सहायक हो इस तरह राजा ने अपने मन को शांत किया ।
शरणागत
नीलम सक्सेना
राजन ! सब कुछ दान करने से तू मेरा हो गया है इस यज्ञ की पूर्णाहुति हो गयी है सौ अश्वमेघ यज्ञ रूपी तेरा यज्ञ पूरा हुआ। किसी भी तरह की कोई कमी नहीं रही । अब इस यज्ञ कार्य का विधिवत विसर्जन कर ऋषियों को संतुष्ट कीजिये । प्रजा की रक्षा के लिए मैं राज्य तुझे पुनः सौपता हूँ उसको नियम से भोग ,तूने अपना सब कुछ मेरे द्धारा परमात्मा को अर्पण किया है सब ब्रह्मार्पण किया है तूने सब इच्छाओ को त्याग कर कामना रहित होकर नियम से अर्पण किया है इसलिए यह ब्रह्मसमर्पण हुआ है ।
मैं इन्हें प्रजा की रक्षा के लिए तुझको ही सौपता हूँ । तू "मेरा" , "मैं " छोड़कर परमात्मा का समझकर तुझे सेवक की भाँति इसकी रक्षा करनी है मेरा इसमें कुछ भी नहीं है ऐसा जानकर प्रजा का पालन करना है तू इस राज्य को मेरी आज्ञा से निरपेक्ष रूप से पालन कर अर्थात अपना न समझकर न्याय से बर्ताव कर ,अनुराग न कर किसी भी तरह का । तेरा समय अभी पूरा नहीं हुआ है तुझे अभी पृथ्वी पर ही रहना है।
बटुकजी की यह आज्ञा सुनकर वरेप्सु को चिन्ता होने लगी यह मन बड़े नीच स्वभाव का है जरा भी इसे संसार का स्वाद मिलेगा तो उसमे पुनः अनुराग कर बैठेगा मुझे फिर अपराधी बनना पड़ेगा। बड़ी मुश्किल से इन प्रपंचो से छूटा हूँ । गुरूजी मेरे गले मे फिर से फांसी का फंदा क्यों डाल रहे है परन्तु गुरूजी की आज्ञा माननी ही पड़ेगी ।
इस चंचल मन को अनुरागरहित बनाये रखने के लिए गुरु कृपा ही सहायक हो इस तरह राजा ने अपने मन को शांत किया ।
शरणागत
नीलम सक्सेना
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