Friday, 14 April 2017

पथारोहण ( जगत बंधन का क्लेश )

                       -:पथारोहण:- ( जगत बंधन का क्लेश ) 

" दूध में दूध  ,तेल में तेल  और जल में जल मिलने से जैसे एक रस हो जाता है वैसे आत्मवेत्ता मुनि आत्मा मे मिलने से एक रस (कार्य में लीन) हो जाता है।"
                 "गुरुदेव ने सबको सम्बोधन कर कहा :-"क्यों राजा अब तो कुछ भय नहीं है ?" सूक्ष्म रूप से विचार कर महात्मा वरेप्सु बोले-नहीं नहीं गुरुदेव! वह कराल काल नहीं गया !सिर्फ देखने में फर्क है ,आपकी प्रदान की हुई दिव्य दृष्टि द्वारा मुझे तो साफ दीखता है कि वह कहीं नहीं गया और न ही कहीं जायेगा उसकी नाश कारक भक्षण क्रिया जारी है ,अज्ञानांध ,पराधीन प्राणियों की दशा कैसी शोचनीय है ,आपकी हम पर पूर्ण दया है नहीं तो हमारी भी यही दशा होती।
                 गुरुदेव ने सबका ध्यान दूसरी ओर आकृष्ट किया और वामदेव जी बोले ,"देखो ,देखो ! बहुत से मनुष्य ,जीवों को बाहर निकलने का आदेश दे रहे हैं ,देखो वहाँ मनुष्यों का समूह एकत्र हो रहा है सूचना देने वाले व्यक्ति क्या कहते हैं उन्हें तुम लोग ध्यान से सुनो -समझो तो अच्छा है ,महात्मा बटुक की बात सुन राजा बरेप्सु बोले :-"हाँ गुरुदेव ! वे सूचना देने वाले कहते हैं कि :-
                 "अरे ,हे कृपण और कुसंगी मनुष्यों ! हे बंधुसहित काल के मुँह में पड़े हुए मनुष्यों ! ऐसे महाभयंकर दुखमय अवसर में आश्चर्य पैदा करने वाली निर्भयता को क्यों धारण किये हो ?महा निर्दय काल पुरुष ,बाहें फैलाकर इस नगर को खा जायेगा ,इसे क्या कोई मनुष्य नहीं जानता ?यदि इस काल पुरुष के  भय से अपनी रक्षा करना चाहते हो तो यहाँ से अच्युत प्रयाण करो। "
                   उनकी ऐसी सूचना से लोग घबरा उठे और उनमे जो खोजी सत्यज्ञ ,उधमी ,प्रमाद रहित और उनकी रक्षा करने में सचेत थे वे तुरंत ही एकाध पोटली लेकर घर से बाहर निकल पड़े।
                    पुण्यात्मा प्राणी बोला :-"कृपानाथ !यह तो वही प्राणी है जो काल पुरुष से बातें करता था" ,बरेप्सु बोले,"हाँ ,हाँ वास्तव में वही है ,हाँ वही है ,गुरुदेव ! यह तो काल से घबराकर  भागा था और बिना बिलम्ब अब निर्भय स्थान में जाने का प्रयत्न कर रहा है अहा !  देखो यह कितना परोपकारी है ?स्वयं भय से  बचा है और कुशलता से रहने का मार्ग प्राप्त कर सका है और उसका लाभ सब जनों को देकर उनकी रक्षा करने को हामी भरी है ,वह पुरुष महान बिभु-आत्मा को जानता है और कुछ भी शोच नहीं करता है किन्तु  सबका हित करता है जो आत्मा है उसे प्रिय अप्रिय का ज्ञान नहीं ,सिर्फ देह को ही प्रिय और अप्रिय का ज्ञान होता है ,इस विनाशी जगत में पुरुष क प्रयत्न से ही स्वात्मदर्शन होते हैं श्रवण ,मनन और निदिध्यासन सिर्फ गुरुप्रसाद ,पुण्यकर्म  स्वात्मदर्शन क लिए गौण साधन है ,जब  प्रयतनजन्य वल से चेतता है तभी माया से तरता है ,डूबता नहीं है क्योंकि वह माया में लुब्ध नहीं है और न अज्ञान ही है यह जीव स्वात्म वली है ,मूर्ख नहीं है वह चाहता है कि दूसरों  को अज्ञानता से दूर करूँ , इस महात्मा का भाषण स्पष्ट रूप से ध्यान देकर सुने।
                वह धीर महात्मा सारे जन समूह को सम्बोधित कर कहने लगा अहो कैसा महा आश्चर्य है !कितने खेद की बात है !क्या कहूँ !अरे ! हे जगतनगर निवासियों ! हे दया पात्र निवासियों ! अपने सारे नगर में उपस्थित क्या भयंकर स्थिति तुमने नहीं जानी ,यह सारा जगत नगर जिस  भय में आ पड़ा है जिस अनिवार्य संकट से ग्रस्त है उससे किसी तरह से बचना भी साध्य नहीं है मैं भी यह जानता था कि ऐसा भारी संकट हम पर टूट पड़ा  है परन्तु  अभी जाना है मैं अपनी रक्षा का मार्ग जानकर उसमे जाना चाहता हूँ ,मैं कभी सुना करता था कि जगतनगर को कोई धीरे धीरे नष्ट करता रहता है इसलिए जो बचना चाहता हो वह इसे त्यागकर निर्भय स्थान पर चला जाये ,वह निर्भय स्थान कौन सा है इसे मैं नहीं जानता था परन्तु गत रात में मैंने जो प्रत्यक्ष देखा है कि कैसे नाश होता है तबसे मेरा ह्रदय  धड़क रहा है जिसे कभी स्वप्न में भी  नहीं देखा जो कल्पना में भी नहीं आया ऐसा प्रसंग देखकर भय के कारण वहां से भागा और रस्ते में गिरकर अचेत हो गया,सचेत होते ही वहां से उठा ,उसी समय मैं इस नगर को छोड़कर चला जाता ,दयावश तुम्हे सचेत करने को यहाँ आया हूँ इसलिए देर न करो हम सब निर्भय स्थान में चलें ,मेरे  कहने का कारन यह है कि सर पर भार रखा हो तो उसके दुःख से दूसरा भी  मुक्त कर सकता है पर क्षुधादि से होने वाला दुःख बिना अपने,दुसरे से नहीं मिट सकता रोगी आदि स्वयं ही दवा का सेवन करें तो उसे आरोग्य मिलता है  परन्तु दूसरे दवा खावें तो आरोग्य नहीं मिलता इसलिए हे दयापात्र मनुष्यों !इस नगर को परम बिलक्षण आकृति वाला एक महाप्रपंच पुरुष इस तरह नाश करता है ,जिसे कोई नहीं जान सकता ,वह निर्दयता के साथ भयंकरता से सबका भक्षण  किया  करता है और कहता कि मैं ऐसे ही सारे जगत का भक्षण करूंगा ,यदि बचना है तो अविनाशी मार्ग की और भागो। इसलिए हे मनुष्यों! अब तो  चेतो संसार मोह समुद्र से परिपूर्ण इस जगत से अपने मन रुपी मृग को तार कर पार उतारो ,यही मनुष्य कर्तव्य है।
                लेशमात्र भी दुःख से रहित ,अविनाशी और सदा सुखमय तो अच्युत पथ ही है ,ब्रह्मधाम -अक्षरधाम वही है ,वहां निरंतर निवास करने वाला ईश्वर सबके सोने के  समय जागता रहता है और नाना प्रकार से कार्यों का निर्माण करता रहता है ,सब चला जाता है परन्तु वह तो ज्यों का त्यों रहता है। वही शुद्धि ब्रह्म परमात्मा -अच्युत हैं ,वही अमृत हैं सारे लोक इसी के आश्रित हैं यही परमात्मा हैं ,यही परमात्मा "आत्माराम " रूप में सबके भीतर है आत्माराम परमात्मा सब प्राणियों के भीतर उनके रूप अनुसार रहता है तो भी उनसे अलग,निर्लेप और अविनाशी है उसी में समा जाना ही कल्याणकारी है इस सच्चिदानंद परमात्मा को बिना पाए निर्भय नहीं हो सकते इसलिए जिसे आने की इच्छा हो वह बिलम्ब न कर शीघ्र चलें।
                 यह अंतिम शब्द कहते ही  ही वह धीर पुरुष तुरंत उत्तर दिशा की ओर चल पड़ा यह देख नगर के  हज़ारों लाखों मनुष्य उसके पीछे पीछे चल पड़े परन्तु बहुत  बहुत से अत्यंत व्यवसाय करने वाले, बहुकुटुम्बी ,पर धन लोभी ,अत्यालसी ,नीच कर्मों में प्रबृत ,प्रमादी ,अज्ञानी और महामूढ ,उस बुद्धिमान धीर पुरुषों के वचनों पर विश्वास न करने वाले मनुष्य वहीँ उसी नगर में रह गए।
                  गगन स्थित विमान में वैठे हुए राजा बरेप्सु गुरु जी को प्रणाम कर बोले :-"कृपानाथ !इन मनुष्यों के कंधे और सर पर गठरियों का भार भी है इन गठरियों में क्या होगा ?" गुरुदेव ने कहा :-  इन्होने आवश्यकतानुसार अपने अपने खाने का सामान बांध लिया है , यह सुन राजा बोला :-"खाने के लिए तो उस धीर पुरुष के पूर्व कथानुसार रस्ते में जितना पदार्थ चाहिए उतना तैयार है फिर व्यर्थ भार ढोने की क्या जरूरत है ?
गुरुदेव बोले:- सत्य है परन्तु जिस चित्त को आधा ही विवेक प्राप्त हुआ है और अचल पद प्राप्त नहीं हुआ उसे भोग का त्याग करने में बड़ा कष्ट होता है और विश्वास भी नहीं होता ,ब्रह्म मार्ग में खाना,पीना,उठना,सोना,रहना जो चाहिए सब तैयार  रहता है परन्तु अहम् भाव के व्यर्थ अभिमान के कारण ही उन्हें ये गठरिया उठानी पड़ी है परन्तु अब वह क्या करते हैं एकाग्र दृष्टि से देखो।
                 सब पुण्यात्मा प्राणी एक दृष्टि से उस ओर देखने लगे ,महाराजा बरेप्सु बोले :-कृपानाथ !मालूम होता है कि महात्मा धीर पुरुष को रोकने के लिए उसकी स्त्री,बच्चे,कुटुम्बी अपने घरों से निकल आये हैं उसकी स्त्री अपने धीर पुरुष पति से प्रार्थना कर रही है कि कृपानाथ स्वामी हमें छोड़कर न जाइये ,वे सब बहुत ही आग्रह पूर्वक कह रहे हैं कि -  हे सज्जन ! हे वीर !  आप यह क्या कर रहे हैं ?आप इस तरह पथिक वेश में भविष्य में आने वाले किसी भारी भय से भयभीत होकर भागने वाले के समान कहाँ जाते हैं हम सबका पालन पोषण करते हुए आपको हम सब त्यागे जाने योग्य कैसे हो गए ? तुम्हारा पहले जैसा धैर्य कहाँ गया ?पहले किसी भी कष्ट को न गिनने वाले तुम अब ऐसे किस बड़े कष्ट क भय से भागते हो उसे कहो ,तुम किसी के भी कहने से मोह भ्रम में नहीं पड़ते थे ,आज किसके कहने से बिक्षिप्त के समान भागे  जाते हो ?वह धीर साहसी पुरुष मेघ के समान गंभीर स्वर से कहने लगा हे मेरे सुहृज्जनों ! जैसे आंखें शब्द को देख  नहीं सकती ,उसी तरह तुम भौतिक दृष्टि वाले आत्मा को नहीं देख सकते इसी कारण ऐसा कहते हो ? क्योंकि यहाँ जगत में क्या भय है  इसे तुम नहीं जानते जैसे स्वच्छ आईने में स्पष्ट रूप दीखता है वैसे ही ज्ञानी जन विनाशी जगत तथा अविनाशी आत्मा को देखते है और वे ही इस भय को जानते हैं अब तुम मुझे-धीर ऐसी कोई उपमा न दो क्योकि जब से मैंने सब वीरों को अपने एक ही पंजे में पकड़ लेने वाले सर्वोपरि वीर को देखा है तब से मेरे वीरत्व का अभिमान चूर हो गया ,और मेरी वृत्तियों ने धीरज भी त्याग दिया है इसलिए अब मैं धीर-वीर न होकर यह जो तुम देख रहे हो तदनुसार एक पथिक हूँ सिर पर झूलते हुए भारी भय से बचने के लिए प्रयत्न कर रहा हूँ।
                  इसी जगत में एक श्रेय और एक प्रेय है मैं जानता हूँ कि श्रेय क्या है ,प्रेय नाना प्रकार के अर्थ में फंसाकर हर्ष पैदा करता है ,जो श्रेय की शरण में जाता है उसी का भला होता है ,तुम जो कहते हो कि मैंने तुम्हारा पालन पोषण किया वह सत्य नहीं है क्योंकि तुम्हारा तो क्या ,परन्तु स्वयं  अपना रक्षण करने को मैं समर्थ नहीं वास्तव में मुझसे तुम्हारा या मेरा किसी का भी रक्षण नहीं हो सका ,रक्षण उसे कहते हैं जिसके सहारे सदा के भय से छुटकारा हो ,परन्तु हम सब तो अभी भारी भय में ही है और इसी से मेरा किसी  मन व्यग्र (चिंतातुर) है जिस भय से मैं भागता हूँ उस भय से तुम मुझे नहीं छुड़ा सकते ,जब से मैंने महा संकट को देखा है तबसे मैं सब तरह से बिक्षिप्त हो गया हूँ भय से जैसे शरीर की दशा हो गयी है
                  अब तक मैं इस मोह भ्रम  सचेत हो गया हूँ मेरी भलाई किस में है मैंने प्रत्यक्ष देखा है और उसके लिए मुझे जो अब करना चाहिए उसके लिए बिलकुल साबधान हो गया हूँ इसलिए यदि तुम्हे अपने कल्याण की कामना हो तो  देर न करो मेरे साथ शीघ्र ही चलो नहीं तो बस नमस्कार !जय जय हरि !  अब तो मैं अकेले ही जाऊंगा। "
                ऐसा उपदेश देकर वह रवाना हुआ ,उसकी स्त्री पागल के समान करुण स्वर से बोलती हुई उसके पीछे पीछे दौड़ी "हे स्वामीनाथ ! कृपा करो , हे महाराज ! बिना किसी विकार वाले आपके मन को क्या हुआ है ? हे  रक्षक !कृपाकर ऐसा  अनुचित काम न करो।
                 वह धीर पुरुष बोला :-"हे स्त्री !यह कैसा मोह यही मोह है कि तू अपने जाति स्वाभाव के वश होकर अपना और मेरा दोनों का नाश करना चाहती है जन्म रूप तालाब में पड़ी हुई ,चित्तरूप की जड़ में फँसी हुई ,मनुष्य रूप मछली को फंसाने के लिए ,दुर्वासना डोर और स्त्री उस डोर में लगा हुआ मांस पिंड है (मछली का भक्ष्य )है उसमे मुग्ध और  बंधा हुआ जीव , तरने तारने क प्रत्यक्ष साधन होते भी उन्हें उन्हें नहीं देख सकता वह विषय में ही माया में ही गिरता है और तरह विषयों में गिरने ,ध्यान लगाने से उसमे आसक्ति होती है आसक्ति से काम ,काम से क्रोध , क्रोध से मोह ,मोह से स्मृति भ्रम ,स्मृति भ्रम से बुद्धि नष्ट होती है बुद्धि नष्ट होते ही विनाश होता है इस लोक में ऐसा विनाश करने वाली अज्ञान स्त्री ही है जिसके स्त्री है उसे भोग की इच्छा है स्त्री नहीं भोग नहीं ?स्त्री का त्याग करने से जगत का त्याग  होता है और जगत का का त्याग  होने से सुख होता है ,सच्चरित्रवती  स्त्री  की की आसक्ति से  भी लोग पतित हुए हैं तो विषय आसक्त स्त्री की तो बात ही क्या कही जाए ? किसी भारी भय में स्त्री पुरुष के पुरुषार्थ को कमजोर कर देती है जिससे पुरुष उपस्थित भय के चंगुल में जा पड़ता है। हे स्त्री ! ऐसा करने से तू ,तेरे और मेरे दोनों के आत्मा का अनिष्ट करेगी। तू मुझे छोड़ दे ,जहाँ जा रहा हूँ वहाँ जाने दे अगर  तुझे अपना कल्याण करना है तो मेरे साथ चल और अपने आत्मा का कल्याण कर ,कल्याण में संशय करने वाले आत्मा को कहीं सुख नहीं इससे अधिक और क्या कहूँ ,जो ज्ञानी है वो जानता है कि अपना शरीर रूप जो विशाल नगर है ,वह एक उपवन की भाँति भोग ,मोक्ष और सुख के लिए है दुःख के लिए नहीं ,स्त्री का सुख यदि विषय के लिए हो तो वह मेरे नाश का उपाय है मृग ,हाथी ,पतंगे ,मछली और भ्रमर ये पाँच एक एक इन्द्रिय के विषय सुख में लुब्ध होने से नष्ट होते हैं तो फिर प्रमादी मनुष्य पाँच इन्द्रियों से एक साथ पाँच विषयों का सेवन करने से क्यों न नष्ट हों ! अब सब माया का आवरण दूर करो !यह आत्मा स्वतंत्र है  पराधीनता का दुःख नहीं भोगेगा।"
                यह सुन वह स्त्री स्वतः पूछने लगी :-स्वामी नाथ !आपके सर पर ऐसा कौन सा भारी संकट आ पड़ा है जिससे एकाएक त्यागकर चले जाते हो ? इसके उत्तर में वह महात्मा पुरुष बोला :-"अरे संकट तो ऐसा है कि जिसका किसी से निवारण न हो सके ,यह संकट सिर्फ मेरे सर पर नहीं ,परन्तु सारे  जगतनगर के सर पर दाँत लगाकर झूल रहा है ,इतना कहकर अत्यंत भय पैदा करने वाला और प्रत्यक्ष देखा हुआ काल पुरुष का सबका भक्षण रूप महाभीषण कर्म  उसने आदि से अंत तक कह सुनाया ,मैं भी उस काल पुरुष के मुँह में जा पड़ा था किन्तु किसी पूर्व के शुभ कर्म से ही मुक्त हुआ हूँ और वहीँ से मुझे इस निर्भय पथ के के अबलम्बन करने की प्रेरणा हुई है उस जगत भक्षण ने मुझे सत्य-सत्य वचन दिया है कि 'अच्युत पथ' (जिसे परब्रह्म मार्ग भी कहते हैं ) जैसे पवित्र मार्ग के आश्रय करने वालों को मेरा कोई भय नहीं रहता क्योकि यह मार्ग कभी भी नाश न होने वाले परम सुख अच्युत पुर का है उस पुर में जो जा वास्ता है वह विनाशी नहीं होता ,इसलिए हे कुटुम्बी जनों मोह प्राप्त क्षुद्र नाश होने वाले जीवों !महापुण्य रूप धन देकर यह शरीर रूप नाव  खरीद की है ,वह जब तक नहीं टूटती ,तब तक उसके द्वारा भय रूप दुःख  दरिया पार न करलो।
              इस तरह महात्मा के मुख से कालपुरुष का भयंकर समाचार सुन सब लोग भयभीत हो गए कई तो उसके साथ जाने को तैयार हो गए  परन्तु अनेक माया ,ममता और क्षण भंगुर भोग में लिप्त प्रमादी लोग सोचने लगे हाय मेरा परिवार , मेरी स्त्री ,मेरे बच्चे ,मेरा धन ,  मेरा घर इन सबको  त्यागकर कैसे निकला जा सके ?जो होगा देखा जाएगा ,यह काल और त्रास क्या है ,यह सब भ्रम मात्र है। "
                इस तरह अनेक जीव काल की वलि होने और अनेक योनियों के भारी दुःख भोगने को वहीँ पड़े रहे क्योंकि वह आत्मघाती थे वह धीर पुरुष पथिकों सहित श्री अच्युतपुरपति के नाम की जयध्वनि करके वहाँ से चलने लगा वह महात्मा पथिकों  है कि चलो शीघ्र चलो।











Thursday, 6 April 2017

अच्युतपथ पीठ- कालक्रीड़ा

                              -: अच्युतपथ पीठ- कालक्रीड़ा :-


विमान की लीला नवीनता लिए थी वहाँ गुरु वामदेव जी के सामने महाराजा बरेप्सु आदि सब मुमुक्षु जीव सन्ध्यादिकर्म से निवृत होकर अपने अपने आसनों पर बैठ गुरु के मुँह से झरते हुए ,अमृतमय शब्दों का पान करने के लिए तत्पर हो रहे थे ,वहाँ निद्रा -तन्द्रा का नाम भी नहीं था। गुरु वामदेव के माता पिता भी इस ईश्वर तुल्य महात्मा पुत्र के कैसे अदभुत कार्य से आनंद सहित आश्चर्य में मग्न और कृत्यकृत्य होकर भगवत भजन  करते थे। 
                 बीच सिंहासन पर वैठे  हुए गुरुदेव की स्तुति वंदना कर दिव्य रूप पाए हुए वे सब लोग अपनी अत्यंत मधुर दिव्य वाणी से एक साथ  उत्तम स्वर और ताल से ईश्वर के गुणगान करने लगे दिव्य बाजों का स्वाभाविक ताल स्वर से बजना , दिव्य देह धारी मुमुक्षु जीवों का पूर्ण प्रेम से गाना ,और परमपुण्य रूप श्री हरि के नाम और गुणों से अलंकृत हुई उनकी वाणी निकलना ये सब चीज़े जहाँ एकत्र हों वहां के आनंद का क्या पूछना ?यह कीर्तन आनंद इतना बढ़ा कि हम कौन हैं,कहाँ आये हैं और कैसी स्तिथि में हैं ये भान भी वह लोग भूल गए परम देव की जय जय ध्वनि के साथ कीर्तन समाप्त हुआ सब लोग गुरु को प्रणाम कर आसान पर वैठ गए। जगतनगर में  चमत्कार होते हैं यह देखने के लिए सब मुमुक्षु, बलवती जिज्ञासा से तैयार होकर बैठे।
                 गुरु वामदेव जी अपने माता पिता को प्रणाम कर और बरेप्सु आदि को संबोधन कर बोले :-"नीचे क्या लीला हो रही है उसे सब लोग देखो "बरेप्सु हाथ जोड़कर बोले :- "कृपानाथ ! नीचे तो सब अंधकारमय है गुरु जी बोले नहीं ऐसा नहीं है ,सूक्ष्म दृष्टि से देखो वहां अनेक प्रकार के व्यवहार हो रहे हैं जगत के उन एकांतिक योगी और महात्माओं  आरम्भ हुआ है वे अब एकाग्र और एकांत चित्त से वृत्तियों को एकत्र कर  साधन रूप कार्य करने को तैयार हो गए हैं  परम शांत है किसी को दुखी करने वाली नहीं है ,तमो गुणी प्राणियों को भी देखो  अन्धकार में अपने अपने भक्ष्य की खोज में लगे हुए हैं ,मनुष्य बर्ग के बिषय लंपट प्राणियों को देखो वे बिषय भोगी एकांत विलास में मगन हो रहे हैं वे इसी को  जन्म की सफलता समझ रहे हैं बहुत से उन जीवों को भी देखो जो महारोग से पीड़ित हैं वे अपने सर पे  हाथ रख अपने कर्मों का पश्चाताप करते हैं ,यह सुन,वे सब पूण्य भोगी लोग , जो अपनी दिव्य दृष्टि द्वारा यह सब दृश्य देख रहे थे , बोले :-"हाँ गुरु महाराज !अरे सब दुःख रूप ही है उन सबसे अंत में सत्यलोग से पतन ही होता है बिषयों में फंसे हुए जीव यह नहीं जान सकेंगे कि मोक्ष का मार्ग कौन सा है ?
                 आशा ,तृष्णा , काम  , क्रोध , लोभ , मोह, मद , अहंकार  में  लीन जीव अनेक प्रकार से दुखी हैं जहाँ देखो वहीँ केवल दुखमय ही व्यवहार हो रहे हैं दिन को अत्यंत शोभायुक्त दिखने वाला यह जगतनगर रात  को दुःख का स्थान बन रहा है सिर्फ वे जितेन्द्रिय ब्रह्मनिष्ठ महात्मा योगी ही निर्भय मालूम होते हैं सिर्फ उन्ही की क्रियाएं ऐसी हैं जो किसी  का उपकार नहीं करतीं वैसे ही उन क्रियाओं का फल भी अखंड सुख है।
                 गुरु जी महाराज ये दूसरे प्राणी जो किसी तरह की चिंता या दुःख सिर पर न होने से सुख से सोये हुए हैं ये प्राणी सुखी हैं न ! यह सुन वामदेव जी बोले :-"यह कैसे कहा जाए ?प्रत्यक्ष मालूम हो रहा है कि उनके सर पर जो काल रूप बहुत बड़ा संकट जो झूल रहा है वे प्रत्यक्ष संकट के मुँह में पड़े हुए हैं इस  बचने की आशा तो उन महात्मा योगियों को है, इस सम्पूर्ण नगर पर आने वाली भीषण बिपत्ति को वे जानते हैं और  मुक्त होने के लिए सतत अविराम महाप्रयत्न किया ही करते हैं।
                 गुरुदेव के ये वचन सुनकर सब भक्त लोग विस्मित होकर पूछने लगे की "कृपानाथ! ऐसा कौन सा संकट इस अचल नगर के ऊपर झूल रहा है ? यह प्रश्न पूछने के बाद ही तुरंत ही गुरुदेव हाथ फैलाकर बोले :-"काल" यही इस जगतनगर का अनिवार्य संकट है उस काल का रंग श्याम होने से ऐसा दीखता था मानो काजल का विशाल पर्वत हो ,उसके मुँह का आकर बहुत भयंकर था और इस भयंकर मुँह से भोजन करने के लिए वह इधर उधर जाता था ,इस बिकराल पुरुष ने अपना भीषण कार्य प्रारम्भ किया,वह सुप्त जगतनगर के सोये और जागते हुए प्राणियों को मुँह में डालने लगा।
                ऐसा भयंकर प्रसंग देख वे विमान स्तिथि लोग बहुत भयभीत हो गए और हाथ जोड़कर गुरुदेव को प्रणाम कर विनय करने लगे कि ," हे कृपानाथ ! यह क्या ? अरे यह कैसा घातक प्रसंग है ?यह बिकराल पुरुष तो सबका नाश करता है ,सारा जगतनगर तो क्या ,यह सारा आकाश और आकाश में अधर रहने वालायह पशु ,पक्षी ,जलचर और थलचर आदि सब प्राणियों में से किसी को भी नहीं छोड़ता ,ऐसा मालूम  होता है मानो चर और अचर सभी सृष्टि उसका लक्ष्य है ,ऐसा महात्रासदायक दृश्य हमसे देखा नहीं जाता। "
                 भयभीत हुए पुण्यश्लोक जनों से प्रेमपूर्वक बटुक जी ने कहा :-"हे पुन्यजनों ! हम सब उसके मुँह में हैं  सही  और हमको भी इन सबकी तरह नष्ट होने में बिलंब नहीं लगेगा ,परंतु तुम्हारे पास श्रद्धा ,भक्ति और आत्मज्ञान ये तीन पार्षद खड़े हुए हैं ,तुम इच्छानुगामी दिव्य विमान में  बैठे हुए हो ,इसलिए तुम्हे किसी तरह भयभीत होने का कारण नहीं है जो हो रहा है उसे  निर्भीक होकर देखो ,परंतु इससे तुम्हे जानना चाहिए कि कोई चाहे कोई सोता हो जागता हो उसका  सपाटे में नाश ही हुआ करता है सिर्फ वे ही लोग तैरते हैं जो आत्मयोगी हैं। अब देखो वह एक साहसी मृत्यु पर विजय प्राप्त करके उसके मुख से छटक कर खड़ा है और दोनों हाथ जोड़कर विनय करता है और भक्षक उसे छोड़कर उसकी विनती सुनता है ,तुम सब भी शांतचित्त उसे सुनो,
                 वह धीर गंभीर पुरुष एक योगी था एकांत क्रिया करने वाला वह ,विश्वव्यापी भक्षक को प्रणाम कर बोला :-"अहो देव ! सब भक्षण करने वाले देव ! आप कौन हैं ?क्या आप जगत के संहार करने वाले "रुद्रदेव" हो ?या पापियों को दंड देने वाले यमराज हो ?या भस्मीभूत करने वाले अग्निदेव हो ? हे भयंकर देव ! तुम्हारे डर से मैं स्वयं तुम्हारी शरण में आया हूँ ,आप कौन हैं ? ऐसा भीषण तथा संहारकारी कर्म करने के लिए क्यों उधत हुए हैं ? शरण में आने वाले का नाश महा अज्ञान क्रूर प्राणी भी नहीं करता ,अतः आपको भी मेरा नाश करना उचित नहीं ,इसके उत्तर में विश्वव्यापी भक्षक गंभीर वाणी से बोला ,"हे साधु ! हे परमार्थ परायण  योगी मैं इस जगत का स्वामी हूँ मेरा नाम काल है और मेरा नैतिक कर्तव्य यह है कि सबका अन्त करूँ यह सारा संसार मेरा भक्ष्य है देव ,दानव ,मनुष्य ,चर ,अचर ,स्थावर ,जंगम,सबका मैं ही काल हूँ और मैं ही संहार करता हूँ मेरा काम कभी नहीं रुकता एक ओर से मेरा नूतन आहार उत्पन्न होता है और दूसरी ओर से समय आते ही मैं उसका भक्षण करता हूँ तो भी मुझे कोई नहीं जानता सिर्फ तेरे जैसा कोई परमार्थ परायण जिसका अंतःकरण परमात्मा के लिए पवित्र हुआ और जिसकी दृष्टि दिव्य हुई है  मुझको जान और देख सकते हैं।
                   यह सुन उस धीर वीर पुरुष साधू ने पूछा :-"हे भगवन !कालपुरुष ! हे जगत भक्षक !यदि तुम्हारा कर्तव्य तरह सब चराचर का भक्षण रूप नाश ही करना है तब तो बड़ा पापकर्म है ,हे देव ! घातक कर्म को आप प्रिय मानते हैं ? मुझ पर रुष्ट न होकर मेरे इस प्रश्न का उत्तर देकर मेरा समाधान करें।
 कालपुरुष ने कहा :-"यह मेरी क्रीड़ा है" महात्मा ने पूछा :-" हे देव !यह कैसे ?काल पुरुष ने कहा :-"हाँ यह समस्त जगत मुझसे ही पैदा हुआ है मुझमे ही स्थित है और मुझमे ही लय होगा ,सारा जगद्रूप मैं ही हूँ मैं एक होते भी अनेक रूप में ब्याप्त हूँ मैं कर्ता ,भोक्ता,और संहार करता हूँ  मैं विश्वव्यापी हूँ विश्व मुझमे और मैं विश्व में हूँ   यह सब  मेरी ही माया है मुझे ज्ञान दृष्टि से देखो तो मैं कृषिकार हूँ और जगतनगर मेरी कृषि है ,किसान खेती को बोता ,सींचता ,रक्षा करता और पक जाने पर उसे काट लेता और भक्षण भी करता है।
                   महात्मा ने कहा :-"हे प्रभु ! चाहे जो हो आपकी लीला आप  जानें ,मुझे तो बड़ी चिंता है कि चराचर प्राणियों का समूह क्या इसी तरह पिस कर मरने के लिए पैदा किया गया है ? क्या इसकी दूसरी गति नहीं है क्या आप दया शून्य हैं या किसी दया पात्र प्राणी को आप अपने भक्षण से मुक्त नहीं करते ? कालपुरुष ने  उत्तर दिया :-"हे निष्पाप ! किसी को मैंने चिंता करने के लिए रखा ही नहीं ,जो ज्ञानवान  प्राणी हैं उन्हें तो बिलकुल ही स्वतंत्रता दी है जिससे वे स्वयं अपने कल्याण-सुख का मार्ग खोज लें मैं दया हीन नहीं हूँ मैंने उनके लिए पहले से ही कल्याण का मार्ग बनाकर खुला छोड़ दिया  ऐसे न्याय युक्त नियम बनाये हैं कि भली भांति पालन करने वाले प्राणियों का मैं भी कुछ नहीं कर सकता ,बल्कि मुझे उनका सहायक होना पड़ता है क्योंकि जो मेरे नियमों का अधीन हो मुझे भजते हैं ,मैं उन्हें भजता हूँ  अर्थात जो मुझमे लीन रहते हैं वे मुझमे ही लीन होते हैं ,मेरा निर्मित मार्ग बहुत दृढ़ ,पवित्र ,पुरातन , सनातन है यह सनातन मार्ग जिज्ञासा रहित प्राणी के लिए बिल्कुल गुप्त है मनुष्य भूल न जाये इसलिए मैंने ये सनातन मार्ग अविनाशी ग्रंथों में वर्णन किया है वे पवित्र ग्रन्थ लोगों के उपकारार्थ प्रचलित भी हैं जो अभागी -प्रमादी पुरुष अपने कल्याण का प्रचलन न करें ,वह नष्ट होने के लिए मेरे मुँह में आ पड़ते हैं तो इसमें क्या आश्चर्य है ? इन ग्रंथों में मुक्ति मार्ग भी बताया गया है।
                   यह सुन ,उस धीर महात्मा ने विनय की :-दयामय ! वह पवित्र मार्ग कौनसा है कि जिसका अनुशरण करने से इस संकट से छुटकारा  होता है ?हे देव !मुझे बताओ इस मार्ग में जाने से अंत में कहाँ पहुचना होता है और भयमुक्त होता है।
                  काल रूप प्रभु ने कहा :- "हे धीर ! यह मार्ग बहुत गहन और दुर्घट नहीं है यह टेढ़ा मेढ़ा मार्ग होने पर भी अविद्या से मुक्त  और विद्या से संयुक्त पुरुष को यह मार्ग परम सुखकारक हो जाता है इस मार्ग का नाम "अच्युत पथ" है ,इस पथ के परे अक्षर ,अविनाशी ,अच्युतपुर  में जाना होता है वहां सिर्फ निरामय (निरोग) अखंड सुखमय और विनाश रहित सचिदानंद घनश्याम स्वरुप अच्युत प्रभु ,एक रस ,एकाकार , अभेदरूप ,चिन्मात्र  ,परब्रह्म ,परमात्मा ,शेषशायी नारायण रूप से मैं निवास करता हूँ,यही मेरा मुख्य और मूलरूप है इन अच्युत परब्रह्म के शरण में जाकर निवास करनेवाले को किसी तरह  नहीं रहता। "
                      यह सुन महात्मा ने पुछा :- आप एक हो और रस होते हुए भी परस्पर बिरुद्ध स्वभाव वाले अनेक रूपों से प्रकट हो आपकी इस चमत्कार पूर्ण बिलक्षण विश्वलीला को कोई भी नहीं जान सकता परंतु हे देव मुझे यह बताओ कि आपके इस अच्युत पथ में जो बहुत सी भूल भुलैयाँ हैं उनसे किन साधनों से पथिक बच सकता है।
                      काल पुरुष ने कहा :-"इन भूल भुलैयाँ और लालचों से बचने के लिए 'पथदर्शिका' एक श्रेष्ठ साधन है जो मेरे प्रकट किये हुए अनेक ग्रंथों में से उद्यत्कि की हुई है , मेरा ही होने वाला ,मेरे लिए ही निर्मित किये हुए मार्ग से चलने वाला सचेत पथिक ,इस साधना को सतत अपने ह्रदय में रखता है उसकी पवित्र गाथाओं को प्रेम से रात दिन गान करते ,उसमे  बतलाये हुए मार्ग में चला जाता है फिर कोई भी मुमुक्षु किसी भी बुलावे या लालच में नहीं फंसता है। पथिकों की कल्याणकारिणी ,मुक्ति दात्री यह पथबोधनी लोक में "गीता " के नाम से प्रसिद्ध है। हे वत्स !  पथबोधिनी ह्रदय में होने पर भी यदि मार्ग में कठनाइयों या प्रमाद के कारण कोई पथिक भटक कर बड़ी अड़चन में आ जाये तो उसका उद्धार कर मार्ग बताने के लिए बहुत से ऐसे पथदर्शक हैं जो गुरु ,सद्गुरु ,संत-महात्मा आदि नामों से लोकों में  प्रसिद्द हैं वे स्वाभाव से अत्यंत परोपकारी दयाशील और सज्जनता के सब गुणों से युक्त है ,हे साधु ! तू भी वैसे ही महात्माओं के समान शुभ गुणों से युक्त है और इसी से दयापात्र होकर मेरे मुख से सुरक्षित बच गया है तुझे यदि सदा के लिए निर्भय होना है तो क्षनिक स्तिथि वाले ,नाशवंत और भक्ष्य रूप इस जगत नगर के रहने का लालच त्याग कर शीघ्र इस अभय पथ का पथिक बन ,तुझे जानना चाहिए कि यही पथ कल्याणकारी  है यह तू जनता है कि मैं काल का भी काल हूँ ,विश्व का कारण हूँ ,सृष्टि का तारण हूँ इससे मैं तुझपर प्रसन्न हूँ यहाँ से शीघ्र चला जा।
                    यह अंतिम शब्द बोलते ही उस कालपुरुष का स्वरुप बहुत ही बिकराल हो गया वह चारों ओर से प्राणियों को उठा उठा कर मुँह में डालने लगा ऐसा भयंकर काल रूप अपार त्रास दायक घोर संहार देख वह महात्मा धीर पुरुष एकाएक  बाबला  बन गया और घबरा कर वहाँ से भागा ,परन्तु भागते समय ठोकर खाकर जमीन पर गिर पड़ा  और अचेत हो गया।
                    ऐसा दृश्य देखकर  आकाशस्थित विमानवासियों के भी होश उड़ने लगे और घबराकर एक साथ बोल उठे ,हे गुरुमहाराज ! हे कृपानाथ !रक्षा करो ,रक्षा करो यह काल देव तो किसी को भी नहीं छोड़ता , कृपालु गुरुदेव रक्षा कीजिये , रक्षा कीजिये इस महाभयंकर काल क्रीड़ा को हम देख नहीं सकते ,हमें किसी निर्भय स्थान पर ले चलिए "हे गुरुदेव" ,ऐसी प्रार्थना सुन महात्मा बटुक वामदेव जी ने  तुरंत ही वहां से विमान चलाने की आज्ञा दी।