-: अच्युतपथ पीठ- कालक्रीड़ा :-
विमान की लीला नवीनता लिए थी वहाँ गुरु वामदेव जी के सामने महाराजा बरेप्सु आदि सब मुमुक्षु जीव सन्ध्यादिकर्म से निवृत होकर अपने अपने आसनों पर बैठ गुरु के मुँह से झरते हुए ,अमृतमय शब्दों का पान करने के लिए तत्पर हो रहे थे ,वहाँ निद्रा -तन्द्रा का नाम भी नहीं था। गुरु वामदेव के माता पिता भी इस ईश्वर तुल्य महात्मा पुत्र के कैसे अदभुत कार्य से आनंद सहित आश्चर्य में मग्न और कृत्यकृत्य होकर भगवत भजन करते थे।
बीच सिंहासन पर वैठे हुए गुरुदेव की स्तुति वंदना कर दिव्य रूप पाए हुए वे सब लोग अपनी अत्यंत मधुर दिव्य वाणी से एक साथ उत्तम स्वर और ताल से ईश्वर के गुणगान करने लगे दिव्य बाजों का स्वाभाविक ताल स्वर से बजना , दिव्य देह धारी मुमुक्षु जीवों का पूर्ण प्रेम से गाना ,और परमपुण्य रूप श्री हरि के नाम और गुणों से अलंकृत हुई उनकी वाणी निकलना ये सब चीज़े जहाँ एकत्र हों वहां के आनंद का क्या पूछना ?यह कीर्तन आनंद इतना बढ़ा कि हम कौन हैं,कहाँ आये हैं और कैसी स्तिथि में हैं ये भान भी वह लोग भूल गए परम देव की जय जय ध्वनि के साथ कीर्तन समाप्त हुआ सब लोग गुरु को प्रणाम कर आसान पर वैठ गए। जगतनगर में चमत्कार होते हैं यह देखने के लिए सब मुमुक्षु, बलवती जिज्ञासा से तैयार होकर बैठे।
गुरु वामदेव जी अपने माता पिता को प्रणाम कर और बरेप्सु आदि को संबोधन कर बोले :-"नीचे क्या लीला हो रही है उसे सब लोग देखो "बरेप्सु हाथ जोड़कर बोले :- "कृपानाथ ! नीचे तो सब अंधकारमय है गुरु जी बोले नहीं ऐसा नहीं है ,सूक्ष्म दृष्टि से देखो वहां अनेक प्रकार के व्यवहार हो रहे हैं जगत के उन एकांतिक योगी और महात्माओं आरम्भ हुआ है वे अब एकाग्र और एकांत चित्त से वृत्तियों को एकत्र कर साधन रूप कार्य करने को तैयार हो गए हैं परम शांत है किसी को दुखी करने वाली नहीं है ,तमो गुणी प्राणियों को भी देखो अन्धकार में अपने अपने भक्ष्य की खोज में लगे हुए हैं ,मनुष्य बर्ग के बिषय लंपट प्राणियों को देखो वे बिषय भोगी एकांत विलास में मगन हो रहे हैं वे इसी को जन्म की सफलता समझ रहे हैं बहुत से उन जीवों को भी देखो जो महारोग से पीड़ित हैं वे अपने सर पे हाथ रख अपने कर्मों का पश्चाताप करते हैं ,यह सुन,वे सब पूण्य भोगी लोग , जो अपनी दिव्य दृष्टि द्वारा यह सब दृश्य देख रहे थे , बोले :-"हाँ गुरु महाराज !अरे सब दुःख रूप ही है उन सबसे अंत में सत्यलोग से पतन ही होता है बिषयों में फंसे हुए जीव यह नहीं जान सकेंगे कि मोक्ष का मार्ग कौन सा है ?
आशा ,तृष्णा , काम , क्रोध , लोभ , मोह, मद , अहंकार में लीन जीव अनेक प्रकार से दुखी हैं जहाँ देखो वहीँ केवल दुखमय ही व्यवहार हो रहे हैं दिन को अत्यंत शोभायुक्त दिखने वाला यह जगतनगर रात को दुःख का स्थान बन रहा है सिर्फ वे जितेन्द्रिय ब्रह्मनिष्ठ महात्मा योगी ही निर्भय मालूम होते हैं सिर्फ उन्ही की क्रियाएं ऐसी हैं जो किसी का उपकार नहीं करतीं वैसे ही उन क्रियाओं का फल भी अखंड सुख है।
गुरु जी महाराज ये दूसरे प्राणी जो किसी तरह की चिंता या दुःख सिर पर न होने से सुख से सोये हुए हैं ये प्राणी सुखी हैं न ! यह सुन वामदेव जी बोले :-"यह कैसे कहा जाए ?प्रत्यक्ष मालूम हो रहा है कि उनके सर पर जो काल रूप बहुत बड़ा संकट जो झूल रहा है वे प्रत्यक्ष संकट के मुँह में पड़े हुए हैं इस बचने की आशा तो उन महात्मा योगियों को है, इस सम्पूर्ण नगर पर आने वाली भीषण बिपत्ति को वे जानते हैं और मुक्त होने के लिए सतत अविराम महाप्रयत्न किया ही करते हैं।
गुरुदेव के ये वचन सुनकर सब भक्त लोग विस्मित होकर पूछने लगे की "कृपानाथ! ऐसा कौन सा संकट इस अचल नगर के ऊपर झूल रहा है ? यह प्रश्न पूछने के बाद ही तुरंत ही गुरुदेव हाथ फैलाकर बोले :-"काल" यही इस जगतनगर का अनिवार्य संकट है उस काल का रंग श्याम होने से ऐसा दीखता था मानो काजल का विशाल पर्वत हो ,उसके मुँह का आकर बहुत भयंकर था और इस भयंकर मुँह से भोजन करने के लिए वह इधर उधर जाता था ,इस बिकराल पुरुष ने अपना भीषण कार्य प्रारम्भ किया,वह सुप्त जगतनगर के सोये और जागते हुए प्राणियों को मुँह में डालने लगा।
ऐसा भयंकर प्रसंग देख वे विमान स्तिथि लोग बहुत भयभीत हो गए और हाथ जोड़कर गुरुदेव को प्रणाम कर विनय करने लगे कि ," हे कृपानाथ ! यह क्या ? अरे यह कैसा घातक प्रसंग है ?यह बिकराल पुरुष तो सबका नाश करता है ,सारा जगतनगर तो क्या ,यह सारा आकाश और आकाश में अधर रहने वालायह पशु ,पक्षी ,जलचर और थलचर आदि सब प्राणियों में से किसी को भी नहीं छोड़ता ,ऐसा मालूम होता है मानो चर और अचर सभी सृष्टि उसका लक्ष्य है ,ऐसा महात्रासदायक दृश्य हमसे देखा नहीं जाता। "
भयभीत हुए पुण्यश्लोक जनों से प्रेमपूर्वक बटुक जी ने कहा :-"हे पुन्यजनों ! हम सब उसके मुँह में हैं सही और हमको भी इन सबकी तरह नष्ट होने में बिलंब नहीं लगेगा ,परंतु तुम्हारे पास श्रद्धा ,भक्ति और आत्मज्ञान ये तीन पार्षद खड़े हुए हैं ,तुम इच्छानुगामी दिव्य विमान में बैठे हुए हो ,इसलिए तुम्हे किसी तरह भयभीत होने का कारण नहीं है जो हो रहा है उसे निर्भीक होकर देखो ,परंतु इससे तुम्हे जानना चाहिए कि कोई चाहे कोई सोता हो जागता हो उसका सपाटे में नाश ही हुआ करता है सिर्फ वे ही लोग तैरते हैं जो आत्मयोगी हैं। अब देखो वह एक साहसी मृत्यु पर विजय प्राप्त करके उसके मुख से छटक कर खड़ा है और दोनों हाथ जोड़कर विनय करता है और भक्षक उसे छोड़कर उसकी विनती सुनता है ,तुम सब भी शांतचित्त उसे सुनो,
वह धीर गंभीर पुरुष एक योगी था एकांत क्रिया करने वाला वह ,विश्वव्यापी भक्षक को प्रणाम कर बोला :-"अहो देव ! सब भक्षण करने वाले देव ! आप कौन हैं ?क्या आप जगत के संहार करने वाले "रुद्रदेव" हो ?या पापियों को दंड देने वाले यमराज हो ?या भस्मीभूत करने वाले अग्निदेव हो ? हे भयंकर देव ! तुम्हारे डर से मैं स्वयं तुम्हारी शरण में आया हूँ ,आप कौन हैं ? ऐसा भीषण तथा संहारकारी कर्म करने के लिए क्यों उधत हुए हैं ? शरण में आने वाले का नाश महा अज्ञान क्रूर प्राणी भी नहीं करता ,अतः आपको भी मेरा नाश करना उचित नहीं ,इसके उत्तर में विश्वव्यापी भक्षक गंभीर वाणी से बोला ,"हे साधु ! हे परमार्थ परायण योगी मैं इस जगत का स्वामी हूँ मेरा नाम काल है और मेरा नैतिक कर्तव्य यह है कि सबका अन्त करूँ यह सारा संसार मेरा भक्ष्य है देव ,दानव ,मनुष्य ,चर ,अचर ,स्थावर ,जंगम,सबका मैं ही काल हूँ और मैं ही संहार करता हूँ मेरा काम कभी नहीं रुकता एक ओर से मेरा नूतन आहार उत्पन्न होता है और दूसरी ओर से समय आते ही मैं उसका भक्षण करता हूँ तो भी मुझे कोई नहीं जानता सिर्फ तेरे जैसा कोई परमार्थ परायण जिसका अंतःकरण परमात्मा के लिए पवित्र हुआ और जिसकी दृष्टि दिव्य हुई है मुझको जान और देख सकते हैं।
यह सुन उस धीर वीर पुरुष साधू ने पूछा :-"हे भगवन !कालपुरुष ! हे जगत भक्षक !यदि तुम्हारा कर्तव्य तरह सब चराचर का भक्षण रूप नाश ही करना है तब तो बड़ा पापकर्म है ,हे देव ! घातक कर्म को आप प्रिय मानते हैं ? मुझ पर रुष्ट न होकर मेरे इस प्रश्न का उत्तर देकर मेरा समाधान करें।
कालपुरुष ने कहा :-"यह मेरी क्रीड़ा है" महात्मा ने पूछा :-" हे देव !यह कैसे ?काल पुरुष ने कहा :-"हाँ यह समस्त जगत मुझसे ही पैदा हुआ है मुझमे ही स्थित है और मुझमे ही लय होगा ,सारा जगद्रूप मैं ही हूँ मैं एक होते भी अनेक रूप में ब्याप्त हूँ मैं कर्ता ,भोक्ता,और संहार करता हूँ मैं विश्वव्यापी हूँ विश्व मुझमे और मैं विश्व में हूँ यह सब मेरी ही माया है मुझे ज्ञान दृष्टि से देखो तो मैं कृषिकार हूँ और जगतनगर मेरी कृषि है ,किसान खेती को बोता ,सींचता ,रक्षा करता और पक जाने पर उसे काट लेता और भक्षण भी करता है।
महात्मा ने कहा :-"हे प्रभु ! चाहे जो हो आपकी लीला आप जानें ,मुझे तो बड़ी चिंता है कि चराचर प्राणियों का समूह क्या इसी तरह पिस कर मरने के लिए पैदा किया गया है ? क्या इसकी दूसरी गति नहीं है क्या आप दया शून्य हैं या किसी दया पात्र प्राणी को आप अपने भक्षण से मुक्त नहीं करते ? कालपुरुष ने उत्तर दिया :-"हे निष्पाप ! किसी को मैंने चिंता करने के लिए रखा ही नहीं ,जो ज्ञानवान प्राणी हैं उन्हें तो बिलकुल ही स्वतंत्रता दी है जिससे वे स्वयं अपने कल्याण-सुख का मार्ग खोज लें मैं दया हीन नहीं हूँ मैंने उनके लिए पहले से ही कल्याण का मार्ग बनाकर खुला छोड़ दिया ऐसे न्याय युक्त नियम बनाये हैं कि भली भांति पालन करने वाले प्राणियों का मैं भी कुछ नहीं कर सकता ,बल्कि मुझे उनका सहायक होना पड़ता है क्योंकि जो मेरे नियमों का अधीन हो मुझे भजते हैं ,मैं उन्हें भजता हूँ अर्थात जो मुझमे लीन रहते हैं वे मुझमे ही लीन होते हैं ,मेरा निर्मित मार्ग बहुत दृढ़ ,पवित्र ,पुरातन , सनातन है यह सनातन मार्ग जिज्ञासा रहित प्राणी के लिए बिल्कुल गुप्त है मनुष्य भूल न जाये इसलिए मैंने ये सनातन मार्ग अविनाशी ग्रंथों में वर्णन किया है वे पवित्र ग्रन्थ लोगों के उपकारार्थ प्रचलित भी हैं जो अभागी -प्रमादी पुरुष अपने कल्याण का प्रचलन न करें ,वह नष्ट होने के लिए मेरे मुँह में आ पड़ते हैं तो इसमें क्या आश्चर्य है ? इन ग्रंथों में मुक्ति मार्ग भी बताया गया है।
यह सुन ,उस धीर महात्मा ने विनय की :-दयामय ! वह पवित्र मार्ग कौनसा है कि जिसका अनुशरण करने से इस संकट से छुटकारा होता है ?हे देव !मुझे बताओ इस मार्ग में जाने से अंत में कहाँ पहुचना होता है और भयमुक्त होता है।
काल रूप प्रभु ने कहा :- "हे धीर ! यह मार्ग बहुत गहन और दुर्घट नहीं है यह टेढ़ा मेढ़ा मार्ग होने पर भी अविद्या से मुक्त और विद्या से संयुक्त पुरुष को यह मार्ग परम सुखकारक हो जाता है इस मार्ग का नाम "अच्युत पथ" है ,इस पथ के परे अक्षर ,अविनाशी ,अच्युतपुर में जाना होता है वहां सिर्फ निरामय (निरोग) अखंड सुखमय और विनाश रहित सचिदानंद घनश्याम स्वरुप अच्युत प्रभु ,एक रस ,एकाकार , अभेदरूप ,चिन्मात्र ,परब्रह्म ,परमात्मा ,शेषशायी नारायण रूप से मैं निवास करता हूँ,यही मेरा मुख्य और मूलरूप है इन अच्युत परब्रह्म के शरण में जाकर निवास करनेवाले को किसी तरह नहीं रहता। "
यह सुन महात्मा ने पुछा :- आप एक हो और रस होते हुए भी परस्पर बिरुद्ध स्वभाव वाले अनेक रूपों से प्रकट हो आपकी इस चमत्कार पूर्ण बिलक्षण विश्वलीला को कोई भी नहीं जान सकता परंतु हे देव मुझे यह बताओ कि आपके इस अच्युत पथ में जो बहुत सी भूल भुलैयाँ हैं उनसे किन साधनों से पथिक बच सकता है।
काल पुरुष ने कहा :-"इन भूल भुलैयाँ और लालचों से बचने के लिए 'पथदर्शिका' एक श्रेष्ठ साधन है जो मेरे प्रकट किये हुए अनेक ग्रंथों में से उद्यत्कि की हुई है , मेरा ही होने वाला ,मेरे लिए ही निर्मित किये हुए मार्ग से चलने वाला सचेत पथिक ,इस साधना को सतत अपने ह्रदय में रखता है उसकी पवित्र गाथाओं को प्रेम से रात दिन गान करते ,उसमे बतलाये हुए मार्ग में चला जाता है फिर कोई भी मुमुक्षु किसी भी बुलावे या लालच में नहीं फंसता है। पथिकों की कल्याणकारिणी ,मुक्ति दात्री यह पथबोधनी लोक में "गीता " के नाम से प्रसिद्ध है। हे वत्स ! पथबोधिनी ह्रदय में होने पर भी यदि मार्ग में कठनाइयों या प्रमाद के कारण कोई पथिक भटक कर बड़ी अड़चन में आ जाये तो उसका उद्धार कर मार्ग बताने के लिए बहुत से ऐसे पथदर्शक हैं जो गुरु ,सद्गुरु ,संत-महात्मा आदि नामों से लोकों में प्रसिद्द हैं वे स्वाभाव से अत्यंत परोपकारी दयाशील और सज्जनता के सब गुणों से युक्त है ,हे साधु ! तू भी वैसे ही महात्माओं के समान शुभ गुणों से युक्त है और इसी से दयापात्र होकर मेरे मुख से सुरक्षित बच गया है तुझे यदि सदा के लिए निर्भय होना है तो क्षनिक स्तिथि वाले ,नाशवंत और भक्ष्य रूप इस जगत नगर के रहने का लालच त्याग कर शीघ्र इस अभय पथ का पथिक बन ,तुझे जानना चाहिए कि यही पथ कल्याणकारी है यह तू जनता है कि मैं काल का भी काल हूँ ,विश्व का कारण हूँ ,सृष्टि का तारण हूँ इससे मैं तुझपर प्रसन्न हूँ यहाँ से शीघ्र चला जा।
यह अंतिम शब्द बोलते ही उस कालपुरुष का स्वरुप बहुत ही बिकराल हो गया वह चारों ओर से प्राणियों को उठा उठा कर मुँह में डालने लगा ऐसा भयंकर काल रूप अपार त्रास दायक घोर संहार देख वह महात्मा धीर पुरुष एकाएक बाबला बन गया और घबरा कर वहाँ से भागा ,परन्तु भागते समय ठोकर खाकर जमीन पर गिर पड़ा और अचेत हो गया।
ऐसा दृश्य देखकर आकाशस्थित विमानवासियों के भी होश उड़ने लगे और घबराकर एक साथ बोल उठे ,हे गुरुमहाराज ! हे कृपानाथ !रक्षा करो ,रक्षा करो यह काल देव तो किसी को भी नहीं छोड़ता , कृपालु गुरुदेव रक्षा कीजिये , रक्षा कीजिये इस महाभयंकर काल क्रीड़ा को हम देख नहीं सकते ,हमें किसी निर्भय स्थान पर ले चलिए "हे गुरुदेव" ,ऐसी प्रार्थना सुन महात्मा बटुक वामदेव जी ने तुरंत ही वहां से विमान चलाने की आज्ञा दी।
गुरु वामदेव जी अपने माता पिता को प्रणाम कर और बरेप्सु आदि को संबोधन कर बोले :-"नीचे क्या लीला हो रही है उसे सब लोग देखो "बरेप्सु हाथ जोड़कर बोले :- "कृपानाथ ! नीचे तो सब अंधकारमय है गुरु जी बोले नहीं ऐसा नहीं है ,सूक्ष्म दृष्टि से देखो वहां अनेक प्रकार के व्यवहार हो रहे हैं जगत के उन एकांतिक योगी और महात्माओं आरम्भ हुआ है वे अब एकाग्र और एकांत चित्त से वृत्तियों को एकत्र कर साधन रूप कार्य करने को तैयार हो गए हैं परम शांत है किसी को दुखी करने वाली नहीं है ,तमो गुणी प्राणियों को भी देखो अन्धकार में अपने अपने भक्ष्य की खोज में लगे हुए हैं ,मनुष्य बर्ग के बिषय लंपट प्राणियों को देखो वे बिषय भोगी एकांत विलास में मगन हो रहे हैं वे इसी को जन्म की सफलता समझ रहे हैं बहुत से उन जीवों को भी देखो जो महारोग से पीड़ित हैं वे अपने सर पे हाथ रख अपने कर्मों का पश्चाताप करते हैं ,यह सुन,वे सब पूण्य भोगी लोग , जो अपनी दिव्य दृष्टि द्वारा यह सब दृश्य देख रहे थे , बोले :-"हाँ गुरु महाराज !अरे सब दुःख रूप ही है उन सबसे अंत में सत्यलोग से पतन ही होता है बिषयों में फंसे हुए जीव यह नहीं जान सकेंगे कि मोक्ष का मार्ग कौन सा है ?
आशा ,तृष्णा , काम , क्रोध , लोभ , मोह, मद , अहंकार में लीन जीव अनेक प्रकार से दुखी हैं जहाँ देखो वहीँ केवल दुखमय ही व्यवहार हो रहे हैं दिन को अत्यंत शोभायुक्त दिखने वाला यह जगतनगर रात को दुःख का स्थान बन रहा है सिर्फ वे जितेन्द्रिय ब्रह्मनिष्ठ महात्मा योगी ही निर्भय मालूम होते हैं सिर्फ उन्ही की क्रियाएं ऐसी हैं जो किसी का उपकार नहीं करतीं वैसे ही उन क्रियाओं का फल भी अखंड सुख है।
गुरु जी महाराज ये दूसरे प्राणी जो किसी तरह की चिंता या दुःख सिर पर न होने से सुख से सोये हुए हैं ये प्राणी सुखी हैं न ! यह सुन वामदेव जी बोले :-"यह कैसे कहा जाए ?प्रत्यक्ष मालूम हो रहा है कि उनके सर पर जो काल रूप बहुत बड़ा संकट जो झूल रहा है वे प्रत्यक्ष संकट के मुँह में पड़े हुए हैं इस बचने की आशा तो उन महात्मा योगियों को है, इस सम्पूर्ण नगर पर आने वाली भीषण बिपत्ति को वे जानते हैं और मुक्त होने के लिए सतत अविराम महाप्रयत्न किया ही करते हैं।
गुरुदेव के ये वचन सुनकर सब भक्त लोग विस्मित होकर पूछने लगे की "कृपानाथ! ऐसा कौन सा संकट इस अचल नगर के ऊपर झूल रहा है ? यह प्रश्न पूछने के बाद ही तुरंत ही गुरुदेव हाथ फैलाकर बोले :-"काल" यही इस जगतनगर का अनिवार्य संकट है उस काल का रंग श्याम होने से ऐसा दीखता था मानो काजल का विशाल पर्वत हो ,उसके मुँह का आकर बहुत भयंकर था और इस भयंकर मुँह से भोजन करने के लिए वह इधर उधर जाता था ,इस बिकराल पुरुष ने अपना भीषण कार्य प्रारम्भ किया,वह सुप्त जगतनगर के सोये और जागते हुए प्राणियों को मुँह में डालने लगा।
ऐसा भयंकर प्रसंग देख वे विमान स्तिथि लोग बहुत भयभीत हो गए और हाथ जोड़कर गुरुदेव को प्रणाम कर विनय करने लगे कि ," हे कृपानाथ ! यह क्या ? अरे यह कैसा घातक प्रसंग है ?यह बिकराल पुरुष तो सबका नाश करता है ,सारा जगतनगर तो क्या ,यह सारा आकाश और आकाश में अधर रहने वालायह पशु ,पक्षी ,जलचर और थलचर आदि सब प्राणियों में से किसी को भी नहीं छोड़ता ,ऐसा मालूम होता है मानो चर और अचर सभी सृष्टि उसका लक्ष्य है ,ऐसा महात्रासदायक दृश्य हमसे देखा नहीं जाता। "
भयभीत हुए पुण्यश्लोक जनों से प्रेमपूर्वक बटुक जी ने कहा :-"हे पुन्यजनों ! हम सब उसके मुँह में हैं सही और हमको भी इन सबकी तरह नष्ट होने में बिलंब नहीं लगेगा ,परंतु तुम्हारे पास श्रद्धा ,भक्ति और आत्मज्ञान ये तीन पार्षद खड़े हुए हैं ,तुम इच्छानुगामी दिव्य विमान में बैठे हुए हो ,इसलिए तुम्हे किसी तरह भयभीत होने का कारण नहीं है जो हो रहा है उसे निर्भीक होकर देखो ,परंतु इससे तुम्हे जानना चाहिए कि कोई चाहे कोई सोता हो जागता हो उसका सपाटे में नाश ही हुआ करता है सिर्फ वे ही लोग तैरते हैं जो आत्मयोगी हैं। अब देखो वह एक साहसी मृत्यु पर विजय प्राप्त करके उसके मुख से छटक कर खड़ा है और दोनों हाथ जोड़कर विनय करता है और भक्षक उसे छोड़कर उसकी विनती सुनता है ,तुम सब भी शांतचित्त उसे सुनो,
वह धीर गंभीर पुरुष एक योगी था एकांत क्रिया करने वाला वह ,विश्वव्यापी भक्षक को प्रणाम कर बोला :-"अहो देव ! सब भक्षण करने वाले देव ! आप कौन हैं ?क्या आप जगत के संहार करने वाले "रुद्रदेव" हो ?या पापियों को दंड देने वाले यमराज हो ?या भस्मीभूत करने वाले अग्निदेव हो ? हे भयंकर देव ! तुम्हारे डर से मैं स्वयं तुम्हारी शरण में आया हूँ ,आप कौन हैं ? ऐसा भीषण तथा संहारकारी कर्म करने के लिए क्यों उधत हुए हैं ? शरण में आने वाले का नाश महा अज्ञान क्रूर प्राणी भी नहीं करता ,अतः आपको भी मेरा नाश करना उचित नहीं ,इसके उत्तर में विश्वव्यापी भक्षक गंभीर वाणी से बोला ,"हे साधु ! हे परमार्थ परायण योगी मैं इस जगत का स्वामी हूँ मेरा नाम काल है और मेरा नैतिक कर्तव्य यह है कि सबका अन्त करूँ यह सारा संसार मेरा भक्ष्य है देव ,दानव ,मनुष्य ,चर ,अचर ,स्थावर ,जंगम,सबका मैं ही काल हूँ और मैं ही संहार करता हूँ मेरा काम कभी नहीं रुकता एक ओर से मेरा नूतन आहार उत्पन्न होता है और दूसरी ओर से समय आते ही मैं उसका भक्षण करता हूँ तो भी मुझे कोई नहीं जानता सिर्फ तेरे जैसा कोई परमार्थ परायण जिसका अंतःकरण परमात्मा के लिए पवित्र हुआ और जिसकी दृष्टि दिव्य हुई है मुझको जान और देख सकते हैं।
यह सुन उस धीर वीर पुरुष साधू ने पूछा :-"हे भगवन !कालपुरुष ! हे जगत भक्षक !यदि तुम्हारा कर्तव्य तरह सब चराचर का भक्षण रूप नाश ही करना है तब तो बड़ा पापकर्म है ,हे देव ! घातक कर्म को आप प्रिय मानते हैं ? मुझ पर रुष्ट न होकर मेरे इस प्रश्न का उत्तर देकर मेरा समाधान करें।
कालपुरुष ने कहा :-"यह मेरी क्रीड़ा है" महात्मा ने पूछा :-" हे देव !यह कैसे ?काल पुरुष ने कहा :-"हाँ यह समस्त जगत मुझसे ही पैदा हुआ है मुझमे ही स्थित है और मुझमे ही लय होगा ,सारा जगद्रूप मैं ही हूँ मैं एक होते भी अनेक रूप में ब्याप्त हूँ मैं कर्ता ,भोक्ता,और संहार करता हूँ मैं विश्वव्यापी हूँ विश्व मुझमे और मैं विश्व में हूँ यह सब मेरी ही माया है मुझे ज्ञान दृष्टि से देखो तो मैं कृषिकार हूँ और जगतनगर मेरी कृषि है ,किसान खेती को बोता ,सींचता ,रक्षा करता और पक जाने पर उसे काट लेता और भक्षण भी करता है।
महात्मा ने कहा :-"हे प्रभु ! चाहे जो हो आपकी लीला आप जानें ,मुझे तो बड़ी चिंता है कि चराचर प्राणियों का समूह क्या इसी तरह पिस कर मरने के लिए पैदा किया गया है ? क्या इसकी दूसरी गति नहीं है क्या आप दया शून्य हैं या किसी दया पात्र प्राणी को आप अपने भक्षण से मुक्त नहीं करते ? कालपुरुष ने उत्तर दिया :-"हे निष्पाप ! किसी को मैंने चिंता करने के लिए रखा ही नहीं ,जो ज्ञानवान प्राणी हैं उन्हें तो बिलकुल ही स्वतंत्रता दी है जिससे वे स्वयं अपने कल्याण-सुख का मार्ग खोज लें मैं दया हीन नहीं हूँ मैंने उनके लिए पहले से ही कल्याण का मार्ग बनाकर खुला छोड़ दिया ऐसे न्याय युक्त नियम बनाये हैं कि भली भांति पालन करने वाले प्राणियों का मैं भी कुछ नहीं कर सकता ,बल्कि मुझे उनका सहायक होना पड़ता है क्योंकि जो मेरे नियमों का अधीन हो मुझे भजते हैं ,मैं उन्हें भजता हूँ अर्थात जो मुझमे लीन रहते हैं वे मुझमे ही लीन होते हैं ,मेरा निर्मित मार्ग बहुत दृढ़ ,पवित्र ,पुरातन , सनातन है यह सनातन मार्ग जिज्ञासा रहित प्राणी के लिए बिल्कुल गुप्त है मनुष्य भूल न जाये इसलिए मैंने ये सनातन मार्ग अविनाशी ग्रंथों में वर्णन किया है वे पवित्र ग्रन्थ लोगों के उपकारार्थ प्रचलित भी हैं जो अभागी -प्रमादी पुरुष अपने कल्याण का प्रचलन न करें ,वह नष्ट होने के लिए मेरे मुँह में आ पड़ते हैं तो इसमें क्या आश्चर्य है ? इन ग्रंथों में मुक्ति मार्ग भी बताया गया है।
यह सुन ,उस धीर महात्मा ने विनय की :-दयामय ! वह पवित्र मार्ग कौनसा है कि जिसका अनुशरण करने से इस संकट से छुटकारा होता है ?हे देव !मुझे बताओ इस मार्ग में जाने से अंत में कहाँ पहुचना होता है और भयमुक्त होता है।
काल रूप प्रभु ने कहा :- "हे धीर ! यह मार्ग बहुत गहन और दुर्घट नहीं है यह टेढ़ा मेढ़ा मार्ग होने पर भी अविद्या से मुक्त और विद्या से संयुक्त पुरुष को यह मार्ग परम सुखकारक हो जाता है इस मार्ग का नाम "अच्युत पथ" है ,इस पथ के परे अक्षर ,अविनाशी ,अच्युतपुर में जाना होता है वहां सिर्फ निरामय (निरोग) अखंड सुखमय और विनाश रहित सचिदानंद घनश्याम स्वरुप अच्युत प्रभु ,एक रस ,एकाकार , अभेदरूप ,चिन्मात्र ,परब्रह्म ,परमात्मा ,शेषशायी नारायण रूप से मैं निवास करता हूँ,यही मेरा मुख्य और मूलरूप है इन अच्युत परब्रह्म के शरण में जाकर निवास करनेवाले को किसी तरह नहीं रहता। "
यह सुन महात्मा ने पुछा :- आप एक हो और रस होते हुए भी परस्पर बिरुद्ध स्वभाव वाले अनेक रूपों से प्रकट हो आपकी इस चमत्कार पूर्ण बिलक्षण विश्वलीला को कोई भी नहीं जान सकता परंतु हे देव मुझे यह बताओ कि आपके इस अच्युत पथ में जो बहुत सी भूल भुलैयाँ हैं उनसे किन साधनों से पथिक बच सकता है।
काल पुरुष ने कहा :-"इन भूल भुलैयाँ और लालचों से बचने के लिए 'पथदर्शिका' एक श्रेष्ठ साधन है जो मेरे प्रकट किये हुए अनेक ग्रंथों में से उद्यत्कि की हुई है , मेरा ही होने वाला ,मेरे लिए ही निर्मित किये हुए मार्ग से चलने वाला सचेत पथिक ,इस साधना को सतत अपने ह्रदय में रखता है उसकी पवित्र गाथाओं को प्रेम से रात दिन गान करते ,उसमे बतलाये हुए मार्ग में चला जाता है फिर कोई भी मुमुक्षु किसी भी बुलावे या लालच में नहीं फंसता है। पथिकों की कल्याणकारिणी ,मुक्ति दात्री यह पथबोधनी लोक में "गीता " के नाम से प्रसिद्ध है। हे वत्स ! पथबोधिनी ह्रदय में होने पर भी यदि मार्ग में कठनाइयों या प्रमाद के कारण कोई पथिक भटक कर बड़ी अड़चन में आ जाये तो उसका उद्धार कर मार्ग बताने के लिए बहुत से ऐसे पथदर्शक हैं जो गुरु ,सद्गुरु ,संत-महात्मा आदि नामों से लोकों में प्रसिद्द हैं वे स्वाभाव से अत्यंत परोपकारी दयाशील और सज्जनता के सब गुणों से युक्त है ,हे साधु ! तू भी वैसे ही महात्माओं के समान शुभ गुणों से युक्त है और इसी से दयापात्र होकर मेरे मुख से सुरक्षित बच गया है तुझे यदि सदा के लिए निर्भय होना है तो क्षनिक स्तिथि वाले ,नाशवंत और भक्ष्य रूप इस जगत नगर के रहने का लालच त्याग कर शीघ्र इस अभय पथ का पथिक बन ,तुझे जानना चाहिए कि यही पथ कल्याणकारी है यह तू जनता है कि मैं काल का भी काल हूँ ,विश्व का कारण हूँ ,सृष्टि का तारण हूँ इससे मैं तुझपर प्रसन्न हूँ यहाँ से शीघ्र चला जा।
यह अंतिम शब्द बोलते ही उस कालपुरुष का स्वरुप बहुत ही बिकराल हो गया वह चारों ओर से प्राणियों को उठा उठा कर मुँह में डालने लगा ऐसा भयंकर काल रूप अपार त्रास दायक घोर संहार देख वह महात्मा धीर पुरुष एकाएक बाबला बन गया और घबरा कर वहाँ से भागा ,परन्तु भागते समय ठोकर खाकर जमीन पर गिर पड़ा और अचेत हो गया।
ऐसा दृश्य देखकर आकाशस्थित विमानवासियों के भी होश उड़ने लगे और घबराकर एक साथ बोल उठे ,हे गुरुमहाराज ! हे कृपानाथ !रक्षा करो ,रक्षा करो यह काल देव तो किसी को भी नहीं छोड़ता , कृपालु गुरुदेव रक्षा कीजिये , रक्षा कीजिये इस महाभयंकर काल क्रीड़ा को हम देख नहीं सकते ,हमें किसी निर्भय स्थान पर ले चलिए "हे गुरुदेव" ,ऐसी प्रार्थना सुन महात्मा बटुक वामदेव जी ने तुरंत ही वहां से विमान चलाने की आज्ञा दी।
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