Friday, 15 September 2017

-: पुर द्धार दर्शन :-

                                       -: पुर द्धार दर्शन :-


नियम के अनुसार सांय  काल की संध्या हरिकीर्तन ,गुरु वंदन इत्यादि नित्य कर्म से अवकाश पा ,सब समाज इच्जछानुसार अमृत पीकर ,फिर पथिकों की यात्रा और नगर के अवलोकन के लिए तैयार हुए ,वरेप्सु महाराज गुरु को प्रणाम कर बोले :-"हे कृपानाथ! अब यह पथिक सत्साधक के ज्ञान कराने से ,यह सतसाधक के साथ कहाँ जाएँगे। "
                 वामदेव जी बोले :-"राजा"मुझे मालूम होता है कि यह अब एकाध स्थान  के पास पहुंचना चाहते हैं। सुनो सत्साधक पथिकों से कुछ कहना चाहता है 
वह मुमुक्षु सतसाधक बोला :-"हे पुण्यवान मनुष्यों ! हे मुमुक्षुओं ! हे अच्युतपुर प्राप्त करने की कामना वाले प्राणियों देखो घबराना नहीं ,अब हम एक निर्भय स्थान के  करीब आ पहुंचे हैं क्या तुम्हे वह दरवाजा दिखाई देता है पथिक बोले नहीं हमें तो एक दिये के समान कुछ प्रकाश दीखता है सत्साधक बोला :-वही उस दरवाजे की निशानी है , दरवाजा इस दुखदायी नगर का महाद्धार है इसे पार किया कि ,उस और इस विस्तीर्ण नगरी की सुशोभित नगरी मिलेगी। 
सत्साधक महात्मा पथिकों से बोले:-हे सौभाग्यशाली जनों !अब तुम सब सुखी हो और सदा के लिए हम सबको अभय देने वाले "अच्युत प्रभु" की एक बार जय ध्वनि करो। सबने एक साथ अच्युत भगवान् की जय ध्वनि की ,सभी आनंदित हैं। यही इस दुःखरूप जगतनगर से मुक्त होने का सच्चा द्धार है यही परम सुखरूप अच्युतपुर को जाने वाले  मार्ग का सुख है।

अच्युत पथ का द्धार यह  ,जगन्नगर -जनकाज।
विनाश भय से छूटकर ,पावन को सुखसाज।।

ब्रह्मदेव ने ही रचा ,घर कर हिय अति हेत।
सुखद स्वतंत्र सुरम्य वर ,साधन सर्व निकट।।

जन्म जन्म कृत पुण्यफल,पै दुर्लभ यह गेह।
करहु प्राप्त शुभ कर्म कर ,धरहु धर्म पर नेह।।

ईश कृपा से ही अहो ,अच्युत मार्ग दिखाय।
या मारग से जायकर ,अच्युतपुर पहुंचाए।।

मूरख जन आवे यहाँ ,मन खींचे तहँ जाय।
मनानुगामी होय  वह ,खोवे सर्व सहाय।।

अच्युत पथ सुख ना मिले ,पुनरागम यहँ नाहिं।
जगन्नगर में भटकता ,परै काल  मुख माहीं।।

सत्साधक बोला :-हे  भाविक पथिकों ! यह महाद्वार  ऐसी महत्ता वाला है ,और सारे नगर के लिए सिर्फ एक ही है ,दूसरे छोटे बड़े अनेक दरवाजे हैं सही , परन्तु वे अधम परमदुःखरूप,अँधेरे में पड़े हुए ऐसे हैं जिनसे होकर निकलना कठिन है इसलिए जगन्नगर  के सर पर पड़े हुए ;अपार दुखों से हैरान  और काल पुरुष के भय से भयभीत होकर अज्ञानवश लोग इधर उधर अनेक  दरवाजों में भटकते फिरते हैं परन्तु जब किसी जगह से भीतर नहीं जा सकते तब बार बार थककर जोर से प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभु !कृपा कर एक बार मुक्त करो !यदि आप एक बार अवकाश दे तो यहाँ से तुरंत छूटकर मैं आपके मार्ग में चला जाऊँ , इस तरह अंतःकरण से अनेकबार की हुई प्रार्थना से दयालुप्रभु किसी समय ऐसा संयोग ला देते हैं जिससे इस पवित्र महाद्वार के दर्शन हो जाते हैं इस ंप्रकार महाकष्ट के अंत में इसके दर्शन होने पर भी ,जो जीव पूर्ण सावधानी से तुरंत उससे होकर नहीं निकल जाता वह फिर भुलावे में पड़ता है ,हे सौभाग्यशालियों !ऐसे अनेक कष्टों के अंत में ,यहाँ तक आने की यह व्यवस्था  हमें भी उस प्रभु की दया से प्राप्त हुई है इसलिए हमें आलस्य नहीं करना चाहिए यदि तुम अपने आत्मा के कल्याण की कामना करोगे तो वह लकड़ी के धोखे मगरमच्छ पर बैठकर नदी पार करने के समान होगा ,अब शरीर की माया छोड़ो और स्वयं ही आत्मबल को देखकर चलो यह दरवाजा जितना ही सुन्दर है इसका मुहँ चौड़ा है,इसमें अनेक भूलभुलैया हैं आड़े सीधे दरवाजे  तथा खिड़कियाँ हैं इसी तरह  सोने बैठने और रंग राग करने के लिए इसमें अनेक हैं और सुख के सब साधन भी हैं इसमें प्रविष्ट होने पर जिस ,प्रकृति का मनुष्य जैसा सुभटा चाहे सब अनायास मिल सकता है परन्तु उसमे से हमें किसी भी बस्तु का उपयोग करना नहीं है इसलिए सज्जनों तुम खूब साबधान रहना चाहे जैसे खाने पीने,सोने,बैठने,पहनने,ओढ़ने,देखने,सुनने,लेने,खेलने,खाने,स्वीकार करने,हँसने ,बोलने और आनंदित होने आदि अनेक प्रकार के सुख अनायास चाहें जितने मिलें तथापि तुम उनमें लुब्ध न होना ,यदि लुब्ध हुए तो पछताना पड़ेगा और हमारा साथ भी छूट जायेगा क्योकि कर्म से प्राणी बंधन में पड़ता है और यह कर्म चित्त की शुद्धि के लिए है ,बस्तु प्राप्ति के लिए नहीं हमें बंधन में पड़ना नहीं है परन्तु वस्तु प्राप्त करना है यह भोगेच्छा मात्र बंधन है और उसका त्याग मोक्ष है इसलिए इस भोग का त्याग करना प्राणी का आवश्यक कर्तव्य है चित्त ही अर्थमात्र का कारन है चित्त से मानने पर ही यह त्रिगुणात्मक जगत है किन्तु चित्त के क्षीण होने पर जगत क्षीण होता है इसलिए प्रयत्न द्वारा चित्त को स्वाधीन करना चाहिए उसके लिए भोग और देह की बासना त्याग देनी चाहिए फिर भाव और आभाव दोनों को त्याग निर्विकल्प होकर सुखी होना चाहिए इस स्थान में चित्त को ही स्थिर करना है बार बार ध्यान पूर्वक प्रयत्न करने पर भी  चित्त को जानने वाला ,शुद्धता ,योग ,युक्तात्मता  बिना मन को वश नहीं कर सकता चित्त को पराजित करना तुम्हारे लिए कठिन है यह चित्त तो अत्यंत कष्ट से अधीन होता है जैसे दुष्ट हाथी अंकुश बिना अधीन नहीं होता वैसे ही चित्त भी तत्वज्ञान  बिना अधीन नहीं हो सकता इस चित्त को वश में करने के लिए अध्यात्म ,विद्या ज्ञान, साधुसंग ,वासना का त्याग ,प्राणगति का निरोध आदि महान युक्तियाँ करना आवश्यक है।
         जिसकी भोग लिप्सा दिनोदिन क्षीण होती है उसी सुन्दर मतिवाले के विचार सफल हैं और उसी का कल्याण होता है अब तुम सब लोग शुद्ध और दृढ़ चित्त होकर मेरे साथ आओ कृपासागर अच्युत प्रभु हमें इन सारी आपत्तियों से मुक्त करेंगे। "ऐसा कह अच्युत प्रभु के नाम की जय ध्वनि कर उस महात्मा पुरुष ने संघ शक्ति पुरद्धार में प्रवेश किया।
       

          यह महाद्वार मानुषी देह में होने वाला प्रथम ज्ञान है वह मोक्ष का कारण रूप परब्रह्म का निष्काम भक्ति ज्ञान है पुरद्वार का प्रथम दरवाजा ,प्रारंभिक ज्ञान अर्थात हरि का भजन करना और उससे मुक्त होना अर्थात संसार के रगड़े  से छूटना है ज्ञान भक्ति से तरकर पार जाने  के पूर्व ही मृत्यु हो और फिर जीव वासना में  लिपटे तो फिर तरने-मुक्त होने का उपाय हाथ में नहीं है।
        
                                                                             
                                                                 





   


No comments:

Post a Comment