Thursday, 23 March 2017

जगतनगर

                                        -:जगतनगर:-

विमान के स्थिर होते ही बटुक  महाराज जी सब पवित्र जीवों को संबोधन कर बोले :-"अब तुम सब तैयार हो जाओ ,चित्तवृत्ति स्थिर करो यहाँ क्या क्या अद्भुत चमत्कार दिखाई देता है इस पर पूर्ण ध्यान दो ,इसके रहस्य का विचार करो ,यहीं से परम दुर्लभ अच्युत मार्ग आरम्भ होता है ,यह देखो हम सब कहाँ आये हैं ? यह सुनकर राजा बरेप्सु तुरंत खड़े होकर जमीन की और देख आनंद और आश्चर्य सहित बोले :-"अहो! गुरुदेव! यह तो कोई बहुत बड़ा विलक्षण नगर दिखाई देता है, अहा !कृपानाथ , हम इस नगर से इतने ऊँचे अंतरिक्ष में हैं तो भी आपके अनुग्रह से ,हमें इस देह के साथ जो दिव्यदृष्टि प्राप्त हुई है उससे हम दूर दूर तक देख सकते हैं। प्राचीन काल में मार्कण्डेय ऋषि को श्री बाल मुकुंद भगवान् के पेट में दिखी हुई विराट  माया के समान यह अदभुत नगर कैसा होगा ?
                        वामदेव जी ने कहा :-" राजा ,वास्तव में भगवान की विराट माया के समान यह अति विस्तृत नगर,विचित्रता,अनोखापन और चमत्कारों से भरा है इसको महात्मा पुरुष 'जगतनगर' पुकारते हैं इसमें सब वस्तुएं हैं , सब जाती के प्राणी हैं, सब विधाओं के भण्डार  हैं  ,सब तरह की भूमि है, सब समय काल व्यबस्था है और सब रस है .सारे जगत के भीतर के समस्त दृश्यादृश्य  पदार्थ ,चित्रपट में चित्रित महान चित्र की तरह इसके भीतर पूर्ण रूप से व्याप्त है इसलिए ही इसका नाम जगतनगर  पड़ा है सारे संसार में जो कुछ है वह सब इस  नगर में हैपरब्रह्म की समग्र अद्भुत लीला जो जगद्रूप  प्कट हुई है यह वही है तुम सब लोग यहाँ सुख से ईश्वर की अनेक लीलाओं के चमत्कार  को स्थिर चित्त से देखो। "  


                                                                                                       शरणागत 
                                                                                                    नीलम सक्सेना 

Wednesday, 22 March 2017

विमानारोहण

                                           विमानारोहण 



थोड़ी देर में आकाश घोर गर्जन से गूँज उठा, और वहाँ होने वाले जय जय शब्द से, मूर्छित  लोग अकस्मात् जाग उठे,वे आश्चर्य से चरों और देखने लगे,सभा मंडप ज्यों का त्यों उसमे नाम की भी अग्नि नहीं थी सोचने लगे यह गुरुदेव की लीला थी "अब क्या होत , जब चिड़िया चुग गयी खेत"
                            ऐसा सोचकर अपने को कोस रहे थे इतने में उन्हें आकाश में एक परम शोभायमान विमान दिखाई दिया उसमे सुन्दर शंख ध्वनि हो रही थी यह देखते ही बहुत से लोग जिन्हें सत्संग का चस्का लगा था  उठे :-"अरे अरे वाह वाह !यह तो उस अग्नि के पार दिखने वाला विमान है तेजस्वी कान्ति वाले पुण्यात्मा भी दिखाई देते हैं वे तो हमारे साथ के लोग हैं उन्हें लेकर बटुक जी महाराज विमान में चढ़ रहे हैं। आह !उन्हें कितना आनंद होता होगा। यह सब उस अद्भुत बटुक बालक की ही लीला है वास्तव में वह सबका गुरु ईश्वर तुल्य है अभाग्य के कारण  ही हमें उसके वचनों पर विश्वास नहीं हुआ पर अब क्या उपाय ! पानी बह जाने पर सोचना किस काम का, धिक्कार है धिक्कार ! श्रद्धा रूप अमृत तत्व से हीन हमको धिक्कार है। इस तरह भारी पश्चाताप सहित जीव संताप करते थे। 
                            विमान चालक ने कहा," हे जिज्ञासु ! तू स्थिर मन करके मुझसे सुन :-हे मायिक जीव यह असार संसार और उसका व्यवहार अंत में झूठा है उससे प्रीति को हटाकर सत्य बस्तु पर लगानी चाहिए,संसार की नयी-नयी पैदा होने वाली इच्छाओं का त्याग करना चाहिए इच्छा दूर हुई मोह मिटा कि , विषय दूर हो जाते हैं सत्संग श्रवण करना ही इष्ट है श्रवण करते करते  माया से लिपटे हुए जीव के अनेक तीक्ष्ण पाप समूल नष्ट  होंगे और ह्रदय निर्मल होने से उसमे अच्युतपुर वासी अच्युत परमात्मा की प्रेम भक्ति का प्रकाश होगा और वह जीव उस विमान में वैठने का अधिकारी बन,अच्युतपुर में प्रवेश कर सकेगा। 
                            ऐसे  विचित्र दिव्य विमान में वैठकर, गुरु वामदेव की कृपा से सनाथ हुए वे सब पवित्र जीव आकाशमार्ग को चले ,मार्ग में जो जो आनंददायक और विचित्र दृश्य दिखाई देते थे उन्हें देख हर्षित हो सब विमान बासी बारम्बार "जय जय गुरुदेव !जय जय गुरुदेव !"की मंगल ध्वनि करते थे विमान में वैठे हुए भक्तों को नित्य नए नए ज्ञान कराए जाते थे सब विमान बासी ऐसी स्तिथि में थे मानो वे मुक्तावस्था को प्राप्त हो गए हैं ऐसे आनंद सुख का अनुभव कराते हुए यह विमान एक अत्यंत विचित्र और विस्तीर्ण नगर में आकर अंतरिक्ष में स्थिर हुआ। 



                                                                                             शरणागत 
                                                                                          नीलम सक्सेना 








 

Tuesday, 21 March 2017

महालहरी-परमपद

                                        महालहरी -परमपद 













"लोक का संहार करने वाला मैं कालमूर्ति हूँ और लोकों का संहार करने के लिए मैं यहाँ पर प्रबृत हुआ हूँ।"

महाराजा बरेप्सु ने जीवन लोक के कल्याण के लिए महात्मा बटुक से पूछा,
                        बरेप्सु बोले हे सदगुरुदेव !जैसे स्वाति नक्षत्र में पड़ती हुई अमृत रूप वृष्टि के एक एक बूँद के लिए चातक पक्षियों का समूह मुँह फैलाकर देखता है वैसे ही यह सब मानव समाज आपके वचनामृत के लिए तरस रहा है,जैसे प्राचीन काल में ब्रह्मपुत्र सनकादिकों के समागम से सारी प्रजा को कल्याण का मार्ग प्राप्त हुआ था वैसे ही इस समय ये मुमुक्षु जीव, आपके द्वारा अपना कल्याण प्राप्त करने के लिए अधीर हो रहे हैं। हे देव ! आप सब पर दया करके कल्याण का जो मार्ग हो वह हमें बताओ। मेरी प्रार्थना इतनी ही है कि  जगत के सब प्राणी जिस मार्ग से जाकर परब्रह्म के आनंद स्वरुप का दर्शन करने के लिए सौभाग्यशाली बन सके ऐसा परम सुलभ मार्ग आप हमें बताये।
                     राजा का ऐसा प्रश्न सुन,  महात्मा बटुक वामदेव एक मुहूर्त तक चित्त को स्थिर  और आंखों को बंदकर ध्यान परायण हो गए।
एक बार फिर बटुक ने सभा में बैठे हुए आत्मकल्याण इच्छुओं की श्रद्धा की  परीक्षा लेने का विचारा :-                                     एकाएक एक कौतुक हुआ कि सभा स्थान के आगे एक बड़ा प्रकाश का गोला आकाश से पृथ्वी तक दिशाओं को घेरता हुआ दिखाई दिया यह प्रकाश धीरे-धीरे बढ़ा उसमे बड़ी-बड़ी ज्वालाएँ दिखने लगीं सभामण्डप के द्धार  से एक रास्ता अग्नि में पड़ा हुआ दिखा वह सिर्फ इतना ही चौड़ा था कि उसमे एक पैर रखा जा सके,महात्मा बटुक ने सबको संबोधन करके कहा :-हे परब्रह्म की इच्छा करने वालों ! देखो यह जो दिख रहा है वह कल्याण मार्ग है इसी रास्ते से निडर होकर जाने वाला पुरुष परम कल्याण को प्राप्त होता है यह मार्ग बड़ा कठिन है परंतु तुम में से जिसे कल्याण प्राप्त करना हो,परब्रह्म धाम में जाना हो,जो संस्कारी हो,जिसे गुरु वचनों पर श्रद्धा हो,जिसने पवित्रता से भक्ति योग किया हो,संसार को बंधन का कारण माना हो, उसे इस मार्ग से होकर अग्नि के उस पार जाना होगा।  दृढ़ श्रद्धालु पुरुष इस अग्निरूप मार्ग से होकर उस पार जायेगा उसे उसी समय वहां  अत्यंत मनोहर और परम सुख रूप दिव्य विमान बैठने को मिलेगा। विमान में प्रभु भक्त तुम्हे आदरपूर्वक दिव्य फलों से पुष्पित विमान में बैठा लेंगे और अमृत रास का पान कराएँगे, विमान में बैठने के लिए बहुतों की इच्छा हुई परंतु हूँ हूँ करती हुई ज्वालाएँ देखते ही इस संसार के अश्रद्धालु प्रेम भक्ति रहित लोग शिथिल हो जाते ,
                       वामदेव जी दंड ले खड़े होकर बोले :-"हे मोक्ष अभिलाषियों,चेतो ! अमृत के समान अमूल्य समय बीता जाता है वह फिर मिलना दुर्लभ है इससे शीघ्र तैयार हो जाओ , हे मुमुक्षुओं !क्षणभर पहले मुक्ति के लिए जो उत्साह तुम लोगों में दिखता था वह कहाँ उड़ गया।
                                                  "कैसी विलक्षण स्तिथि है बिना परिश्रम सुख "
                      चौरासी लाख योनियों में  असंख्य जन्म  लेकर बारम्बार भटकने और उन जन्मों की नरक यातना रूप वासनाएं भोगते समय के दुःख ,अनगिनत बार ईश्वर की प्रार्थना करने पर उस जीव पर दयालु प्रभु दया कर दुखों से मुक्त होने का साधन रूप मनुष्य देह देता है और पुण्यों के उदय से उसे सद्गुरु मिलता है,  वचन पर विश्वास कर ज्ञान प्राप्त होता है तब उसका कल्याण होता है अर्थात संसार के जन्म मरण से सदा  मुक्ति मिलती है।
                      बटुक जी महाराज कहते हैं इतना बड़ा कल्याण तुम्हारी आँखों के सामने आ मूर्तिमान होकर   खड़ा है तो भी उसे प्राप्त करने के लिए तुम समर्थ नहीं होते इस सब का कारण सिर्फ यह अविद्धयारूप अग्नि  समुद्र है।
                     दिव्य ऊर्ध्वलोक और वहां जाने का मार्ग,इस लोक के जीव को , इस पवित्र पांच भौतिक देह से प्राप्त नहीं हो सकता , इस देह के साथ काम,क्रोध,लोभ,मोह,अहंकार आदि शत्रु लिपटे हुए हैं इनका त्याग कर पवित्र दिव्य देह से ही वह मार्ग प्राप्त हो सकता है , दिव्य देह प्राप्त करने में श्रद्धा और भक्ति मुख्य है श्रद्धा के बिना जो कुछ होम ,दान किया हो उसका फल लोक परलोक में नहीं मिलता।
                      जिसे इस परम दिव्य अच्युतमार्ग-ब्रह्ममार्ग को प्राप्त करने की अभिलाषा हो उन्हें इस अग्नि में स्नान कर इस स्थूल देह अभिमान को उसमे जलाकर दिव्य देह धरना चाहिए तभी उन्हें परब्रह्म के मार्ग में जाने का अधिकार मिलेगा,गुरु और शार्टर  वचनों पर जिन्हें दृढ़ विश्वास होगा ,संसार की प्रत्येक माया के लिए जो पूर्ण निःस्प्रह होंगे और अच्युतपद की ही जिन्हें सच्ची जिज्ञासा होगी वे मुमुक्षु लोग ही इस अग्नि में प्रवेश कर उसे पार करेंगे ,मेरा विचार है की वह उन्हें जल प्रवेश के समान सुखद होगी ,इसलिए चलो ,बिलम्ब मत करो ,समय बहुत थोड़ा है।
                      बटुक जी की यह बात सुन, बहुत से मुमुक्षु श्रद्धालुओं का भय दूर हो गया वे एक के बाद एक आ बटुक जी के आगे हाथ जोड़कर खड़े हुए और विनय करने लगे :-"हे गुरुदेव ! आप इस जीव के कल्याण करता हैं हमें विश्वास और श्रद्धा है की आपकी कृपा से हम अग्नि पार कर उस ओर जायेंगे हमारे कल्याण और कल्याण के मार्ग सिर्फ आप ही हैं हमें आपका वियोग न हो।" यह सुन बटुक वामदेव जी अत्यंत प्रसन्न होकर बोले :-"अहो! वियोग कैसा? जिसकी जिससे दृढ प्रीती हो  उसके समीप ही है इसलिए जाओ सुख से अग्नि लाँघो, बिलम्ब न करो। "
                       ऐसी सुनते ही प्रणाम कर गुरुदेव की जय ध्वनि सुनते ही  मुमुक्षु उस महाअग्नि के भीतर घुसे,परंतु जो मलिन ह्रदय के दुराचारी, नास्तिक, परद्वेषी, आत्म कल्याण ढूंढने को नहीं परंतु जी मलिन हृदय  दुराचारी यो ही तमाशा देखने के लिए सभा में आकर भर गए थे उनकी अविद्या के कारण उस अग्नि में प्रवेश करने की हिम्मत नहीं हुई।
                        वामदेव जी ने 'नारायण-नारायण' 'सोअहम -सोअहम 'की गर्जना करते हुए अग्नि में प्रवेश किया,मलिन हृदय के लोग बाद में महात्मा बटुक जी  की बात  विश्वास न करके पछताने लगे परंतु अब क्या करे! वस ! अविद्या के दासों की यही दशा होती है और वे सब मूर्छित होकर गिर पड़े।




                                                                                                           शरणागत 
                                                                                                        नीलम सक्सेना 















Sunday, 19 March 2017

मंगल-प्रयाण

                                      

                                      -: मंगल-प्रयाण :-


                                      मूकं करोति वाचालं पंगु लङ्घ्यते गिरिम् ।                                                                             यत्कृपा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम् ।।





                                 "जिसकी कृपा,गूंगे को वाचाल करती और पंगु को पर्वत लंघाती है 
                                      उस परम आनंदमूर्ति माधव को मैं नमस्कार करता हूँ।"







Saturday, 18 March 2017

महासाध्वी मिहिरा

                                     महासाध्वी मिहिरा

बरेप्सु ने बड़ी नम्रता पूर्वक बटुक जी से विनय की कि, "हे कृपालु गुरुदेव ! मिहिरा स्त्री जाती को ज्ञान शक्ति कहाँ से और कैसे प्राप्त हुई यह कहिये।"
                             बटुक बामदेव जी बोले, "प्राचीन काल में मिहिरा नाम की नगरी में जयसेन नाम का महासमर्थ ब्रह्महनिष्ठ राजा था। उसने पहले कठिन उपासना द्धारा अपने मन को भगवत पदारविन्द में दृढ स्थिर किया था धीरे धीरे  उसकी सब मायिक  वृत्तियाँ निर्मूल होते ही उसे उस परब्रह्म का साक्षात्कार हुआ और उसके बाद वह पूर्ण ब्रह्मनिष्ठ से ही अपना राज्य चलाया करता था। उसके धार्मिक राज्य में किसी को कुछ अन्याय,भय,अधर्म का भय नहीं रहता था सब प्रजा सुखी और सदाचारिणी थी। ऐसे प्रतापी राजा के यहाँ उसकी बृद्धावस्था में  रत्न के समान कन्या पैदा हुई वह कन्या साक्षात् देवपुत्री के समान और लक्ष्मी के भण्डार तुल्य थी। वह जन्म से ही परब्रह्म में ही लीन थी वह ज्यों बढ़ती गयी त्यों त्यों ईश्वर की सेवा में उसका मन दृढ होता गया बचपन में वह सोचती थी कि जो कुछ भी करना है वह सिर्फ भगवत सेवा ही है पुत्री को भक्तिभाव में देखकर वह आनंद मग्न हो जाता मन में वह विचार करता कि ,यह बाला पूर्वजन्म की कोई महाभक्त है,परंतु भगवत्साक्षात्कार होना बाकि रह जाने से वह पूर्व जन्म का अपूर्ण भक्तियोग पूर्ण करने के लिए ही मेरे यहाँ जन्मी है।
                             समय बीतते हुए वह कन्या विवाह के योग्य हुई  उसका बिधिवत विवाह किया,परंतु यह बात उस साध्वी कन्या को पसंद नहीं थी, विवाह हो गया।
                             जब उसका भक्तियोग परिपक्व दशा में आ गया तब उसपर पूर्ण कृपा कर श्री हरि ने अपने सगुण स्वरुप का उसे दर्शन दिया।
                             एक दिन ईश्वर उपासना के समय उसने अपनी इन्द्रियों को रोककर प्रभु का ध्यान और मानसिक पूजा करना आरम्भ किया,चरण कमलों से मुकुट पर्यन्त परमात्मा स्वरुप का ध्यान कर,गंध,पुष्प,नैवेद्यादि मानसिक उपचार उनको अर्पण किया,फिर मानसिक दीपक से प्रभु को अवलोकन करते हुए उस स्वरूपानंद में इतनी तल्लीन हो गयी  कि उसे अपनी देह की सुध बुध ही नहीं रही,सच्चिदानंदघन स्वरुप ह्रदय कमल में अखंड विराजता दिखाई दिया। इस देह के आत्मस्वरूप में ही साक्षात् ब्रह्म है ऐसा अनुभव होते ही वह परमानन्दमय-सच्चिदानंदमय  तेजोमयी बन गयी ऐसे चिन्मय स्वरुप में ही उसका स्वरुप कांपने लगा, रोँयें खड़े हो गए सारे शरीर से पसीना छूटने लगा ,इसी लीनता में पूर्ण भक्ति भाव से खड़ी होकर वह नाचने लगी इस समय उसके अकथनीय प्रेमानंद के कारण उसके ह्रदय के सम्मुख विराजती परमात्मा की सगुण -निर्गुण मूर्ती भी उसके साथ नाचने लगी जिससे वह स्थान सिर्फ अच्युतपुर अछूत मंदिर ही बन गया।
                                दूसरा चमत्कार! राजा अपने कार्य से निवृत होकर प्रभु की सेवा के लिए मंदिर में आया वहाँ अन्धकार देखकर उसे आश्चर्य हुआ कि मिहिरा प्रभु सेवा के लिए आयी थी वह भी यहाँ नहीं है और मंदिर में दिया भी नहीं जल रहा,यह  यह क्या है? उसने मिहिरा को दो तीन आवाज लगाई, मिहिरा तो उस समय अपने  प्रभु के स्वरुप को ही देखने में मगन थी बिलकुल ब्रह्मरूप ही थी तो 'मिहिरा !मिहिरा का उत्तर कौन दे मिहिरा तो अदवैत परमात्मा स्वरूप के साथ नाच रही थी तथा उसके शरीर में भगवत्स्वरूप का साक्षात् आविर्भाव होने से वहाँ एकाएक सूर्य का प्रकाश हो रहा है अकस्मात् अपनी आँखों के आगे ऐसा अद्भुत स्वरुप देख और उस प्रकाश में मिहिरा के साथ उस दिव्य परमात्मा  मूर्ती को नृत्य करती देख राजा आश्चर्य में डूब गया और उसके मुँह से स्वयं  ही ऐसे वाक्य निकल पड़े "अत्र को मिहिरा साक्षात् ?"(अरे यहाँ साक्षात् सूर्य के समान कौन है?) उसी समय उत्तर में भगवान ने अपनी वाणी में कहा :-
                         " हे राजा !यहाँ कोई अन्य सूर्य नहीं पर तेरी ही पुत्री मिहिरा अर्थात सूर्या-सूर्य के समान है जो सब भक्तों के अज्ञान रूप अन्धकार का नाश करने वाली है मेरी प्राणप्रिय भक्ति ही तेरी पुत्री में उत्पन्न हुई है जगत की सब स्त्रियों में वह सूर्य के समान ही है। "
                             यह बात सुनते ही राजा के आनंद और आश्चर्य का पार नहीं रहा और उस परमात्मा के निर्गुण स्वरुप के दर्शन करने,स्वात्मस्वरूप में लीन होने और पूर्ण अधिकारी होने से ,वह भी उस बिचित्र लीला में प्रविष्ठ हो गया राजा और राजकन्या भगवद्रूप ही बन गए और सच्चिदानंद स्वरुप सागर में ब्रह्मरस लहराते हुए नाना  प्रकार से प्रभु की स्तुति करने लगे और गदगद स्वर से प्रार्थना करने लगे कि हे परब्रह्म ! हे निरंजन निराकार सच्चिदानंद घनश्याम परमात्मा !अब हमें छोड़कर आप जाते हो? आप अद्धैत भाव क्यों दर्शाते हो?                                      प्रसन्न होकर भगवान् ने उनसे प्रिय शब्दों में कहा :-"मैं कहीं नहीं जाता,मैं कहीं से आया भी नहीं और मुझे कहीं जाना भी नहीं है,मैं सर्वत्र व्याप्त हूँ मैं जगत में ही सदा अदृश्य हूँ भक्ति करने के लिए शास्त्र की आज्ञा से ये संसारी जीव मुझे अनेक भावना से देखते हैं, अलग अलग  रूपों में दर्शन देता हूँ सारे  संसार में एक अंश द्वारा व्याप्त हो रहा हूँ, इस मूर्ती में भी हूँ और आत्मा में भी हूँ, इस दीवार में भी हूँ  और सारे ब्रह्माण्ड में भी हूँ, द्धैत भी हूँ और अद्धैत भी हूँ जैसे तुम जानो,बूझो वैसा मैं हूँ।" 
                              श्री भगवान् बोले ,तुमसे जगत में भक्ति यश विस्तार पायेगा,फिर सच्चित-तद्रूप हुए तुम अंत में मेरे परमधाम पुण्यात्मा,ब्रह्मधाम के निवासी होगे जहाँ गए हुए भाग्यबान प्राणी को फिर कभी भी पीछे फिरने का भय नहीं रहता। 
                                इतना कह श्री भगवन ने उन्हें आँखें मूंदने को कहा,जब वे आँखें खोलकर देखते हैं तो भगवान् मूर्ती रूप से ही सिंहासन पर विराज रहे थे सवेरा होते ही पिता पुत्री भगवान् की सेवा में लग गए इस तरह यह  राजकन्या उस दिन से सब भक्तों और स्त्री समाजों में बिल्कुल सूर्य के समान उपमा के योग्य होने से "मिहिरा" नाम से प्रसिद्द हुई है
                                ब्रह्म के दर्शन पायी हुई वह राजकन्या मिहिरा, शुद्ध प्रेम भक्तियोग साधकर, स्वात्मा में  ब्रह्म को देख,प्रेम, ज्ञान,भक्ति में लीन हो पवित्र श्रद्धा से निरंतर ब्रह्मरूप से बैठे हुए,प्रभु की सेवा करती थी उनके पास अनेक महात्मा भक्तजनों के झुण्ड के झुण्ड उनके दर्शन और सत्संग का लाभ लेने को आते थे मिहिरा भी  संतों का अच्छी तरह सत्कार कर दिन रात उनके साथ प्रेम से हरी चर्चा करती थी।
                                  हे बरेप्सु !भक्त को भक्तजन बहुत प्रिय होते हैं इससे मिहिरा का स्वाभाविक ही यह नित्य कर्म हो गया कि निरंतर संत महात्माओं का समागम कर उनके समुदाय में ही रहना ,
कुछ समय पश्चात् पति के यहाँ जाने का समय आया वहाँ भी वह उसी  भक्तिभाव से व्यवहार करने लगी यह उसके राजसी पति को नहीं भाया  उसके पति ने  उसे अपने विचार के अनुकूल करने का बहुत प्रयत्न किया,पर व्यर्थ ही उसका ईश्वरी भाव झूठा है या सत्य है ,यह जानने को उसने कई बार परीक्षा ली,अंत में एक बार विष भी पिलाया,परंतु सब ब्रह्ममय देखने से मिहिरा ने किसी भी बात की ग्लानि नहीं की ,ऐसी शुद्ध भक्ति के बहुत से चमत्कार उसे दिखाई दिए,तब अंत में लज्जित होकर उसके पति ने भक्ति योग में बाधा देना त्याग दिया हरि  सेवा संत समागम और हरि कीर्तन यही उसका नैत्यिक कर्तव्य था,संत महात्मा और ज्ञानी लोग उसके दर्शन के लिए आते थे मिहिरा ने अनेक कुटिल शुष्क ज्ञानियों को  पल भर में पवित्र कर महान साधु बना दिया असंख्य प्राणियों का कल्याण कर, जगत में प्रेम ज्ञान भक्ति का पूर्ण प्रकाश कर, जीवनमुक्त होकर विचरण करती हुई मिहिरा अंत में परब्रह्म श्री हरि में समाकर सायुज्य को प्राप्त हुई।




                                                                                                   शरणागत 
                                                                                                नीलम सक्सेना  















Thursday, 16 March 2017

परमहंस दशा - जीवन मुक्ति

                                परमहंस दशा - जीवन मुक्ति


गुरु वामदेव जी बोले ,"बरेप्सु ! परिपक्व ब्रह्मनिष्ठां वाला पुरुष ब्रह्म और जगत में कुछ भी भेद या विकार नहीं देखता, वह तो सर्वत्र सदाकाल सिर्फ ब्रह्म ही का अनुभव करता है उसके लिए तो सब समान है उसे तो जड़ तथा चैतन्य एक से ही है उसकी दृष्टि में सब एक समान,ब्रह्ममय ही है और वह बाहर भीतर सब ठौर एक ही रस देखता है उसे कोई कामना नहीं, तृष्णा नहीं, हर्ष नहीं, शोक नहीं,  मोह नहीं, दंभ नहीं ,गर्व नहीं, क्रोध नहीं,मत्सर नहीं, भय नहीं,सुख नहीं, दुःख नहीं, क्लेश नहीं, माया नहीं, ममता नहीं, अहंता नहीं और उसे कुछ लज्जा भी नहीं होती अविधा के जो जो कारण हैं वे उसे बाधा नहीं कर सकते ऐसी स्तिथि के कारण बिल्कुल उन्मत्त (पागल) के समान दिखता है वह नग्न, उन्मत्त, जड़ और बहरा-गूंगा जैसा अवधूत परमहंस है वह सदा ब्रह्मानंद में मग्न रह इस शरीर से ही जीवन मुक्ति का अनुभव करता है और देहपान(देहांत) होने तक निःस्पृह होकर अकस्मात आ पड़ने बाले दुःख- सुख को भोगता है ये सब देह के धर्म हैं,उनसे मेरा कुछ सम्बन्ध नहीं ऐसा मानकर वह जगत  बिचरण करता है और यथासमय देह त्यागकर ब्रह्म में लीन हो जाता है इस तरह जीवन मुक्त परमहंस की ब्रह्मनिष्ठां एकाग्र होती है।
                      अधम अज्ञानी,प्राणी उसकी परमहंस अवस्था नहीं जानता इससे शायद उसे कष्ट देने की मूर्खता करता है परंतु ईश्वरी सत्ता द्धारा उस महात्मा की तो  स्वयं ही रक्षा होती है वह स्वयं ब्रह्माकार हो जाने से उसे सर्वत्र ब्रह्ममय दीखता है तो उसे जो देखता उसे भी वह स्वाभाविक ही आत्मा  के समान प्यारा लगता है क्योंकि वह प्रत्यक्ष  ईश्वरतुल्य है वह धूप में चलता है तो बादल उस पर छाया करते हैं, अग्नि शीतल हो जाती है,जल उसे डूबने नहीं देता,शस्त्र की धार वार नहीं करती,उसके मुख में गया हुआ विष अमृत रूप हो जाता है,भयंकर सर्प उसके पैरों तले दब जाने पर उसे काटने के बदले शांत होकर चला जाता है,महाभीषण सिंह अपनी क्रूरता छोड़कर उसके साथ क्रीड़ा करता है पशु-पक्षी भय छोड़कर उसके साथ आनंद से खेलते हैं, इस तरह वह सारे जगत का मित्ररूप होकर विचरण करता है। हे राजर्षि बरेप्सु ! इस तरह की सुदृढ़ ब्रह्मनिष्ठा हो उसी सम्बन्ध में 'सर्व खलविंद ब्रह्म' इस उपनिषद महावाक्य की सार्थकता है।  

                                                                                                      
                                                                                                          शरणागत 
                                                                                                       नीलम सक्सेना 

















Saturday, 11 March 2017

अंतब्रह्मनिष्ठा-जगन्नाटक

                          अंतब्रह्मनिष्ठा-जगन्नाटक 


बटुक वामदेव जी बोले,"राजा सब ब्रह्ममय देखने वाला मनुष्य जगत में सारी सृष्टि को ब्रह्मरूप अनुभव करने से अंतर मन में(भीतर) सबको  महत्व से देखता है,  वह किसी से राग-द्धेष न करके सबको समान न्याय देता है,स्त्री,पुरुष,धन,परिवार इत्यादि जो अपना है उन्हें अपना दिखाकर (प्रकट) कर उनके साथ निवास तो करता है परंतु अंतर से वह लुब्ध नहीं होता,  वह जानता है कि ब्रह्म से पैदा होने वाला ब्रह्म में ही लीन हो जाता है वह जन्म मृत्यु का शोक व हर्ष नहीं करता ,उसे भले या बुरे किसी कार्य के लिए आसक्ति ही नहीं होती वह न किसी की प्रशंसा से प्रसन्न और न ही निंदा से अप्रसन्न होता है दुःख उसके मन को दुखी नहीं कर सकता,उसी तरह महान आनंद की कथा, जो मायिक वृत्ति के जीव को महा हर्ष का कारण हो जाती है, उसके सुखानंद का कारण  भी नहीं होती , उसे प्रिय,अप्रिय,सुख, दुःख स्पर्श नहीं करते अर्थात वह उनसे पीड़ित नहीं होता, उसी तरह स्वर्ग के समान सुख से वह हर्षित नहीं होता,ब्रह्मनिष्ठ पुरुष अपने अंतःकरण में ब्रह्मभाव का स्मरण करता हुआ बिलकुल अहंकार हीन होकर वर्ताव करता है ब्रह्मनिष्ठ पुरुष इस जगत में बिलकुल नाटकीय पुरुष रूप से है वह अंतर में भली भाँति जानता  है कि यह सब ब्रह्ममय है परंतु जगद्रूप होने से इसमें  जगद्रूप व्यवहार करना योग्य है,ब्रह्मयज्ञ पुरुष विश्व में जगद्रूप से व्यवहार करने पर भी अंत में फिर अपनी ब्रह्मनिष्ठा पर ही आ ठहरता है।  



                                                                                                  शरणागत
                                                                                               नीलम सक्सेना



सम्पूर्ण "अच्युतपदारोहण" ग्रन्थ  "मन की शांति"  के पाठन के                              लिए  https://neelamsaxena.blogspot.in/2017 पर visit करें । 

Thursday, 9 March 2017

सर्वं खल्विदं ब्रह्म

                                    सर्वं खल्विदं ब्रह्म 

"दीखने वाला जगत आनंद से ही उत्पन्न हुआ है, उसी आनंद से ही स्थित हो रहा है और उस आनंद में ही लीन होता है इस तरह उल्लिखित आनंद से (जगत) भिन्न कैसे हो सकता है।।"

महात्मा वटुक जी के वचनामृत का पान करके श्रोताओं को तृप्ति ही नहीं होती थी,बार बार उनके मुख की पवित्र वाणी सुनने के लिए सबको नयी नयी जिज्ञासा होने से महात्मा बटुक जी के पास आकर बैठते थे। 
                              मुमुक्षुओं ने एक स्वर में जयकार की ध्वनि की। राजा, वामदेव जी के चरणों को प्रणाम कर बोले,"सर्वं खल्विदं ब्रह्म का क्या अर्थ है!इस महावाक्य का क्या प्रयोजन है ? क्या यह मुँह से बोलने का ही वाक्य है या सब ब्रह्ममय है। समाधान के लिए स्थिर बुद्धि से देखना है कि सारा जगत ब्रह्म से ही पैदा हुआ है,ब्रह्म में ही रमता है और लय होता है आदि भी ब्रह्म और अंत भी ब्रह्म है तथा इसी से कहते हैं कि वह ब्रह्मरूप अथवा ब्रह्ममय है मूल रूप से देखने से ब्रह्म एक है।  
  

                                                                                                  शरणागत 
                                                                                               नीलम सक्सेना 




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अहं ब्रह्मास्मि

                                          अहं ब्रह्मास्मि 

                     "जो बात करोड़ों ग्रंथों से कही गयी वह बात मैं आधे श्लोक से कहता हूँ। 
                           कि ब्रह्म सत्य है, जगत मिथ्या है और जीव केवल ब्रह्म ही है।।"

राजा बरेप्सु ने कहा,"हे गुरुदेव!राजा छादित बुद्धि को तत्वमसि के पद का ज्ञान होने पर वह इस संसार से किस तरह तर गया, वह मुझे बताओ,क्योकि इसे जानने की मेरी उत्कट अभिलाषा है"
                        बटुक जी बोले," वह राजा परमानन्द में  बिलकुल लीन हो गया,महात्मा ने राजा के सर पर हाथ रखकर पूछा:-'राजन! को भगवान् ? को भगवान् ? तब राजा ने आँख खोलकर अत्यंत हर्ष पूर्ण इतना ही बोला,"भगवन! देह भाव से आपका दास हूँ, जीव भाव से आपका अंश हूँ और आत्म भाव से जो तुम हो वही मैं हूँ, ऐसी मेरी गति है, अहम् ब्रह्मास्मि ! मैं ब्रह्म हूँ यह सत्य है,आत्मारूप यह सर्व ब्रह्म है।"ऐसे आनंद में उसके रोएं खड़े हो गए शरीर से उसके पसीना निकलने लगा,उन्मत हो नाचने लगा। योगिराज ने उसे हृदय से लिया औरअनेक आशीर्वाद दिए और राजा से पूछा कि राजा अब तेरी शंका दूर हुई ?राजा बोला,"हाँ गुरुदेव ,मैंने प्रत्यक्ष अनुभव किया कि उस परमात्मा का अंश होने से मैं परमात्मा स्वरुप हूँ ,आपकी कृपा से अब बिल्कुल निःशक हो गया हूँ,परमात्मा परम सुखानंदमय है, वह परम ज्ञानमय है, अपने तेज से हृदय को प्रकाशित करके अज्ञान से मुक्त करता है,इसलिए परम गुरुरूप है,गुरूजी महाराज अब मैंने आपके उपेदश का भावार्थ समझा,परमशान्ति -सदाकाल का अविनाशी सुख भी मैं स्वयं हूँ ,परमात्मा सबका मूल है ,वही सबमे व्याप्त दीखता है,अहो कृपानाथ !आपकी कृपा से अब मैं धन्य हूँ ! धन्य हूँ ! धन्य हूँ !  मैं सदा के लिए आपकी शरण में हूँ।"
                      इतना कहकर छादितबुद्धि उन योगीराज के पैरों में गिर पड़ा, तब महात्मा ने बड़े प्रेम से उठाकर अपने हृदय से लगाया और कहा," हे वत्स! हे पुण्यवंत! अब तू सब तरह से इस असार संसार से मुक्त हो गया है , अब तू नगर में जा और धर्म सहित प्रजा का पालन कर तथा इस परम साध्वी पतिवृता(अपनी रानी) का मनोरथ पूर्ण कर,उससे अपने समान परमश्रेष्ठ पुत्र उत्पन्न कर।"
                      यह सुन राजा बोले,"हे कृपानाथ! मैं आपकी कृपा से बंधन मुक्त हुआ हूँ,अब फिर इस मिथ्या प्रपंच और ऐसे दुखमय भवपाश में  क्यों पडूँ ?अब किसकी स्त्री  और किसकी संतान,किसका देश और किसका राज्य ? बस अब तो क्षमा करो अब तो "शिवोSहम ! शिवोSहम !"
                      यह सुन गुरुदेव बोले," हे छादितबुद्धि! जो मनुष्य संसार में रहकर भी उस पर प्रीती रखे बिना सब काम अच्छी तरह से करता है ब्रह्म-आत्मा को सब में एक समान ओत-प्रेत देखता है वही सच्चा स्थित प्रज्ञ  है तेरे जैसे को दुःख क्या,भवपाश कैसा और बंधन किसका है, सब ब्रह्मरूप समझकर नीति से किये हुए राजयादिक,स्त्री संगादिक और सन्तानोत्पादनादि कार्य भी अंत में लेश मात्र दुःखप्रद न होकर सिर्फ ब्रह्मरूप फलवाले सुखमय होते हैं हे राजन !इसमें तुझे तो आश्चर्य लगने लायक कुछ भी नहीं है परब्रह्म के स्वरुप से माया के आश्रय द्धारा जो यह परब्रह्म रूप सृष्टि उत्पन्न हुई उसका सब व्यव्हार ब्रह्मरूप समझकर ही  प्रत्येक मनुष्य को आज्ञा है इसलिए हे राजन! तू भी मेरी आज्ञा मानकर ,जलकमल न्याय की तरह अलिप्त रह,ब्रह्मरूप राज्य का,ब्रह्मरूप धर्म से पालन कर ,राज्यर्शीपद के पद के योग्य हो,तेरा कल्याण हो और कल्याणरूप तेरी यह ब्रह्मनिष्ठ सदा अचल रहे।" गुरुदेव के ऐसे उत्तम वचन सुन राजा उनके पैरों में पड़ा पत्नी सहित अपने नगर को चला, गुरुदेव के प्रति पूर्ण भक्ति रख उनके आज्ञानुसार ब्रह्मरूप से राजा चलकर ,देहावसान (देहांत)के बाद परम तत्त्वको प्राप्त हुआ।

                                                                                       
                                                                                                             शरणागत 
                                                                                                         नीलम सक्सेना 

Tuesday, 7 March 2017

मन को स्थिर करना

                                 मन को स्थिर करना 

योगिराज बोले,"हे राजन! इस मन को स्थिर करने की आवश्यकता है जैसे दर्पण धोने के बाद उसमे अपना प्रतिबिंब पूर्ण रूप से दिखता है यदि हिलता डुलता हो या उल्टा सीधा हो तो उसमे प्रतिबिम्ब सही नहीं दिख सकता उसी तरह मन यदि शुद्ध हुआ तो भी उसके स्थिर हुए बिना उसमे अपना आत्मस्वरूप अच्छी तरह से नहीं दिख सकता इसलिए मुमुक्षु को चाहिए कि उसको स्थिर करे ,भड़कने वाला मन घोड़े के समान चंचल है, बिलकुल अस्थिर है वहु प्रमादी होतेहुए भी बलवान और दृढ है वह एकाएक स्थिर नहीं हो सकता इस मन ने ही इस विश्व की रचना की है, मन ने ही जगत का सत्यत्व रचा है, संसार है जो अद्धैत,द्धैत बनकर दिखाई देता है और सत्य माना जाता है वह अविद्या से पैदा  हुआ मन का खेल है पर यह मन निदिध्यासन, सत्संग ,श्रद्धा ,और वैराग्य से स्थिर किया जा सकता है मन रूप घोड़े को स्थिर करने के लिए खूँटे में बांधना आवश्यक है।
                       मन सब इन्द्रियों का राजा है और उनके द्धारा वह सारे विषयों का भोग करता है प्रत्येक इन्द्रिय के जुदे-जुदे(अलग-अलग)विषय भोग से मन एक मदमत्त हाथी के समान बन जाता है और फिर विषय भोग को छोड़,दूसरे किसी को कुछ समझता ही नहीं,मनुष्य का मन जो महामदोन्मत हाथी से भी अधिक बलवान और अदृश्य है उसको वश में करना बहुत कठिन है मन को वश में करने के लिए सारे उपाय पहले शरीर पर ही करने पड़ते हैं क्योकि उसका दृढ़ सम्बन्ध शरीर से ही है व्रत,तपश्चर्या,सत्यबोलना,पर-धन और पर-स्त्री का तिरस्कार,दूसरे की निंदा और अपनी बढ़ाई,विषय की बातों से अरुचि, परमार्थ में वृत्ति, सुख दुःख सहने की आदत,प्राणी  पर दया इत्यादि नियमों से शरीर को दुःख हो तो भी दृढ़पूर्वक आचरण करना,शास्त्र अनुसार यह सिर्फ मनोनिग्रह के लिए ही है। शरीर की इन्द्रियों का बल न्यून होने से वे उन्मत होकर नहीं दौड़तीं,बल न्यून होने से अकड़ने वाला मन स्वयं ही नर्म हो जाता है। मन को पुनः उन्मत बनने का अवकाश न देने के लिए महात्मापुरुषों के आदेशानुसार भगवत्परायण बनना चाहिए।
                        मन-अहंकार जो सबका कर्ता,विकारों का कारणरूप और आत्म स्तिथि का चोर है तथा उसमें  निवास करने वाले "मैं" और "मेरा" इस ममत्व को धारण करनेवाला है,जीव मुमुक्षु को चाहिए की उसका त्याग करदे।
                       जीव सर्वदा एकरूप,चैतन्य,व्यापक,निर्विकार,आननद स्वरुप, निर्दोष और कीर्तिमय है संसार में उसके आने का कारण मन-अहंकार ही है इस महादुख देने वाले मन-अहंकार शत्रु को असंग रूप(विरक्ति रूप) शस्त्र से काटकर फेंकने पर ही जीव आत्मज्ञान रूप चक्रवर्ती पद को प्राप्त होता है और जीव ब्रह्म में ही पूर्णरूप से निवास करता है।
                        इन्द्रियों और मन को स्थिर करने के लिए मन को खूटें से बाँधना चाहिए।मन रूप घोड़े की खूँटी(कील)  भगवदुपासना है और साथ ही श्रद्धा रूप सांकल से उसे बाँधना है अर्थात पूर्ण श्रद्धा रखकर, भगवान की उपासना में संकल्प-विकल्प का दृढ़ता से त्याग  कर,भगवान की उपासना करनी चाहिए, एकांत और पवित्र स्थान में पवित्र होकर,बैठ, सब अंगों और इन्द्रियों को स्थिर रख,आँखें बंद कर,ह्रदय रूप आकाश में सूर्य के समान तेजवाला प्रकाश मनोमय (मानसिक) दृष्टि से देखो और उसमे लीन हो,यह प्रकाश सबको प्रकाशित करने वाले परब्रह्म का है परब्रह्म की उपासना के लिए उस तेज का ध्यान धरो ,यह तेज सविता रूप जगदात्मा ईश्वर का है और इसी के द्धारा यह सारा संसार प्रकाशित है यही तेज हमारी बुद्धि(प्रज्ञा) को विकसित कर प्रकाशित कर उसकी उपासना को प्रेरित करता है।
                       यदि गायत्री का स्मरण (जप) ईश्वरी तेज को ध्यान सहित किया जाये तो, उसके द्धारा मनुष्य बिलकुल निष्पाप और स्थिर चित्त वाला होता है, तेज में परमात्मा के साकार स्वरूप का ध्यान करना चाहिए वहाँ मन स्थिरता को प्राप्त होता है। "हे राजा" तू सच्चिदानंद रूप में रमण कर,प्रवेश कर और उससे  पर हो।"
                      महाराज छादितबुद्धि और योगिराज का संवाद कह कर वटुक वामदेव जी बोले,"बरेप्सु! योगिराज ने इस तरह छादितबुद्धि को अपने पास बिठाया और उसके अंतःकरण में उस शब्द(तत्वमसि) ब्रह्मरूप भगवत तेज का अवलोकन करा कर उस अच्युत  स्वरुप का उसे नख से शिखपर्यन्त तक यथार्थ ज्ञान कराया यह महामंगलमय स्वरुप अपने भीतर खड़ा होते ही छादितबुद्धि विहल(गदगद)  हो गया,देहभान भूलकर आनंद सागर में हिलोरे लेने लगा,भगवत प्रेरणा से उसे स्मरण हुआ कि योगिराज ने मुझे "तत्वमसि" वह(ब्रह्म)तू (आत्मा) है ऐसा जो भान कराया था बह परब्रह्म स्वयं यही है। ईश्वर इच्छा से उसके हृदय से अज्ञानावरण का पर्दा दूर हो गया।
                        उस राजा की देह वासना और दूसरी वासनाएं भंग हुईं और अंत में वह अविकृत रूप में लीन हो गया।                    
                   

                                                                                                          शरणागत 
                                                                                                      नीलम सक्सेना   











Monday, 6 March 2017

मन: शुद्धि कर्म

                                        मन: शुद्धि कर्म 

महात्मा बोले,"राजा,शरीर और मन को शुद्ध करने की इच्छा रखने वाला पुरुष प्रतिदिन पिछली चार या छः घड़ी रात रहे उठे और अपने चित्त को किसी दूसरी बात में न जाने देकर प्रेमपूर्वक सिर्फ परम मंगल रूप  जगतनियंता प्रभु का स्मरण कर उसी की कीर्ति का गान करे,फिर शुभ वस्तुओं का अवलोकन कर, हाथ जोड़ भू  चरण स्पर्श कर प्रणाम कर शौच स्नान कर,पवित्र कपडे पहन कुशासन या ऊन के शुद्ध वस्त्र पर एकांत और पवित्र भूमि में शांतचित्त  से  पूर्वाभि  मुख पदमासन लगाकर बैठें और एकाग्रता से ईश्वर का आराधन करें फिर गदगद स्वर से पवित्र प्रज्ञावान (बुद्धिमान)और पापों से रक्षित होने की प्रार्थना करें। 
                  प्रातःकाल के होम और पूजनपर्यंत कर्म,हो चुकने पर गृहस्थ को  यथाशक्ति दान करें,दान में अन्न दान सबसे श्रेष्ठ है,दान लेने वाला पात्र ऐसा हो जो उस दान की वस्तु को सुमार्ग में खर्च करें तेरे समान राजा को तो नित्यप्रिय दान करना चाहिए,संध्यावंदन,पितृ आदि का तर्पण और पंचमहायज्ञ करना चाहिए। 
                  देवों को संबोधन कर अग्नि में होम करना देवयज्ञ, क्षुधित अतिथि को मानपूर्वक भोजन देना मनुष्य यज्ञ, पितरों के नाम से तर्पण करना पितृयज्ञ, वेदाध्यन करना, ब्रह्मयज्ञ,गाय ,कुत्ता, कौआ, कीट ,पतंगादि को अन्न खिलाना भूतयज्ञ है। ये पंचमहायज्ञ करने वाला नित्य  पांच पापों से मुक्त रहता है। 
                   सांयकाल सूक्ष्म भोजन करके ईश्वर का स्मरण करते सो जाये। हे राजन ! यह विधि अतिआवश्यक है,कभी भूलने योग्य नहीं है यह शरीर और मन दोनों की शुद्धि और पवित्रता के लिए आवश्यक है परोपकार मन:शुद्धि की विधि है। 

                                                                                                          शरणागत 
                                                                                                       नीलम सक्सेना 
       

Sunday, 5 March 2017

पाँवडे में पैर और ब्रह्म उपदेश

                             पाँवडे में पैर और ब्रह्म उपदेश

"जो पुरुष  कामनाओं का त्यागकर निःस्पृह,ममता और अहंकार रहित हो विचरता है वह  शांति प्राप्त करता है"

                  महाराजा वरेप्सु ने हाथ जोड़कर कहा," कृपानाथ! इस तरह क्षण भर में उस वैश्य को भगवदुपदेश कैसे हुआ और इतने में ही उसकी सद्गति कैसे हुई,यह बात मेरी समझ में नहीं आती । 
                  गुरु वामदेव जी बोले,"राजा आश्चर्य की कोई बात नहीं है,उपदेश होने के समय का जो क्षण है उसे क्षण नहीं समझना चाहिए, पृथ्वी में बीज वोने में क्षण भर ही लगता है  परंतु बीज का बड़े विस्तार वाला फलित बृक्ष होता है यदि क्षण नहीं अनेक दिनों तक अत्यंत परिश्रम करके वही वीज क्षार भूमि व पाषाणमय पृथ्वी में बोया गया हो तो उसका परिणाम वैसा नहीं होता जैसा किसी रसमयी भूमि में वोने से होता है। वह बीज तो वोते ही नष्ट हो जाता है इसी तरह सारे उपदेश बीजवत ही हैं और उस उपदेश रूप बीज  को वोने और उपदेश  करने में क्षणभर ही आवश्यक है क्योकि वह बीज यदि शुद्ध, श्रद्धालु, पवित्र ह्रदय रूप रस वाली भूमि में बोया जाये तो,अंत में भगवत भक्ति रूप बड़ा फलित बृक्ष हो जाता है और उसके भगवत प्राप्ति रूप अमर फल का रस पीकर प्राणी अजर-अमर हो जाता है। संत महात्मा सद्गुरु का भगवदुपदेश मिलने से प्राणी को तर जाने में क्या बिलम्ब है? एक उदाहरण सुनाता हूँ सुनो :-
                      "छादितबुद्धि" नामक एक समर्थ राजा था वह सदा सचेत रहता था घूमना, ढूंढना, लड़ना और जीतना, घेरना और स्वाधीन करना यही उसका नित्य का कर्तव्य था स्मरणगामी के समान जब जहाँ चाहिए तब वहां वह राजा आकर मनो खड़ा ही है इस तरह निरंतर घोड़े पर सवार होकर वह घूमा करता था जैसे उसके शरीर में कोई अवकाश नहीं था वैसे ही मन को भी जरा स्थिर रहने का अवकाश नहीं मिलता था। राजा की ऐसी दशा देख उसके तन मन और आत्मा के आरोग्य के लिए रानी को बड़ी चिंता रहती थी अत्यंत परिश्रम के कारण मन की पवित्रता का भी नाश हो जाता है और मन की पवित्रता जाते ही आत्मा की उन्नति भी दूर हो जाती है इसलिए उसकी रानी जो धर्मशीला, ब्रह्म ज्ञान की जानने वाली चतुरा  और पतिवृता थी। वह राजा के निरंतर भटकते हुए तन मन को किसी भी रीति से स्थिर और विश्राम करने वाला बनाने की अभिलाषी थी।
                      एक बार रानी संत को ढूंढती हुई एक आश्रम में गयी वहां एक सत्पुरुष आनंद से वैठे हुए ईश्वर भजन कर रहे थे। रानी ने पास में जाकर प्रेम पूर्वक प्रणाम किया और अपना परिचय दिया संत ने उसे आशीर्वाद देकर राजा,प्रजा, प्रधान की कुशलता पूछी, रानी ने कहा "मुनिवर!  आपके आशीर्वाद से सर्वत्र आनंद है लेकिन  लिए बड़ी चिंता रहती है मेरे स्वामी आज तक न शांति से सोये और न ही भोजन चैन से किया तो आत्म शोधन का ध्यान कहाँ से होवे यदि निरंतर ऐसा ही होता रहा तो अंत में सुख कैसे मिलेगा,परलोक तो निश्चय ही बिगड़ेगा,अनेक सुकृतियों से प्राप्त हुआ मनुष्य देह यूं ही व्यर्थ चला जाएगा।
                       रानी की प्रार्थना सुन उस महात्मा पुरुष ने कहा,"राजपत्नी ! तेरे मन में पैदा हुई आरोग्य विषयक सावधानी अनुचित नहीं है,प्रत्येक मानव प्राणी का यह कर्तव्य है कि वह अपने मनुष्य जन्म को सफल कर यथाशक्ति परमार्थ साधन करे यह साधन केवल मनुष्य देह के द्धारा ही होता है और किसी देह से नहीं इसलिए प्राणी पर दया कर यह साधन करने को ही ईश्वर मनुष्य देह देता है ऐसी परम कृपा से प्राप्त हुआ मनुष्य देह रूप अमूल्य लाभ,हाथ में आये हुए अमृत को पिने के आलस्य से राख में डाल देने के समान होता है। राजा अपने राज्य की रक्षा के लिए निरंतर परिश्रम करता है,यह उसका धर्म है परंतु संसार कार्य के साथ उसे अपने आत्म कल्याण का भी परिश्रम करना आवश्यक है। राजबाला! तू चिंता न कर सब ईश्वर की इच्छा अनुसार होगा,मैं किसी समय तेरे यहाँ स्वयं आऊंगा और उपदेश करके राजा का मानसिक परिश्रम न्यूनतम करूंगा। मुनि के ऐसे वचन सुनकर रानी संत से आज्ञा लेकर प्रणाम कर अपने नगर को चली गयी।
                       एक दिन महाराजा छादितबुद्धि अपने स्नान संध्यादिक नित्य कर्म पूर्ण करके अंतःपुर में रानी के भवन में भोजन कर रहा था इतने में एक दूत आया और दासी द्धारा कई सांकेतिक शब्द छादित बुद्धि को कहला भेजे जिनको सुनकर राजा तुरंत भोजन छोड़ झट उठ वैठा रानी रोकती रह गयी " कृपानाथ !इस तरह भोजन छोड़ नहीं उठना चाहिए ये तो भोजन का अनादर करना कहाता है परंतु राजा ने कुछ नहीं सुना और 'जय श्री हरि ' का मंगल शब्द कहते हुए वहां से तुरंत बाहर निकल आया और अपने मंत्रणा स्थान में आ वैठा और मंत्रणा परामर्श की ,कि आज रात सारी सेना के साथ शत्रु पर तुरंत चढ़ाई कर दो अचानक चढ़ाई करने से शत्रु सेना का कुछ भी बल नहीं चलेगा।
                           राजा तुरंत अपने भवन के चौक में आया और तरुण हाथी साथ शीघ्रता से चलते हुए अपने घोड़े के समीप आ पंहुचा,इतने में उसने महाद्द।र   के पास किसी तेजस्वी योगी पुरुष को प्रवेश करते देखा हाथ में कमण्डल और दंड तथा मुँह में "नारायण"नाम धारण किये था जैसे अग्नि में तपाया हुआ सोना ,योगी की सुन्दर कान्ति देख राजा की दृष्टि स्वयं ही उसकी और आकृष्ट हुई राजा ने झुककर महायोगी को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर विनय की कि "मुनिवर! आपके शुभागमन से मैं कृतार्थ हुआ ,मेरा भवन पवित्र हुआ, आपने किस हेतु से यह भूमि पवित्र की है ? जो आज्ञा हो कहिये। "
                         राजा का चित्त तो अपने कार्य  व्यस्त था इसलिए अपने प्रश्न  उत्तर मिलने के  पूर्व ही अपना  पैर पांवड़े  रखकर छलांग लगाकर अति शीघ्र घोड़े पर चढ़ वैठा, आवश्यक कार्य होने के उपरांत भी वह महात्मा  वह महात्मा के सम्मुख से, उसकी अवज्ञा कर, बिना आज्ञा चले जाना उन महात्मा का अपमान करने जैसा था इसलिए वह बड़े कष्ट से अपने मनोवेग को रोककर खड़ा रहा,इतने में योगिराज बोले ,"राजा,मुझे तो कुछ इच्छा नहीं,परंतु  मैं बहुत दिनों से तेरी राज्य  भूमि में रहता हूँ,इससे तेरा उपकार करना आवश्यक  है ,यह जान कर मैं यहाँ आया हूँ मैं तुझे सत्य शुद्ध मार्ग का  उपदेश करना चाहता हूँ,जिससे तेरा  मंगल हो और अंत में तू अनंत सुखों का भोक्ता हो,यह सुन राजा बोला,"कृपानाथ! आप मेरा कल्याण चाहते हैं ,यह बड़े हर्ष की बात है और वैसा उपदेश मैं सुनने को तैयार हूँ,परंतु आप जानते ही होंगे कि, अपना राज-काज मैं स्वयं ही देखता हूँ इसलिए मुझे क्षणभर भी अवकाश नहीं मिल सकता और आज तो मैं ऐसे जरूरी कामों में फँसा हूँ यदि जरा भी देर हो जाये तो सारे राज्य को भारी हानि पहुंचे और मैं भली भांति यह भी जनता हूँ कि आप जैसे महात्मा मुझपर कृपा करने को पधारे हैं घर में आयी हुई गंगा का शीघ्र लाभ नहीं लिया तो फिर ऐसा सुन्दर अवसर मिलना भी दुर्लभ है परंतु क्या करूँ ? मैं दीन हूँ, मेरे कल्याण के लिए आपको जो कुछ कहना हो वह झटपट एक क्षण में कहा जा सके तो कहिये। "
                           महात्मा बोले सत्य है राजा तेरा मंगल हो, तू सावधान हो, एक चित्त हो, और मैं जो कुछ कहूँ उसे सुनकर आनंद से अपने काम पर चला जा, राजा ने शीश झुकाकर महात्मा के द्धारा दिए उपदेश को सुना, योगिराज ने राजा को "तत्वमसि" अक्षरों का उपदेश दिया और बोले "वत्स !जा अब इस मन्त्र का स्मरण और मनन करते हुए सुख से अपना कार्य साधना" उपदेश हो चुका ,उसी समय राजा उन्हें वंदन कर घोड़े पर सवार हो चल दिए।
                          योगी के पास से रवाना हो राजा अपनी सेना के साथ चल दिया और चलते चलते बहुत दूर निकल आने पर एक बृक्ष के नीचे आराम करने के लिए सब उतर पड़े,जल पीकर आम के बृक्ष के सहारे वैठकर विश्राम करने लगा और विचार करने लगा कि मेरा शत्रु कौन है,उसे उसे कैसे पराजित कर सकेंगे ? सोचते हुए उसकी आँख लग गयी कुछ ही देर में उसे स्वप्न में मानो भ्रान्ति युक्त शब्द की तरह सिर्फ इतना ही उत्तर मिला कि "तत्वमसि" वह तू ही है अचानक राजा की आँख खुल गयी और वह स्वप्न में होने वाले आभास के विषय में आश्चर्य सहित विचार करने लगा कि "अरे! मैंने यह क्या सुना ?तत्वमसि यह शब्द राजभवन से निकलते समय उस योगी ने मुझसे कहा था वही फिर यहाँ मुझसे किसने कहा?इसमें क्या मतलब है? इसका अर्थ तो स्पष्ट है ,तत-त्वम्-असि ,वह तू है इसमें मुझे क्या समझना है? स्वप्न में भी तत्वमसि की ध्वनि हुई,वह तू है !अरे यह क्या? वह मैं हूँ? मैं कौन हूँ? स्वप्न में शत्रु के भय से मैं दुखी होने लगा उसके उत्तर में कहा कि"तत्वमसि इसके कहने क्या भाव है? क्या वह शत्रु मैं हूँ? नहीं नहीं अपना शत्रु मैं कैसे? पर नहीं इसमें कुछ कारण होगा, इस प्रकार "तत्वमसि" महावाक्य  के अर्थ की खोज में वह इतने गहरे उतर गया कि उसे आभास ही नहीं रहा कि वह कहाँ और क्यों आया है?इतनी शीघ्रता से ,वह बात भी पल भर भूल गया। कृपानिधान! यह क्या शांत होकर घोड़े पर सवार होकर शत्रु की और चल दिया कुछ ही दूरी पर उसे सामने से आती हुई भाले की नोंक और फहराती हुई ध्वजा दिखाई पड़ी समीप आने पर मालूम हुआ कि कोई एक वली घुड़सवार आता है उस वीर की पोशाक से ही राजा ने कल्पना की कि वह शत्रु सैन्य का वीर है।
                      राजा ऐसे प्रचण्ड योद्धा को देखकर चिंतित हो उठे सोचने लगे कि ऐसे ही प्रचंड योद्धाओं की शत्रु सेना होगी, कैसे विजय प्राप्त कर सकेंगे! पल भर में  उनके निकट आ पहुँचा और बोल उठा ,"अहो !  जिन प्रतापी भूपति की विशाल राज्य भूमि में मैं खड़ा हूँ और अपने स्वामी की आज्ञा से जिनसे मिलना चाहता है उन महाराज छादितबुद्धि की यही सवारी होगी यह सुन छादितबुद्धि का एक सवार बोला वीर!तुम्हारा अनुमान ठीक है परंतु आप हमारे स्वामी से क्यों मिलना चाहते हैं ? यह सुन घोड़े से उतर कर  उस वीर ने राजा को प्रणाम किया और पत्र निकालकर राजा को दिया,पत्र पढ़कर राजा की सारी चिंता एकदम दूर हो गयी राजा ने सवार से कहा कि अब हम वहीँ आते हैं तुरंत ही सब उस सवार के साथ चले। छादितबुद्धि अंतर्मती से जा मिला अंतर्मती ने जो प्रेम उस समय दर्शाया उससे स्पष्ट मालूम हुआ कि उसे शत्रु समझकर छादितबुद्धि उसके सम्बन्ध में जो विचार रखता था वह उसकी भूल थी।
                      अंतर्मती से विदा लेकर छादितबुद्धि अपने नगर की और चल पड़ा और विचार करने लगा कि आज निः संदेह अपने हाथों से मैं भारी अनर्थ बटोर लेता, मेरे हाथोँ से ही मेरे शांत राज्य में भगदड़ पड़ती, अपना नाश मैं स्वयं ही कर लेता अर्थात मैं ही अपना शत्रु हो जाता। अहा! वास्तव में उस बृक्ष के नीचे मुझे जो स्वपनाभास हुआ था उसका यथार्थ भावार्थ मैंने अब समझा कि तत्वमसि ,वह सत्य है अर्थात अपना शत्रु मैं ही था "तत्वमसि" महावाक्य का जो उपदेश हुआ वह यथार्थ में भ्रम नहीं ,परंतु मेरे कल्याण के लिए है मै कामी ,क्रोधी ,लोभी,मोहांध ,तृष्णावाला और सुखदुःखादि अंतःकरण का धर्म वाला हूँ।
                    परमात्मा  सर्वसमर्थ है इन्ही विचारों में डूबा  हुआ वह अपने राज्य में वापिस पहुँचा सारी सेना के साथ राजा ने अपने मंत्रियों से पुछा की," महाराज ! योगिराज कहाँ हैं? उनका प्रबंध सुचारू रूपेण किया है या नहीं ,चलो मुझे उनसे मिलवाओ मुझे उनके दर्शन करने हैं यह सुन किंकर्तव्यविमूढ़ अधिकारी ने विनय की कि ,महाराज !यहाँ अब योगिराज कहाँ है? वह तो उसी समय चले गए,आपके आदेशानुसार हमने बहुत आग्रह किया परंतु वह निःस्पृही महात्मा तो ईश्वर का स्मरण करते हुए चले गए। "
                     राजा बिल्कुल निराश हो गए ,"अरे!  अब उन महात्मा को कहाँ खोजूं ? वह  न जाने कहाँ से आये
और कहाँ को गए होंगे ?ऐसे महात्मा तो किसी गहन पर्वत की गहन गुफा में रहते हैं जिन्होंने उस समय महात्मा को प्रत्यक्ष रूप में देखा था उन लोगों को महात्मा की खोज के लिए भेजा और स्वयं चिंतित चित्त से रनिवास(अंतःपुर) में गया रानी ने राजा को उदास देखकर उदासी का कारण पूछा,तब राजा ने कहा,"देवी,क्या कहूँ! जिन्होंने मुझे पल भर का समागम होने पर ही मेरे भावी संकट से मुझे उबारा  महापुरुष की कुछ भी सेवा या किये बिना मैं मूर्ख अपने कार्य के लिए चला गया,हरे! हरे! अब स्वप्न में भी मुझे उनका समागम कहाँ से होगा अब तो जब उनके दर्शन होंगे तभी मुझे भोजन भावेगा।"
                       राजा के ऐसे वचन सुनकर रानी वचन में बहुत  हर्षित हुई उसने जाना कि,"अब कुछ दशा फिरी,आनंद सहित आश्चर्य करने लगी कि,"अरे!योगिराज ने मुझपर गुप्त रीति से बड़ी कृपा की है! अहा! कहाँ राजकाज के लिए राजा की दौड़ धूप और कहाँ सत्समागम के लिए राजा की तरसती मनोवृति! धन्य है सत्समागम को !  सत्पुरुष के सिर्फ दर्शन के प्रभाव को भी धन्य है !पहले  राजा कभी मेरे पास इतनी देर तक बैठते ही नहीं थे और अब राजकाज भूल कर सिर्फ महात्मा के ही दर्शन की गंभीर चिंता में निमग्न है ,अब हमें कल्याण की आशा होती है।
                         इस बात का रहस्य सिर्फ रानी ही जानती थी, इससे राजा को धीरज देकर बोली,"प्राणनाथ !चिंता न कीजिये जिसके लिए अत्यंत व्यग्रता होती है उसकी शीघ्र प्राप्ति होती है। आपके भेजे हुए अधिकारी क्या सूचना लाते हैं यह जानने के बाद दूसरा उपाय करूंगी आप निश्चिन्त होकर भोजन और विश्राम कीजिये। "
                         अधिकारी चारों ओर घूमकर लौट आये परंतु योगिराज का कुछ पता नहीं चला, निराश हुए राजा को रानी ने धीरज देकर अकेले ही अपने साथ चलने की प्रार्थना की और बोली,"प्राणनाथ! मैंने उन महात्मा को नहीं देखा परंतु एक महात्मा को उपवन में उनके आश्रम में देखा है कदाचित कहीं वही महात्मा आपको दर्शन देकर गए हों,पहले हम वहीँ चलें। राजा-रानी दोनों ने उस पर्णशाला में धीरे-धीरे प्रवेश किया और राजा ने देखा कि वही ज्ञानमूर्ति भीतर विराज रही थी। राजा के हर्ष का पार न रहा, ,उसी समय बड़े प्रेम से भूमि पर गिरकर उनके चरणों में दंडवत प्रणाम किया फिर दोनों हाथ जोड़कर नम्र होकर चकित के सामान खड़ा रहा,परंतु मुख से कुछ भी न बोल सका  राजा को आया देख महात्मा ने तत्काल आशीर्वाद देकर सामने पड़े हुए आसन पर बैठने को कहा, राजा पत्नी सहित बैठा,उस समय राजा को उस सद्गुरु के पुनः दर्शन से उतना ही आनंद हुआ जितना निर्धन पुरुष को उसका खोया हुआ धन पुनः प्राप्त होने से होता है।
                           महात्मा ने जान  लिया कि,"अब इसका अंतःकरण स्वात्मशोधन की ओर झुकने से  इसको अधिकार प्राप्त हुआ है,इसपर पड़ा हुआ माया रूप अंधकार का पर्दा  हो गया है यह पात्र है,अधिकारी बना है,उपदेश के योग्य है" ऐसा जानकर वह बोला,"क्यों राजा किसलिए आगमन हुआ है? सर्वत्र कुशल तो है?"राजा बोला," कृपानाथ! आपकी कृपा से सब कुशल है, आशीर्वाद ही सब कुशल और सब अशुभ को शुभ करने वाला है  , हे संत! आपकी ही प्रेरणा से मैं बड़ी आपदा से बच गया हूँ। हे सदगुरुदेव ! मैं अज्ञान हूँ, अघम  हूँ ,संसार रूप पाश में भली भाँति जकड़ा हूँ इसलिए मुझपर दया कर मुझे उस पाश से मुक्त करो,हे हे गुरुदेव ! आपके वचनामृत श्रवण करने की उत्कंठा बढ़ती ही जाती है मैं जानता हूँ कि मेरे पुर्व के पुण्योदय के कारण ही ये संयोग प्राप्त हुआ है नहीं तो आप जैसे महात्मा के दर्शन मुझे कहाँ से होते? अपने पूर्व सुकृत के कारण ही मुझे आपका समागम हुआ है। हे महाराज ! अब आप मेरे सब कष्टों को दूर कर,मुझे ऐसा परम सुख दो जो न  कभी न्यून हो न दूर हो।
                              यह सुन योगिराज बोले ," तत्वमसि "ऐसा उत्तर सुनकर तो राजा चकित हो गया और अपने मन में विचार करने लगा कि  यह  आश्चर्य !महाराजतो प्रत्येक प्रश्न का एक ही उत्तर देते हैं ,इससे  समझूं ?
                               राजा हाथ जोड़कर नम्र स्वर में बोला ,"हे देव !  सत्पुरुष! मैं अज्ञ और निर्बुद्धि हूँ सारासार समझ न सकने से विचारहीन कृपण भी हूँ इसलिए मेरी इस दशा पर दया करो,आपके उपदेशरूप महावाक्य  अभिप्राय न समझ सकने से घबराया हुआ मैं ,शिष्य होकर आपकी शरण आया हूँ,इसलिए मेरा मोह मिटाकर मुझे निःसंशय करो" योगिराज बोले,"तत्वमसि घर जा और एकांत में बैठ ,एकाग्रचित्त से अच्छी तरह मनन कर ,हे नरेन्द्र ! प्राणी के विचार करने का साधन मन है। मन, बुद्धि ,चित्त  और और अहंकार को अंतःकरण चतुष्टय कहते हैं परंतु यदि मन शुद्ध हो तभी उसमे यथार्थ  विचार प्रवेश कर सकता है ,मन दर्पण जैसा है।
                              मन जड़ होने पर भी सूक्ष्म होने से शरीर में रहने पर भी नहीं दीखता , तो भी उसकी सत्ता बहुत बड़ी है इन्द्रियों को वह अपने इच्छानुसार चलाता है इसलिए शरीर की साड़ी इन्द्रियों का राजा है यह मन जहाँ दौड़ता है वहां इन्द्रियां भी दौड़ती है,इन्द्रियों के द्धारा वही भले और बुरे कर्म कराता है।  हे राजन! स्थूल देह में त्रिदोष का निवास है चिंता,व्यग्रता  और अज्ञान,ये तीन दोष हैं उनको दूर करने के लिए पहले मन को शुद्ध  करने के लिए स्थूल देह को शुद्ध और नियमित करो। "




                                                                                                       


                                                                                            शरणागत 
                                                                                         नीलम सक्सेना