महाराजा वरेप्सु ने हाथ जोड़कर कहा," कृपानाथ! इस तरह क्षण भर में उस वैश्य को भगवदुपदेश कैसे हुआ और इतने में ही उसकी सद्गति कैसे हुई,यह बात मेरी समझ में नहीं आती ।
गुरु वामदेव जी बोले,"राजा आश्चर्य की कोई बात नहीं है,उपदेश होने के समय का जो क्षण है उसे क्षण नहीं समझना चाहिए, पृथ्वी में बीज वोने में क्षण भर ही लगता है परंतु बीज का बड़े विस्तार वाला फलित बृक्ष होता है यदि क्षण नहीं अनेक दिनों तक अत्यंत परिश्रम करके वही वीज क्षार भूमि व पाषाणमय पृथ्वी में बोया गया हो तो उसका परिणाम वैसा नहीं होता जैसा किसी रसमयी भूमि में वोने से होता है। वह बीज तो वोते ही नष्ट हो जाता है इसी तरह सारे उपदेश बीजवत ही हैं और उस उपदेश रूप बीज को वोने और उपदेश करने में क्षणभर ही आवश्यक है क्योकि वह बीज यदि शुद्ध, श्रद्धालु, पवित्र ह्रदय रूप रस वाली भूमि में बोया जाये तो,अंत में भगवत भक्ति रूप बड़ा फलित बृक्ष हो जाता है और उसके भगवत प्राप्ति रूप अमर फल का रस पीकर प्राणी अजर-अमर हो जाता है। संत महात्मा सद्गुरु का भगवदुपदेश मिलने से प्राणी को तर जाने में क्या बिलम्ब है? एक उदाहरण सुनाता हूँ सुनो :-
"छादितबुद्धि" नामक एक समर्थ राजा था वह सदा सचेत रहता था घूमना, ढूंढना, लड़ना और जीतना, घेरना और स्वाधीन करना यही उसका नित्य का कर्तव्य था स्मरणगामी के समान जब जहाँ चाहिए तब वहां वह राजा आकर मनो खड़ा ही है इस तरह निरंतर घोड़े पर सवार होकर वह घूमा करता था जैसे उसके शरीर में कोई अवकाश नहीं था वैसे ही मन को भी जरा स्थिर रहने का अवकाश नहीं मिलता था। राजा की ऐसी दशा देख उसके तन मन और आत्मा के आरोग्य के लिए रानी को बड़ी चिंता रहती थी अत्यंत परिश्रम के कारण मन की पवित्रता का भी नाश हो जाता है और मन की पवित्रता जाते ही आत्मा की उन्नति भी दूर हो जाती है इसलिए उसकी रानी जो धर्मशीला, ब्रह्म ज्ञान की जानने वाली चतुरा और पतिवृता थी। वह राजा के निरंतर भटकते हुए तन मन को किसी भी रीति से स्थिर और विश्राम करने वाला बनाने की अभिलाषी थी।
एक बार रानी संत को ढूंढती हुई एक आश्रम में गयी वहां एक सत्पुरुष आनंद से वैठे हुए ईश्वर भजन कर रहे थे। रानी ने पास में जाकर प्रेम पूर्वक प्रणाम किया और अपना परिचय दिया संत ने उसे आशीर्वाद देकर राजा,प्रजा, प्रधान की कुशलता पूछी, रानी ने कहा "मुनिवर! आपके आशीर्वाद से सर्वत्र आनंद है लेकिन लिए बड़ी चिंता रहती है मेरे स्वामी आज तक न शांति से सोये और न ही भोजन चैन से किया तो आत्म शोधन का ध्यान कहाँ से होवे यदि निरंतर ऐसा ही होता रहा तो अंत में सुख कैसे मिलेगा,परलोक तो निश्चय ही बिगड़ेगा,अनेक सुकृतियों से प्राप्त हुआ मनुष्य देह यूं ही व्यर्थ चला जाएगा।
रानी की प्रार्थना सुन उस महात्मा पुरुष ने कहा,"राजपत्नी ! तेरे मन में पैदा हुई आरोग्य विषयक सावधानी अनुचित नहीं है,प्रत्येक मानव प्राणी का यह कर्तव्य है कि वह अपने मनुष्य जन्म को सफल कर यथाशक्ति परमार्थ साधन करे यह साधन केवल मनुष्य देह के द्धारा ही होता है और किसी देह से नहीं इसलिए प्राणी पर दया कर यह साधन करने को ही ईश्वर मनुष्य देह देता है ऐसी परम कृपा से प्राप्त हुआ मनुष्य देह रूप अमूल्य लाभ,हाथ में आये हुए अमृत को पिने के आलस्य से राख में डाल देने के समान होता है। राजा अपने राज्य की रक्षा के लिए निरंतर परिश्रम करता है,यह उसका धर्म है परंतु संसार कार्य के साथ उसे अपने आत्म कल्याण का भी परिश्रम करना आवश्यक है। राजबाला! तू चिंता न कर सब ईश्वर की इच्छा अनुसार होगा,मैं किसी समय तेरे यहाँ स्वयं आऊंगा और उपदेश करके राजा का मानसिक परिश्रम न्यूनतम करूंगा। मुनि के ऐसे वचन सुनकर रानी संत से आज्ञा लेकर प्रणाम कर अपने नगर को चली गयी।
एक दिन महाराजा छादितबुद्धि अपने स्नान संध्यादिक नित्य कर्म पूर्ण करके अंतःपुर में रानी के भवन में भोजन कर रहा था इतने में एक दूत आया और दासी द्धारा कई सांकेतिक शब्द छादित बुद्धि को कहला भेजे जिनको सुनकर राजा तुरंत भोजन छोड़ झट उठ वैठा रानी रोकती रह गयी " कृपानाथ !इस तरह भोजन छोड़ नहीं उठना चाहिए ये तो भोजन का अनादर करना कहाता है परंतु राजा ने कुछ नहीं सुना और 'जय श्री हरि ' का मंगल शब्द कहते हुए वहां से तुरंत बाहर निकल आया और अपने मंत्रणा स्थान में आ वैठा और मंत्रणा परामर्श की ,कि आज रात सारी सेना के साथ शत्रु पर तुरंत चढ़ाई कर दो अचानक चढ़ाई करने से शत्रु सेना का कुछ भी बल नहीं चलेगा।
राजा तुरंत अपने भवन के चौक में आया और तरुण हाथी साथ शीघ्रता से चलते हुए अपने घोड़े के समीप आ पंहुचा,इतने में उसने महाद्द।र के पास किसी तेजस्वी योगी पुरुष को प्रवेश करते देखा हाथ में कमण्डल और दंड तथा मुँह में "नारायण"नाम धारण किये था जैसे अग्नि में तपाया हुआ सोना ,योगी की सुन्दर कान्ति देख राजा की दृष्टि स्वयं ही उसकी और आकृष्ट हुई राजा ने झुककर महायोगी को प्रणाम किया और हाथ जोड़कर विनय की कि "मुनिवर! आपके शुभागमन से मैं कृतार्थ हुआ ,मेरा भवन पवित्र हुआ, आपने किस हेतु से यह भूमि पवित्र की है ? जो आज्ञा हो कहिये। "
राजा का चित्त तो अपने कार्य व्यस्त था इसलिए अपने प्रश्न उत्तर मिलने के पूर्व ही अपना पैर पांवड़े रखकर छलांग लगाकर अति शीघ्र घोड़े पर चढ़ वैठा, आवश्यक कार्य होने के उपरांत भी वह महात्मा वह महात्मा के सम्मुख से, उसकी अवज्ञा कर, बिना आज्ञा चले जाना उन महात्मा का अपमान करने जैसा था इसलिए वह बड़े कष्ट से अपने मनोवेग को रोककर खड़ा रहा,इतने में योगिराज बोले ,"राजा,मुझे तो कुछ इच्छा नहीं,परंतु मैं बहुत दिनों से तेरी राज्य भूमि में रहता हूँ,इससे तेरा उपकार करना आवश्यक है ,यह जान कर मैं यहाँ आया हूँ मैं तुझे सत्य शुद्ध मार्ग का उपदेश करना चाहता हूँ,जिससे तेरा मंगल हो और अंत में तू अनंत सुखों का भोक्ता हो,यह सुन राजा बोला,"कृपानाथ! आप मेरा कल्याण चाहते हैं ,यह बड़े हर्ष की बात है और वैसा उपदेश मैं सुनने को तैयार हूँ,परंतु आप जानते ही होंगे कि, अपना राज-काज मैं स्वयं ही देखता हूँ इसलिए मुझे क्षणभर भी अवकाश नहीं मिल सकता और आज तो मैं ऐसे जरूरी कामों में फँसा हूँ यदि जरा भी देर हो जाये तो सारे राज्य को भारी हानि पहुंचे और मैं भली भांति यह भी जनता हूँ कि आप जैसे महात्मा मुझपर कृपा करने को पधारे हैं घर में आयी हुई गंगा का शीघ्र लाभ नहीं लिया तो फिर ऐसा सुन्दर अवसर मिलना भी दुर्लभ है परंतु क्या करूँ ? मैं दीन हूँ, मेरे कल्याण के लिए आपको जो कुछ कहना हो वह झटपट एक क्षण में कहा जा सके तो कहिये। "
महात्मा बोले सत्य है राजा तेरा मंगल हो, तू सावधान हो, एक चित्त हो, और मैं जो कुछ कहूँ उसे सुनकर आनंद से अपने काम पर चला जा, राजा ने शीश झुकाकर महात्मा के द्धारा दिए उपदेश को सुना, योगिराज ने राजा को "तत्वमसि" अक्षरों का उपदेश दिया और बोले "वत्स !जा अब इस मन्त्र का स्मरण और मनन करते हुए सुख से अपना कार्य साधना" उपदेश हो चुका ,उसी समय राजा उन्हें वंदन कर घोड़े पर सवार हो चल दिए।
योगी के पास से रवाना हो राजा अपनी सेना के साथ चल दिया और चलते चलते बहुत दूर निकल आने पर एक बृक्ष के नीचे आराम करने के लिए सब उतर पड़े,जल पीकर आम के बृक्ष के सहारे वैठकर विश्राम करने लगा और विचार करने लगा कि मेरा शत्रु कौन है,उसे उसे कैसे पराजित कर सकेंगे ? सोचते हुए उसकी आँख लग गयी कुछ ही देर में उसे स्वप्न में मानो भ्रान्ति युक्त शब्द की तरह सिर्फ इतना ही उत्तर मिला कि "तत्वमसि" वह तू ही है अचानक राजा की आँख खुल गयी और वह स्वप्न में होने वाले आभास के विषय में आश्चर्य सहित विचार करने लगा कि "अरे! मैंने यह क्या सुना ?तत्वमसि यह शब्द राजभवन से निकलते समय उस योगी ने मुझसे कहा था वही फिर यहाँ मुझसे किसने कहा?इसमें क्या मतलब है? इसका अर्थ तो स्पष्ट है ,तत-त्वम्-असि ,वह तू है इसमें मुझे क्या समझना है? स्वप्न में भी तत्वमसि की ध्वनि हुई,वह तू है !अरे यह क्या? वह मैं हूँ? मैं कौन हूँ? स्वप्न में शत्रु के भय से मैं दुखी होने लगा उसके उत्तर में कहा कि"तत्वमसि इसके कहने क्या भाव है? क्या वह शत्रु मैं हूँ? नहीं नहीं अपना शत्रु मैं कैसे? पर नहीं इसमें कुछ कारण होगा, इस प्रकार "तत्वमसि" महावाक्य के अर्थ की खोज में वह इतने गहरे उतर गया कि उसे आभास ही नहीं रहा कि वह कहाँ और क्यों आया है?इतनी शीघ्रता से ,वह बात भी पल भर भूल गया। कृपानिधान! यह क्या शांत होकर घोड़े पर सवार होकर शत्रु की और चल दिया कुछ ही दूरी पर उसे सामने से आती हुई भाले की नोंक और फहराती हुई ध्वजा दिखाई पड़ी समीप आने पर मालूम हुआ कि कोई एक वली घुड़सवार आता है उस वीर की पोशाक से ही राजा ने कल्पना की कि वह शत्रु सैन्य का वीर है।
राजा ऐसे प्रचण्ड योद्धा को देखकर चिंतित हो उठे सोचने लगे कि ऐसे ही प्रचंड योद्धाओं की शत्रु सेना होगी, कैसे विजय प्राप्त कर सकेंगे! पल भर में उनके निकट आ पहुँचा और बोल उठा ,"अहो ! जिन प्रतापी भूपति की विशाल राज्य भूमि में मैं खड़ा हूँ और अपने स्वामी की आज्ञा से जिनसे मिलना चाहता है उन महाराज छादितबुद्धि की यही सवारी होगी यह सुन छादितबुद्धि का एक सवार बोला वीर!तुम्हारा अनुमान ठीक है परंतु आप हमारे स्वामी से क्यों मिलना चाहते हैं ? यह सुन घोड़े से उतर कर उस वीर ने राजा को प्रणाम किया और पत्र निकालकर राजा को दिया,पत्र पढ़कर राजा की सारी चिंता एकदम दूर हो गयी राजा ने सवार से कहा कि अब हम वहीँ आते हैं तुरंत ही सब उस सवार के साथ चले। छादितबुद्धि अंतर्मती से जा मिला अंतर्मती ने जो प्रेम उस समय दर्शाया उससे स्पष्ट मालूम हुआ कि उसे शत्रु समझकर छादितबुद्धि उसके सम्बन्ध में जो विचार रखता था वह उसकी भूल थी।
अंतर्मती से विदा लेकर छादितबुद्धि अपने नगर की और चल पड़ा और विचार करने लगा कि आज निः संदेह अपने हाथों से मैं भारी अनर्थ बटोर लेता, मेरे हाथोँ से ही मेरे शांत राज्य में भगदड़ पड़ती, अपना नाश मैं स्वयं ही कर लेता अर्थात मैं ही अपना शत्रु हो जाता। अहा! वास्तव में उस बृक्ष के नीचे मुझे जो स्वपनाभास हुआ था उसका यथार्थ भावार्थ मैंने अब समझा कि तत्वमसि ,वह सत्य है अर्थात अपना शत्रु मैं ही था "तत्वमसि" महावाक्य का जो उपदेश हुआ वह यथार्थ में भ्रम नहीं ,परंतु मेरे कल्याण के लिए है मै कामी ,क्रोधी ,लोभी,मोहांध ,तृष्णावाला और सुखदुःखादि अंतःकरण का धर्म वाला हूँ।
परमात्मा सर्वसमर्थ है इन्ही विचारों में डूबा हुआ वह अपने राज्य में वापिस पहुँचा सारी सेना के साथ राजा ने अपने मंत्रियों से पुछा की," महाराज ! योगिराज कहाँ हैं? उनका प्रबंध सुचारू रूपेण किया है या नहीं ,चलो मुझे उनसे मिलवाओ मुझे उनके दर्शन करने हैं यह सुन किंकर्तव्यविमूढ़ अधिकारी ने विनय की कि ,महाराज !यहाँ अब योगिराज कहाँ है? वह तो उसी समय चले गए,आपके आदेशानुसार हमने बहुत आग्रह किया परंतु वह निःस्पृही महात्मा तो ईश्वर का स्मरण करते हुए चले गए। "
राजा बिल्कुल निराश हो गए ,"अरे! अब उन महात्मा को कहाँ खोजूं ? वह न जाने कहाँ से आये
और कहाँ को गए होंगे ?ऐसे महात्मा तो किसी गहन पर्वत की गहन गुफा में रहते हैं जिन्होंने उस समय महात्मा को प्रत्यक्ष रूप में देखा था उन लोगों को महात्मा की खोज के लिए भेजा और स्वयं चिंतित चित्त से रनिवास(अंतःपुर) में गया रानी ने राजा को उदास देखकर उदासी का कारण पूछा,तब राजा ने कहा,"देवी,क्या कहूँ! जिन्होंने मुझे पल भर का समागम होने पर ही मेरे भावी संकट से मुझे उबारा महापुरुष की कुछ भी सेवा या किये बिना मैं मूर्ख अपने कार्य के लिए चला गया,हरे! हरे! अब स्वप्न में भी मुझे उनका समागम कहाँ से होगा अब तो जब उनके दर्शन होंगे तभी मुझे भोजन भावेगा।"
राजा के ऐसे वचन सुनकर रानी वचन में बहुत हर्षित हुई उसने जाना कि,"अब कुछ दशा फिरी,आनंद सहित आश्चर्य करने लगी कि,"अरे!योगिराज ने मुझपर गुप्त रीति से बड़ी कृपा की है! अहा! कहाँ राजकाज के लिए राजा की दौड़ धूप और कहाँ सत्समागम के लिए राजा की तरसती मनोवृति! धन्य है सत्समागम को ! सत्पुरुष के सिर्फ दर्शन के प्रभाव को भी धन्य है !पहले राजा कभी मेरे पास इतनी देर तक बैठते ही नहीं थे और अब राजकाज भूल कर सिर्फ महात्मा के ही दर्शन की गंभीर चिंता में निमग्न है ,अब हमें कल्याण की आशा होती है।
इस बात का रहस्य सिर्फ रानी ही जानती थी, इससे राजा को धीरज देकर बोली,"प्राणनाथ !चिंता न कीजिये जिसके लिए अत्यंत व्यग्रता होती है उसकी शीघ्र प्राप्ति होती है। आपके भेजे हुए अधिकारी क्या सूचना लाते हैं यह जानने के बाद दूसरा उपाय करूंगी आप निश्चिन्त होकर भोजन और विश्राम कीजिये। "
अधिकारी चारों ओर घूमकर लौट आये परंतु योगिराज का कुछ पता नहीं चला, निराश हुए राजा को रानी ने धीरज देकर अकेले ही अपने साथ चलने की प्रार्थना की और बोली,"प्राणनाथ! मैंने उन महात्मा को नहीं देखा परंतु एक महात्मा को उपवन में उनके आश्रम में देखा है कदाचित कहीं वही महात्मा आपको दर्शन देकर गए हों,पहले हम वहीँ चलें। राजा-रानी दोनों ने उस पर्णशाला में धीरे-धीरे प्रवेश किया और राजा ने देखा कि वही ज्ञानमूर्ति भीतर विराज रही थी। राजा के हर्ष का पार न रहा, ,उसी समय बड़े प्रेम से भूमि पर गिरकर उनके चरणों में दंडवत प्रणाम किया फिर दोनों हाथ जोड़कर नम्र होकर चकित के सामान खड़ा रहा,परंतु मुख से कुछ भी न बोल सका राजा को आया देख महात्मा ने तत्काल आशीर्वाद देकर सामने पड़े हुए आसन पर बैठने को कहा, राजा पत्नी सहित बैठा,उस समय राजा को उस सद्गुरु के पुनः दर्शन से उतना ही आनंद हुआ जितना निर्धन पुरुष को उसका खोया हुआ धन पुनः प्राप्त होने से होता है।
महात्मा ने जान लिया कि,"अब इसका अंतःकरण स्वात्मशोधन की ओर झुकने से इसको अधिकार प्राप्त हुआ है,इसपर पड़ा हुआ माया रूप अंधकार का पर्दा हो गया है यह पात्र है,अधिकारी बना है,उपदेश के योग्य है" ऐसा जानकर वह बोला,"क्यों राजा किसलिए आगमन हुआ है? सर्वत्र कुशल तो है?"राजा बोला," कृपानाथ! आपकी कृपा से सब कुशल है, आशीर्वाद ही सब कुशल और सब अशुभ को शुभ करने वाला है , हे संत! आपकी ही प्रेरणा से मैं बड़ी आपदा से बच गया हूँ। हे सदगुरुदेव ! मैं अज्ञान हूँ, अघम हूँ ,संसार रूप पाश में भली भाँति जकड़ा हूँ इसलिए मुझपर दया कर मुझे उस पाश से मुक्त करो,हे हे गुरुदेव ! आपके वचनामृत श्रवण करने की उत्कंठा बढ़ती ही जाती है मैं जानता हूँ कि मेरे पुर्व के पुण्योदय के कारण ही ये संयोग प्राप्त हुआ है नहीं तो आप जैसे महात्मा के दर्शन मुझे कहाँ से होते? अपने पूर्व सुकृत के कारण ही मुझे आपका समागम हुआ है। हे महाराज ! अब आप मेरे सब कष्टों को दूर कर,मुझे ऐसा परम सुख दो जो न कभी न्यून हो न दूर हो।
यह सुन योगिराज बोले ," तत्वमसि "ऐसा उत्तर सुनकर तो राजा चकित हो गया और अपने मन में विचार करने लगा कि यह आश्चर्य !महाराजतो प्रत्येक प्रश्न का एक ही उत्तर देते हैं ,इससे समझूं ?
राजा हाथ जोड़कर नम्र स्वर में बोला ,"हे देव ! सत्पुरुष! मैं अज्ञ और निर्बुद्धि हूँ सारासार समझ न सकने से विचारहीन कृपण भी हूँ इसलिए मेरी इस दशा पर दया करो,आपके उपदेशरूप महावाक्य अभिप्राय न समझ सकने से घबराया हुआ मैं ,शिष्य होकर आपकी शरण आया हूँ,इसलिए मेरा मोह मिटाकर मुझे निःसंशय करो" योगिराज बोले,"तत्वमसि घर जा और एकांत में बैठ ,एकाग्रचित्त से अच्छी तरह मनन कर ,हे नरेन्द्र ! प्राणी के विचार करने का साधन मन है। मन, बुद्धि ,चित्त और और अहंकार को अंतःकरण चतुष्टय कहते हैं परंतु यदि मन शुद्ध हो तभी उसमे यथार्थ विचार प्रवेश कर सकता है ,मन दर्पण जैसा है।
मन जड़ होने पर भी सूक्ष्म होने से शरीर में रहने पर भी नहीं दीखता , तो भी उसकी सत्ता बहुत बड़ी है इन्द्रियों को वह अपने इच्छानुसार चलाता है इसलिए शरीर की साड़ी इन्द्रियों का राजा है यह मन जहाँ दौड़ता है वहां इन्द्रियां भी दौड़ती है,इन्द्रियों के द्धारा वही भले और बुरे कर्म कराता है। हे राजन! स्थूल देह में त्रिदोष का निवास है चिंता,व्यग्रता और अज्ञान,ये तीन दोष हैं उनको दूर करने के लिए पहले मन को शुद्ध करने के लिए स्थूल देह को शुद्ध और नियमित करो। "
शरणागत
नीलम सक्सेना