महालहरी -परमपद
"लोक का संहार करने वाला मैं कालमूर्ति हूँ और लोकों का संहार करने के लिए मैं यहाँ पर प्रबृत हुआ हूँ।"
महाराजा बरेप्सु ने जीवन लोक के कल्याण के लिए महात्मा बटुक से पूछा,
बरेप्सु बोले हे सदगुरुदेव !जैसे स्वाति नक्षत्र में पड़ती हुई अमृत रूप वृष्टि के एक एक बूँद के लिए चातक पक्षियों का समूह मुँह फैलाकर देखता है वैसे ही यह सब मानव समाज आपके वचनामृत के लिए तरस रहा है,जैसे प्राचीन काल में ब्रह्मपुत्र सनकादिकों के समागम से सारी प्रजा को कल्याण का मार्ग प्राप्त हुआ था वैसे ही इस समय ये मुमुक्षु जीव, आपके द्वारा अपना कल्याण प्राप्त करने के लिए अधीर हो रहे हैं। हे देव ! आप सब पर दया करके कल्याण का जो मार्ग हो वह हमें बताओ। मेरी प्रार्थना इतनी ही है कि जगत के सब प्राणी जिस मार्ग से जाकर परब्रह्म के आनंद स्वरुप का दर्शन करने के लिए सौभाग्यशाली बन सके ऐसा परम सुलभ मार्ग आप हमें बताये।
राजा का ऐसा प्रश्न सुन, महात्मा बटुक वामदेव एक मुहूर्त तक चित्त को स्थिर और आंखों को बंदकर ध्यान परायण हो गए।
एक बार फिर बटुक ने सभा में बैठे हुए आत्मकल्याण इच्छुओं की श्रद्धा की परीक्षा लेने का विचारा :- एकाएक एक कौतुक हुआ कि सभा स्थान के आगे एक बड़ा प्रकाश का गोला आकाश से पृथ्वी तक दिशाओं को घेरता हुआ दिखाई दिया यह प्रकाश धीरे-धीरे बढ़ा उसमे बड़ी-बड़ी ज्वालाएँ दिखने लगीं सभामण्डप के द्धार से एक रास्ता अग्नि में पड़ा हुआ दिखा वह सिर्फ इतना ही चौड़ा था कि उसमे एक पैर रखा जा सके,महात्मा बटुक ने सबको संबोधन करके कहा :-हे परब्रह्म की इच्छा करने वालों ! देखो यह जो दिख रहा है वह कल्याण मार्ग है इसी रास्ते से निडर होकर जाने वाला पुरुष परम कल्याण को प्राप्त होता है यह मार्ग बड़ा कठिन है परंतु तुम में से जिसे कल्याण प्राप्त करना हो,परब्रह्म धाम में जाना हो,जो संस्कारी हो,जिसे गुरु वचनों पर श्रद्धा हो,जिसने पवित्रता से भक्ति योग किया हो,संसार को बंधन का कारण माना हो, उसे इस मार्ग से होकर अग्नि के उस पार जाना होगा। दृढ़ श्रद्धालु पुरुष इस अग्निरूप मार्ग से होकर उस पार जायेगा उसे उसी समय वहां अत्यंत मनोहर और परम सुख रूप दिव्य विमान बैठने को मिलेगा। विमान में प्रभु भक्त तुम्हे आदरपूर्वक दिव्य फलों से पुष्पित विमान में बैठा लेंगे और अमृत रास का पान कराएँगे, विमान में बैठने के लिए बहुतों की इच्छा हुई परंतु हूँ हूँ करती हुई ज्वालाएँ देखते ही इस संसार के अश्रद्धालु प्रेम भक्ति रहित लोग शिथिल हो जाते ,
वामदेव जी दंड ले खड़े होकर बोले :-"हे मोक्ष अभिलाषियों,चेतो ! अमृत के समान अमूल्य समय बीता जाता है वह फिर मिलना दुर्लभ है इससे शीघ्र तैयार हो जाओ , हे मुमुक्षुओं !क्षणभर पहले मुक्ति के लिए जो उत्साह तुम लोगों में दिखता था वह कहाँ उड़ गया।
"कैसी विलक्षण स्तिथि है बिना परिश्रम सुख "
चौरासी लाख योनियों में असंख्य जन्म लेकर बारम्बार भटकने और उन जन्मों की नरक यातना रूप वासनाएं भोगते समय के दुःख ,अनगिनत बार ईश्वर की प्रार्थना करने पर उस जीव पर दयालु प्रभु दया कर दुखों से मुक्त होने का साधन रूप मनुष्य देह देता है और पुण्यों के उदय से उसे सद्गुरु मिलता है, वचन पर विश्वास कर ज्ञान प्राप्त होता है तब उसका कल्याण होता है अर्थात संसार के जन्म मरण से सदा मुक्ति मिलती है।बटुक जी महाराज कहते हैं इतना बड़ा कल्याण तुम्हारी आँखों के सामने आ मूर्तिमान होकर खड़ा है तो भी उसे प्राप्त करने के लिए तुम समर्थ नहीं होते इस सब का कारण सिर्फ यह अविद्धयारूप अग्नि समुद्र है।
दिव्य ऊर्ध्वलोक और वहां जाने का मार्ग,इस लोक के जीव को , इस पवित्र पांच भौतिक देह से प्राप्त नहीं हो सकता , इस देह के साथ काम,क्रोध,लोभ,मोह,अहंकार आदि शत्रु लिपटे हुए हैं इनका त्याग कर पवित्र दिव्य देह से ही वह मार्ग प्राप्त हो सकता है , दिव्य देह प्राप्त करने में श्रद्धा और भक्ति मुख्य है श्रद्धा के बिना जो कुछ होम ,दान किया हो उसका फल लोक परलोक में नहीं मिलता।
जिसे इस परम दिव्य अच्युतमार्ग-ब्रह्ममार्ग को प्राप्त करने की अभिलाषा हो उन्हें इस अग्नि में स्नान कर इस स्थूल देह अभिमान को उसमे जलाकर दिव्य देह धरना चाहिए तभी उन्हें परब्रह्म के मार्ग में जाने का अधिकार मिलेगा,गुरु और शार्टर वचनों पर जिन्हें दृढ़ विश्वास होगा ,संसार की प्रत्येक माया के लिए जो पूर्ण निःस्प्रह होंगे और अच्युतपद की ही जिन्हें सच्ची जिज्ञासा होगी वे मुमुक्षु लोग ही इस अग्नि में प्रवेश कर उसे पार करेंगे ,मेरा विचार है की वह उन्हें जल प्रवेश के समान सुखद होगी ,इसलिए चलो ,बिलम्ब मत करो ,समय बहुत थोड़ा है।
बटुक जी की यह बात सुन, बहुत से मुमुक्षु श्रद्धालुओं का भय दूर हो गया वे एक के बाद एक आ बटुक जी के आगे हाथ जोड़कर खड़े हुए और विनय करने लगे :-"हे गुरुदेव ! आप इस जीव के कल्याण करता हैं हमें विश्वास और श्रद्धा है की आपकी कृपा से हम अग्नि पार कर उस ओर जायेंगे हमारे कल्याण और कल्याण के मार्ग सिर्फ आप ही हैं हमें आपका वियोग न हो।" यह सुन बटुक वामदेव जी अत्यंत प्रसन्न होकर बोले :-"अहो! वियोग कैसा? जिसकी जिससे दृढ प्रीती हो उसके समीप ही है इसलिए जाओ सुख से अग्नि लाँघो, बिलम्ब न करो। "
ऐसी सुनते ही प्रणाम कर गुरुदेव की जय ध्वनि सुनते ही मुमुक्षु उस महाअग्नि के भीतर घुसे,परंतु जो मलिन ह्रदय के दुराचारी, नास्तिक, परद्वेषी, आत्म कल्याण ढूंढने को नहीं परंतु जी मलिन हृदय दुराचारी यो ही तमाशा देखने के लिए सभा में आकर भर गए थे उनकी अविद्या के कारण उस अग्नि में प्रवेश करने की हिम्मत नहीं हुई।
वामदेव जी ने 'नारायण-नारायण' 'सोअहम -सोअहम 'की गर्जना करते हुए अग्नि में प्रवेश किया,मलिन हृदय के लोग बाद में महात्मा बटुक जी की बात विश्वास न करके पछताने लगे परंतु अब क्या करे! वस ! अविद्या के दासों की यही दशा होती है और वे सब मूर्छित होकर गिर पड़े।
शरणागत
नीलम सक्सेना
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