महासाध्वी मिहिरा
बरेप्सु ने बड़ी नम्रता पूर्वक बटुक जी से विनय की कि, "हे कृपालु गुरुदेव ! मिहिरा स्त्री जाती को ज्ञान शक्ति कहाँ से और कैसे प्राप्त हुई यह कहिये।"
बटुक बामदेव जी बोले, "प्राचीन काल में मिहिरा नाम की नगरी में जयसेन नाम का महासमर्थ ब्रह्महनिष्ठ राजा था। उसने पहले कठिन उपासना द्धारा अपने मन को भगवत पदारविन्द में दृढ स्थिर किया था धीरे धीरे उसकी सब मायिक वृत्तियाँ निर्मूल होते ही उसे उस परब्रह्म का साक्षात्कार हुआ और उसके बाद वह पूर्ण ब्रह्मनिष्ठ से ही अपना राज्य चलाया करता था। उसके धार्मिक राज्य में किसी को कुछ अन्याय,भय,अधर्म का भय नहीं रहता था सब प्रजा सुखी और सदाचारिणी थी। ऐसे प्रतापी राजा के यहाँ उसकी बृद्धावस्था में रत्न के समान कन्या पैदा हुई वह कन्या साक्षात् देवपुत्री के समान और लक्ष्मी के भण्डार तुल्य थी। वह जन्म से ही परब्रह्म में ही लीन थी वह ज्यों बढ़ती गयी त्यों त्यों ईश्वर की सेवा में उसका मन दृढ होता गया बचपन में वह सोचती थी कि जो कुछ भी करना है वह सिर्फ भगवत सेवा ही है पुत्री को भक्तिभाव में देखकर वह आनंद मग्न हो जाता मन में वह विचार करता कि ,यह बाला पूर्वजन्म की कोई महाभक्त है,परंतु भगवत्साक्षात्कार होना बाकि रह जाने से वह पूर्व जन्म का अपूर्ण भक्तियोग पूर्ण करने के लिए ही मेरे यहाँ जन्मी है।
समय बीतते हुए वह कन्या विवाह के योग्य हुई उसका बिधिवत विवाह किया,परंतु यह बात उस साध्वी कन्या को पसंद नहीं थी, विवाह हो गया।
जब उसका भक्तियोग परिपक्व दशा में आ गया तब उसपर पूर्ण कृपा कर श्री हरि ने अपने सगुण स्वरुप का उसे दर्शन दिया।
एक दिन ईश्वर उपासना के समय उसने अपनी इन्द्रियों को रोककर प्रभु का ध्यान और मानसिक पूजा करना आरम्भ किया,चरण कमलों से मुकुट पर्यन्त परमात्मा स्वरुप का ध्यान कर,गंध,पुष्प,नैवेद्यादि मानसिक उपचार उनको अर्पण किया,फिर मानसिक दीपक से प्रभु को अवलोकन करते हुए उस स्वरूपानंद में इतनी तल्लीन हो गयी कि उसे अपनी देह की सुध बुध ही नहीं रही,सच्चिदानंदघन स्वरुप ह्रदय कमल में अखंड विराजता दिखाई दिया। इस देह के आत्मस्वरूप में ही साक्षात् ब्रह्म है ऐसा अनुभव होते ही वह परमानन्दमय-सच्चिदानंदमय तेजोमयी बन गयी ऐसे चिन्मय स्वरुप में ही उसका स्वरुप कांपने लगा, रोँयें खड़े हो गए सारे शरीर से पसीना छूटने लगा ,इसी लीनता में पूर्ण भक्ति भाव से खड़ी होकर वह नाचने लगी इस समय उसके अकथनीय प्रेमानंद के कारण उसके ह्रदय के सम्मुख विराजती परमात्मा की सगुण -निर्गुण मूर्ती भी उसके साथ नाचने लगी जिससे वह स्थान सिर्फ अच्युतपुर अछूत मंदिर ही बन गया।
दूसरा चमत्कार! राजा अपने कार्य से निवृत होकर प्रभु की सेवा के लिए मंदिर में आया वहाँ अन्धकार देखकर उसे आश्चर्य हुआ कि मिहिरा प्रभु सेवा के लिए आयी थी वह भी यहाँ नहीं है और मंदिर में दिया भी नहीं जल रहा,यह यह क्या है? उसने मिहिरा को दो तीन आवाज लगाई, मिहिरा तो उस समय अपने प्रभु के स्वरुप को ही देखने में मगन थी बिलकुल ब्रह्मरूप ही थी तो 'मिहिरा !मिहिरा का उत्तर कौन दे मिहिरा तो अदवैत परमात्मा स्वरूप के साथ नाच रही थी तथा उसके शरीर में भगवत्स्वरूप का साक्षात् आविर्भाव होने से वहाँ एकाएक सूर्य का प्रकाश हो रहा है अकस्मात् अपनी आँखों के आगे ऐसा अद्भुत स्वरुप देख और उस प्रकाश में मिहिरा के साथ उस दिव्य परमात्मा मूर्ती को नृत्य करती देख राजा आश्चर्य में डूब गया और उसके मुँह से स्वयं ही ऐसे वाक्य निकल पड़े "अत्र को मिहिरा साक्षात् ?"(अरे यहाँ साक्षात् सूर्य के समान कौन है?) उसी समय उत्तर में भगवान ने अपनी वाणी में कहा :-
" हे राजा !यहाँ कोई अन्य सूर्य नहीं पर तेरी ही पुत्री मिहिरा अर्थात सूर्या-सूर्य के समान है जो सब भक्तों के अज्ञान रूप अन्धकार का नाश करने वाली है मेरी प्राणप्रिय भक्ति ही तेरी पुत्री में उत्पन्न हुई है जगत की सब स्त्रियों में वह सूर्य के समान ही है। "
यह बात सुनते ही राजा के आनंद और आश्चर्य का पार नहीं रहा और उस परमात्मा के निर्गुण स्वरुप के दर्शन करने,स्वात्मस्वरूप में लीन होने और पूर्ण अधिकारी होने से ,वह भी उस बिचित्र लीला में प्रविष्ठ हो गया राजा और राजकन्या भगवद्रूप ही बन गए और सच्चिदानंद स्वरुप सागर में ब्रह्मरस लहराते हुए नाना प्रकार से प्रभु की स्तुति करने लगे और गदगद स्वर से प्रार्थना करने लगे कि हे परब्रह्म ! हे निरंजन निराकार सच्चिदानंद घनश्याम परमात्मा !अब हमें छोड़कर आप जाते हो? आप अद्धैत भाव क्यों दर्शाते हो? प्रसन्न होकर भगवान् ने उनसे प्रिय शब्दों में कहा :-"मैं कहीं नहीं जाता,मैं कहीं से आया भी नहीं और मुझे कहीं जाना भी नहीं है,मैं सर्वत्र व्याप्त हूँ मैं जगत में ही सदा अदृश्य हूँ भक्ति करने के लिए शास्त्र की आज्ञा से ये संसारी जीव मुझे अनेक भावना से देखते हैं, अलग अलग रूपों में दर्शन देता हूँ सारे संसार में एक अंश द्वारा व्याप्त हो रहा हूँ, इस मूर्ती में भी हूँ और आत्मा में भी हूँ, इस दीवार में भी हूँ और सारे ब्रह्माण्ड में भी हूँ, द्धैत भी हूँ और अद्धैत भी हूँ जैसे तुम जानो,बूझो वैसा मैं हूँ।"
श्री भगवान् बोले ,तुमसे जगत में भक्ति यश विस्तार पायेगा,फिर सच्चित-तद्रूप हुए तुम अंत में मेरे परमधाम पुण्यात्मा,ब्रह्मधाम के निवासी होगे जहाँ गए हुए भाग्यबान प्राणी को फिर कभी भी पीछे फिरने का भय नहीं रहता।
इतना कह श्री भगवन ने उन्हें आँखें मूंदने को कहा,जब वे आँखें खोलकर देखते हैं तो भगवान् मूर्ती रूप से ही सिंहासन पर विराज रहे थे सवेरा होते ही पिता पुत्री भगवान् की सेवा में लग गए इस तरह यह राजकन्या उस दिन से सब भक्तों और स्त्री समाजों में बिल्कुल सूर्य के समान उपमा के योग्य होने से "मिहिरा" नाम से प्रसिद्द हुई है
ब्रह्म के दर्शन पायी हुई वह राजकन्या मिहिरा, शुद्ध प्रेम भक्तियोग साधकर, स्वात्मा में ब्रह्म को देख,प्रेम, ज्ञान,भक्ति में लीन हो पवित्र श्रद्धा से निरंतर ब्रह्मरूप से बैठे हुए,प्रभु की सेवा करती थी उनके पास अनेक महात्मा भक्तजनों के झुण्ड के झुण्ड उनके दर्शन और सत्संग का लाभ लेने को आते थे मिहिरा भी संतों का अच्छी तरह सत्कार कर दिन रात उनके साथ प्रेम से हरी चर्चा करती थी।
हे बरेप्सु !भक्त को भक्तजन बहुत प्रिय होते हैं इससे मिहिरा का स्वाभाविक ही यह नित्य कर्म हो गया कि निरंतर संत महात्माओं का समागम कर उनके समुदाय में ही रहना ,
कुछ समय पश्चात् पति के यहाँ जाने का समय आया वहाँ भी वह उसी भक्तिभाव से व्यवहार करने लगी यह उसके राजसी पति को नहीं भाया उसके पति ने उसे अपने विचार के अनुकूल करने का बहुत प्रयत्न किया,पर व्यर्थ ही उसका ईश्वरी भाव झूठा है या सत्य है ,यह जानने को उसने कई बार परीक्षा ली,अंत में एक बार विष भी पिलाया,परंतु सब ब्रह्ममय देखने से मिहिरा ने किसी भी बात की ग्लानि नहीं की ,ऐसी शुद्ध भक्ति के बहुत से चमत्कार उसे दिखाई दिए,तब अंत में लज्जित होकर उसके पति ने भक्ति योग में बाधा देना त्याग दिया हरि सेवा संत समागम और हरि कीर्तन यही उसका नैत्यिक कर्तव्य था,संत महात्मा और ज्ञानी लोग उसके दर्शन के लिए आते थे मिहिरा ने अनेक कुटिल शुष्क ज्ञानियों को पल भर में पवित्र कर महान साधु बना दिया असंख्य प्राणियों का कल्याण कर, जगत में प्रेम ज्ञान भक्ति का पूर्ण प्रकाश कर, जीवनमुक्त होकर विचरण करती हुई मिहिरा अंत में परब्रह्म श्री हरि में समाकर सायुज्य को प्राप्त हुई।
शरणागत
नीलम सक्सेना
समय बीतते हुए वह कन्या विवाह के योग्य हुई उसका बिधिवत विवाह किया,परंतु यह बात उस साध्वी कन्या को पसंद नहीं थी, विवाह हो गया।
जब उसका भक्तियोग परिपक्व दशा में आ गया तब उसपर पूर्ण कृपा कर श्री हरि ने अपने सगुण स्वरुप का उसे दर्शन दिया।
एक दिन ईश्वर उपासना के समय उसने अपनी इन्द्रियों को रोककर प्रभु का ध्यान और मानसिक पूजा करना आरम्भ किया,चरण कमलों से मुकुट पर्यन्त परमात्मा स्वरुप का ध्यान कर,गंध,पुष्प,नैवेद्यादि मानसिक उपचार उनको अर्पण किया,फिर मानसिक दीपक से प्रभु को अवलोकन करते हुए उस स्वरूपानंद में इतनी तल्लीन हो गयी कि उसे अपनी देह की सुध बुध ही नहीं रही,सच्चिदानंदघन स्वरुप ह्रदय कमल में अखंड विराजता दिखाई दिया। इस देह के आत्मस्वरूप में ही साक्षात् ब्रह्म है ऐसा अनुभव होते ही वह परमानन्दमय-सच्चिदानंदमय तेजोमयी बन गयी ऐसे चिन्मय स्वरुप में ही उसका स्वरुप कांपने लगा, रोँयें खड़े हो गए सारे शरीर से पसीना छूटने लगा ,इसी लीनता में पूर्ण भक्ति भाव से खड़ी होकर वह नाचने लगी इस समय उसके अकथनीय प्रेमानंद के कारण उसके ह्रदय के सम्मुख विराजती परमात्मा की सगुण -निर्गुण मूर्ती भी उसके साथ नाचने लगी जिससे वह स्थान सिर्फ अच्युतपुर अछूत मंदिर ही बन गया।
दूसरा चमत्कार! राजा अपने कार्य से निवृत होकर प्रभु की सेवा के लिए मंदिर में आया वहाँ अन्धकार देखकर उसे आश्चर्य हुआ कि मिहिरा प्रभु सेवा के लिए आयी थी वह भी यहाँ नहीं है और मंदिर में दिया भी नहीं जल रहा,यह यह क्या है? उसने मिहिरा को दो तीन आवाज लगाई, मिहिरा तो उस समय अपने प्रभु के स्वरुप को ही देखने में मगन थी बिलकुल ब्रह्मरूप ही थी तो 'मिहिरा !मिहिरा का उत्तर कौन दे मिहिरा तो अदवैत परमात्मा स्वरूप के साथ नाच रही थी तथा उसके शरीर में भगवत्स्वरूप का साक्षात् आविर्भाव होने से वहाँ एकाएक सूर्य का प्रकाश हो रहा है अकस्मात् अपनी आँखों के आगे ऐसा अद्भुत स्वरुप देख और उस प्रकाश में मिहिरा के साथ उस दिव्य परमात्मा मूर्ती को नृत्य करती देख राजा आश्चर्य में डूब गया और उसके मुँह से स्वयं ही ऐसे वाक्य निकल पड़े "अत्र को मिहिरा साक्षात् ?"(अरे यहाँ साक्षात् सूर्य के समान कौन है?) उसी समय उत्तर में भगवान ने अपनी वाणी में कहा :-
" हे राजा !यहाँ कोई अन्य सूर्य नहीं पर तेरी ही पुत्री मिहिरा अर्थात सूर्या-सूर्य के समान है जो सब भक्तों के अज्ञान रूप अन्धकार का नाश करने वाली है मेरी प्राणप्रिय भक्ति ही तेरी पुत्री में उत्पन्न हुई है जगत की सब स्त्रियों में वह सूर्य के समान ही है। "
यह बात सुनते ही राजा के आनंद और आश्चर्य का पार नहीं रहा और उस परमात्मा के निर्गुण स्वरुप के दर्शन करने,स्वात्मस्वरूप में लीन होने और पूर्ण अधिकारी होने से ,वह भी उस बिचित्र लीला में प्रविष्ठ हो गया राजा और राजकन्या भगवद्रूप ही बन गए और सच्चिदानंद स्वरुप सागर में ब्रह्मरस लहराते हुए नाना प्रकार से प्रभु की स्तुति करने लगे और गदगद स्वर से प्रार्थना करने लगे कि हे परब्रह्म ! हे निरंजन निराकार सच्चिदानंद घनश्याम परमात्मा !अब हमें छोड़कर आप जाते हो? आप अद्धैत भाव क्यों दर्शाते हो? प्रसन्न होकर भगवान् ने उनसे प्रिय शब्दों में कहा :-"मैं कहीं नहीं जाता,मैं कहीं से आया भी नहीं और मुझे कहीं जाना भी नहीं है,मैं सर्वत्र व्याप्त हूँ मैं जगत में ही सदा अदृश्य हूँ भक्ति करने के लिए शास्त्र की आज्ञा से ये संसारी जीव मुझे अनेक भावना से देखते हैं, अलग अलग रूपों में दर्शन देता हूँ सारे संसार में एक अंश द्वारा व्याप्त हो रहा हूँ, इस मूर्ती में भी हूँ और आत्मा में भी हूँ, इस दीवार में भी हूँ और सारे ब्रह्माण्ड में भी हूँ, द्धैत भी हूँ और अद्धैत भी हूँ जैसे तुम जानो,बूझो वैसा मैं हूँ।"
श्री भगवान् बोले ,तुमसे जगत में भक्ति यश विस्तार पायेगा,फिर सच्चित-तद्रूप हुए तुम अंत में मेरे परमधाम पुण्यात्मा,ब्रह्मधाम के निवासी होगे जहाँ गए हुए भाग्यबान प्राणी को फिर कभी भी पीछे फिरने का भय नहीं रहता।
इतना कह श्री भगवन ने उन्हें आँखें मूंदने को कहा,जब वे आँखें खोलकर देखते हैं तो भगवान् मूर्ती रूप से ही सिंहासन पर विराज रहे थे सवेरा होते ही पिता पुत्री भगवान् की सेवा में लग गए इस तरह यह राजकन्या उस दिन से सब भक्तों और स्त्री समाजों में बिल्कुल सूर्य के समान उपमा के योग्य होने से "मिहिरा" नाम से प्रसिद्द हुई है
ब्रह्म के दर्शन पायी हुई वह राजकन्या मिहिरा, शुद्ध प्रेम भक्तियोग साधकर, स्वात्मा में ब्रह्म को देख,प्रेम, ज्ञान,भक्ति में लीन हो पवित्र श्रद्धा से निरंतर ब्रह्मरूप से बैठे हुए,प्रभु की सेवा करती थी उनके पास अनेक महात्मा भक्तजनों के झुण्ड के झुण्ड उनके दर्शन और सत्संग का लाभ लेने को आते थे मिहिरा भी संतों का अच्छी तरह सत्कार कर दिन रात उनके साथ प्रेम से हरी चर्चा करती थी।
हे बरेप्सु !भक्त को भक्तजन बहुत प्रिय होते हैं इससे मिहिरा का स्वाभाविक ही यह नित्य कर्म हो गया कि निरंतर संत महात्माओं का समागम कर उनके समुदाय में ही रहना ,
कुछ समय पश्चात् पति के यहाँ जाने का समय आया वहाँ भी वह उसी भक्तिभाव से व्यवहार करने लगी यह उसके राजसी पति को नहीं भाया उसके पति ने उसे अपने विचार के अनुकूल करने का बहुत प्रयत्न किया,पर व्यर्थ ही उसका ईश्वरी भाव झूठा है या सत्य है ,यह जानने को उसने कई बार परीक्षा ली,अंत में एक बार विष भी पिलाया,परंतु सब ब्रह्ममय देखने से मिहिरा ने किसी भी बात की ग्लानि नहीं की ,ऐसी शुद्ध भक्ति के बहुत से चमत्कार उसे दिखाई दिए,तब अंत में लज्जित होकर उसके पति ने भक्ति योग में बाधा देना त्याग दिया हरि सेवा संत समागम और हरि कीर्तन यही उसका नैत्यिक कर्तव्य था,संत महात्मा और ज्ञानी लोग उसके दर्शन के लिए आते थे मिहिरा ने अनेक कुटिल शुष्क ज्ञानियों को पल भर में पवित्र कर महान साधु बना दिया असंख्य प्राणियों का कल्याण कर, जगत में प्रेम ज्ञान भक्ति का पूर्ण प्रकाश कर, जीवनमुक्त होकर विचरण करती हुई मिहिरा अंत में परब्रह्म श्री हरि में समाकर सायुज्य को प्राप्त हुई।
शरणागत
नीलम सक्सेना
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