Saturday, 11 March 2017

अंतब्रह्मनिष्ठा-जगन्नाटक

                          अंतब्रह्मनिष्ठा-जगन्नाटक 


बटुक वामदेव जी बोले,"राजा सब ब्रह्ममय देखने वाला मनुष्य जगत में सारी सृष्टि को ब्रह्मरूप अनुभव करने से अंतर मन में(भीतर) सबको  महत्व से देखता है,  वह किसी से राग-द्धेष न करके सबको समान न्याय देता है,स्त्री,पुरुष,धन,परिवार इत्यादि जो अपना है उन्हें अपना दिखाकर (प्रकट) कर उनके साथ निवास तो करता है परंतु अंतर से वह लुब्ध नहीं होता,  वह जानता है कि ब्रह्म से पैदा होने वाला ब्रह्म में ही लीन हो जाता है वह जन्म मृत्यु का शोक व हर्ष नहीं करता ,उसे भले या बुरे किसी कार्य के लिए आसक्ति ही नहीं होती वह न किसी की प्रशंसा से प्रसन्न और न ही निंदा से अप्रसन्न होता है दुःख उसके मन को दुखी नहीं कर सकता,उसी तरह महान आनंद की कथा, जो मायिक वृत्ति के जीव को महा हर्ष का कारण हो जाती है, उसके सुखानंद का कारण  भी नहीं होती , उसे प्रिय,अप्रिय,सुख, दुःख स्पर्श नहीं करते अर्थात वह उनसे पीड़ित नहीं होता, उसी तरह स्वर्ग के समान सुख से वह हर्षित नहीं होता,ब्रह्मनिष्ठ पुरुष अपने अंतःकरण में ब्रह्मभाव का स्मरण करता हुआ बिलकुल अहंकार हीन होकर वर्ताव करता है ब्रह्मनिष्ठ पुरुष इस जगत में बिलकुल नाटकीय पुरुष रूप से है वह अंतर में भली भाँति जानता  है कि यह सब ब्रह्ममय है परंतु जगद्रूप होने से इसमें  जगद्रूप व्यवहार करना योग्य है,ब्रह्मयज्ञ पुरुष विश्व में जगद्रूप से व्यवहार करने पर भी अंत में फिर अपनी ब्रह्मनिष्ठा पर ही आ ठहरता है।  



                                                                                                  शरणागत
                                                                                               नीलम सक्सेना



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