सर्वं खल्विदं ब्रह्म
"दीखने वाला जगत आनंद से ही उत्पन्न हुआ है, उसी आनंद से ही स्थित हो रहा है और उस आनंद में ही लीन होता है इस तरह उल्लिखित आनंद से (जगत) भिन्न कैसे हो सकता है।।"
महात्मा वटुक जी के वचनामृत का पान करके श्रोताओं को तृप्ति ही नहीं होती थी,बार बार उनके मुख की पवित्र वाणी सुनने के लिए सबको नयी नयी जिज्ञासा होने से महात्मा बटुक जी के पास आकर बैठते थे।
मुमुक्षुओं ने एक स्वर में जयकार की ध्वनि की। राजा, वामदेव जी के चरणों को प्रणाम कर बोले,"सर्वं खल्विदं ब्रह्म का क्या अर्थ है!इस महावाक्य का क्या प्रयोजन है ? क्या यह मुँह से बोलने का ही वाक्य है या सब ब्रह्ममय है। समाधान के लिए स्थिर बुद्धि से देखना है कि सारा जगत ब्रह्म से ही पैदा हुआ है,ब्रह्म में ही रमता है और लय होता है आदि भी ब्रह्म और अंत भी ब्रह्म है तथा इसी से कहते हैं कि वह ब्रह्मरूप अथवा ब्रह्ममय है मूल रूप से देखने से ब्रह्म एक है।
शरणागत
नीलम सक्सेना
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