Monday, 6 March 2017

मन: शुद्धि कर्म

                                        मन: शुद्धि कर्म 

महात्मा बोले,"राजा,शरीर और मन को शुद्ध करने की इच्छा रखने वाला पुरुष प्रतिदिन पिछली चार या छः घड़ी रात रहे उठे और अपने चित्त को किसी दूसरी बात में न जाने देकर प्रेमपूर्वक सिर्फ परम मंगल रूप  जगतनियंता प्रभु का स्मरण कर उसी की कीर्ति का गान करे,फिर शुभ वस्तुओं का अवलोकन कर, हाथ जोड़ भू  चरण स्पर्श कर प्रणाम कर शौच स्नान कर,पवित्र कपडे पहन कुशासन या ऊन के शुद्ध वस्त्र पर एकांत और पवित्र भूमि में शांतचित्त  से  पूर्वाभि  मुख पदमासन लगाकर बैठें और एकाग्रता से ईश्वर का आराधन करें फिर गदगद स्वर से पवित्र प्रज्ञावान (बुद्धिमान)और पापों से रक्षित होने की प्रार्थना करें। 
                  प्रातःकाल के होम और पूजनपर्यंत कर्म,हो चुकने पर गृहस्थ को  यथाशक्ति दान करें,दान में अन्न दान सबसे श्रेष्ठ है,दान लेने वाला पात्र ऐसा हो जो उस दान की वस्तु को सुमार्ग में खर्च करें तेरे समान राजा को तो नित्यप्रिय दान करना चाहिए,संध्यावंदन,पितृ आदि का तर्पण और पंचमहायज्ञ करना चाहिए। 
                  देवों को संबोधन कर अग्नि में होम करना देवयज्ञ, क्षुधित अतिथि को मानपूर्वक भोजन देना मनुष्य यज्ञ, पितरों के नाम से तर्पण करना पितृयज्ञ, वेदाध्यन करना, ब्रह्मयज्ञ,गाय ,कुत्ता, कौआ, कीट ,पतंगादि को अन्न खिलाना भूतयज्ञ है। ये पंचमहायज्ञ करने वाला नित्य  पांच पापों से मुक्त रहता है। 
                   सांयकाल सूक्ष्म भोजन करके ईश्वर का स्मरण करते सो जाये। हे राजन ! यह विधि अतिआवश्यक है,कभी भूलने योग्य नहीं है यह शरीर और मन दोनों की शुद्धि और पवित्रता के लिए आवश्यक है परोपकार मन:शुद्धि की विधि है। 

                                                                                                          शरणागत 
                                                                                                       नीलम सक्सेना 
       

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