परमहंस दशा - जीवन मुक्ति
गुरु वामदेव जी बोले ,"बरेप्सु ! परिपक्व ब्रह्मनिष्ठां वाला पुरुष ब्रह्म और जगत में कुछ भी भेद या विकार नहीं देखता, वह तो सर्वत्र सदाकाल सिर्फ ब्रह्म ही का अनुभव करता है उसके लिए तो सब समान है उसे तो जड़ तथा चैतन्य एक से ही है उसकी दृष्टि में सब एक समान,ब्रह्ममय ही है और वह बाहर भीतर सब ठौर एक ही रस देखता है उसे कोई कामना नहीं, तृष्णा नहीं, हर्ष नहीं, शोक नहीं, मोह नहीं, दंभ नहीं ,गर्व नहीं, क्रोध नहीं,मत्सर नहीं, भय नहीं,सुख नहीं, दुःख नहीं, क्लेश नहीं, माया नहीं, ममता नहीं, अहंता नहीं और उसे कुछ लज्जा भी नहीं होती अविधा के जो जो कारण हैं वे उसे बाधा नहीं कर सकते ऐसी स्तिथि के कारण बिल्कुल उन्मत्त (पागल) के समान दिखता है वह नग्न, उन्मत्त, जड़ और बहरा-गूंगा जैसा अवधूत परमहंस है वह सदा ब्रह्मानंद में मग्न रह इस शरीर से ही जीवन मुक्ति का अनुभव करता है और देहपान(देहांत) होने तक निःस्पृह होकर अकस्मात आ पड़ने बाले दुःख- सुख को भोगता है ये सब देह के धर्म हैं,उनसे मेरा कुछ सम्बन्ध नहीं ऐसा मानकर वह जगत बिचरण करता है और यथासमय देह त्यागकर ब्रह्म में लीन हो जाता है इस तरह जीवन मुक्त परमहंस की ब्रह्मनिष्ठां एकाग्र होती है।
अधम अज्ञानी,प्राणी उसकी परमहंस अवस्था नहीं जानता इससे शायद उसे कष्ट देने की मूर्खता करता है परंतु ईश्वरी सत्ता द्धारा उस महात्मा की तो स्वयं ही रक्षा होती है वह स्वयं ब्रह्माकार हो जाने से उसे सर्वत्र ब्रह्ममय दीखता है तो उसे जो देखता उसे भी वह स्वाभाविक ही आत्मा के समान प्यारा लगता है क्योंकि वह प्रत्यक्ष ईश्वरतुल्य है वह धूप में चलता है तो बादल उस पर छाया करते हैं, अग्नि शीतल हो जाती है,जल उसे डूबने नहीं देता,शस्त्र की धार वार नहीं करती,उसके मुख में गया हुआ विष अमृत रूप हो जाता है,भयंकर सर्प उसके पैरों तले दब जाने पर उसे काटने के बदले शांत होकर चला जाता है,महाभीषण सिंह अपनी क्रूरता छोड़कर उसके साथ क्रीड़ा करता है पशु-पक्षी भय छोड़कर उसके साथ आनंद से खेलते हैं, इस तरह वह सारे जगत का मित्ररूप होकर विचरण करता है। हे राजर्षि बरेप्सु ! इस तरह की सुदृढ़ ब्रह्मनिष्ठा हो उसी सम्बन्ध में 'सर्व खलविंद ब्रह्म' इस उपनिषद महावाक्य की सार्थकता है।
शरणागत
नीलम सक्सेना
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