Tuesday, 7 March 2017

मन को स्थिर करना

                                 मन को स्थिर करना 

योगिराज बोले,"हे राजन! इस मन को स्थिर करने की आवश्यकता है जैसे दर्पण धोने के बाद उसमे अपना प्रतिबिंब पूर्ण रूप से दिखता है यदि हिलता डुलता हो या उल्टा सीधा हो तो उसमे प्रतिबिम्ब सही नहीं दिख सकता उसी तरह मन यदि शुद्ध हुआ तो भी उसके स्थिर हुए बिना उसमे अपना आत्मस्वरूप अच्छी तरह से नहीं दिख सकता इसलिए मुमुक्षु को चाहिए कि उसको स्थिर करे ,भड़कने वाला मन घोड़े के समान चंचल है, बिलकुल अस्थिर है वहु प्रमादी होतेहुए भी बलवान और दृढ है वह एकाएक स्थिर नहीं हो सकता इस मन ने ही इस विश्व की रचना की है, मन ने ही जगत का सत्यत्व रचा है, संसार है जो अद्धैत,द्धैत बनकर दिखाई देता है और सत्य माना जाता है वह अविद्या से पैदा  हुआ मन का खेल है पर यह मन निदिध्यासन, सत्संग ,श्रद्धा ,और वैराग्य से स्थिर किया जा सकता है मन रूप घोड़े को स्थिर करने के लिए खूँटे में बांधना आवश्यक है।
                       मन सब इन्द्रियों का राजा है और उनके द्धारा वह सारे विषयों का भोग करता है प्रत्येक इन्द्रिय के जुदे-जुदे(अलग-अलग)विषय भोग से मन एक मदमत्त हाथी के समान बन जाता है और फिर विषय भोग को छोड़,दूसरे किसी को कुछ समझता ही नहीं,मनुष्य का मन जो महामदोन्मत हाथी से भी अधिक बलवान और अदृश्य है उसको वश में करना बहुत कठिन है मन को वश में करने के लिए सारे उपाय पहले शरीर पर ही करने पड़ते हैं क्योकि उसका दृढ़ सम्बन्ध शरीर से ही है व्रत,तपश्चर्या,सत्यबोलना,पर-धन और पर-स्त्री का तिरस्कार,दूसरे की निंदा और अपनी बढ़ाई,विषय की बातों से अरुचि, परमार्थ में वृत्ति, सुख दुःख सहने की आदत,प्राणी  पर दया इत्यादि नियमों से शरीर को दुःख हो तो भी दृढ़पूर्वक आचरण करना,शास्त्र अनुसार यह सिर्फ मनोनिग्रह के लिए ही है। शरीर की इन्द्रियों का बल न्यून होने से वे उन्मत होकर नहीं दौड़तीं,बल न्यून होने से अकड़ने वाला मन स्वयं ही नर्म हो जाता है। मन को पुनः उन्मत बनने का अवकाश न देने के लिए महात्मापुरुषों के आदेशानुसार भगवत्परायण बनना चाहिए।
                        मन-अहंकार जो सबका कर्ता,विकारों का कारणरूप और आत्म स्तिथि का चोर है तथा उसमें  निवास करने वाले "मैं" और "मेरा" इस ममत्व को धारण करनेवाला है,जीव मुमुक्षु को चाहिए की उसका त्याग करदे।
                       जीव सर्वदा एकरूप,चैतन्य,व्यापक,निर्विकार,आननद स्वरुप, निर्दोष और कीर्तिमय है संसार में उसके आने का कारण मन-अहंकार ही है इस महादुख देने वाले मन-अहंकार शत्रु को असंग रूप(विरक्ति रूप) शस्त्र से काटकर फेंकने पर ही जीव आत्मज्ञान रूप चक्रवर्ती पद को प्राप्त होता है और जीव ब्रह्म में ही पूर्णरूप से निवास करता है।
                        इन्द्रियों और मन को स्थिर करने के लिए मन को खूटें से बाँधना चाहिए।मन रूप घोड़े की खूँटी(कील)  भगवदुपासना है और साथ ही श्रद्धा रूप सांकल से उसे बाँधना है अर्थात पूर्ण श्रद्धा रखकर, भगवान की उपासना में संकल्प-विकल्प का दृढ़ता से त्याग  कर,भगवान की उपासना करनी चाहिए, एकांत और पवित्र स्थान में पवित्र होकर,बैठ, सब अंगों और इन्द्रियों को स्थिर रख,आँखें बंद कर,ह्रदय रूप आकाश में सूर्य के समान तेजवाला प्रकाश मनोमय (मानसिक) दृष्टि से देखो और उसमे लीन हो,यह प्रकाश सबको प्रकाशित करने वाले परब्रह्म का है परब्रह्म की उपासना के लिए उस तेज का ध्यान धरो ,यह तेज सविता रूप जगदात्मा ईश्वर का है और इसी के द्धारा यह सारा संसार प्रकाशित है यही तेज हमारी बुद्धि(प्रज्ञा) को विकसित कर प्रकाशित कर उसकी उपासना को प्रेरित करता है।
                       यदि गायत्री का स्मरण (जप) ईश्वरी तेज को ध्यान सहित किया जाये तो, उसके द्धारा मनुष्य बिलकुल निष्पाप और स्थिर चित्त वाला होता है, तेज में परमात्मा के साकार स्वरूप का ध्यान करना चाहिए वहाँ मन स्थिरता को प्राप्त होता है। "हे राजा" तू सच्चिदानंद रूप में रमण कर,प्रवेश कर और उससे  पर हो।"
                      महाराज छादितबुद्धि और योगिराज का संवाद कह कर वटुक वामदेव जी बोले,"बरेप्सु! योगिराज ने इस तरह छादितबुद्धि को अपने पास बिठाया और उसके अंतःकरण में उस शब्द(तत्वमसि) ब्रह्मरूप भगवत तेज का अवलोकन करा कर उस अच्युत  स्वरुप का उसे नख से शिखपर्यन्त तक यथार्थ ज्ञान कराया यह महामंगलमय स्वरुप अपने भीतर खड़ा होते ही छादितबुद्धि विहल(गदगद)  हो गया,देहभान भूलकर आनंद सागर में हिलोरे लेने लगा,भगवत प्रेरणा से उसे स्मरण हुआ कि योगिराज ने मुझे "तत्वमसि" वह(ब्रह्म)तू (आत्मा) है ऐसा जो भान कराया था बह परब्रह्म स्वयं यही है। ईश्वर इच्छा से उसके हृदय से अज्ञानावरण का पर्दा दूर हो गया।
                        उस राजा की देह वासना और दूसरी वासनाएं भंग हुईं और अंत में वह अविकृत रूप में लीन हो गया।                    
                   

                                                                                                          शरणागत 
                                                                                                      नीलम सक्सेना   











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