Friday, 24 February 2017

हरि भजन का अवसर कब?

                               हरि भजन का अवसर कब?

तेजस्वी वाल महात्मा अपनी पूज्य मातु श्री के चरण दावते हुए अनेक मधुर वचनों  उनको प्रसन्न कर रहे थे,महाराजा वरेप्सु बटुक जी के पिता के चरण चापते थे माता पिता के सो जाने पर "जिज्ञासु जीव"बटुक जी से प्रश्न करने लगा तभी राजा  वरेप्सु ने बीच में ही हाथ जोड़कर कहा कि हम लोगों ने गुरु महाराज को बहुत ही परिश्रम  दिया है इसलिए आज उन्हें सुख से सोने दो ।  बटुक जी वामदेव जी से बोले " मुझे किसी बात का परिश्रम नहीं है,जल का स्वाभाव ही वहने का है इसलिए वह रात दिन वहा ही करता है उसमे उसे क्या परिश्रम है? इसी तरह भगवत चर्चा करना इस शरीर का स्वाभाविक कर्म होने से उसमे मुझे क्या परिश्रम?  कर्तव्य ही यही है कि देह को निरंतर चर्चा रूप परमार्थ में लगाऊँ , फिर सब मनुष्य प्राणी का भी कर्तव्य यही है कि सब कार्य छोड़कर भगवत स्मरणादि कार्य पहले करें। महापुरुषों ने कहा है :-
                                 सौ काम छोड़कर भी दान करने का अवसर आवे तो उस समय दान करना चाहिए, समय पर हज़ार काम छोड़कर स्नान करना चाहिए, भूख लगने पर तो लाख काम छोड़कर भोजन करना चाहिए और ईश्वर का स्मरण करोङो  छोड़कर भी करना चाहि, क्योकि इस क्षण भंगुर शरीर का                                         कुछ भी भरोसा नहीं है मनुष्य देह तो मात्र भगवत प्राप्ति के लिए ही बना हुआ है इसलिए चौरासी लाख जीव देहों से मनुष्य देह  श्रेष्ठ कहा गया है यह मनुष्य देह अपार दुःख और परिश्रम के बाद भगवत्कृपा से एक बार प्राप्त होता है उसका मूल्य न जानकर जो मनुष्य यों ही गँवा देता है वह अंत में खूब पछताता है ", वैश्य की कथा सुनाता हूँ सुनो :-
                               वामदेव ने कहा योगी अनेक तरह के होते हैं जो ध्यानपरायण हो वह ध्यान योगी,  जो ज्ञान परायण है वो ज्ञान योगी है। जिसका मैं इतिहास कहता हूँ वह महात्मा ज्ञानयोगी था वह स्वेच्छानुसार सर्वत्र विचरता और भवसागर में डूबे हुए लोगो को ज्ञानमार्ग की उपदेशरूप नौका में विठाकर उद्धार करता था एक दिन भिक्षा मांगने के लिए वह एक नगर में गया वहाँ एक मुहल्ले में पहुँचा उस मुहल्ले में एक धनाढ्य वैश्य रहता था उसने महात्मा को देखते ही बड़े आदर से प्रणाम किया  के लिए आग्रह किया उस महात्मा ने उनके यहाँ भोजन किया और जाने पर विचार किया कि  वणिक के अन्न से जिस देह का पोषण हुआ है उस देह से अपना से अपना धर्म भलीभाँति पालन कर ऋण मुक्त होना चाहिए ,बटुक जी ने कहा," ऐसे महात्माजन अनेक उपायों से जगत का सही कल्याण करते हैं ।
                               महात्मा ने उसी समय  सेठ का बदला चुकाने का निश्चय किया,फिर सेठ के समीप जाकर कहा,"वणिक!पंचतत्व से बने हुए इस शरीर को अन्न खिलाकर तूने तृप्त  किया है इसलिए तेरे हित की दो बातें तुझसे कहता हूँ उन्हें क्या तू सुनेगा ,वैश्य सोचने लगा कि योगी सन्यासी और क्या कहेंगे कि संसार की आसक्ति त्याग दो और हरि को भजो, परंतु यह कैसे हो  सकता है? इतना बड़ा व्यापर कैसे छोड़ दूं? यह तो तब हो जब समय आवे,मुझे अपने अपने काम के झंझट में भोजन करने का अवकाश तक नहीं मिलता,तो मैं हरि भजन को कैसे निष्काम बनूँ? ऐसा विचारकर उसने महात्मा को उत्तर सिया,"योगिराज! आप जो कहना चाहते हैं मैं जानता हूँ वह मेरे हित की बात है परंतु अभी मैं बहुत से कामों में फँसा हूँआप फिर कभी आकर मुझे कृतार्थ करेंगे ! वैश्य का ऐसा उत्तर सुन कर वह  महात्मा हरि स्मरण करते हुए वहाँ से विदा हुए । 
                                इस बात को बहुत दिन बीत गए वह योगिराज घुमते हुए फिर से वहाँ आये और वणिक से बोले कि तूने मुझसे पहले कहा था कि महाराज आना किसी दूसरे समय आना, इसलिए मैं आया हूँ ,क्या तू दो घड़ा स्थिर चित्त करके ईश्वर संबंधी दो शब्द सुनेगा ! वैश्य बोला," क्या करूँ महाराज ! आज तो मुझे जरा सा भी अवकाश नहीं है,आप कल या परसों पधारना " वह चला गया वह योगी फिर आया तब वणिक बोला "आज  तो महाराज! बहुत काम में फँसा हूँ ,इसलिए  आप कल पधारना कल मैं आपकी बात अवश्य सुनूंगा।"
                                कल कल करते हुए बहुत दिन बीत गए लेकिन उस वैश्य को अवकाश नहीं मिला लेकिन महात्मा बार-बार चक्कर लगाता ही रहा,एक दिन महात्मा फिर से घुमते हुए उसके यहाँ गए,देखा तो अफ़सोस! जिस वणिक को क्षन भर भी काम से अवकाश नहीं मिलता था आज वह सब काम छोड़कर बिछौने पर पड़ा हुआ है,उसके शरीर को भयंकर रोग ने घेर लिया है उसके कष्ट का वर्णन नहीं हो सकता, ऐसी दशा देख,योगिराज बोला,"क्यों भाई,आज तुझे अवकाश है?  आज निठल्ला है? आज तो काम नहीं है?  काम छोड़कर आज तू इस तरह निश्चिन्त बिस्तर पर क्यों पड़ा है? आज तेरा यह काम कौन करता है? मुझे आश्चर्य होता है कि तुझे आज अवकाश कैसे मिला?" ऐसे मर्मपूर्ण वचन सुनकर दुःख में डूबा हुआ वह बैश्य बोला ,"महाराज, देव. महात्मा, प्रभु, अब तो मैं काल के गाल में पड़ा हुआ हूँ अब मैं क्या करूँ?अरे अपने कामों को कैसे सभालूँ? अरे मुझे धिक्कार है, आप जैसे महात्मा का, केवल मेरे ही मंगल के लिए किया हुआ परिश्रम मैंने जरा भी नहीं गिना,मैंने कल कल करके आपको अनेक चक्कर खिलाये तो भी इस पापी जीव ने इन कानों से आपके अमृतमय उपदेश नहीं सुने, योगिराज मैं इस भयंकर काल के पाश में फंस गया हूँ कल कल करते हुए मेरा कल पूरा नहीं हुआ परंतु यह काल आ पहुंचा संसार सुख में मगन रहने वाला आज मैं दुःख के रगड़े खा रहा हूँ ,मैंने पल भर भी हरिस्मरण नहीं किया। मेरे समान अभागी कौन होगा जिसने घर में आयी हुई गंगा स्नान का लाभ नहीं लिया? अरे! अंजलि  में आये हुए अमृत को बिना पिए बह जाने दिया,हाय! अब मुझे महसूस होता है कि संसार में तो कभी भी अवकाश मिल ही नहीं सकता, हे देव! अब आप मुझर तारो,और उबारो मुझे इस संसार सागर के विषयजन्य सुख से छुड़ाओ। "
                                इतना कहकर वह रो पड़ा और नेत्रों से अश्रुओं की धारा बहाते  हुए योगिराज से विनय कर क्षमा मांगी तथा निवेदन किया कि,"कृपानाथ! मुझपर दया करो ,मैं पापी हूँ, मैं महामूढ़ हूँ, देव! आपकी शरण में हूँ इसलिए जैसे  बने मुझे तारो" करुणा स्वर- गदगद स्वर से बोलते हुए उस वैश्य को देख और उसकी ऐसी दयापूर्ण स्तिथि अवलोकन कर तथा उसका अन्तःकरण  संसार कार्य से विरक्त हुआ जान, योगी ने उसे तुरंत भगवत शरण का ब्रह्मोपदेश देकर कृतार्थ किया फिर उसे आशीर्वाद देकर वहां से चला गया।  अंतकाल वाले ब्रह्मोपदेश  के द्वारा मुँह से प्राण त्यागकर,वह वैश्य अंत में  ईश्वर की आराधना करके परम गति को प्राप्त हुआ। 






                                                                                            शरणागत 
                                                                                         नीलम सक्सेना 






  




Wednesday, 22 February 2017

त्याग की विडम्बना

                                  त्याग की विडम्बना 

                                     पाप करने के पीछे जिस पुरुष को पश्चाताप होता है ।  
                                     उसे हरि स्मरण करना यही एक परम प्रायश्चित है ॥ 
श्री बटुक जी महाराज अपने पिता की मोह प्रकृति का विचार कर रहे हैं अरे ये सभी जन्म जन्मान्तर में संसार क्लेश भोगने पर भी अविद्या के बल के कारण  अभी भी संसार सागर में गोते खाने में ही आनंद मनाते हैं इनकी स्थिरता मुक्ति कैसी ,कठिन है संसार का प्रपंच ऐसा रचा गया है कि उससे वे कठिनाई से भी पार नहीं हो सकते ,कामदेव तो इतना प्रबल है कि मनुष्य की सारी इन्द्रियों को एकदम वश में कर लेता है बटुक जी ऐसे विचार में लींन हैं ।
                     इतने में राजा वरेप्सु बटुक जी के पिता से बोले,"ऋषिराज त्यागी को किसका लोभ? लोभजतो केवल धन का होता है परंतु त्यागी को धन की कुछ आवश्यकता नहीं होती।"
                     ऋषि बोले,सब त्यागियों में त्याग के पूर्ण लक्षण नहीं होते सब में एक न एक अभाव  होता है "स्त्री त्यागी काम नहीं त्यागा ,घर छोड़ दिया परंतु लोभ नहीं छोड़ा "इस विषय की एक कथा है सुनाता हूँ ।
                    एक नगर में राज पुत्र और प्रधान पुत्र दो युवा मित्र थे वे विद्धान और सुन्दर लक्षण बाले थे एक बार वे दोनों घोड़े पर सवार होकर वन में घूमने के लिए निकले,उन्होंने देखा कि  बगीचे में कुटिया बनाकर एक त्यागी पुरुष वैठा था उसके सर पर सुन्दर जटा,शरीर पर एक कौपीन,मृगचर्म का आसन,और शरीर विभुति रमाई थी और सामने धुनि जल रही थी आँखे बंद कर,ज्ञानमुद्रा कर ध्यानस्थ के समान वैठा था ,ऐसी त्यागवृत्ति देख कर राजपुत्र प्रसन्न हुआ वह उसकी प्रशंसा करने लगा "धन्य है इस साधु योगी को, कामनाओं को त्याग कर ईश्वर के ध्यान में मस्त होकर वैठा है, यह सुन प्रधान पुत्र बोला,"हाँ  साधु है तो प्रणाम करने योग्य,इसे संसार की कोई इच्छा नहीं,यह तो सारी  वासनाएँ त्यागकर वैठा है?" राजपुत्र बोला "चलो इसकी परीक्षा कर देखें "
                        ऐसा विचार कर  दोनों उस त्यागी के पास जा  दूर से प्रणाम कर खड़े रहे और बोले"अहो प्रियमित्र ,ऐसे साधु की सेवा करने में महापुण्य  है ऐसे पुरुष को यदि किसी वस्तु का दान दिया जाये तो उसका सहस्त्र गुना फल मिलता है कि यह अमूल्य मणि जो लोहे को भी स्वर्ण  बना देती है यदि उसका दान इस साधु को दिया जाये तो अपना मानव देह सफल हो परंतु हम इसको कैसे दें यह तो दृढ समाधि में है ।
                        साधु ने दोनों की बातें सुनी और अपना मुँह फैला दिया कि मणि रखने का निर्भय स्थान यह है   यह देख दोनों मित्र हँसे और बोले कि अब इसका त्याग कहाँ गया ?
                         बटुक जी के पिता बोले,"पूर्ण आत्माराम  तो कोई बिरला ही हो सकता है,प्रिय पुत्र वामदेव !हम बृद्धों पर दया कर अब घर चल,मेरी अपेक्षा तुझे अपनी माता पर अधिक दया करनी चाहिए वह तो तेरे वियोग में अन्न जल छोड़कर वैठी है उसके प्राण बचने की आशा नहीं है।"
                        पिता पुत्र की यह बात सुनकर वरेप्सु सोचने लगे कि यदि ऋषि गगुरुदेव को ले जाएंगे तो  सद्गुरु को खो बैठुंगा इसलिए किसी तरह से भी गुरुदेव यहाँ से न जाने पाएं तभी अत्युत्तम है ऐसा विचार कर राजा वरेप्सु  दोनों पिता-पुत्र से हाथ जोड़कर प्रणाम कर बोले,"ऋषिवर्य! सदगुरुदेव! मैं मन वाणी और काय से सदा आपका दास हूँ इसलिए मुझे त्यागकर अब आप कैसे जायेंगे? मैं आपकी शरण हूँ मेरे तो आप ही सर्वस्व हैं इसलिए अब मैं आपको यहाँ से जाने नहीं दूंगा यहाँ पर आपके पधारने से मेरा ही नहीं बल्कि व्याधि उपाधियों से पीड़ित जनों का ,संसार सागर  डूबते हुओं का कल्याण हुआ है और इसी तरह निरंतर लोगों का कल्याण होता रहे, गुरुदेव आप मुझे कैसे त्याग सकेंगे और अपनी जननी मातु श्री,जिनकी कुक्ष(कोख) ने आपके समान महर्षि रत्न को उत्पन्न किया है वह भी कैसे त्यागी जा सकेगी ?इसलिए अब शीघ्र ही मुझे आज्ञा दीजिये जिससे मैं अति शीघ्र मातुश्री को यहाँ बुला लाऊँ और मैं निरंतर आपकी सेवा में तत्पर रहूँ "
                           इस तरह वरेप्सु महाराज के अत्याग्रह से वामदेव जी ने यह बात मान ली ,वरेप्सु ऋषि के आश्रम में जा पहुंचे वहां से वामदेव जी की मातुश्री को शीघ्र लेकर लौट आये, अन्न जल त्याग देने वाली योगमाया के समान ऋषि पत्नी और बटुक जी का जिस समय मिलाप हुआ उस समय का वर्णन कौन कर सकता है पुत्र को बाँहों में भरकर ह्रदय से लगाते ही माता अचेत हो गयी चेतना आने पर बटुक जी ने पूर्ण मात्र प्रेम दर्शाकर उसके मन को संतुष्ट किया ।







                                                                                                           शरणागत 
                                                                                                        नीलम सक्सेना  









Tuesday, 21 February 2017

संसार दुर्ग

                                         संसार  दुर्ग 

" जैसे आकाश में  उड़ने के लिए पक्षियों को दो पंखों की जरूरत होती है वैसे ही संसार  इच्छा रखने  वाले को ज्ञान और कर्म परमात्मा संबंधी विचार और संसार विचार इन दोनों की आवश्यकता है। " 

बटुक वामदेव जी के मुँह से यह बात सुनकर उनके पिता ने कहा"प्रिय पुत्र! यह बात सत्य है परंतु सबको संसार का त्याग करने की आवश्यकता नहीं है संसार को भोगने के बाद, दृढ विराग द्दारा जो त्याग हो वही सतत वैराग्य समझो,इसलिए मेरा विचार यह है कि संसार चाहे जैसा हो ,तथापि पहले उसका अनुभव कर उस पर जब स्वाभाविक अप्रीति हो तभी उसे तजना चाहिए,शास्त्रो ने भी गृहस्थाश्रम भोगना प्रत्येक मनुष्य का आवश्यक धर्म माना है गृहस्थाश्रम का पूर्ण अनुभव कर उससे धीरे धीरे प्रीती तोड़ने के लिए वानप्रस्थ अवस्था निर्माण की गयी है और यह अवस्था पालन करते हुए जब संसार आप ही आप अरुचिकर लगे तभी सन्यस्त ग्रहण करने के लिए मनुष्य को अधिकार होता है इस तरह विधिवत ग्रहण किया हुआ त्याग वैराग्य विचलित नहीं होता है यदि संसारी विधिपूर्वक संसार कासेवन करे तो त्याग की अपेक्षा शीघ्र तर जाता है, मैं एक राजा का संक्षिप्त इतिहास  सुनाता हूँ उसे तू सुन !"
                                 प्रापंचक नगर में शांतिप्रिय नाम का राजा था वह अपने नाम के अनुसार परम सुशील और धर्मपालक था वह राजा स्वभाव का शांत था इसी कारण शत्रु उस पर वारंवार चढ़ाई  करते और क्रुद्ध होकर बहुत पीड़ित करते थे ,एक साधारण सा नियम है कि संसार में जो बलवान होता है वही निर्बल को वश में करता है और अपने से कोई बलवान मिले तो उसके अधीन हो जाता है परंतु ऐसा सामना करने वाला बलवान मिलना कठिन था। शांतिप्रिय ऐसा बलवान नहीं था रक्षा का कोई उपाय न होने से वह बहुत घबराया और इस  मुक्त  होने के लिए,शत्रुओं के अधीन होने के सिवा कोई उपाय नहीं सूझा, शांतिप्रिय को इस तरह  अधीन होने पर भी प्राण और प्रतिष्ठा की रक्षा का का कोई उपाय न था  सोचकर शांतिप्रिय बहुत घबराया  आँखों से आंसू छलक आये। 
                               शांतिप्रिय के मंत्रियों में चिततवीर्य नाम का मंत्री बद्धिमान और प्रपंच कुशल था,उसने राजा की महाविपत्तिपूर्ण दशा देख ,उसे धीरज दे  शांत रखा और तुरंत ही एक रामवाण ( अचूक ) उपाय बतलाया वह बोला"महाराजाधिराज !  आप घबराते क्यों हैं ? आप महान पुरुषों के वंशधर हैं आपके पूर्वज महाप्रतापी थे उन्होंने अपने वंश की रक्षा के लिए अनेक साधन कर रखे हैं आपको अभी कोई नया प्रबंध करना नहीं है आपके नगर से तीन कोस दूर वह प्रपंच  दुर्ग है क्या आप उसे नहीं जानते हैं ? इसलिए चिंता तजकर आप उसमे शीघ्र आश्रय ले। "
                             यह सुन राजा बोला,"प्यारे चित्तवीर्य!यह तो मैं भी जानता हूँ परंतु पहले से उसका आश्रय लिया होता तो काम का था,शत्रुओं ने तो उसे चारों ओर घेर लिया है अब वहां कैसे जा सकेंगे दुर्ग का द्वार बहुत दिनों से बंद होने के कारण उसमे सुरक्षित रूप से प्रवेश कैसे हो सकता है  यह काम मुझे बिलकुल अशक्य लगता है। प्रधान बोला, "महाराज! चिंता न करें यह सेवक उसका सब उपाय जानता है चलिए तैयार हो जाइये  तथा प्रजा को उसमे प्रवेश करने की आज्ञा दीजिये । "
                              राजा तुरंत ही प्रजा और चतुरंग सेना को लेकर और सारे नगर को लेकर दुर्ग में गया और  तुरंत ही वह द्वार बंद कर लिया शत्रु  ने जब यह बात सुनी तो बड़े विचार में पड़ गया और सोचने लगा कि राजा न जाने किस तरह भाग कर दुर्ग में चला गया, वे भी नगर को छोड़कर दुर्ग के पास आये,परंतु वहां तो एक नयी गाथा देखने में आयी । प्रपंच दुर्ग एक  पर्वत के शिखर पर स्थित था वह बड़ी-बड़ी खाइयों ,शिखरों से घिरा हुआ अत्यंत दुर्गम पर्वत का  किला था सात किलों से सुरक्षित रहने वाले प्रपंच दुर्ग को देखकर शत्रु सन्न रह गए उन्होंने अपनी अपार सेना के साथ चारों ओर से किला तोड़ने की बहुत कोशिश की परंतु समर्थ नहीं हो सके उन्होंने हारकर चले जाने का निश्चय किया परंतु शांति प्रिय का चतुर प्रधान चित्तवीर्य दुर्ग के ऊपर से अस्त्रों की ऐसी मर करने लगा जिससे भयभीत होकर शत्रु इधर-उधर भागने लगे जब शत्रुओं ने बचने का कोई उपाय नहीं दिखा तो, हम सब आपकी शरण में हैं हमारी रक्षा कीजिये ऐसा कहने लगे ,यह देख शांतिप्रिय बहुत प्रसन्न हुआ और निष्कंटक राज्य करने लगा ।
                             बटुक मुनि के पिता ने कहा,"पुत्र! मनुष्य शांतिप्रिय राजा के समान  स्वाभाव का है वह यदि संसार का अनुभव न कर उसका त्याग करे तो अत्यंत निर्दय काम क्रोध आदि छः शत्रु उसे घेर लें इन सब  अग्रणी है काम रुपी शत्रु के घेरते ही मनुष्य उसके वश में हो जाता है,प्राणी शुद्ध चित्त रूप प्रधान ,सुमार्ग बतला कर ,प्रपंच रूप (संसार गृहस्थ आश्रम रूप) दुर्ग का आश्रय कराता है ।
                            इस संसार दुर्ग में सात आवरण हैं,शांति ,संयम ,विवेक ,भक्ति ,श्रद्धा, ज्ञान और वैराग्य ऐसे आवरणों के किले में रहने वाले प्राणी को जब शुद्ध चित्त रूप प्रधान की सहायता हो तो संसार के काम,क्रोध,लोभ,मोह,मद,मत्सर आदि घातकी शत्रु भी कुछ नहीं कर सकते परंतु वे उसके अधीन हो जाते हैं अर्थात शुद्ध चित्त वाला विवेकी मनुष्य संसार में रहकर भी काम,क्रोध को जीत लेता है परंतु त्यागी इसमें से कुछ नहीं हो सकता,  त्यागी निराधार और असहाय है इसलिए काम ,क्रोध आदि शत्रु एकदम वश कर लेते हैं अंत  में उसके त्याग का विनाश हो जाता है इन सबसे बचने के लिए विवेकी वीर को जैसे परमार्थ करना योग्य है ,वैसे ही प्रपंच साधन भी जरूर जानना चाहिए ।
    
                                 
                                                                                                               
                                                                                                           शरणागत 
                                                                                                        नीलम सक्सेना  























Monday, 20 February 2017

मलिन वासना का लय परम प्रेम है

                                 

                          मलिन  वासना का लय परम प्रेम है 

" जिन मनुष्यों की भक्ति श्री मधशोदासुत श्री कृष्ण के चरण  कमलों में नहीं है जिनकी जिव्हा अहीर कन्या राधा के प्राण प्रिय श्री कृष्ण के गुणगान में अनुरक्त नहीं है ,जिन मनुष्यों के कर्ण श्री कृष्ण लीला के सुन्दर गुणों के रस का आदर नहीं करते ,उनके लिए कीर्तन  समय बजाये जाने वाला मृदंग सतत  कहा करता है की धिक्कार है ! धिक्कार है !! धिक्कार है !!! "
                     सभासद ,राजा वरेप्सु ,बटुक के पिता ,सब एकचित्त से महात्मा बटुक के मुख से कथा सुनते थे उनके प्रति पुनः सौम्य दृष्टि कर बटुक बोले "राजन! यह असार संसार कैसा संकटदायक है यह वासना परम दूषित और मोक्ष से गिरा देने वाली है वासना युक्त अज्ञ जीव जब कालवश होता है,तो माया में लीन  होता है और फिर जन्म मरण के चक्कर में पड़ता है.परंतु  ज्ञानी - वासना से मुक्त हुआ जीव सब उपाधियों से मुक्त होने के कारणब्रह्म में ही लीन होता है इसलिए ज्ञानी,संस्कारी,अधिकारी जीव को जैसे भी हो निर्वासनामय होना चाहिए संसार से मुक्त रहने की इच्छा रखने वाले जीव बुद्धियुक्त मन से होने वाले कर्म के फलों को छोड़कर, जन्म बंधन से मुक्त होने के लिए स्वतंत्र होकर अनन्य पद की इच्छा वाले बने रहे  संसार की शुभ वासना भी जीव को किस तरह बंधनकारक हो जाती है इस विषय की एक प्राचीन कथा कहता हूँ सुनो :-
                           पतित पावित्री भागीरथी के तट पर एक पवित्र नगर था  नगर के निकट के उपवन में संसार बंधन से मुक्त परमात्मा की सतत भक्ति ही में लीन ,जीवनमुक्त " कौण्डिन्य  मुनि "रहते थे ,सदा उदासीन होने पर भी वे नित्य आनंद मग्न रहते थे , वे परम भक्त सारा दिन भगवन के पदारविन्द के ही स्मरण में समय व्यतीत  करते थे,आत्मज्ञान पूर्वक सदा भगवन में ही अनुरक्त रहते थे जब वे प्रभु भक्ति में लीन होते तो सिर्फ कौपीन पहनकर ही नाचते ,ताली बजाते , गदगद स्वर से रो पड़ते ,लम्बी सांसे लेते और 'हरे नारायण' नाम के उच्चारण में ही तादात्म्य हो जाते ,कभी बह जड़ के समान, कभी बहरे के समान ,कभी पागल के समान और भी महाज्ञानी के समान मालूम होते ,वह योगी कभी मंदिर मंदिर घूमकर प्रदक्षिणा करते ,बहुत से लोग उसे पागल समझते पर वह तो अनन्य प्रेमी परमात्मा में रमता राम जीव था ,संसार में उसकी जरा सी भी आसक्ति नहीं थी वह सम दृष्टि वाला, भेदभाव रहित, एकरस, एकाकार, द्वैत प्रपंच रहित द्वैत भाव को पराजित करने वाला, सदा परमात्मा में रमण करनेवाला था। जगत के किसी पदार्थ, प्राणी पर वह क्रोध, द्वेष नहीं करते थे ,कोई भी कार्य कामना के हेतु नहीं करते थे ,क्योकि फल की आशा से परमात्मा की भक्ति  करना भक्ति नहीं, परंतु व्यापर है। किसी भी स्वार्थ से ईश्वर भक्ति नहीं करनी चाहिए केवल निष्काम भाव से भक्ति करनी चाहिए जब भक्तजन पर ईश्वर प्रसन्न होते हैं और वरदान देने की इच्छा प्रकट करते हैं तब पवित्र भक्त , पूर्ण भक्त , निष्काम भक्त  कहता है मैंने फल की  आशा से भक्ति नहीं की , परंतु भक्ति ही की है। ऐसा अनन्य भक्त कभी भी फल की इच्छा नहीं करता है जैसे उवाला हुआ और कूटा हुआ धान फिर नहीं उगता वैसे जिस भक्त की चित्तवृति एकाकार हो गयी है वह फिर से सकाम होती ही नहीं है ।
                         उस योगी का प्रेम ऐसा ही था ,एक ही था ,उसका योग भी एक ही था । वह कभी भी योग क्षेम  नहीं  करता था शरीर शरीर निर्वाह के लिए उनके यहाँ नित्य अन्न आ जाता था उसे ही खाकर आनंद मग्न रहते थे वह स्वयं ब्रह्मरूप,महात्मारूप स्वयं प्रेम मूर्तिरूप थे उनका प्रेम सत्य था ।
                        कौण्डिन्य मुनि के आश्रम में नित्य अनेक संत ,ब्रह्मनिष्ठ आत्मज्ञानी संतो और साधुओं का समागम होता था और वे कौण्डिन्य मुनि के संग से पवित्र होकर इस अपार संसार से पार हो गए थे जब जब कौण्डिन्य मुनि सब लोगो को ब्रह्मनिष्ठ होने का उपदेश करते और परमात्मा के गुण कीर्तन का भेद समझाते,तब-तब कहते कि ,"इस जगत का प्रेम मूढमति के लिए है इसलिए जीव को चाहिए कि पहले वासना का ही त्याग कर सब बंधनो का नाश करने के लिए -भोग,देह,और कर्म सबकी वासना का लय करे । जो वासनामय होता है उसी को जन्म मरण के फेरा रूप बंधन में जकड़ना पड़ता है जगत के जीवों को राग, द्धेष ,क्रोध,भय,ईर्ष्या से मुक्त हो ज्ञानपूर्वक परमात्मा में परायण होकर उसी को प्रेम में एकाकार हो जाना चाहिए ,उन्ही का जन्म लेना ,जीना और मरना सफलता को प्राप्त होता है। वासना दो प्रकार की है शुद्ध और मलिन । शुद्ध वासना तत्व ज्ञान -परम भक्ति -पवित्र प्रेम में प्रेरणा करती है और मलिन वासना बंधन में डालती है मलिन वासना यदि शेष रही तो ब्रह्म का दर्शन हो नहीं सकता इसलिए वासना का क्षय करो , क्षय अभ्यास से परमात्मा के प्रेम में मग्न मस्त होने से हो सकता है और ऐसे प्रेमी होने से साक्षात् ब्रह्म के दर्शन होते हैं ऐसे उपदेशों से कौण्डिन्य मुनि के अनेक साथी जीव तर गए थे।
                       ऐसे पुनीत कौण्डिन्य मुनि जो सब वासना से मुक्त थे ,केवल अद्धेत में ही मगन मस्त थे,वे सिर्फ संसार  सम्बन्ध में रहने से ही जन्म मरण के फेरे में पड़े थे ।
                        इस मुनि के आश्रम के सामने ही एक गणिका(वैश्या)का घर था,किसी कर्म का फल भोगने के लिए उस घर की स्वामिनी का जन्म  गणिका जैसे अधम स्थान में हुआ था वह  गणिका अपने धर्म से क्षन भर भी चलाएमान नहीं होती थी वह परमात्मा के चरित्रगान में सदा तल्लीन रहती थी वह सदा प्रभु भक्तों पर दयालु रहती और सब धर्मो का पालन करती थी ।उसका प्रेम पवित्र और शुद्ध था सब काम वह ब्रह्मार्पण  विचार से करती थी और उसमे जरा भी लिप्त नहीं होती थी। इस गणिका के यहाँ जो-जो गुनी जन जाते थे,वे कौण्डिन्य मुनि की दृष्टि में पड़ते थे जब-जब उस वैश्या के घर में किसी पुरुष  देखते तब-तब मन में दुखित हो कहते।"अरे ! अभागी, पापी नरक में गिरने आया।"पाप कर्म द्दारा अपार नरक यातना को भोगने वाले जीवों को देखकर उनको दया आती और उस दया के कारण हि वे उस वैश्या के घर में जाने वाले मनुष्यों के लिए संताप करते थे यह संताप पवित्र था तो भी क्षण भर कर्म के बंधन में डालने वाला और वासना को बढ़ाने वाला था यह  मोक्ष से  गिरा देने वाली कष्ट कारिणी करुणा थी,नित्य के संताप से महात्मा धीरे-धीरे मुनि बंधन में पड़ते गए। परिणाम यह हुआ की मरने के समय भी उनका ध्यान यही रहा , जो पवित्र महात्मा अपार तेज वाले थे वे भी एक मलिन वासना करने के कारण जन्म मरण  फेरे में पड़े । कौण्डिन्य मुनि सब तरह से वासना मुक्त थे, सब कामना, तृष्णा और वासना का क्षय कर चुके थे सारी दैवी कला के भोगी थे परंतु अंतकाल में उदय होने वाली व्यावहारिक वासना से युक्त होने के कारण वह फिर से जन्म मरण के चक्कर में पड़े ,उन्हें इस वासना कारण और मारने के समय प्रभु की भक्ति भूल जाने के कारण फिर जन्म लेना पड़ा ।
                        कौण्डिन्य का जन्म उत्तम ब्राह्मण कुल में हुआ वैराग्य भावना के अत्यंत प्रबल होने से उन्हें अपने पूर्व जन्म का ज्ञान था और अपने इस जन्म के लिए बड़ा दुःख था , उन्होंने संसार से विरक्त रहने  संकल्प कर अपने इस जन्म को सफल करने का निश्चय कर लिया,माता पिता के अत्यंत लालन पालन करने पर भी वे विरक्त ही रहे ,माता के उदर से बहार आने पर न बोले और न ही दूध पिया। यह देख माता पिता बहुत दुखी हुए और यह बात सारे नगर में फ़ैल गयी कि योगिन्द्र मुनि के यहाँ पैदा हुआ बालक अत्यंत सुन्दर परम तेजस्वी होने पर भी  दूध नहीं पीता और न ही रोता ,यह महत आश्चर्य की बात है।
                          यह बात फैलते-फैलते गणिका के कानों में पड़ी वह बड़ी विस्मित हुई,यह जगत अन्नमय है बिना अन्न कोई भी जीव नहीं जी सकता, योगी भी देह निर्वाह के लिए अन्न फल का आहार करता है परंतु यह बालक बिना अन्न के जीता है और जन्म लेने के बाद  उसने कभी हुंकार भी नहीं की इसका कोई गुप्त कारण जरूर होगा, उस बालक का परम तेजस्वी स्वरुप देखते ही कर्म की विचित्र गति का स्मरण हुआ,अहो! महा प्रयास द्दारा शुभ कर्म के सेवन करने वाले ऐसे महात्मा योगी को दूसरे के हित के लिए की गयी  दुखित करती है,तो क्षुद्र प्राणी की तो गति ही क्या ? जरा सी भी वासना जन्म मरण के कष्ट को देने वाली हो जाती है ।                         यह कौण्डिन्य मुनि समर्थ आत्मवेत्ता थे भक्ति के साक्षात् स्वरुप थे तब यह गति कैसे ,अहो ज़रा सी वासना ने इस परम भक्त,परमज्ञानी की कैसी गति की है? ऐसा विचार कर वह गणिका उन ब्रह्मवास कौण्डिन्य मुनि के पास गयी और उन्हें प्रेमपूर्वक अपनी गोद में बिठाकर उनके शरीर पर हाथ फिराकर उन्ही की और एक टक  देखती रही,यह देख महात्मा कौण्डिन्य मुनि खिलखिलाकर हँस पड़े वहाँ पर खड़े हुए लोग विस्मित हुए क्योकि आज तक उन्हें  हँसते हुए या रोते हुए नहीं सुना था ।
                         गणिका  बालक को संबोधन कर बोली "  महात्मा कौण्डिन्य  यह आपकी क्या गति हुई ? आप तो सारे कर्मो से अलिप्त थे, आप स्वयं ही ब्रह्म रूप थे,ब्रह्म को ही अपने सब कर्म अर्पण करते और उसी  भजते, उन्ही की सेवा, उन्ही में विचरते थे, तो भी देव!आपकी यह गति क्योंकर हुई ?"  महात्मा कौण्डिन्य ने मुस्कुराकर कहा ",माता इस सबका कारण तू ही है !तेरे यहाँ आने वाले विषय जन्य की लालसा वाले जीवों का चरित्र देखने से मेरे भगवत स्मरण में पवित्र आत्मनिष्ठा में शिथिलता हुई और नित्य अभ्यास से मेरे अंतकाल में तेरे चारित्र की मलिन वासना के बल का स्मरण रहने से मेरी यह गति हुई" यह सुन गणिका बोली,"महात्मन! मैं चाहे जैसी थी,चाहे जैसे बुरे कर्म वाली थी,कामना में लुब्ध थी, परंतु आपने मेरा चिंतन क्यों किया?" गणिका की यह बात सुन, वाल कौण्डिल्य बोले "री परम पावनि अम्बा ! यह केवल दृढ़ आसक्ति का कारण है,तेरे यहाँ अनेक पुरुष आते और कुमार्ग में प्रबृत्त होते हैं  इस बात का मुझे सिर्फ करुणा के कारण महा परिताप होता, प्रत्येक पुरुष को देख कर खेद करता था, उसके अंतिम फल के रूप में मरते समय भी मुझमे नित्य के अभ्यास से वही चिंता रह गयी और मेरी यह दशा हुई,यह एक जन्म मुझे व्यर्थ ही अधिक भोगना पड़ा,तेरे यहाँ आने वाले पुरुषों को देखकर ऐसा विचार होता था कि ये मूढमति श्री कृष्ण परमात्मा का स्मरण, चिंतवन, भजन, पूजन और सेवन छोड़कर नरक द्धार  में क्यों जाते हैं ?"
                         गणिका वाल कौण्डिन्य के ऐसे वचन सुनकर बोली,"महात्मा! आपने बहुत बुरा किया,मनुष्य देह घर,सब कर्मो का क्षय करने पर भी, मुझ पापिनी के उद्धार में आपने बुद्धि लगाई इससे आपको पुनः जन्म का  फेर फिरना पड़ा ,देव! अब आप यह देह भोगें इसके बिना दूसरा उपाय नहीं है ।
                         मैं पापिनी दुराचारिणी कौन हूँ इसके लिए मेरे पूर्व जन्म का वृतांत  सुने," मैं जनकपुर की एक स्वरुपवती दासी, वैश्या पिंगला की दासी थी और अपनी स्वामिनी के आनंद के लिए काम करती थी जब उस वैश्या ने इस असार संसार से मोह तोड़कर सिर्फ ब्रह्म का स्मरण किया तो उसमे भी मैं उसके साथ थी मैंने भी परमात्मा श्री कृष्णचन्द्र में अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया,परंतु अपने पूर्व जन्म के कर्मो को भोगे बिना ही मेरी मृत्यु होने से मुझे यह जन्म लेना पड़ा है और आपके  समान महात्मा के दर्शन से ही मेरी बुद्धि पवित्र हुई है मैं नित्य ही आपकी पर्णकुटी में आने वाले महात्माओं को देखकर आनंद से उनके दर्शन कर मन वचन से उनके दर्शन करती नमस्कार करती,मन में सदा उन्ही का ध्यान करती कि,अहो! कैसे समर्थ महात्मा है कि जिनके दर्शन मात्र से मेरे समस्त पाप जल कर क्षार हो रहे हैं हर पल मैं उन महात्मा का ही चिंतन करती और हे महात्मा! आज भी देखो उन्ही के ध्यान के प्रभाव से मेरी सारी वृतियां विराम को प्राप्त हुई हैं और मैं नित्य  शांति भोग रही हूँ आपके और मेरे पूर्व जन्म का जो ज्ञान प्राप्त हुआ है वह इस दर्शन स्मरण और कीर्तन का प्रताप है, मैं नित्य शुद्ध बुद्ध परमात्मा श्री कृष्ण चंद्र का स्मरण, अर्चन, पूजन और वंदन करती हूँ सिवा उसके मेरा किसी पर प्यार नहीं है यह जीव्हा उन्ही का रटन  किया करती है, ये कान उन्ही का गान सुनते हैं और ये नेत्र उनके दर्शन से ही पवित्र होते हैं, वही मेरे प्रेम के पात्र हैं ,वही मेरे ह्रदय के देवता हैं उन्ही में मैं एक स्वरुप(तदाकार) हूँ, जो उनके गुणों से विमुख है वही नरक में पड़ते हैं मैंने कोई भी काम ब्रह्म अर्पण के बिना आजन्म नहीं किया,नीति के किसी भी मार्ग का उलंघन नहीं किया,संत पुरुषों को छोड़ मैंने अन्य किसी का दर्शन नहीं किया किन्तु आप ब्रह्म रूप  होने पर भी इस मिथ्या वासना का सेवन कर यह गति भोग रहे हैं मैं अपने यहाँ आने वाले मूढमति गवारों से कहा करती कि  जिन्होंने श्री कृष्ण का सेवन नहीं किया उन्हें धिक्कार है और यही उपदेश मैंने अपने मृदंग को दिया जो यही उपदेश किया करता है और करेगा,ज्ञानी को झूठे पदार्थ से प्रेम होना ही उसके पतन का चिन्ह है, मोक्ष में रूकावट करने वाला है अब आप जगत में रहकर मनन, निदिध्यासन करें,इस असार संसार से तरने के लिए के ब्रह्म के ही प्रेम में मस्त रहें । मन वचन कर्म से अपने प्रिय इष्ट देव को भजें,स्मरण करें,पूजन करें,भक्ति से सेवें,उन्ही का रूप हो जाएँ ,बस इससे इस समस्त भवपाश से मुक्ति मिलेगी।"
                         गणिका के चुप हो जाने पर उन योगिंद्र वाल कौण्डिन्य ने कहा," मुक्ते ! यह सब नियंता का खेल है उसकी इच्छा के बिना कुछ नहीं होता,एक पत्ता भी नहीं हिलता, जन्म लेना , मृत्यु को प्राप्त होना इन सबका निमित्तरूप कारण है,इसलिए जीव को चाहिए की कर्तापन का अहंकार छोड़कर सारी वासना का त्याग करे इस जगत में सिर्फ ब्रह्मानंद का ही भोगने वाला जीव निर्भय है दूसरा नहीं ,ब्रह्मरूप में शिथिलता ही वासना है और वही पतन  का कारण है यह जानते हुए भी मैंने द्धैत की वासना की, इसी का यह  फल है यदि जीव को ब्रह्मनिष्ठा का साधन कष्ट कारक मालूम हो तो उसके लिए निरंतर शक्ति का सुलभ मार्ग यह है कि वह पूर्ण प्रेमी बन जाए, जो तन्मय है,  पूर्ण प्रेमी है,  प्रेम में एकाकार है उसे थोड़े ही समय में परमात्मा इस असार संसार सागर से पार कर लेते हैं ।
                        इस प्रकार श्री परमात्मा को याद करते हुए कौण्डिन्य मुनि एकाकार हो, दोनों भक्त ,अंत के जन्म का भोग, भोग चुकने पर परमधाम में जा वसे।
                        महात्मा बटुक ने अपने पिता और राजा वरेप्सु से कहा "इन्ही कारणों से मैं संसार बंधन में पड़ने का अभिलाषी नहीं होता और उससे दूर भगता हूँ । "




                                                                                                           शरणागत 
                                                                                                        नीलम सक्सेना  





  
  

Friday, 17 February 2017

वासना का नाश

                                           वासना का नाश 


"मैं धर्म को  जानता हूँ किन्तु उसमे मेरी प्रवृति नहीं है ,मैं अधर्म को भी जनता हूँ परंतु उससे मेरी निवृति नहीं होती किन्तु ह्रदय में स्थित कोई देव मुझे जैसी प्रेरणा करता है वैसा मैं करता हूँ ।"
                       " भोग के समूह की वासना त्यागकर तू देह वासना भी छोड़,फिर भाव और अभाव त्यागकर संदेह रहित होकर सुखी हो " 
                        महाराज ने बटुक जी से विनय की कि "गुरु महाराज! आज्ञा हो तो एक प्रार्थना करून आपके पिता जी आप पर अत्यंत पवित्र प्रेम करने वाले हैं इतना आग्रह तो भी  जाने से क्यों इंकार करते हैं  महापुरुष हैं और जल में रहने वाले कमल के समान अलिप्त हैं इससे संसार में फंसने का तो आपको जरा भी भय नहीं फिर आप घर जाकर संसार में रहने से क्यों इंकार करते हैं" यह सुनकर बटुक जी ने कहा राजा तू जो कहता है वह ठीक है परंतु संसार में वास करने से मन विषयों में फसता है और इससे मनुष्य बार-बार चौरासी के फेरे में पड़ता है । 
                  श्री कृष्ण ने उद्धव से उपदेश करते हुए कहा कि "वनं तु सात्विको  वासः" वन का ही निवास सात्विक है, संसार का निवास नहीं ,एकांत में रहने से मन सब उपाधियों से मुक्त होता है किसी भी तरह की तृष्णा नहीं होती ऐसे इच्छा रहित मनुष्य मुक्ति पाने को समर्थ  होता है संसार बंधन  मुक्त होने की इच्छा रखने वाले मनुष्य को सब विषय वासनाओं का त्याग कर देना चाहिए यह संसार की सब वासनाओं का मूल है । 
                     राजन ! ब्रह्म भाव से उन्नत स्थिति  पंहुचा हुआ ज्ञानी क्या मायिक पदार्थ की ओर दौड़ेगा ? ज्ञानरूप सूर्य के उदय होने रात्रि के तारारूप संसार सुख की कौन इच्छा करता है राजन यह संसार नृगजल के समान है जब तक जीव संसार को चाहता है और मृतवत देह को प्यार करता है तब तक वह क्लेशरहित नहीं होता और जन्म मरण तथा व्याधि का सेवन करने वाला मूढ़ पशु बना रहता है यह संसार केवल क्लेश की मूर्ती है,उसमें क्या ज्ञानी मनुष्य  प्रेम होगा ? ब्रह्म भाव से च्युत (पतित) होना इसके शिव संसार में और क्या सुख है।                      संसार में जो सुख माना मनाया है,वह विषय सुख है परब्रह्म के अंशावतार ऋषभ देव अपने पुत्रों को उपदेश देते हुए कहते हैं कि  संसार में सच्चे संतों की सेवा को मुक्ति का द्धार कहा गया है मेरा कथन पाप या कपटरहित अंतःकरण वाली पवित्र पतिव्रता स्त्रियों के लिए नहीं है परंतु ऐसी स्त्री करोङो  भी मिलना दुर्लभ है स्त्री में विशेषकर 'माया'का अंश प्रधान होता है और उसमे जड़त्व अधिक होता है स्त्रियां अधिकतर संसार के अनुकूल और परमार्थ के प्रतिकूल होती हैं। 
                    निजस्वरूप निष्ठ जीव को तो वह महाक्लेश कारिणी है एक कुटिल स्त्री की कथा सुनाता हूँ सुनो -एक नगर में एक संत महात्मा रहते थे उनके पास कई मुमुक्षु कथा सुनने आते थे वे एकाग्र होकर अत्यंत भावपूर्वक गुरु के मुख से कथा सुनते और फिर घर जाकर उसका मनन करते थे मनन किये बिना श्रवण करना ब्यर्थ है  साधक जीव गुरु से जो सुने उसे अपने ह्रदय में मनन द्वारा अच्छे से बैठाये,एक समय कथा के मध्य में ऐसा आया कि ,"यह संसार निरा स्वार्थी है उसका प्रत्येक प्राणी अधिकतर स्वार्थ के लिए स्नेह करने वाला होता है" यह सुनकर एक श्रोता ने पूछा,"गुरु जी यह कैसे माना जाये? जगत में क्या निःस्वार्थ स्नेह है ही नहीं ?" पति -पत्नी, माता-पुत्र, भाई-भाई, मित्र-मित्र , स्वामी-सेवक आदि  क्या स्वार्थी है?"तब वह संत बोला हाँ भाई ऐसा ही है निःस्वार्थ स्नेह तो संसार में कहीं ही होता है ,मनुष्य के सारे सम्बन्ध का मूल पति-पत्नी सम्बन्ध ही है जो गाढ़े  और पवित्र स्नेह से जुड़ता है ।
                    कहीं पुरुष स्नेहपात्र और शुद्ध अंतःकरण का होता है तो स्त्री प्रपंची होती है और स्त्री शुद्ध अंतःकरण की हुई तो पुरुष वैसा नहीं  होता है ,अपने ही सुख की इच्छा करने का नाम स्वार्थ है इस नियम से संसार स्वार्थी और प्रपंची  है ।
                    यह सुनकर एक श्रोता को विश्वास नहीं हुआ क्योंकि उसकी पत्नी उसके प्रति निष्कपट स्नेह रखने वाली उसके लिए जान न्योछावर करने वाली,हर तरह से प्रसन्न रखने वाली प्रतीत होती थी वह स्त्री के सौन्दर्य में लीन था । गुरु वचन से उसके मन में चिंता उत्पन्न हुई एक और गुरु महाराज के वचन पर विश्वास और दूसरी और अपनी पत्नी का अपार स्नेह इन दोनों में कौन सत्य है पर उसने बहुत विचार कर देखा परंतु कोई बात निश्चित नहीं हो सकी ,उसने अपने मन की बात एक श्रोता से कही ,श्रोता ने कहा पगले तुझे गुरु महाराज के वचनों पर विश्वास नहीं ? अरे ये तो महापुरुष हैं इनकावचन असत्य  हो ही नहीं सकता । यह संसार प्रपंची है ,यह बात कभी असत्य नहीं है और स्त्रियों का स्नेह तो ऊपर ही ऊपर समझ ,शुद्ध अंतःकरण और सच्चे स्नेह वाली स्त्री तो सती कहलाती है और ऐसी सती  क्या हर जगह होती है ?  तू  नहीं मानता तो परीक्षा कर देख ।
                    गुरु के वचनों पर विश्वास कर  अपनी पत्नी की परीक्षा लेने का निश्चय किया ,उसने एक युक्ति की , एक दिन वह बाहर से हाँपते हुए घर में आया और बोला मेरे पेट में बहुत पीड़ा हो रही है ऐसा कहकर धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ा उसकी स्त्री तुरंत उसके पास आयी  प्रिय वचनों से शांत कर धीरज देने लगी और उसका इलाज देने लगी परंतु कुछ भी आराम नहीं हुआ रोगी हो तो निरोगी हो जाए परंतु ढोंगी को क्या हो ,कुछ दिनों  ऐसा लगने लगा कि वह अब अंतिम अवस्था में पहुँच गया है स्त्री ने जान लिया कि  वह अब बचने वाला नहीं है इससे उसको बड़ी चिंता हुई और वह अपने भविष्य के लिए विचार करने लगी पति की अस्वस्थ अवस्था देख सोचने लगी कि  इनके बाद मेरा क्या होगा ऐसा विचार कर पति से पैसा जायदाद के बारे में पूछने लगी,कितनी और कहाँ है ? पति ने कोई जबाब नहीं दिया,स्त्री निराश होकर शोक करने लगी कि पति ने मेरे लिए कुछ नहीं किया ऐसा सोचकर पति को अनेक कठोर बचन कहने लगी क्रोध में आकर । वह सब अच्छी तरह से सुनता देखता जाता था ज्यों ज्यों समय बीतता उसकी हालात बिगड़ती जा रही थी लेकिन पत्नी ने जरा भी चिंता उसकी नहीं की कि इसे कितना दुःख है यह कैसे काम हो । पति की चिंता किये बिना भविष्य में मेरा क्या होगा इसकी चिंता करने लगी । वह स्नेह करने वाली परम प्रेमिका और एक निष्ठ पतिभक्त परायणा स्त्री बिल्कुल वेगरज (निःस्पृही) बनी रही  वह केवल स्वार्थ का ही विचार करने लगी कि अब मेरा  क्या होगा?
                     यह सब देखकर उस शिष्य ने विचार किया कि यह दुष्टा तो ऐसी है अगर मैं मर जाऊँ तो इस पर कोई असर नहीं होगा इसलिए अब सचेत होने की बड़ी जरूरत है । वाह ! वाह ! धन्य है गुरुदेव के वचन !महात्मा श्री शंकराचार्य जी के यह वचन अक्षरशः सत्य है कि "किसकी स्त्री? किसका पुत्र? यह संसार अत्यंत विचित्र है मैं  इस स्त्री के असत्य और स्वार्थ भरे प्रेम से मोहित होकर सत्य नही मानता था परंतु अभी जाना है की इसका प्रेम कैसा शुद्ध और पवित्र है" शिष्य ने क्षण भर में  प्राणायाम द्धारा धीरे-धीरे सांस खींचकर बंद  मृतक के समान हो गया ,पत्नी घबराई और रोने लगी, मुझे इस हालात में देखकर यकायक  सांसारिक कर्म रोने के लिए बल की जरूरत होती है पति की मृत्यु का दुःख भूलकर दरवाजा बंद  कर जल्दी से दूध पी लिया ,जल्दी से कलेवा कर लिया और थोड़ा सा उठाकर रख दिया और जोर जोर से रोने लगी सभी इकट्ठे  हो गए रोनेकी आवाज सुनकर और उसे शमशान ले जाने की तयारी करने लगे,सभी उसकी पत्नी को धैर्य देने लगे । यह सब वह शिष्य एकाग्र चित्त से सुन रहा था उससे यह मिथ्या विलाप सुना नहीं गया,तब वह शिष्य जमुहाई ले हरिनाम उच्चारण करते उठ बैठा यह देख सब बड़े बिस्मित हो शव में 'जी आया  जी आया 'कहने लगा वह शिष्य बुद्धिमान और विचारशील था और शास्त्र में भी  कहा है कि :--
                      "आयुष्य,धन,घर के चल छिद्र,मन्त्र,मैथुन,औषध,मान,और अपमान ये नव  सावधानी से गुप्त रखने चाहिए" इससे अपनी स्त्री की हंसी न हो,इसका विचार कर बोला "प्रिय! अरे पतिवृता! अरे भूखी प्यासी अबला तू चुप रह !चुप रह  तेरे अवर्णीय प्रेम से ही मुझमे चैतन्य आया है यह तेरे सत्य का प्रताप  है  स्त्री मिले  जैसी सटी ही मिलनी चाहिए । "
                         यह मार्मिक वचन सुनकर वह स्त्री बिल्कुल ही ठंडी पड़ गयी वह न कुछ बोल सकी न ऊपर ही देख सकी सब लोग यह सुनकर धीरे धीरे चले गए सबके चले जाने पर वह शिष्य उठकर कमरे मे गया और एकांत में रखा हुआ कलेवा (हलुवा) लेकर उस स्त्री के आगे प्रेम से खाया और स्त्री से कहा तुम भी खाओ क्योकि तेरे सत्य के  मालूम हुआ है कि इस संसार में सब स्वर्थी हैं उसी स्वार्थ की हूबहू मूर्ती तू मेरी ललित ललना है !धन्य है श्री गुरुदेव को! जिन्होनें कृपा कर मुझे आज यह रहस्य समझाया। धिक्कार है इस संसार को ! फिर खड़ा होकर बोला कि -
                                          "पिया पिया सब कोई करें , गान तान में गाये 
                                            पाया जो अपना पिया ,वाके नैन वैन पल्टाए"
                         ऐसा बोलता हुआ उसी समय वहां से उठ अपने गुरुदेव के पास जा कपडे त्याग सिर्फ एक कौपीन पहन और सारे शरीर में भस्म मल ,एक तुम्बी और एक दंड लेकर उनके चरणों में जा पड़ा और उनके वचन की सत्यता के लिए वारम्वार प्रणाम करने लगा गुरु विस्मित होकर बोले"बच्चा यह क्या" उसने उत्तर दिया "वस अब तो यही;आपकी कृपा से संसार को जान लिया,अब तो इसी में आनंद है यह प्रपंच झूठा है ,कोई किसी का नहीं सब स्वार्थ के साथी हैं अब आप कृपा कर दीक्षा दीजिये "  गुरु ने उसका सत्य निष्ठ भाव देख दीक्षा दी , माया से निबृत हो वह शिष्य , सबको प्रणाम कर वहाँ से चलता हुआ,चलते समय उसने एक पद के रूप में जगत के स्वार्थपन के लिए कहा :-
                                             
                                           "  सब मतलब के यार ,जगत में सब मतलब के यार 
                                               मात पिता भ्राता भगिनी सूत,  सुता और निज नार ॥ 
                                               निस्वार्थ कोई हरि के प्यारे ,जिनके ह्रदय उदार 
                                               जिनको पर उपकार सदा प्रिय,तीन पर मैं बलिहार ॥ "

                    यह वृतांत कहकर वामदेव जी ने कहा इसलिए ब्रह्मनिष्ठ जीव को,संसार का त्याग करना और वासना से अलग रहना चाहिए, वासना इस जीवात्मा को जहर से अधिक दुःखद है इसलिए संसार को मई पुनः नमस्कार करता हूँ । 
                                                                                                         


                                                                                                        शरणागत 
                                                                                                        नीलम सक्सेना  










                         
                       
                   

Wednesday, 15 February 2017

सत्संग महात्म्य

                                         सत्संग महात्म्य 


"जैसे कपड़ा रंग के अधीन होता है,वैसे ही मनुष्य यदि सत्पुरुष की सेवा करता है तो सत्पुरुष के समान होता है,यदि दुर्जन की सेवा करता है तो उसके समान होता है ,तपस्वी की सेवा करता है तो तपस्वी के अधीन होता है और यदि चोर की सेवा करता है तो चोर के अधीन होता है । "
                          वामदेव जी के पिता बोले कि "सत्संग सवन को सार" वत्स तेरे समान , मोहजित महात्मा का संग हो तो अविद्द्या से घिरे हुए जीव भी वैसे ही हो जाएं। तेरे समागम से इन सब श्रोताओं के अज्ञान का पर्दा समूल खुल गया है। सत्समागम का महात्म्य बहुत बड़ा है,सत्पुरुष का समागम होने से जीव के सब पाप समूल नष्ट हो जाते हैं ,सब दुखों का नाश होता है और अखंड सुख प्राप्त होता है। 
                         प्राचीन समय में एकबार सब ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महात्मा, संत और देवताओं ने एकत्र होकर एक तुला खड़ी की और उस तुला के एक पलड़े में सत्समागम का एक ही सुख रखा और दूसरे पलड़े में मृत्युलोक के सारे सुख रखे परन्तु सत्संग  सुख वाला पलड़ा जरा भी ऊंचा नही हुआ, स्वर्ग लोक के सुख भी पलड़े को तिलमात्र भी नहीं उठा सके।  यह देख देवर्षि ,सब कोई बड़े आश्चर्य सत्समागम की प्रशंसा करने लगे इसलिए पुत्र तू मुझे सत्संग का लाभ दे ।
                        यह सुन राजा वरेप्सु बृद्ध ऋषि को प्रणाम कर बोले ऋषिवर कृपा करमुझे सत्संग का महात्म्य समझाइये ,ऋषि बोले राजन यह सब देख देवर्षि नारद भी बहुत बिस्मित हुए और सत्संग का महात्मय जानने के लिए वीणानाद से हरी स्मरण करते हुए विष्णु लोक को गए वहां जाकर नारद जी ने भगवान श्री हरी को दंडवत नमस्कार प्रार्थना कर उनसे इस सत्संग सुख की तुला संबंधी सब बातें निवेदन की और पूछा ,"कृपानाथ! जगत नियन्ता! सत्समागम का इतना बड़ा महात्म्य किस तरह होगा? तब विष्णु भगवन बोले, "देवर्षि! प्रिय भक्त नारद सत्संग का महात्म्य अपार है यह ऐसा है कि इसका वर्णन किसी से भी नहीं हो सकता सत्संग परम सुख का मूल हैऔर सब साधनों  साधन है यदि सत्संग महात्म्य जानने की तुम्हारी इच्छा हो तो भूलोक में हरिद्धार में एक तपस्वी ब्राह्मण रहता है उसके पास जाओ वह तुम्हे सत्समागम का महात्म्य प्रत्यक्ष दिखाएगा।
                        नारद तुरंत भूलोक में आये और भगवन के आदेशानुसार उस ब्राह्मण के पास गए उस समय वह तापस अंत्यवस्था में था उसकी लालसा किसी ईश्वर भक्त के दर्शन करने की थी देवर्षि नारद को वह अपने सम्मुख देखकर वह बोला,"कल्याण! कल्याण! श्री हरि की परम कृपा है !इस समय मुझे इस हरि भक्त स्वरुप परम सत्पुरुष के दर्शन हुए अहो! हे  ऋषि देव पधारो,पधारो मुझे पवन करो! कृतकृत्य करो !  मैं आपको प्रणाम करता हूँ और इस भूलोक को भी अंतिम प्रणाम करता हूँ "यह कहते ही वह अचेत हो गया और पल भर में इस अनित्य देह का त्याग कर सतलोक को चला गया ।
                        नारद जी यह देख शोच करने लगे की "राम! राम!  यह तो उल्टा हो गया! भगवान् ने यह हत्या मेरे ललाट टीक दी । ऐसा विचार करते हुए नारदजी शीघ्र विष्णु लोक गए और भगवान् से सारा वृतान्त कहने लगे "कृपानाथ! वह ब्राह्मण तो मुझको देख मृत्यु को प्राप्त हुआ ,इसका क्या कारण है वह मृतक मुझसे सत्संग का महात्म्य क्या कहता ?
                       भगवान बोले "नारद वहां जो चमत्कार हुआ उससे तुम सत्संग का महात्म्य नहीं समझे तो मृत्यु लोक में फिर जाओ वहां यमुना के तट पर एक गौ से रत्न के समान बछड़ा जन्मा है वह तुमको सत्संग  महात्म्य बतायेगा । भगवन के यह वचन सुनते ही नारद जी तुरंत वीणानाद करते हुए यमुना तट पैर गौ के पास आये वह उन्होंने तुरंत का जन्मा हुआ बछड़ा देखा उसको देखकर सोचने लगे भगवान् ने जो बछड़ा बताया था वह यही है बछड़े को देख नारद जी ने पूछा "वत्स! धेनुपुत्र!  तू प्रसन्न तो है ऐसा प्रश्न करते ही अचानक एक कौतुक हुआ।
बछड़े की नारद जी से चार आँखे होते ही वह अपना सिर ऋषि के आगे झुक एकदम जामीन पर गिर पड़ा और थोड़ी देर में पैर छटपटा कर ऋषि की और दृष्टि कर अपना पशुदेह छोड़, उर्ध्व  लोक को चला गया ऐसा दृश्य देख ऋषि बिलकुल ही लज्जित हो गए और वहां से शीघ्र ही भाग गए और मार्ग में विचार करने लगे कि क्या सत्संग की महिमा ऐसी होती है कि बेचारी गौ बिना बछड़े की हो गयी ऐसा विचार करते हुए वे विष्णु लोक में जा पहुचे और भगवान से बोले कि आपने मुझे पाप में क्यों डाला,एक ब्रह्म हत्या और दूसरी गौवाल हत्या,क्या सत्संग का यही महात्म्य है?भगवान ने कहा,"अस्तु "हुआ सो हुआ अब तुम एक बार और भूलोक में जाओ वहां सरस्वती  ब्रह्मारण्य वन में जाओ वहाँ बृक्ष में बसने वाला पक्षी तुम्हे सत्संग का महात्म्य बतायेगा ।
                      नारद जी फिर निन्यानवे  चक्कर में पड़े बैकुंठ से चलकर ब्रह्मारण्य  में गए ,नदी तट  के एक पुराने खोखले पेड़ की पोल में एक पक्षी घोंसले से मुँह बहार निकाल कर बैठा था जैसे नारद जी की ही रह देख रहा हो थोड़ी देर तक वह पक्षी और नारद जी एक दुसरे की ओर देखते रहे फिर विचार कर नारद जी ने उससे पूछा" पक्षी!भगवान  आज्ञा  सत्संग का महात्म्य पूछता हूँ उसे क्या तू कहेगा ! इतना शब्द उस पक्षी के कान में पड़ते ही वह एकदम धब्ब से नारद जी के पैर में गिर पड़ा और फड़फड़ाकर कुछ देर में वह मर गया। अररर! यह क्या हुआ तीसरी हत्या देखकर नारद जी बहुत दुखित हुए और विचार करने लगे कि मैं  कल रूप हूँ नारद जी ने निश्चय किया की इसका वर्णन भगवन के श्री मुख से ही कराऊंगा । ऐसा विचार कर घबराये हुए बैकुंठ की और चल दिये वहां पहुचकर प्रभु से निवेदन कर बोले " कृपानिधान! वह तो  ही तापस, गौवाल की ही तरह प्राण छोड़कर चलता हुआ ! परमप्रभु ! कहो सत्संग का क्या यही महात्म्य है ?
                      यह सुन भगवान मुस्कुराकर बोले,"प्रिय भक्त नारद अभी तुझे क्या सत्संग का महात्म्य सुनना शेष है ? क्या तू अभी भी सत्संग का महात्म्य नहीं समझ सका ,हरे !हरे !
                       भगवान ने कहा, " नारद तुम अब श्री मंच्छापुरी में जाओ  वहाँ राजा के घर अभी ही पुत्र पैदा हुआ है ,वह तुम्हे सत्संग  का महात्म्य यथार्थ रूप में बताएगा, तुम्हारा वहां का फेरा व्यर्थ नहीं जायेगा , नारद बोले यदि सत्संग का वैसा ही महात्म्य निकल तो मेरी बलि ही समझो । नारद जी का ऐसा उत्तर सुनकर मुस्कुराते हुए श्री भगवान ने समझाकर  एक बार जाने को कहा । श्री भगवान की आज्ञा होते  ही नारद जी एक बार मंच्छापुरी में आये और वीणानाद करते हुए राजसभा में गए देवर्षि के दर्शन होते ही  राजा ने आसान से उठ साष्टांग प्रणाम किया  पूजन कर पुछा," ब्रह्मपुत्र! परमभक्त! भले पधारे इस सेवक को क्या आज्ञा है ?  राजा के ऐसे विनय युक्त वचन सुनकर नारद जी बोले," साधु तेरा कल्याण हो मैंने सुना है की तेरे यहाँ पुत्र रत्न पैदा हुआ है, वह  महाभक्तजन है उसके दर्शन के लिए मैं यहाँ आया हूँ,नारद जी के ऐसे वचन सुनकर राजा विस्मित हुआ की जिनके दर्शन के लिए अनेक जीव तरसते हैं वे यहाँ मेरे पुत्र के दर्शन के लिए कैसे आये ?यह महाश्चर्य  की बात है फिर राजा पीछे पीछे नारद जी आगेआगे अंतःपुर में गए ,रंगमहल में राजपुत्र किलकारी मारते हुए पैर का अंगूठा पी रहा था । वह सोने के पलने में खेल रहा था । नारद जी ने पुत्र को पलने में खेलते हुए देख नीचे झुकते हुए उसके कीं में धड़कते हृदय से कहा ,वत्स श्री भगवन की आज्ञा से मैं यहाँ आया हूँ तू मुझे सत्संग का महात्म्य सुना । इतना सुनते ही वह बालक छटपटाकर पल भर में इस अनित्य देह का त्याग कर  परब्रह्म धाम में जा वसा ,यह  देख नारद चित्रवत हो गए !
                         यह सब घटना  की थी उस कुमार की मृत्यु होते ही राजा,दासी सब घबरा गए ,राजा शांत  भी शोकवश हो गया और नारद जी से कहने लगा ,देव! यह क्या हो ! अंधे की आँखें, पंगु के पैर और प्रजा के कल्याण रूप मेरे समान बृद्ध को प्राप्त हुए इस कुमार को  अपने क्या किया जिससे की यह क्षणमात्र में मृत्यु को प्राप्त हुआ ?"नारद जी चकित हो गए और विचार करने लगे की श्री भगवान कैसी बला में डाल दिया है,नारद जी विचार कर बोले,"राजा मई निरपराधी हूँ। मैंने तो तेरे पुत्र से सत्संग का महात्म्य पूछा था इतने में ही तुझे अचिन्त्य और शोक करने वाली घटना घटी ,यह बड़े दुःख का विषय है,नारद जी राजा से इतनी बात कर ही रहे थे कि राजा के पेट में मरोड़  हुई और वे मृत्यु को प्राप्त हुए । यह समाचार फैलते ही राजमहल  हाहाकार मच गया शोर सुनकर रानी वहां आयीं  जी को देखा , देखती ही रहीं और वहीँ की वाहन शांत हो गयीं यह तीसरा चमत्कार हुआ वहां पर खड़े सभी नारद जी को देखते ही परलोक को सिधारे,ऐसा दुर्घंट परंग देख नारद जी बिलकुल घबरा गए,यह सब सुनकर नगरवासी सोचने लगे की यह कोई कालपुरुष ही है नगर के लोग नारद जी को मारने दौड़े और अनेक तरह से शाप देने लगे ,नारद जी शोक और घबराहट के मारे नगर से एकदम भागे और बैकुंठ पहुचकर सांस ली।
                         नारद जी का लज्जित स्वरुप देखकर ,श्री भगवन समझ गए कि नारद अभी भी सत्संग का महात्म्य नहीं जान सके और मुस्कुराये,श्री परमात्मा  विष्णु के निकट पहुचकर नारद उग्र क्रोध से बोले वाह प्रभु अपने तो मेरे ऊपर अनेको हत्याएं लगा दीं,यह क्या  मैं जहाँ  जाता  हूँ वहां मुझको देखते ही जीव टप टप गिर पड़ते हैं ( मर जाते हैं )क्या यही । सत्संग का  महात्म्य है तो अब मेंआपके यहाँ ही सबसे सत्संग का महात्म्य पूछुंगा लक्ष्मि, राधा सभी से ऐसा कहकर नारद जी उठे और श्री भगवन के परिवार की तरफ चले, भगवान सोचने लगे की अब नारद अनर्थ करेगा । इससे उन्होंने नारद जी को रोका और कहा कहाँ चले,नारद जी ने कहा बस अब मैं बैकुंठ में ही सत्संग का महात्म्य पूछुंगा प्रभु मुझे जाने दो,भगवन प्रेम मुस्कान से रोकते किन्तु मानने को तैयार नहीं । भगवान ने बड़े प्रयास कर नारद जी को शांत कर अपने आसान के पास ले आये और बिठाया ,भगवान  नारद से मुस्कुराकर कहा ,"नारद ! पहले तू सत्संग शब्द पर विचार कर ,इसमें 'सत' और 'संग' ये दो शब्द  साथ हैं 'सत' अर्थात श्रेष्ठ  ,प्रतिष्टित ,सत्य, सनातन,परिपूर्ण,सर्बशक्तिमान,परमात्म तत्व 'सत'  शब्द से जाना जाता है भगवत्परायण पुरुष में सत शब्द के सारे अर्थों का समावेश होता है ऐसे पुरुष से मिलाप होने का नाम सत्संग है जैसे अँधेरे में वैठे हुए मनुष्य को दीपक रूप सत्पदार्थ का संग होने से तुरंत ही अंधकार रुपी बड़ी बाधा दूर हो जाती है वैसे ही सत्पुरुष का संग होने पर भव दुःखरूप  दूर हो जाती है । मैंने तुझे जहाँ -जहाँ भेजा वहां वे सब प्राणी पुण्यवान थे तो भी वे किसी महत अपराध  कारण ऐसी अधम योनि में जन्म लेकर वासना , माया का दुःख भोग रहे थे वह तुझ जैसे सत्पुरुष के दर्शन  मात्र से सब पापों से मुक्त हो परम पद को प्राप्त हुए इस संतसमागम का परमलाभ ,परम फल और क्या हो ? वत्स ! परमभक्त होने से महासत्पुरुष  तेरा निमिष मात्र संग होने से उन प्राणियों को जन्म मरण से छूट जाने का परम लाभ प्राप्त हुआ जो  शाताब्धि साधन करने से भी उनको नहीं मिलता परंतु तेरे समान परम सदभक्त संत का दृष्टि समागम - संग होते ही  संसार से पर हो गए ।
                        यह सुन निःशंख हुए देवर्षिवर्य नारद जी शांत मन से भगवान् को प्रणाम कर बोले ,"भगवन आपकी माया  कौन जान सकता है? मैं भूल गया ,मैं यह गूढ़ भाव नहीं समझ सका , यह मेरा अज्ञान है " प्रणाम कर नारद जी हरी नाम कीर्तन करते हुए वहां से ब्रह्म लोक चले गए ।
                        वटुक जी के पिता बटुक जी को संबोधन कर बोले "सत्पुरुष महात्मा  वामदेव! इसी तरह तेरे सत्संग से मई और तेरी माता मोह रहित होकर कल्याण को प्राप्त होंगे इसलिए मेरे साथ घर चल ,तेरे बिना हम जीवन धारण करने को हम समर्थ नहीं हैं । "               


                                                                                                        शरणागत 
                                                                                                        नीलम सक्सेना              
                     




















Thursday, 9 February 2017

गर्भवास ही नरक वास है

                                    गर्भवास ही नरक वास है 


"हे ईश्वर !जो विषयों का अल्प सुख प्राप्त करने के लिए , संसार सागर से तारने वाली नौका के समान आपके चरण कमलों का सेवन करते हैं उन्हें आप वह सुख देते हैं,परंतु आपकी माया से उनकी बुद्धि को नष्ट हुई समझना चाहिए ,क्योंकि विषयों का सुख तो नरक में भी मिलता है "
गर्भवास और नरकवास दोनों एक ही हैं गर्भवास के भीतर अनेक दुखदायी ,कुतिस्त और दुर्गन्धमय वस्तुएँ भरी रहती हैं स्त्री के शरीर  गर्भ स्थान है वह उसके मलाशय और मूत्राशय  दोनों के बीच में है उस गर्भवास में जीव का देह बनता है फिर धीरे धीरे गर्भ धारण करने वाली माता जो कुछ अन्न आदि का भक्षण करती है उसका उसके पेट में  रस बनने पर  उसका कुछ अंश गर्भस्थान  की नली द्धारा गर्भ में पहुँचता है जिससे गर्भ बढ़ता जाता है । ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता है त्यों-त्यों गर्भ बड़े आकार का बनता जाता है उसे सुख ,दुःखादि ,शीतोष्णादि उपद्रव होते हैं ऐसे में गर्भस्थ प्राणी सर के वल सिकुड़ा रहता है  और जब माता उठती,बैठती,सोती,करवट बदलती,चलती फिरती,मेहनत  करती है तब गर्भ को बार बार सिकुड़कर ,मुड़कर अनेक रीति से महा  कष्ट होता है और फिर आस पास में रहने वाले मल -मूत्र के गढ़ों में रगड़ खाने के सिवा उसके देह के आस-पास लहू,मांस,कफ,लार, पीव और ऐसे ही अनेक दुर्गन्धादि  पदार्थ भरे रहते हैं जिसके बीच उस जीव को रहना पड़ता है और जब माँ खट्टा,तीखा,चटपटा,कड़वा,उष्ण,बासा इत्यादि भोजन खाती है तब उससे गर्भ  शरीर को बड़ी-बड़ी पीड़ाएँ  होती हैं जिन्हें वह सहन नहीं कर सकता परंतु यह सब वह किससे कहे । अनेक दुखों के कारण गर्भवासी जीव कई बार मूर्छित हो जाता है, चैतन्यरहित हो जाता है  यदि ईश्वर इच्छा से वह गर्भवास से पतित गर्भस्राव होने से बचा  दुःख से बहुत घबराता और छूटने के लिए बहुत छटपटाता है परंतु छूटे कैसे ? वह तो एक-एक कर अनेको बंधनो-आवरणों के बीच लिपटा रहता है और वहाँ  दरवाजे बंद रहते हैं ऐसे समय बहुत घबरा कर मूर्छित हो देह की सुध भूलने लगता है और जब चेत आता है तो सोचता है कि मैं कैसे महा दुःख में पड़ा हूँ ?और इस महा दुःख का कारण मैं स्वयं हूँ । मैं पूर्व जन्म में सांसारिक बिषयों में फंसा रहा और  "जग नियंता प्रभु को भूल गया" उसी का यह फल है उसकी प्राप्ति के लिए मनुष्य  देह में मुझे सब साधन अनुकूल थे तो भी मुझ दुष्ट ने उपेक्षा की इसलिए अपने कर्मों के कारण  फिर इस कष्टमय नरक दुःख में आना पड़ा। मेरे समान कौन कृतघ्नी है? जगदीश्वर के सब उपकारों पर पानी फेरकर मैंने अपने हाथों से दुःख समेत समेट  लिया है ,ऐसी अवस्था में वह प्रभु मुझे अब इस दुःख से क्यों छुड़ाएंगे ?परंतु अब  इस संकट को कभी नहीं भूलूँगा यदि इस दुःख से छूट जाऊं तो केवल भगवत साधन करूंगा ,संसार में पड़ना नहीं चाहूंगा ऐसा विचार कर फिर वह प्राणी मन ही मन मे अनेक तरह से कृपालु प्रभु की स्तुति करता है और क्षमा मांगता है "हे दीनदयालु !हे परमात्मा! हे करुणासागर !मैं बारम्बार तेरे उपकारों को भूलता आया हूँ तो भी मेरी प्रार्थना पर लक्ष्य दे इससे पहले भी तूने असंख्य बार मुझे ऐसे दुखों से छुड़ाया है तो भी मैं दुष्ट तुझे भूलता ही गया,इसलिए हे नाथ! मेरे समान दूसरा कृतघ्नी कौन होगा?परंतु करुणामय!तू तो दया सागर है मेरी यह भूल तेरी दुस्तर माया को पार न कर सकने के कारण ही होती है। इसलिए हे जगतपिता!क्षमा कर मुझ दीन की अंतिम प्रार्थना पर ध्यान देकर सिर्फ इस बार ही मुझको दुःख से मुक्त कर अब मैं तुझे कभी नहीं भूलूंगा ।"
                           इस प्रकार अनेक प्रार्थनापूर्वक क्षमा मांगकर और संसार में लुब्ध न होकर भगवत सेवा करने के लिए जब जीव प्रतिज्ञा करता है तो दीनबंधु,कृपासिंधु,फिर उसपर दया कर ,कृपा कर उसे गर्भवास के महासंकट से मुक्त करते हैं ।
                          बटुक महाराज  पिता से कहते हैं कि अनेक महासंकट का अनुभव कर केवल ईश्वर की कृपा से ही उससे छूटकर,अभी ही मुक्त हुआ क्या मई उस बात को भूल जाऊँ ? यदि ऐसा हो तो मेरे समान मूर्ख और नीच इस सारे संसार में दूसरा कौन है !  इसलिए पिताजी! तुम पिता और मैं पुत्र ऐसा जो अपना लौकिक सम्बन्ध हुआ है वही वस है उसी में संतुष्ट होकर घर जाओ और ईश्वर प्राप्ति का उपाय करो ।



 

                                                                                                       शरणागत 
                                                                                                       नीलम सक्सेना 









Wednesday, 8 February 2017

संसार चक्की

                                          संसार चक्की


इसी तरह मोहजित  के सारे कुटुंब की योगी द्धारा अत्यंत युक्तिपूर्वक परीक्षा होने पर भी ,उनके अशुभ समाचार या अनेक प्रकार के मोहमय उपदेश से कोई मनुष्य शोकविष्ट या मोहग्रस्त नहीं हुआ। इससे बहुत विस्मित होकर वह सबसे मोहजित की प्रसन्नता बतलाकर योगबल द्धारा क्षण -भर मे वहां से अपने आश्रम मे आ पहुँचे। वहाँ राजकुमार मोहजित उनकी मार्ग प्रतिक्षा करते बैठा था। उनको देखते ही योगिराज एकदम घबराये के समान बोले " अरे राजपुत्र गजब हो गया अरे ! तू तो यहाँ सुख चैन से बैठा है परन्तु तेरा घर तो नष्ट भ्रष्ट हो गया" न जाने क्या ईश्वरी प्रकोप हुआ कि जिससे अचानक महाअग्नि प्रकट हुआ उसमे सारा नगर ,परिवार , प्रजा जलकर भस्म हो गए। अब तू अकेला हो गया तू कुटुम्बहीन हो गया , तेरी सब दिशाएं पलभर मे शून्य  हो गई । प्रारब्ध की कैसी गति है इतना कहकर योगी उदास मुँह से खड़े रहे , योगी के मुख से महा खेदकारक समाचार सुनने पर राजपुत्र बड़े ही शांत भाव से बोले।
                             योगिराज तुम इतने उदास क्यों हो गए हो ?  उनका नाश हुआ इसमें क्या नवीनता घटी है जिसके कारण तुम विस्मित और चिंतापुर हो रहे हो आप महात्मा और योगमागविलम्बी  होकर भी इस  संसार चक्की से अनभिज्ञ हो यही आश्चर्य है । मैं आपसे एक लौकिक वार्ता करता हूँ उस पर विचार कर देखो और फिर खेद करो।
                             प्राचीन काल मे एक नगर मे कोई महात्मा हरिनाम स्मरण करते हुए निरीह (इच्छारहित) विचरण करता था एक दिन वह घूमते हुए एक मोहल्ले मे जा पहुँचा। वहाँ एक घर से उसको घररर -घररर शब्द सुनाई पड़ा। यह क्या होता है इसे जानने के लिए वह कान लगा कर खड़ा रहा। सुनने पर उसे मालूम हुआ कि एक स्त्री अपने घर मे चक्की पीस रही है। वह गेहूँ पीस रही थी। बार-बार उसमे एक हाथ से गेंहूँ डाल रही थी। यह देखकर वह संत महात्मा एकदम उदास हो गया और जोर से रोने लगा। उसको रोता हुआ देखकर लोगो की भीड़ एकत्र होने लगी । आने जाने वाले लोग विस्मित होकर  संत से रोने का कारण पूछने लगे । परंतु वह किसी तरह न चुप होता और न ही उत्तर देता यह देखकर लोगो को और भी आश्चर्य हुआ । लोगों ने उस योगी से पूछा 'की भाई !आपको क्या दुःख है जिससे आप इतना रो रहे हैं लेकिन उसने कोई उत्तर नहीं दिया।
                         इतने में एक दंडधारी चतुर्थाश्रमी  "श्री मन नारायण ,नारायण,नारायण !" ध्वनि करते हुए वहां आ पहुँचे और महात्मा के पास पहुँचकर उनसे रोने का कारण पूछा , दंडी स्वामी को देखते ही महात्मा ने हाथ जोड़कर नमस्कार किया और चुप होकर अपने रोने का कारण बतलाया । वह बोला महाराज यह बाई बहुत देर से गेहूं पीस रही है इसकी संहार कारिणी क्रिया देख मुझे इसके समान उस बड़ी चक्की की महाप्रलयकारिणी  क्रिया याद आती है और उसके भीतर दब कर पिस जाने वाले प्राणियों पर अतिशय करुणा और शोक होने से मुझे रुलाई आती है । यह सुनते ही दंडी स्वामी ने उस संत को धन्यबाद देकर हृदय से लगा लिया  खड़े हुए लोगों से कहा, कि मैं इन संत महात्मा की बढ़ाई का क्या वर्णन करूं ।  अहा! इनका हृदय कैसा दयालू है ,इनकी बुद्धि कैसी परोपकारिणी है !अहो !ऐसे महात्मा जगत के कल्याण के लिए ही निरंतर  जीवन धारण करते हैं। हम सब पर इतना बड़ा उपकार हुआ है इन्होंने हमें कैसा अमूल्य उपदेश दिया है !एक बिचित्र विपरीत क्रिया देखकर इन्हें रुलाई  आती है यह कहते हैं कि,"अरे! ये सब प्राणी कैसे अज्ञान सागर में डूबे हैं । इस कालरूपी चक्की के गालों में डाले जाने पर भी ये बचने का उपाय क्यों नहीं करते ?क्या ये संसार चक्की का पराक्रम देखकर भी अंधे हो रहे हैं ।
                                 संत की असहनीय पीड़ा देखकर "दंडी "स्वामी बोले "अरे प्राणियों "यह उपदेश अमूल्य है इस संसार चक्की के गालों में इस लोक के सब प्राणियों के साथ तुम,मैं, और ये महात्मा सब डाले जा चुके हैं । यह चक्की बड़े सपाटे से फिरती है इसमें वह दब गया , पिस गया ,वह नाश को प्राप्त हुआ ऐसी चिंता ज्वाला में हम पड़े हुए हैं  इससे चेतो ! चेतो ! जितना हो सके चेतो,बचने का उपाय करो,आलस्य छोड़ दो,ये संत महात्मा बारम्बार हमें इस  चक्की का उदाहरण लेने की सूचना करते हैं । भीतर पड़े हुए सारे कणों को पीस  वाली चक्की की ऐसी नाशकारी क्रिया में भी  एक और चमत्कार  देखने में आता है ,हे अज्ञानी जीव देखो माया में लिपटे हुए आँखों के होते भी अंधे ! क्षन भर  आँखे खोलकर देखो ! चक्की की उपर्युक्त कील के आस पास कुछ दाने बिलकुल नोक तक एकत्र हो गए हैं चक्की के इतनी जोर से फिरनेपर भी उन्हें पीड़ा नहीं हुई ,उनका नाश नहीं हुआ , मृत्यु नहीं हुई और वे बचे हुए हैं  इसका कारण यही है कि कील के आश्रय  से उन्हें चक्की का चक्र पीस नहीं सका ।
हे मनुष्यों !  हे पामर प्राणियों इस  संसार चक्की का कील रूप कौन है ?
                                    परब्रम्ह -परमात्मा सचराचर व्यापी अविनाशी प्रभु हैं। विचार कर देखो। उस महा चक्की के गलों में डाले जाने वाले कर्णो में से जो इस परब्रम्हरूप कील  आश्रय लिए  हैं वे नहीं पिसते ,उनका रक्षण अवश्य ही होता है इस संसाररुपी चक्की में ओयरे गए जीवों के लिए यही अभय स्थान  हे प्राणियों !यदि काल के मुँह  बचना हो , आत्मकल्याण करना हो तो सबके नियंता (प्रभु)परमात्मा का आश्रय लो, स्मरण करो उसी के  बनाये हुए कल्याणकारक नियमों का पालन करो उसी के भक्त बनो और उसी के भक्तों का संग करो ,यदि तुम अपना तन,मन,धन उस परमात्मा को ही अर्पण कर  तरह से उसी के होकर रहोगे तो तुम्हे ब्रह्म के दर्शन(साक्षात्कार) होंगे और उस ब्रह्म की कृपा होगी तो काल का भी भय नहीं होगा।
श्रुति (वेद)कहती है कि "आनन्दम ब्रह्मणों विद्धान बिभेति कदाचन " जो परब्रह्म के आनंद स्वरूप को जनता है वह कभी नहीं डरता है और वही बचा , वही जिया, तथा उसी का मोक्ष हुआ जानो ।
इतना कहकर सदगुरुदेव की  जयध्वनि सहित वे दोनों महात्मा वहां से चले  गए और उन सब लोगों ने उनके उपदेश से  कल्याण प्राप्त किया ।
                                   राजपुत्र मोहजित नेकहा  "योगिराज यह मेरा सारा परिवार ,राजसभा, प्रजालोग,मैं और तुम सब इस काल चक्र में संसार चक्की के गलों में पड़े हुए हैं और समय आने प सबको एक-एक कर (अकेले ही)चले जाना है । इनमे से जो हरिरूप कील का आश्रय लेगा वह भी निर्भय होगा इसलिए संसार की सारी अभिलाषा छोड़ आप पल भर कुछ भगवत चर्चा कर अपने साथ होने वाले इस अलभ्य समागम को सफल करें।
                                   इतना कहकर राजपुत्र मोहजित चुप हो गए । उसके ऐसे निर्मोहापन से अत्यन्त संतुष्ट  योगी महात्मा ने लगातार उसे अनेक आशीर्वाद दिए ,परिवार की प्रसन्नता का भी हाल सुनाया ,परिवार को भी अनेक धन्यबाद दिए और शुभकामनाएं दीं । राजपुत्र , योगी को प्रणाम कर अपने नगर की और चले गए ।
बटुक बामदेव जी के मुह से मोहजित के परिवार का ऐसा विस्तृत और विचित्र इतिहास सुनकर ,उसका पिता ,राजा वरेप्सु और सभा के अन्य लोग चकित गए ।

                                                                                                     

                                                                                                       शरणागत 
                                                                                                       नीलम सक्सेना 






















Friday, 3 February 2017

मरण केवल रूपान्तर है

मरण केवल रूपान्तर है 

ऐसा उत्तर सुनकर विस्मल हुए योगिराज उसे मोहजित की कुशलता बताकर वहां से मोहजीत के प्रिय मित्र के पास गए। वह मित्र उस योगी के मुँह से मोहजीत का मरणव्रत सुनकर बोला "अहो" मरण क्या है इस देह और आत्मा का दूध -पानी के समान द्रढ़ सम्बन्ध है वह अलग होकर उनका वियोग होना ही यहाँ मरण माना जाता है। देह मे अद्रश्य रूप से व्याप्त हुआ आत्मा अजर , अमर , अविनाशी है। क्या सत्य ही उसकी मृत्यु होती है ? पंचतत्वो का अविनाशीपन , अज्ञानता के सिवा सत्य कैसे माना जायेगा ? यथार्थ मे देखते इस जगत की किसी भी वस्तु का नाश नहीं होता केवल रूपान्तर या स्थानान्तर ही होता है । नाश कभी नहीं होता वैसे ही मेरे मित्र ने भी इस मांसादि के बने हुए मलमय शरीर को छोड़कर अपने किये कर्मो के अनुसार किसी उत्तम तेजस्वी देह को धारण किया होगा और उस पवित्र स्वर्गीय भूमि मे सुख से रहकर मेरे कल्याण की कामना करता होगा। इसलिए योगिराज ! इस संसार मरना और जन्म लेना सिर्फ जीवन का रूपांतर ही है। 

                                                                                                            शरणागत 
                                                                                                        नीलम सक्सेना  

जगत घटमाल के समान है

जगत घटमाल के समान है 

यह सुन योगिराज संतुष्ट हो , उनको पुत्र की कुशलता बतला कर मोहजीत की माता के पास गए और उन्हें भी अशुभ समाचार बताया। माता ने योगीन्द्र से आदरपूर्वक कहा योगिराज आपने क्या नई बात कही ? यह संसार तो घटमाल के समान है जैसे कुँए से पानी निकालने की घटमाल जिसे रहट कहते है रहट के ऊपर मिटटी के घड़ो की माला पड़ी रहती है वह चक्र की गति से फिरती है वह माला पानी मे जाकर पानी से भर जाते है और सीधे मुँह ऊपर जाकर खाली हो जाते है। बार -२ यही क्रिया करते है उनका क्रम जारी रहता है। नीचे जाते है , ऊपर आते है , भर जाते है , खाली हो जाते है।
उसी तरह यह जगत भी एक घटमाल है उसमे बारम्बार प्राणियों का एक देह से दूसरी देह मे जन्म मरण रूप भरना निकलना हुआ ही करता है। स्त्री गर्भवती होती है , प्रसव करती है फिर गर्भिणी होती है और प्रसव करती है। फिर पैदा हुआ बालक मरे या जिए वह उसके भाग्याधीन है यह सारा संसार इसी नियमानुसार जन्मता मरता है महाराज हम सबकी दशा यही है। 
                    जिस प्राणी की भव वासना रूप डोर टूट जाती है वह प्राणी परमानन्द रूप महा अगाध जल मे निमग्न होकर अचल सुख भोगता है यही मुक्त जीव है सबसे सुगम उपाय यही है कि "श्री हरि के चरणों का अनन्य आश्रय हो " योगिराज हम सब प्रभु को भजे - वासना तजे और सारग्राही बने , बस जिस लिए आपको हम सबको खेद होता है वह मिट जायेगा ।

                     

                                                                                                            शरणागत 
                                                                                                       नीलम सक्सेना 

संसार खेती के समान है

संसार खेती के समान है 

राजा बोला महाराज उष्ण काल के असह्य ताप से तप्त हुई पृथ्वी को वर्षा होते ही कृषक अच्छी तरह जोतकर नरम करता है और फिर उसमे अपनी इच्छा अनुसार अन्न बोया हुआ बीज अंकुर रूप से उग निकलता है और धीरे -धीरे बढ़ता है कोई बीज निरर्थक भी जाता है धीरे धीरे अंकुर अपना रूप क्रम से बदलते -२ बड़े पौधे हो जाते है और पौधे मे फूल आने लगता है। फूल झड़ने पर बीज कोश मे दूध से भरे हुए कण उत्पन्न होते है वह कण पककर सूखने लगते है तभी कृषक उन्हें काट लेता है बस हो गया यह अन्न पैदा करने वाले कृषक का इतिहास है।
इसी तरह यह संसार खेती रूप है उसमे वासना देह रूपी बीज , माता रूप पृथ्वी मे बोया जाता है उसमे प्राणी जन्मरूप से पैदा होता है और स्तनपान , भोजनादि रूप वर्षा से बढ़ता है। उसमे बालक को होने वाले रोग रूप , हल , खुर्पी द्धारा नींदा जाता है। निंदाई के समय बालकरूप अनेक पौधे मर भी जाते है और बचे हुए आगे बढ़कर गृहस्थाश्रम मे पड़ते है , फलते है और पके हुए पेड़ो की कटनी की जाती है वैसे ही ये मनुष्य रूप पौधे भी अवस्थापूर्ण होने पर कटनी का समय आने पर अनेक रोगादिक हँसियो द्धारा कट कर नष्ट हो जाते है। बस हो गया जीवन पूरा फिर नयी खेती उपजती है और नाश होती है यही नित्य का क्रम है ।
इस तरह बारम्बार -----
                                पुनरपि जननम , पुनरपि मरणम । 
                                पुनरपि जननी , जठरे शयनम ॥ 
                                                                                   के अनुसार होता ही रहता है । जीते है और मरते है । कोई अभी तो कोई देर से , परन्तु काल के दाँतो का बलि होगा ही ॥

इस विश्व मे रहने वाला प्राणी उस कृषिकार आनन्दधन परमात्मा से पलता व उत्पन्न होता है और अंत मे आनंदस्वरूप श्री महेश्वर परमात्मा ,परब्रह्म मे लय होता है । तो जिसने उत्पन्न किया ,पाला -पोषा , रक्षा की उसी ने काट लिया उसमे शोक क्यो करना चाहिए? शोक होने का कारण इतना ही है कि बुलबुले के समान इस संसार के सुख का स्वाद प्राणियों की जीभ मे खूब लगा है और इसी से क्षणिक विषय सुख के स्वाद मे आसक्ति होने से सब सुखो का धाम वह इस नाशवान संसार को मान बैठता है और मोहवश शोक की आग मे जलता रहता है ।

                                                                                                                   शरणागत 
                                                                                                                नीलम सक्सेना 















संसार सराय है

संसार सराय है 

योगिराज इस संसार मे कौन किसका भाई , कौन किसकी बहिन है ? कोई किसी का सगा या संगी नहीं है यह संसार सराय (मुसाफिर खाने ) के समान है । धर्मशाला मे अनेक पथिक आते है रात को रहकर , रात के दो क्षण का आनंद लेकर और सवेरा होते ही सब अपने-अपने स्थान को चले जाते है सिर्फ दो घड़ी का मेला है इसमें आने जाने का क्या शोक है ? जैसे पथिक का समागम क्षणिक है वैसे ही इस लोक के सम्बन्धी जनो का समागम भी क्षणिक ही है यह जगत एक बड़ा पथिकाश्रम अथवा पथिको के विश्राम करने की धर्मशाला है। सब मनुष्य रूप प्राणी इस धर्मशाला मे रात को विश्राम करने वाले पथिक है कोई कही से , कोई कही से आकर यहाँ पर एकत्रित होते है । आँखे पथिक जीव अपने- अपने कर्म भोगकर स्थिर की हुई आयु पूर्ण होते ही संसाररूप धर्मशाला को छोड़कर झटपट चले जाते है। महाराज हम सब इसी तरह मैं , मेरा भाई , मेरा परिवार , तुम ये प्राणिमात्र सब इस असार संसार की धर्मशाला मे उतरे हुए पथिक है और समय पूरा होते अपने -अपने रास्ते चले जाने वाले है । विश्राम के लिए एक वृक्ष पर आकर रात को बैठे हुए अनेक पक्षी प्रभात होते ही अपने -अपने रास्ते उड़ जाते है उनमे कौन किसका शोक करे ?
                          ऐसे उत्तर से प्रसन्न हुए योगिराज उस राजपुत्री मोहजिता से उसके भाई का कुशल समाचार कहकर वहाँ से मोहजिता के पास गए और उन्हें भी वह अशुभ समाचार कह सुनाया , राजा ने उनका आदर करते हुए अत्यन्त विनयपूर्वक इस तरह कहा।


                                                                                                                शरणागत 
                                                                                                            नीलम सक्सेना  

ऋणानुबंध

ऋणानुबंध 

                    मोहजित की स्त्री बोली "योगिराज" संसार मे पैदा हुए प्राणी को सारे जीवन मे निर्वाहदिक व्यव्हार के लिए दूसरे अनेक जीवो से सम्बन्ध करना पड़ता है ऋण अर्थात लेनदेन से जो बंधन होता है वही ऋणानुबंध है ,जैसे आप मेरे काम के लिए किसी तरह का परिश्रम करे और मैं उसका बदला न दूँ तो मेरे ऊपर आपका ऋण रहे उसका बदला ईश्वरी सत्ता मुझसे इस शरीर से नहीं तो दूसरे शरीर से अवश्य दिलाती है ऋण चुकाने के लिए प्राणियों को अनेक जन्म लेकर उसके निमित्त अनेक सुख दुःख उठाने पड़ते है और ऋण पूरा हुआ कि तुरन्त संसारी जीव अपने -२ रास्ते लगते है अपार विस्तार वाले इस विश्व मे ईश्वरी सत्ता ,यह कार्य ऐसी विचित्र रीति से पूर्ण करती है कि उसका पार कोई नहीं पा सकता और उसमे जरा भी भूल नहीं होती और उसमे किसी भी तरह का पक्षपात - अन्याय नहीं होने देती। मेरे परमपूज्य स्वामी ने मुझसे अनेक इतिहास कहे है उनमे से कुछ मैं आपको सुनाती हूँ।
           योगिराज ! संसार मे पैदा हुए प्राणी को सारे जीवन मे निर्वाहदिक व्यव्हार के लिए अनेक जीवो से सम्बन्ध करना पड़ता है । यह लाइने दुबारा लिख गई है गलती से क्षमा करे।
          प्राचीन काल मे पांचालपुर मे कर्म लब्ध नाम का एक महात्मा - ब्राह्मण रहता था वह नित्य स्नान , संध्या , भगवत्सेवा आदि सत्कर्मो मे प्रेम लगाए रहता था और उसी मे परम सुखी था जो कुछ अनायास मिल जाये उसी मे संतुष्ट रहता और किसी से कुछ मांगता नहीं था उसकी स्त्री भी परम सुशीला और पवित्रता थी । वह नित्य स्वामी की सेवा मे ही लगी रहती थी । योगिराज आप जानते ही है कि अनन्य भाव से भगवत चिंतन करने वाले के सारे व्यव्हार का बोझ प्रभु के ऊपर रहता है
      "श्री कृष्ण परमात्मा ने स्वयं कहा है"
 जो अनन्य भाव से मेरी नित्य उपासना करता है उनका योगक्षेम मैं स्वयं चलाया करता हूँ ।
भगवत सेवा करने वाले कर्मलब्ध मुनि का पवित्र गृहस्थ धर्म मे पालन करते हुए बहुत समय बीत गया । उनकी धर्मपरायण पत्नी ने रत्न के समान सुन्दर पुत्र को जन्म दिया । उतरती अवस्था मे पुत्र को पाकर वह दोनों परम आनंद से दिन बिताने लगे। कर्मलब्ध ज्योतिषशास्त्र भली भाँति जानता था । इससे पुत्र का भविष्य जानने के लिए वह जन्मपत्री बनाने लगा। पुत्र के गृह एक से एक अच्छे स्थानों मे पड़े , विघा भवन ,भाग्य भवन बहुत ऊँची स्थिति मे जानकर वह बहुत आनन्दित हुआ । उसने सोचा कि सबसे पहले आयुष्य का निर्णय करना  चाहिए क्योकि यदि आयु न हो तो ऊँचे गृह और ऊँचा भाग्य किस काम का ? इसका निर्णय करने के लिए जब उसने गणित लगाना आरम्भ किया तो उसका हाथ यकायक रुक गया और हृदय जोरो से धड़कने लगा । उसने देखा कि ऐसा बड़ा भाग्यशाली पुत्र अल्पायु है सोचने लगा गणित करने मे कोई गलती न हो गई हो । दुबारा गणित को फिर शोधा , शोधने पर मालूम हुआ कि मेरा और इस पुत्र का सम्बन्ध सिर्फ धन सम्बन्ध है बहुत साधन कमाकर मुझे देगा और फिर अपने रास्ते लगेगा ! ईश्वर इच्छा , जो होना होगा वह अवश्य ही होगा ।
          ज्ञानी होने से कर्मलब्ध ने अपने मन को रोका परन्तु उदास मुख देखकर पत्नि ने पूछा " कृपानाथ " आज आप बहुत उदास दीखते है क्या कोई दुःख की बात है यदि है तो आप मुझे अपनी सहचारिणी को बताकर अपना दुःख हल्का करे स्त्री के ऐसे विनीत वचन सुनकर ब्राह्मण ने कहा पतिव्रता यह सारा संसार ही दुःख रूप है इसलिए भविष्य के दुःख को या अभी के दुःख को क्या पूछना जिस समय जो बने वह देखो और भोगो सतधर्म शालिनी अभी तुझसे कहने की कोई जरूरत नहीं है समय आने पर मैं स्वयं ही तुझसे कहूँगा ।
      बालक बुद्धि का तीव्र और बड़ी स्मरणशक्तिशाली वाला था थोड़े ही समय मे उसने व्याकरण शास्त्र कंठाग्र (कण्ठस्थ) कर लिया ।
      कर्मलब्ध ने अपनी स्त्री से कहा , प्रिये अपना यह पुत्र बड़ा ही भाग्यशाली है क्योकि इसके जन्म से हमारे घर मे समृद्धि स्वयं आकर बसी है और सारे दुःख दूर हो गए। हम लोग स्वर्ग के समान सुख अनुभव कर रहे है । यह सब विघाओ मे निपुण हो गया है । विद्धान भी इसलिए यह तुम ध्यान रखना कि मेरे पीछे यह कहीं भी शास्त्रार्थ करने न जाये यह बहुत सुन्दर है इसकी विघा सजीव है , स्मरणशक्ति और वाकचातुर्य अत्यंत मनोहर होने से ,सहज ही किसी से नजर लग जाना संभव है इसलिए तू संभाल रखना ।
          दोनों को बुलाकर उनके समक्ष कहा तू सब विघायें पड़ चुका है पुत्र यह विघा किसी को अपमानित करने या जीत कर रोजी रोटी कमाना नहीं है यह मैं अच्छी तरह तुमसे कह देता है जिससे अनजान मे भी भूल न हो जाये। कर्मलब्ध को इतनी चौकसी करने कारण बस यह था कि उसने पुत्र के भविष्य के विषय मे जान रखा था यह पुत्र पहले जन्म का ऋणी था उसे विश्वास था कि यह बालक ऋण चुकाते ही चला जायेगा उसने पुत्र से कहा , कि तू मेरा सत्पुत्र है इसलिए आशा करता हूँ कि तू मेरी आज्ञा अच्छी तरह से मानेगा उसको समझाने लगा कि दान लेने से अपने सुकृत नष्ट हो जाते है और माँगने से मानहानि तथा सुकृत की भी हानि होती है वह दोनों अपने पुत्र की चौकसी करने लगे । वह कभी भी बालक को अपने साथ नहीं ले जाता था और न ही बाहर जाने देता था ,देखते ही देखते बालक बाल्य से किशोर अवस्था को प्राप्त हुआ ।
      एक दिन निमंत्रण आने से कर्मलब्ध को किसी कार्यवश दूसरे गाँव जाना पड़ा । जाने से पहले उसने अपनी पत्नि को सचेत किया कि पुत्र कही बाहर न जाये ।
 "दैवश्रेष्ठ ,परन्तु अद्रश्य है " उसके जाने के एक दिन पहले पांचालपुर मे राजा के यहाँ विदेश से एक पण्डित आया और शास्त्रार्थ करने वालो से शास्त्रार्थ करना चाहा। यह पण्डित वेदशास्त्र संपन्न और बड़ा वाचाल होने से अनेक देश के पण्डितो के शास्त्रार्थ मे जीत आया था । अपनी विद्धता के लिए उसे बड़ा अभिमान था । राजा ने उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया , पांचाल पुर विघा और विद्धानों का घर माना जाता है इसलिए उसके साथ यदि शास्त्रार्थ न किया जाये अपयश होगा और शास्त्रार्थ मे पराजय होने से यश जायेगा राजा को मन ही मन यह चिंता सताने लगी। "परन्तु हरीच्छा ! वही पूर्ण पुरुषोत्तम इस नगर की लज्जा रखेगा " ऐसा विचार कर उसने अपनी सभा के सभी पंडितो को बुलवाया और नगर मे दौड़ी पिटवाई कि नगर मे जो कोई विद्धान हो वह कृपा करके सभा मे अवश्य पधारे। सभी विद्धवान पंडित पधारे शास्त्रार्थ हुआ ,परन्तु उस परदेशी पंडित ने राजा के पंडितो को अपनी वाक्चातुर्यता से परास्त कर दिया। सारे नगर मे कोलाहल मच गया कि पांचालपुर की सारी कीर्ति एक परदेशी पंडित हरण किये जाता है ।
   कर्मलब्ध के घर के सामने से जाते हुए लोग आपस मे कहने लगे कि आज तो कर्मलब्ध भी नहीं है अगर वह होता तो आज पांचाल पुर की लाज जाने नहीं देते पर देखें कल क्या होता है ।
   मार्ग मे जाते हुए ब्राह्मणों की ऐसी बातचीत सुनते ही उस कर्मलब्ध के पुत्र के मन मे बड़ी उत्तेजना हुई वह विचार करने लगा ऐसा कौन सा परदेशी पंडित है जो मेरे पिता के समान समर्थ पुरुष को हरा दे उसको देखना चाहिए अगर मेरी माता ने आज्ञा दी तो कल अवश्य उसे देखने जाऊँगा।
   कर्मलब्ध के पुत्र का नाम "ऋण दत्त " था । ऋण , दत्त अपनी माता के पास जाकर पूछने लगा कि माँ पड़ोस के सभी समयवी ब्राह्मण जा रहे है इन्ही के साथ मैं भी सभा देखने को जाऊँ , माता बोली "प्यारे तेरे पिता ने तुझे बाहर जाने से मना किया है "
    क्योकि बाहर जाने से तू कदाचिद किसी समय किसी का दान ले ले । पुत्र ने विनय की कि मैं पिताजी की आज्ञा को कभी भंग नहीं करूँगा। पुत्र का आग्रह देखकर माता ने आज्ञा दे दी , वह राजसभा मे गया और देखने लगा कि प्रश्नोत्तर कैसे होते है।
  सभा का कार्य आरम्भ होते ही उस विदेशी पंडित ने बड़े अभिमान से कहा , जब पहले दिन ही प्रश्नों का उत्तर नहीं मिला तो अब दूसरे प्रश्नों के लिए परिश्रम करने की क्या जरूरत है अब तो राजा जी सबकी संमति से मुझे विजय पत्र देकर विदा करे।
  यह सुनकर सारी सभा सन्न रह गयी यह देख वह ब्रह्मपुत्र जिसका नाम "ऋण दत्त" था वह चुप नहीं रह सका। उसकी सब विघायें प्रकाशित थी और वह ब्रह्म विघारूप भूषण से अलंकृत था वह किसी से भी पराजित होने वाला नहीं था , वह हाथ जोड़कर गंभीरता से बोला कि मुझे जान पड़ता है कि इस विदेशी आडम्बर वाले , मदोन्मत और उद्धत पंडित का विनय और विद्द्वता से शून्य तथा मूर्खता से पूर्ण भाषण सुनकर ये सब पंडित महाराज उसका प्रत्युत्तर देना अयोग्य और लज्जास्पद समझते है और यह सब यह सोच रहे कि यहाँ पर कोई बालक होता तो अच्छा वह ही इनके प्रश्नों का उत्तर दे देता।
    सभ्य महाशयों ! इन सब महाजनो की जिज्ञासा पूर्ण करने के लिए बालक के समान मैं इस पंडित के भाषण के उत्तर मे दो शब्दो कहना चाहता हूँ। आप लोगो की क्या आज्ञा है ? ऋण दत्त बोला , महाराजा पांचालपति ने नगर मे जिस पंडित के आने की प्रसिद्धि की है क्या यह वही पंडितराज है मैं पूछता हूँ क्या पंडित लोग अपने मुँह  से स्वयं अपनी बड़ाई और दूसरो की निंदा करना अपना बड़प्पन मानते है वह बालक अनुक्रम से प्रश्नों का उत्तर देने लगा। उत्तरो को सुनकर वह पंडित आश्चर्य चकित हो कहने लगा हे बुधवर्य ! इतनी छोटी उम्र मे तुम्हे ऐसा ज्ञान कहाँ से प्राप्त हुआ ? आप कौन और किसके पुत्र हो ? आप जैसे विद्धान के आगे मेरी क्या विसात , आपको धन्य है ऐसे वचनों से वह ऋण दत्त की प्रशंसा करने लगा ।
इस तरह बुद्धिमान और विद्धान ऋण दत्त ने विजय प्राप्त कर पांचाल पुर की कीर्ति रखी , मंडप मे भारी जयध्वनि हुई । पंडितो का मुरझाया हुआ मुख हर्ष से जगमगा उठा , राजा ने सभा के बीच बड़ा से सिंघासन बिछा कर उस पर ऋणदत्त को सत्कार पूर्वक बैठाया और उसका पूजन किया , अमूल्य वस्त्र , आभूषण , दक्षिणा रूप सोने की मुद्राओ से भरा हुआ एक बड़ा स्वर्ण थाल लाकर भेट स्वरुप देने लगा । तब उस बालक ने कहा राजन इसमें से मुझे कुछ नहीं चाहिए। यह वस्त्रलंकार इन पण्डित राज को अर्पण करो और धन दक्षिणा रूप मे इन सभा के ब्राह्मणों को बाँट दो। एक वक़्त के अन्न के सिवा दूसरा कुछ भी दान न लेने के लिए मेरे पिताजी की सख्त आज्ञा है। राजा के बहुत आग्रह करने पर भी उसने कुछ लेना स्वीकार नहीं किया और सभा से चलने लगा तब राजा ने उसे सुन्दर पालकी मे बैठाकर छत्र चामर सहित घर पहुँचवाया। सारे नगर मे जय जयकार व्याप रहा और सब लोग कर्मलब्ध के पुत्र ऋणदत्त की प्रशंसा करने लगे।
ऋणदत्त की माता पुत्र को इस तरह राजमान मिला देखकर परमानंदित और विस्मित हुई , उसने अपने पुत्र का स्वागत किया और ह्रदय से लगा लिया और अंदर ले जाकर कहा कि "वत्स" आज तेरे पिता की सिखाई हुई सब विघायें और हमारा सब परिश्रम सफल हुआ । उस पतिव्रता ने उत्तम पकवान बनाकर अपने पुत्र को प्रेम से भोजन कराया ।
राजा ने  विचार किया कि उस विद्धान ब्राह्मण बालक ने आज नगर की जाती हुई लाज रख ली। मेरी सभा से कुछ भी पारितोषिक लिए बिना चले जाना मेरी कीर्ति को कलंकित करने वाली बात है इस तरह राजा विचार मे लीन था तभी अचानक दासी ने आकर कहा कि आपको रानी ने अन्तःपुर मे पधारने की विनय की है । राजा तुरंत रानी के पास गया राजा को देखते ही रानी ने कहा "स्वामिनाथ पुत्री का आग्रह है कि मेरा विवाह उस बाल पंडित (ऋणदत्त) से हो , अब आप जैसा उचित समझे वैसा करे "। 
राजा ऋणदत्त पर तो प्रसन्न ही था उसने पुत्री का ऐसा आग्रह देखकर बहुत प्रसन्न हुआ , राजा सोचने लगा कि ऋणदत्त एक दिन के भोजन के सिवा और कुछ न ही लेता था इससे दक्षिणा मे उसको राजपुत्री का दान देना उचित लगा।
राजा ने राजवंशी पुरुष को टोकरी मे चार लड्डू रखकर , देकर ऋणदत्त के घर भेजा , उसने वहाँ जाकर उसकी मातुश्री से कहा कि मुझे राजा ने यह पकवान और यह पत्र देकर भेजा है यह पंडित राज को दे देना ,माँ सोचने लगी कि मेरे पति ने कहा है कि अनायास अपनी इच्छा से कोई अन्न दे जाये तो उसे अस्वीकार नहीं करना चाहिए । ऐसा सोचकर उसने बिना किसी संशय के वह पत्र और पकवान की टोकरी लेली ।
 माता ने वह टोकरी व पत्र अपने पुत्र ऋणदत्त को देकर कहा कि राजा ने यह भोजन और पत्र भेजा है ऋणदत्त ने कहा अच्छा दैव की विचित्र गति कौन जान सकता है और भाग्य को कौन पलट सकता है जैसे ही ऋणदत्त उसे अंदर रखकर आया त्यों ही उसने जोर से चीख मारी और " ओ माँ " हे परमात्मा ऐसा पुकारते हुए परलोक को सिधारा माता घबराकर काँपने लगी और रुदन करने कहिये "योगिराज" उस समय उसकी माँ पर क्या गुजरी होगी ।
इतने मे कर्मलब्ध पंडित घर आ पहुँचे। घर के आगे मनुष्यो की शोकातुर भीड़ देखकर सब कुछ समझ गए और सोचने लगे कि पुत्र को कुछ न कुछ हुआ है। घर मे आकर पुत्र को मृत देखकर उनके पैर पानी - पानी हो गए , वह परम ज्ञानी थे उन्होंने बहुत वर्ष पहले ही यह निश्चय कर रखा था कि कोई दिन मुझे निःसंतान करने वाला आएगा इसलिए उन्हें कुछ शोक नहीं हुआ। स्त्री से सब समाचार सुनकर जब वे लड्डू देखे तो प्रत्येक मे एक-२ अमूल्य हीरा था ये हीरे पांचाल राजा ने देखकर ऋणदत्त पंडित को गुप्त दक्षिणा रूप से लड्डुओं मे भरकर भेजे थे और जब पत्र खोलकर पड़ा तो राजा ने उसमे अपनी पुत्री का दान दिया था और बारह गांव दक्षिणा मे पंडित जी को भेट किये थे। 
कर्मलब्ध दुखी मन से बोले कि "दैव की गति कोई नहीं टाल सकता" यह पुत्र मुझे ऋण ही देने को पैदा हुआ था। ऋण अदा कर सदा के लिए चला गया। उसके बाद वह पत्नी सहित वन मे चला गया और वहाँ शांत चित्त से ईश्वर सेवा करके जीवन व्यतीत करने लगा ।
इतना कहकर मोहजिता चुप हो गई , योगी ने फिर पूछा " हे तत्वदर्शिनी - मोहरहिते " इस ऋणदत्त ने पिता का जो बड़ा ऋण चुकाया वह पूर्व जन्म मे उसने किस तरह लिया था वह बताओ । यह सुन मोहजिता कहने लगी।   
महाराज ! पहले स्वाश्रय नामक नगर मे एक वैश्य रहता था । उसके घर मे अपार धन था ,पतिव्रता स्त्री थी परंतु कोई संतान नहीं थी । वह धन का व्यय शुभ कार्यो मे करता था। काफी समय बाद भी जब संतान नहीं हुई तो दोनों स्त्री-पुरुषो ने तीर्थ मे जाकर अनेक शुभ कर्म करने का निश्चय किया और जाने से पहले अपनी संपत्ति का प्रबंध किया , न जाने कब लौटना हो। मार्ग मे व्यय करने के लिए बहुत सा धन लेकर वह दम्पत्ति यात्रा को चले उन्होंने बहुत से तीर्थ किये। श्री स्थल ,प्रयाग ,पुष्कर, काशी आदि उसके बाद उन्होंने अपने पास का धन किसी निर्भय स्थान मे रखने का निश्चय किया ।
मार्ग मे उन्हें गंगा के तट पर किसी तपस्वी का आश्रम दिखाई दिया वह वहाँ गए। दो चार उसके आश्रम मे रहे , रहने से उन्हें वह तपस्वी बिलकुल निःस्पृह और पवित्र मालूम हुआ । इससे वह वैश्य वह द्रव्यरूप भय उस महात्मा को सौपने लगा परंतु महात्मा ने बहुत मना किया परंतु वह दोनों उसके पैरो पड़कर प्रार्थना करने वह धन और ताम्रपत्र ( जिसमे बारह गांव का पट्टा लिखा हुआ था ) उसे सौंप निश्चिन्त होकर काशी चले गए। होनी प्रबल है। कुछ काल मे महात्मा तपस्वी को मालूम हुआ कि मेरा मरण काल निकट आ पहुँचा है। उसे साहूकार का धन याद हो आया इससे वह चिंता मे पड़ा । अरे वह साहूकार अभी तक नहीं आया और मैं निष्कारण उसके ऋण मे बंधा जाता हूँ। घबराकर उसने अपने शिष्यो को पास बुलाया और कहा शिष्यो तुम सब जानते हो कि मेरे पास उस साहूकार का धन है इस समय सिर्फ मुझे यह चिंता है कि जब साहूकार वापस धन लेने आएगा तो उसका धन उसे देकर मुझे ऋण से कौन छुड़वाएगा ? मेरे शरीर छोड़ने पर तुम सब अपने-२ स्थान को चले जाओगे। इस दशा मे उस धन के लिए क्या करूँ ? तब एक शिष्य ने कहा ,देव यदि आप उचित समझे तो यह धन वणिक पुष्पदत्त को जो नित्य आपके दर्शनों को आता है उसे सौप दे । वह अत्यंत पवित्र मन का है और धनवान है। इसलिए उसको धन सौपने मे कोई भय नहीं है। वह वणिक उस साहूकार को यह धन अवश्य सौप देगा ।
यह द्रव्य सौपने के लिए पास के आश्रम मे रहने वाले आपके स्नेही ऋत्वकता ऋषि को कह देना ही बस काफी है तपस्वी को यह बात ठीक जंची उसने तुरन्त ऋतवक्ता ऋषि को बुलाकर सारी बाते बतायी तब स्नेह के कारण उसने वह द्रव्य उस वणिक के यहाँ पहुँचाने का भार अपने ऊपर लिया ऐसा हो जाने से वह तपस्वी चिंता मुक्त हुआ और उसने अपने मन को ईश्वर मे लगाया और थोड़ी देर मे इस अनित्य देह का त्याग कर प्रभु धाम को चला गया।
इसके बाद ऋत्वकता ऋषि ने वह धन तपस्वी के शिष्यो द्धारा पुष्पदत्त के यहाँ पहुँचा दिया और साहूकार के आने पर उसे दे देने की बात कही परंतु असल साहूकार तो तपस्वी को धन सौंपकर काशी पहुचते ही कुछ दिनों मे समय आने पर सपत्नी सहित परलोकवासी हो गया ।  अब धन लेने कौन आवे? 
कुछ दिनों बाद तपस्वी का धन जमा करने वाला वणिक और जमा कराने वाला ऋतवक्ता ऋषि भी मृत्यु के वश हुए "पैदा होने वाले की मृत्यु व मारने वाले का जन्म अवश्य होता है" इस ईश्वराधीन नियम से अपने कर्म के अनुसार जन्म भी लिया ।
यात्रा करने वाला वैश्य स्त्री सहित कर्मलब्ध पंडित होकर जन्मा और इसका ऋणी तपस्वी उसका पुत्र ऋणदत्त हुआ। तपस्वी का धन उसके मरने के समय जमा करने वाला ऋतवक्ता ऋषि उसका धन वापस दिलाने के लिए विदेशी पंडित होकर जन्मा ,धन जमा करने वाला वैश्य पत्नी सहित पांचाल पुर का राजा होकर पैदा हुआ और फिर उन्होंने अपने -२ पूर्व के ऋण का शोधन किस तरह किया यह मैंने आपसे अभी ही निवेदन किया है । तपस्वी और उसके आश्रम मे महर्षियो की सेवा करने से एक वृद्ध दासी जिसके सब पाप सेवा करने से नष्ट हो गए थे वह यहाँ राजकन्या होकर जन्मी थी जो ऋणदत्त को अपने मन से वर लेने के कारण बिना विवाह हुए भी उसके मरने पर सहगामिनी होकर उसके सत्कर्म की भागिनी हुई। योगिराज ! वह राजकन्या ऋणदत्ता मैं स्वयं हूँ और वह ऋणदत्त पण्डित राज ही मेरा स्वामी है। यहाँ हम यह ईश्वरदत्त संसार भोग विधिवत भोगते हुए जल कमल के समान निर्लेप रह कर अंत मे उधर्व लोक को जायेंगे।
यह सब वृतान्त सुनकर आश्चर्य चकित हुए योगी ने कहा "राजपत्नी ! तुझे धन्य है और तेरे स्वामी को भी धन्य है" यह मैंने अच्छी तरह जाना कि तेरा मोहजिता नाम अत्यन्त ही योग्य है। बाले तेरा स्वामी सर्वथा कुशल है और उसके विषय मे मैंने सिर्फ तेरी परीक्षा लेने के लिए जो समाचार दिया है वह असत्य है। तेरा कल्याण हो और तेरा सौभाग्य अखण्ड तपे ! इतना कहकर योगी वहाँ से चल दिया और उसकी बहिन के यहाँ भाई का मृत्यु समाचार कहा ।



                                                                                                             शरणागत 
                                                                                                        नीलम सक्सेना