सत्संग महात्म्य
"जैसे कपड़ा रंग के अधीन होता है,वैसे ही मनुष्य यदि सत्पुरुष की सेवा करता है तो सत्पुरुष के समान होता है,यदि दुर्जन की सेवा करता है तो उसके समान होता है ,तपस्वी की सेवा करता है तो तपस्वी के अधीन होता है और यदि चोर की सेवा करता है तो चोर के अधीन होता है । "
वामदेव जी के पिता बोले कि "सत्संग सवन को सार" वत्स तेरे समान , मोहजित महात्मा का संग हो तो अविद्द्या से घिरे हुए जीव भी वैसे ही हो जाएं। तेरे समागम से इन सब श्रोताओं के अज्ञान का पर्दा समूल खुल गया है। सत्समागम का महात्म्य बहुत बड़ा है,सत्पुरुष का समागम होने से जीव के सब पाप समूल नष्ट हो जाते हैं ,सब दुखों का नाश होता है और अखंड सुख प्राप्त होता है।
प्राचीन समय में एकबार सब ब्रह्मर्षि, देवर्षि, महात्मा, संत और देवताओं ने एकत्र होकर एक तुला खड़ी की और उस तुला के एक पलड़े में सत्समागम का एक ही सुख रखा और दूसरे पलड़े में मृत्युलोक के सारे सुख रखे परन्तु सत्संग सुख वाला पलड़ा जरा भी ऊंचा नही हुआ, स्वर्ग लोक के सुख भी पलड़े को तिलमात्र भी नहीं उठा सके। यह देख देवर्षि ,सब कोई बड़े आश्चर्य सत्समागम की प्रशंसा करने लगे इसलिए पुत्र तू मुझे सत्संग का लाभ दे ।
यह सुन राजा वरेप्सु बृद्ध ऋषि को प्रणाम कर बोले ऋषिवर कृपा करमुझे सत्संग का महात्म्य समझाइये ,ऋषि बोले राजन यह सब देख देवर्षि नारद भी बहुत बिस्मित हुए और सत्संग का महात्मय जानने के लिए वीणानाद से हरी स्मरण करते हुए विष्णु लोक को गए वहां जाकर नारद जी ने भगवान श्री हरी को दंडवत नमस्कार प्रार्थना कर उनसे इस सत्संग सुख की तुला संबंधी सब बातें निवेदन की और पूछा ,"कृपानाथ! जगत नियन्ता! सत्समागम का इतना बड़ा महात्म्य किस तरह होगा? तब विष्णु भगवन बोले, "देवर्षि! प्रिय भक्त नारद सत्संग का महात्म्य अपार है यह ऐसा है कि इसका वर्णन किसी से भी नहीं हो सकता सत्संग परम सुख का मूल हैऔर सब साधनों साधन है यदि सत्संग महात्म्य जानने की तुम्हारी इच्छा हो तो भूलोक में हरिद्धार में एक तपस्वी ब्राह्मण रहता है उसके पास जाओ वह तुम्हे सत्समागम का महात्म्य प्रत्यक्ष दिखाएगा।
नारद तुरंत भूलोक में आये और भगवन के आदेशानुसार उस ब्राह्मण के पास गए उस समय वह तापस अंत्यवस्था में था उसकी लालसा किसी ईश्वर भक्त के दर्शन करने की थी देवर्षि नारद को वह अपने सम्मुख देखकर वह बोला,"कल्याण! कल्याण! श्री हरि की परम कृपा है !इस समय मुझे इस हरि भक्त स्वरुप परम सत्पुरुष के दर्शन हुए अहो! हे ऋषि देव पधारो,पधारो मुझे पवन करो! कृतकृत्य करो ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ और इस भूलोक को भी अंतिम प्रणाम करता हूँ "यह कहते ही वह अचेत हो गया और पल भर में इस अनित्य देह का त्याग कर सतलोक को चला गया ।
नारद जी यह देख शोच करने लगे की "राम! राम! यह तो उल्टा हो गया! भगवान् ने यह हत्या मेरे ललाट टीक दी । ऐसा विचार करते हुए नारदजी शीघ्र विष्णु लोक गए और भगवान् से सारा वृतान्त कहने लगे "कृपानाथ! वह ब्राह्मण तो मुझको देख मृत्यु को प्राप्त हुआ ,इसका क्या कारण है वह मृतक मुझसे सत्संग का महात्म्य क्या कहता ?
भगवान बोले "नारद वहां जो चमत्कार हुआ उससे तुम सत्संग का महात्म्य नहीं समझे तो मृत्यु लोक में फिर जाओ वहां यमुना के तट पर एक गौ से रत्न के समान बछड़ा जन्मा है वह तुमको सत्संग महात्म्य बतायेगा । भगवन के यह वचन सुनते ही नारद जी तुरंत वीणानाद करते हुए यमुना तट पैर गौ के पास आये वह उन्होंने तुरंत का जन्मा हुआ बछड़ा देखा उसको देखकर सोचने लगे भगवान् ने जो बछड़ा बताया था वह यही है बछड़े को देख नारद जी ने पूछा "वत्स! धेनुपुत्र! तू प्रसन्न तो है ऐसा प्रश्न करते ही अचानक एक कौतुक हुआ।
बछड़े की नारद जी से चार आँखे होते ही वह अपना सिर ऋषि के आगे झुक एकदम जामीन पर गिर पड़ा और थोड़ी देर में पैर छटपटा कर ऋषि की और दृष्टि कर अपना पशुदेह छोड़, उर्ध्व लोक को चला गया ऐसा दृश्य देख ऋषि बिलकुल ही लज्जित हो गए और वहां से शीघ्र ही भाग गए और मार्ग में विचार करने लगे कि क्या सत्संग की महिमा ऐसी होती है कि बेचारी गौ बिना बछड़े की हो गयी ऐसा विचार करते हुए वे विष्णु लोक में जा पहुचे और भगवान से बोले कि आपने मुझे पाप में क्यों डाला,एक ब्रह्म हत्या और दूसरी गौवाल हत्या,क्या सत्संग का यही महात्म्य है?भगवान ने कहा,"अस्तु "हुआ सो हुआ अब तुम एक बार और भूलोक में जाओ वहां सरस्वती ब्रह्मारण्य वन में जाओ वहाँ बृक्ष में बसने वाला पक्षी तुम्हे सत्संग का महात्म्य बतायेगा ।
नारद जी फिर निन्यानवे चक्कर में पड़े बैकुंठ से चलकर ब्रह्मारण्य में गए ,नदी तट के एक पुराने खोखले पेड़ की पोल में एक पक्षी घोंसले से मुँह बहार निकाल कर बैठा था जैसे नारद जी की ही रह देख रहा हो थोड़ी देर तक वह पक्षी और नारद जी एक दुसरे की ओर देखते रहे फिर विचार कर नारद जी ने उससे पूछा" पक्षी!भगवान आज्ञा सत्संग का महात्म्य पूछता हूँ उसे क्या तू कहेगा ! इतना शब्द उस पक्षी के कान में पड़ते ही वह एकदम धब्ब से नारद जी के पैर में गिर पड़ा और फड़फड़ाकर कुछ देर में वह मर गया। अररर! यह क्या हुआ तीसरी हत्या देखकर नारद जी बहुत दुखित हुए और विचार करने लगे कि मैं कल रूप हूँ नारद जी ने निश्चय किया की इसका वर्णन भगवन के श्री मुख से ही कराऊंगा । ऐसा विचार कर घबराये हुए बैकुंठ की और चल दिये वहां पहुचकर प्रभु से निवेदन कर बोले " कृपानिधान! वह तो ही तापस, गौवाल की ही तरह प्राण छोड़कर चलता हुआ ! परमप्रभु ! कहो सत्संग का क्या यही महात्म्य है ?
यह सुन भगवान मुस्कुराकर बोले,"प्रिय भक्त नारद अभी तुझे क्या सत्संग का महात्म्य सुनना शेष है ? क्या तू अभी भी सत्संग का महात्म्य नहीं समझ सका ,हरे !हरे !
भगवान ने कहा, " नारद तुम अब श्री मंच्छापुरी में जाओ वहाँ राजा के घर अभी ही पुत्र पैदा हुआ है ,वह तुम्हे सत्संग का महात्म्य यथार्थ रूप में बताएगा, तुम्हारा वहां का फेरा व्यर्थ नहीं जायेगा , नारद बोले यदि सत्संग का वैसा ही महात्म्य निकल तो मेरी बलि ही समझो । नारद जी का ऐसा उत्तर सुनकर मुस्कुराते हुए श्री भगवान ने समझाकर एक बार जाने को कहा । श्री भगवान की आज्ञा होते ही नारद जी एक बार मंच्छापुरी में आये और वीणानाद करते हुए राजसभा में गए देवर्षि के दर्शन होते ही राजा ने आसान से उठ साष्टांग प्रणाम किया पूजन कर पुछा," ब्रह्मपुत्र! परमभक्त! भले पधारे इस सेवक को क्या आज्ञा है ? राजा के ऐसे विनय युक्त वचन सुनकर नारद जी बोले," साधु तेरा कल्याण हो मैंने सुना है की तेरे यहाँ पुत्र रत्न पैदा हुआ है, वह महाभक्तजन है उसके दर्शन के लिए मैं यहाँ आया हूँ,नारद जी के ऐसे वचन सुनकर राजा विस्मित हुआ की जिनके दर्शन के लिए अनेक जीव तरसते हैं वे यहाँ मेरे पुत्र के दर्शन के लिए कैसे आये ?यह महाश्चर्य की बात है फिर राजा पीछे पीछे नारद जी आगेआगे अंतःपुर में गए ,रंगमहल में राजपुत्र किलकारी मारते हुए पैर का अंगूठा पी रहा था । वह सोने के पलने में खेल रहा था । नारद जी ने पुत्र को पलने में खेलते हुए देख नीचे झुकते हुए उसके कीं में धड़कते हृदय से कहा ,वत्स श्री भगवन की आज्ञा से मैं यहाँ आया हूँ तू मुझे सत्संग का महात्म्य सुना । इतना सुनते ही वह बालक छटपटाकर पल भर में इस अनित्य देह का त्याग कर परब्रह्म धाम में जा वसा ,यह देख नारद चित्रवत हो गए !
यह सब घटना की थी उस कुमार की मृत्यु होते ही राजा,दासी सब घबरा गए ,राजा शांत भी शोकवश हो गया और नारद जी से कहने लगा ,देव! यह क्या हो ! अंधे की आँखें, पंगु के पैर और प्रजा के कल्याण रूप मेरे समान बृद्ध को प्राप्त हुए इस कुमार को अपने क्या किया जिससे की यह क्षणमात्र में मृत्यु को प्राप्त हुआ ?"नारद जी चकित हो गए और विचार करने लगे की श्री भगवान कैसी बला में डाल दिया है,नारद जी विचार कर बोले,"राजा मई निरपराधी हूँ। मैंने तो तेरे पुत्र से सत्संग का महात्म्य पूछा था इतने में ही तुझे अचिन्त्य और शोक करने वाली घटना घटी ,यह बड़े दुःख का विषय है,नारद जी राजा से इतनी बात कर ही रहे थे कि राजा के पेट में मरोड़ हुई और वे मृत्यु को प्राप्त हुए । यह समाचार फैलते ही राजमहल हाहाकार मच गया शोर सुनकर रानी वहां आयीं जी को देखा , देखती ही रहीं और वहीँ की वाहन शांत हो गयीं यह तीसरा चमत्कार हुआ वहां पर खड़े सभी नारद जी को देखते ही परलोक को सिधारे,ऐसा दुर्घंट परंग देख नारद जी बिलकुल घबरा गए,यह सब सुनकर नगरवासी सोचने लगे की यह कोई कालपुरुष ही है नगर के लोग नारद जी को मारने दौड़े और अनेक तरह से शाप देने लगे ,नारद जी शोक और घबराहट के मारे नगर से एकदम भागे और बैकुंठ पहुचकर सांस ली।
नारद जी का लज्जित स्वरुप देखकर ,श्री भगवन समझ गए कि नारद अभी भी सत्संग का महात्म्य नहीं जान सके और मुस्कुराये,श्री परमात्मा विष्णु के निकट पहुचकर नारद उग्र क्रोध से बोले वाह प्रभु अपने तो मेरे ऊपर अनेको हत्याएं लगा दीं,यह क्या मैं जहाँ जाता हूँ वहां मुझको देखते ही जीव टप टप गिर पड़ते हैं ( मर जाते हैं )क्या यही । सत्संग का महात्म्य है तो अब मेंआपके यहाँ ही सबसे सत्संग का महात्म्य पूछुंगा लक्ष्मि, राधा सभी से ऐसा कहकर नारद जी उठे और श्री भगवन के परिवार की तरफ चले, भगवान सोचने लगे की अब नारद अनर्थ करेगा । इससे उन्होंने नारद जी को रोका और कहा कहाँ चले,नारद जी ने कहा बस अब मैं बैकुंठ में ही सत्संग का महात्म्य पूछुंगा प्रभु मुझे जाने दो,भगवन प्रेम मुस्कान से रोकते किन्तु मानने को तैयार नहीं । भगवान ने बड़े प्रयास कर नारद जी को शांत कर अपने आसान के पास ले आये और बिठाया ,भगवान नारद से मुस्कुराकर कहा ,"नारद ! पहले तू सत्संग शब्द पर विचार कर ,इसमें 'सत' और 'संग' ये दो शब्द साथ हैं 'सत' अर्थात श्रेष्ठ ,प्रतिष्टित ,सत्य, सनातन,परिपूर्ण,सर्बशक्तिमान,परमात्म तत्व 'सत' शब्द से जाना जाता है भगवत्परायण पुरुष में सत शब्द के सारे अर्थों का समावेश होता है ऐसे पुरुष से मिलाप होने का नाम सत्संग है जैसे अँधेरे में वैठे हुए मनुष्य को दीपक रूप सत्पदार्थ का संग होने से तुरंत ही अंधकार रुपी बड़ी बाधा दूर हो जाती है वैसे ही सत्पुरुष का संग होने पर भव दुःखरूप दूर हो जाती है । मैंने तुझे जहाँ -जहाँ भेजा वहां वे सब प्राणी पुण्यवान थे तो भी वे किसी महत अपराध कारण ऐसी अधम योनि में जन्म लेकर वासना , माया का दुःख भोग रहे थे वह तुझ जैसे सत्पुरुष के दर्शन मात्र से सब पापों से मुक्त हो परम पद को प्राप्त हुए इस संतसमागम का परमलाभ ,परम फल और क्या हो ? वत्स ! परमभक्त होने से महासत्पुरुष तेरा निमिष मात्र संग होने से उन प्राणियों को जन्म मरण से छूट जाने का परम लाभ प्राप्त हुआ जो शाताब्धि साधन करने से भी उनको नहीं मिलता परंतु तेरे समान परम सदभक्त संत का दृष्टि समागम - संग होते ही संसार से पर हो गए ।
यह सुन निःशंख हुए देवर्षिवर्य नारद जी शांत मन से भगवान् को प्रणाम कर बोले ,"भगवन आपकी माया कौन जान सकता है? मैं भूल गया ,मैं यह गूढ़ भाव नहीं समझ सका , यह मेरा अज्ञान है " प्रणाम कर नारद जी हरी नाम कीर्तन करते हुए वहां से ब्रह्म लोक चले गए ।
वटुक जी के पिता बटुक जी को संबोधन कर बोले "सत्पुरुष महात्मा वामदेव! इसी तरह तेरे सत्संग से मई और तेरी माता मोह रहित होकर कल्याण को प्राप्त होंगे इसलिए मेरे साथ घर चल ,तेरे बिना हम जीवन धारण करने को हम समर्थ नहीं हैं । "
शरणागत
नीलम सक्सेना
यह सुन राजा वरेप्सु बृद्ध ऋषि को प्रणाम कर बोले ऋषिवर कृपा करमुझे सत्संग का महात्म्य समझाइये ,ऋषि बोले राजन यह सब देख देवर्षि नारद भी बहुत बिस्मित हुए और सत्संग का महात्मय जानने के लिए वीणानाद से हरी स्मरण करते हुए विष्णु लोक को गए वहां जाकर नारद जी ने भगवान श्री हरी को दंडवत नमस्कार प्रार्थना कर उनसे इस सत्संग सुख की तुला संबंधी सब बातें निवेदन की और पूछा ,"कृपानाथ! जगत नियन्ता! सत्समागम का इतना बड़ा महात्म्य किस तरह होगा? तब विष्णु भगवन बोले, "देवर्षि! प्रिय भक्त नारद सत्संग का महात्म्य अपार है यह ऐसा है कि इसका वर्णन किसी से भी नहीं हो सकता सत्संग परम सुख का मूल हैऔर सब साधनों साधन है यदि सत्संग महात्म्य जानने की तुम्हारी इच्छा हो तो भूलोक में हरिद्धार में एक तपस्वी ब्राह्मण रहता है उसके पास जाओ वह तुम्हे सत्समागम का महात्म्य प्रत्यक्ष दिखाएगा।
नारद तुरंत भूलोक में आये और भगवन के आदेशानुसार उस ब्राह्मण के पास गए उस समय वह तापस अंत्यवस्था में था उसकी लालसा किसी ईश्वर भक्त के दर्शन करने की थी देवर्षि नारद को वह अपने सम्मुख देखकर वह बोला,"कल्याण! कल्याण! श्री हरि की परम कृपा है !इस समय मुझे इस हरि भक्त स्वरुप परम सत्पुरुष के दर्शन हुए अहो! हे ऋषि देव पधारो,पधारो मुझे पवन करो! कृतकृत्य करो ! मैं आपको प्रणाम करता हूँ और इस भूलोक को भी अंतिम प्रणाम करता हूँ "यह कहते ही वह अचेत हो गया और पल भर में इस अनित्य देह का त्याग कर सतलोक को चला गया ।
नारद जी यह देख शोच करने लगे की "राम! राम! यह तो उल्टा हो गया! भगवान् ने यह हत्या मेरे ललाट टीक दी । ऐसा विचार करते हुए नारदजी शीघ्र विष्णु लोक गए और भगवान् से सारा वृतान्त कहने लगे "कृपानाथ! वह ब्राह्मण तो मुझको देख मृत्यु को प्राप्त हुआ ,इसका क्या कारण है वह मृतक मुझसे सत्संग का महात्म्य क्या कहता ?
भगवान बोले "नारद वहां जो चमत्कार हुआ उससे तुम सत्संग का महात्म्य नहीं समझे तो मृत्यु लोक में फिर जाओ वहां यमुना के तट पर एक गौ से रत्न के समान बछड़ा जन्मा है वह तुमको सत्संग महात्म्य बतायेगा । भगवन के यह वचन सुनते ही नारद जी तुरंत वीणानाद करते हुए यमुना तट पैर गौ के पास आये वह उन्होंने तुरंत का जन्मा हुआ बछड़ा देखा उसको देखकर सोचने लगे भगवान् ने जो बछड़ा बताया था वह यही है बछड़े को देख नारद जी ने पूछा "वत्स! धेनुपुत्र! तू प्रसन्न तो है ऐसा प्रश्न करते ही अचानक एक कौतुक हुआ।
बछड़े की नारद जी से चार आँखे होते ही वह अपना सिर ऋषि के आगे झुक एकदम जामीन पर गिर पड़ा और थोड़ी देर में पैर छटपटा कर ऋषि की और दृष्टि कर अपना पशुदेह छोड़, उर्ध्व लोक को चला गया ऐसा दृश्य देख ऋषि बिलकुल ही लज्जित हो गए और वहां से शीघ्र ही भाग गए और मार्ग में विचार करने लगे कि क्या सत्संग की महिमा ऐसी होती है कि बेचारी गौ बिना बछड़े की हो गयी ऐसा विचार करते हुए वे विष्णु लोक में जा पहुचे और भगवान से बोले कि आपने मुझे पाप में क्यों डाला,एक ब्रह्म हत्या और दूसरी गौवाल हत्या,क्या सत्संग का यही महात्म्य है?भगवान ने कहा,"अस्तु "हुआ सो हुआ अब तुम एक बार और भूलोक में जाओ वहां सरस्वती ब्रह्मारण्य वन में जाओ वहाँ बृक्ष में बसने वाला पक्षी तुम्हे सत्संग का महात्म्य बतायेगा ।
नारद जी फिर निन्यानवे चक्कर में पड़े बैकुंठ से चलकर ब्रह्मारण्य में गए ,नदी तट के एक पुराने खोखले पेड़ की पोल में एक पक्षी घोंसले से मुँह बहार निकाल कर बैठा था जैसे नारद जी की ही रह देख रहा हो थोड़ी देर तक वह पक्षी और नारद जी एक दुसरे की ओर देखते रहे फिर विचार कर नारद जी ने उससे पूछा" पक्षी!भगवान आज्ञा सत्संग का महात्म्य पूछता हूँ उसे क्या तू कहेगा ! इतना शब्द उस पक्षी के कान में पड़ते ही वह एकदम धब्ब से नारद जी के पैर में गिर पड़ा और फड़फड़ाकर कुछ देर में वह मर गया। अररर! यह क्या हुआ तीसरी हत्या देखकर नारद जी बहुत दुखित हुए और विचार करने लगे कि मैं कल रूप हूँ नारद जी ने निश्चय किया की इसका वर्णन भगवन के श्री मुख से ही कराऊंगा । ऐसा विचार कर घबराये हुए बैकुंठ की और चल दिये वहां पहुचकर प्रभु से निवेदन कर बोले " कृपानिधान! वह तो ही तापस, गौवाल की ही तरह प्राण छोड़कर चलता हुआ ! परमप्रभु ! कहो सत्संग का क्या यही महात्म्य है ?
यह सुन भगवान मुस्कुराकर बोले,"प्रिय भक्त नारद अभी तुझे क्या सत्संग का महात्म्य सुनना शेष है ? क्या तू अभी भी सत्संग का महात्म्य नहीं समझ सका ,हरे !हरे !
भगवान ने कहा, " नारद तुम अब श्री मंच्छापुरी में जाओ वहाँ राजा के घर अभी ही पुत्र पैदा हुआ है ,वह तुम्हे सत्संग का महात्म्य यथार्थ रूप में बताएगा, तुम्हारा वहां का फेरा व्यर्थ नहीं जायेगा , नारद बोले यदि सत्संग का वैसा ही महात्म्य निकल तो मेरी बलि ही समझो । नारद जी का ऐसा उत्तर सुनकर मुस्कुराते हुए श्री भगवान ने समझाकर एक बार जाने को कहा । श्री भगवान की आज्ञा होते ही नारद जी एक बार मंच्छापुरी में आये और वीणानाद करते हुए राजसभा में गए देवर्षि के दर्शन होते ही राजा ने आसान से उठ साष्टांग प्रणाम किया पूजन कर पुछा," ब्रह्मपुत्र! परमभक्त! भले पधारे इस सेवक को क्या आज्ञा है ? राजा के ऐसे विनय युक्त वचन सुनकर नारद जी बोले," साधु तेरा कल्याण हो मैंने सुना है की तेरे यहाँ पुत्र रत्न पैदा हुआ है, वह महाभक्तजन है उसके दर्शन के लिए मैं यहाँ आया हूँ,नारद जी के ऐसे वचन सुनकर राजा विस्मित हुआ की जिनके दर्शन के लिए अनेक जीव तरसते हैं वे यहाँ मेरे पुत्र के दर्शन के लिए कैसे आये ?यह महाश्चर्य की बात है फिर राजा पीछे पीछे नारद जी आगेआगे अंतःपुर में गए ,रंगमहल में राजपुत्र किलकारी मारते हुए पैर का अंगूठा पी रहा था । वह सोने के पलने में खेल रहा था । नारद जी ने पुत्र को पलने में खेलते हुए देख नीचे झुकते हुए उसके कीं में धड़कते हृदय से कहा ,वत्स श्री भगवन की आज्ञा से मैं यहाँ आया हूँ तू मुझे सत्संग का महात्म्य सुना । इतना सुनते ही वह बालक छटपटाकर पल भर में इस अनित्य देह का त्याग कर परब्रह्म धाम में जा वसा ,यह देख नारद चित्रवत हो गए !
यह सब घटना की थी उस कुमार की मृत्यु होते ही राजा,दासी सब घबरा गए ,राजा शांत भी शोकवश हो गया और नारद जी से कहने लगा ,देव! यह क्या हो ! अंधे की आँखें, पंगु के पैर और प्रजा के कल्याण रूप मेरे समान बृद्ध को प्राप्त हुए इस कुमार को अपने क्या किया जिससे की यह क्षणमात्र में मृत्यु को प्राप्त हुआ ?"नारद जी चकित हो गए और विचार करने लगे की श्री भगवान कैसी बला में डाल दिया है,नारद जी विचार कर बोले,"राजा मई निरपराधी हूँ। मैंने तो तेरे पुत्र से सत्संग का महात्म्य पूछा था इतने में ही तुझे अचिन्त्य और शोक करने वाली घटना घटी ,यह बड़े दुःख का विषय है,नारद जी राजा से इतनी बात कर ही रहे थे कि राजा के पेट में मरोड़ हुई और वे मृत्यु को प्राप्त हुए । यह समाचार फैलते ही राजमहल हाहाकार मच गया शोर सुनकर रानी वहां आयीं जी को देखा , देखती ही रहीं और वहीँ की वाहन शांत हो गयीं यह तीसरा चमत्कार हुआ वहां पर खड़े सभी नारद जी को देखते ही परलोक को सिधारे,ऐसा दुर्घंट परंग देख नारद जी बिलकुल घबरा गए,यह सब सुनकर नगरवासी सोचने लगे की यह कोई कालपुरुष ही है नगर के लोग नारद जी को मारने दौड़े और अनेक तरह से शाप देने लगे ,नारद जी शोक और घबराहट के मारे नगर से एकदम भागे और बैकुंठ पहुचकर सांस ली।
नारद जी का लज्जित स्वरुप देखकर ,श्री भगवन समझ गए कि नारद अभी भी सत्संग का महात्म्य नहीं जान सके और मुस्कुराये,श्री परमात्मा विष्णु के निकट पहुचकर नारद उग्र क्रोध से बोले वाह प्रभु अपने तो मेरे ऊपर अनेको हत्याएं लगा दीं,यह क्या मैं जहाँ जाता हूँ वहां मुझको देखते ही जीव टप टप गिर पड़ते हैं ( मर जाते हैं )क्या यही । सत्संग का महात्म्य है तो अब मेंआपके यहाँ ही सबसे सत्संग का महात्म्य पूछुंगा लक्ष्मि, राधा सभी से ऐसा कहकर नारद जी उठे और श्री भगवन के परिवार की तरफ चले, भगवान सोचने लगे की अब नारद अनर्थ करेगा । इससे उन्होंने नारद जी को रोका और कहा कहाँ चले,नारद जी ने कहा बस अब मैं बैकुंठ में ही सत्संग का महात्म्य पूछुंगा प्रभु मुझे जाने दो,भगवन प्रेम मुस्कान से रोकते किन्तु मानने को तैयार नहीं । भगवान ने बड़े प्रयास कर नारद जी को शांत कर अपने आसान के पास ले आये और बिठाया ,भगवान नारद से मुस्कुराकर कहा ,"नारद ! पहले तू सत्संग शब्द पर विचार कर ,इसमें 'सत' और 'संग' ये दो शब्द साथ हैं 'सत' अर्थात श्रेष्ठ ,प्रतिष्टित ,सत्य, सनातन,परिपूर्ण,सर्बशक्तिमान,परमात्म तत्व 'सत' शब्द से जाना जाता है भगवत्परायण पुरुष में सत शब्द के सारे अर्थों का समावेश होता है ऐसे पुरुष से मिलाप होने का नाम सत्संग है जैसे अँधेरे में वैठे हुए मनुष्य को दीपक रूप सत्पदार्थ का संग होने से तुरंत ही अंधकार रुपी बड़ी बाधा दूर हो जाती है वैसे ही सत्पुरुष का संग होने पर भव दुःखरूप दूर हो जाती है । मैंने तुझे जहाँ -जहाँ भेजा वहां वे सब प्राणी पुण्यवान थे तो भी वे किसी महत अपराध कारण ऐसी अधम योनि में जन्म लेकर वासना , माया का दुःख भोग रहे थे वह तुझ जैसे सत्पुरुष के दर्शन मात्र से सब पापों से मुक्त हो परम पद को प्राप्त हुए इस संतसमागम का परमलाभ ,परम फल और क्या हो ? वत्स ! परमभक्त होने से महासत्पुरुष तेरा निमिष मात्र संग होने से उन प्राणियों को जन्म मरण से छूट जाने का परम लाभ प्राप्त हुआ जो शाताब्धि साधन करने से भी उनको नहीं मिलता परंतु तेरे समान परम सदभक्त संत का दृष्टि समागम - संग होते ही संसार से पर हो गए ।
यह सुन निःशंख हुए देवर्षिवर्य नारद जी शांत मन से भगवान् को प्रणाम कर बोले ,"भगवन आपकी माया कौन जान सकता है? मैं भूल गया ,मैं यह गूढ़ भाव नहीं समझ सका , यह मेरा अज्ञान है " प्रणाम कर नारद जी हरी नाम कीर्तन करते हुए वहां से ब्रह्म लोक चले गए ।
वटुक जी के पिता बटुक जी को संबोधन कर बोले "सत्पुरुष महात्मा वामदेव! इसी तरह तेरे सत्संग से मई और तेरी माता मोह रहित होकर कल्याण को प्राप्त होंगे इसलिए मेरे साथ घर चल ,तेरे बिना हम जीवन धारण करने को हम समर्थ नहीं हैं । "
शरणागत
नीलम सक्सेना
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