Wednesday, 22 February 2017

त्याग की विडम्बना

                                  त्याग की विडम्बना 

                                     पाप करने के पीछे जिस पुरुष को पश्चाताप होता है ।  
                                     उसे हरि स्मरण करना यही एक परम प्रायश्चित है ॥ 
श्री बटुक जी महाराज अपने पिता की मोह प्रकृति का विचार कर रहे हैं अरे ये सभी जन्म जन्मान्तर में संसार क्लेश भोगने पर भी अविद्या के बल के कारण  अभी भी संसार सागर में गोते खाने में ही आनंद मनाते हैं इनकी स्थिरता मुक्ति कैसी ,कठिन है संसार का प्रपंच ऐसा रचा गया है कि उससे वे कठिनाई से भी पार नहीं हो सकते ,कामदेव तो इतना प्रबल है कि मनुष्य की सारी इन्द्रियों को एकदम वश में कर लेता है बटुक जी ऐसे विचार में लींन हैं ।
                     इतने में राजा वरेप्सु बटुक जी के पिता से बोले,"ऋषिराज त्यागी को किसका लोभ? लोभजतो केवल धन का होता है परंतु त्यागी को धन की कुछ आवश्यकता नहीं होती।"
                     ऋषि बोले,सब त्यागियों में त्याग के पूर्ण लक्षण नहीं होते सब में एक न एक अभाव  होता है "स्त्री त्यागी काम नहीं त्यागा ,घर छोड़ दिया परंतु लोभ नहीं छोड़ा "इस विषय की एक कथा है सुनाता हूँ ।
                    एक नगर में राज पुत्र और प्रधान पुत्र दो युवा मित्र थे वे विद्धान और सुन्दर लक्षण बाले थे एक बार वे दोनों घोड़े पर सवार होकर वन में घूमने के लिए निकले,उन्होंने देखा कि  बगीचे में कुटिया बनाकर एक त्यागी पुरुष वैठा था उसके सर पर सुन्दर जटा,शरीर पर एक कौपीन,मृगचर्म का आसन,और शरीर विभुति रमाई थी और सामने धुनि जल रही थी आँखे बंद कर,ज्ञानमुद्रा कर ध्यानस्थ के समान वैठा था ,ऐसी त्यागवृत्ति देख कर राजपुत्र प्रसन्न हुआ वह उसकी प्रशंसा करने लगा "धन्य है इस साधु योगी को, कामनाओं को त्याग कर ईश्वर के ध्यान में मस्त होकर वैठा है, यह सुन प्रधान पुत्र बोला,"हाँ  साधु है तो प्रणाम करने योग्य,इसे संसार की कोई इच्छा नहीं,यह तो सारी  वासनाएँ त्यागकर वैठा है?" राजपुत्र बोला "चलो इसकी परीक्षा कर देखें "
                        ऐसा विचार कर  दोनों उस त्यागी के पास जा  दूर से प्रणाम कर खड़े रहे और बोले"अहो प्रियमित्र ,ऐसे साधु की सेवा करने में महापुण्य  है ऐसे पुरुष को यदि किसी वस्तु का दान दिया जाये तो उसका सहस्त्र गुना फल मिलता है कि यह अमूल्य मणि जो लोहे को भी स्वर्ण  बना देती है यदि उसका दान इस साधु को दिया जाये तो अपना मानव देह सफल हो परंतु हम इसको कैसे दें यह तो दृढ समाधि में है ।
                        साधु ने दोनों की बातें सुनी और अपना मुँह फैला दिया कि मणि रखने का निर्भय स्थान यह है   यह देख दोनों मित्र हँसे और बोले कि अब इसका त्याग कहाँ गया ?
                         बटुक जी के पिता बोले,"पूर्ण आत्माराम  तो कोई बिरला ही हो सकता है,प्रिय पुत्र वामदेव !हम बृद्धों पर दया कर अब घर चल,मेरी अपेक्षा तुझे अपनी माता पर अधिक दया करनी चाहिए वह तो तेरे वियोग में अन्न जल छोड़कर वैठी है उसके प्राण बचने की आशा नहीं है।"
                        पिता पुत्र की यह बात सुनकर वरेप्सु सोचने लगे कि यदि ऋषि गगुरुदेव को ले जाएंगे तो  सद्गुरु को खो बैठुंगा इसलिए किसी तरह से भी गुरुदेव यहाँ से न जाने पाएं तभी अत्युत्तम है ऐसा विचार कर राजा वरेप्सु  दोनों पिता-पुत्र से हाथ जोड़कर प्रणाम कर बोले,"ऋषिवर्य! सदगुरुदेव! मैं मन वाणी और काय से सदा आपका दास हूँ इसलिए मुझे त्यागकर अब आप कैसे जायेंगे? मैं आपकी शरण हूँ मेरे तो आप ही सर्वस्व हैं इसलिए अब मैं आपको यहाँ से जाने नहीं दूंगा यहाँ पर आपके पधारने से मेरा ही नहीं बल्कि व्याधि उपाधियों से पीड़ित जनों का ,संसार सागर  डूबते हुओं का कल्याण हुआ है और इसी तरह निरंतर लोगों का कल्याण होता रहे, गुरुदेव आप मुझे कैसे त्याग सकेंगे और अपनी जननी मातु श्री,जिनकी कुक्ष(कोख) ने आपके समान महर्षि रत्न को उत्पन्न किया है वह भी कैसे त्यागी जा सकेगी ?इसलिए अब शीघ्र ही मुझे आज्ञा दीजिये जिससे मैं अति शीघ्र मातुश्री को यहाँ बुला लाऊँ और मैं निरंतर आपकी सेवा में तत्पर रहूँ "
                           इस तरह वरेप्सु महाराज के अत्याग्रह से वामदेव जी ने यह बात मान ली ,वरेप्सु ऋषि के आश्रम में जा पहुंचे वहां से वामदेव जी की मातुश्री को शीघ्र लेकर लौट आये, अन्न जल त्याग देने वाली योगमाया के समान ऋषि पत्नी और बटुक जी का जिस समय मिलाप हुआ उस समय का वर्णन कौन कर सकता है पुत्र को बाँहों में भरकर ह्रदय से लगाते ही माता अचेत हो गयी चेतना आने पर बटुक जी ने पूर्ण मात्र प्रेम दर्शाकर उसके मन को संतुष्ट किया ।







                                                                                                           शरणागत 
                                                                                                        नीलम सक्सेना  









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