Monday, 20 February 2017

मलिन वासना का लय परम प्रेम है

                                 

                          मलिन  वासना का लय परम प्रेम है 

" जिन मनुष्यों की भक्ति श्री मधशोदासुत श्री कृष्ण के चरण  कमलों में नहीं है जिनकी जिव्हा अहीर कन्या राधा के प्राण प्रिय श्री कृष्ण के गुणगान में अनुरक्त नहीं है ,जिन मनुष्यों के कर्ण श्री कृष्ण लीला के सुन्दर गुणों के रस का आदर नहीं करते ,उनके लिए कीर्तन  समय बजाये जाने वाला मृदंग सतत  कहा करता है की धिक्कार है ! धिक्कार है !! धिक्कार है !!! "
                     सभासद ,राजा वरेप्सु ,बटुक के पिता ,सब एकचित्त से महात्मा बटुक के मुख से कथा सुनते थे उनके प्रति पुनः सौम्य दृष्टि कर बटुक बोले "राजन! यह असार संसार कैसा संकटदायक है यह वासना परम दूषित और मोक्ष से गिरा देने वाली है वासना युक्त अज्ञ जीव जब कालवश होता है,तो माया में लीन  होता है और फिर जन्म मरण के चक्कर में पड़ता है.परंतु  ज्ञानी - वासना से मुक्त हुआ जीव सब उपाधियों से मुक्त होने के कारणब्रह्म में ही लीन होता है इसलिए ज्ञानी,संस्कारी,अधिकारी जीव को जैसे भी हो निर्वासनामय होना चाहिए संसार से मुक्त रहने की इच्छा रखने वाले जीव बुद्धियुक्त मन से होने वाले कर्म के फलों को छोड़कर, जन्म बंधन से मुक्त होने के लिए स्वतंत्र होकर अनन्य पद की इच्छा वाले बने रहे  संसार की शुभ वासना भी जीव को किस तरह बंधनकारक हो जाती है इस विषय की एक प्राचीन कथा कहता हूँ सुनो :-
                           पतित पावित्री भागीरथी के तट पर एक पवित्र नगर था  नगर के निकट के उपवन में संसार बंधन से मुक्त परमात्मा की सतत भक्ति ही में लीन ,जीवनमुक्त " कौण्डिन्य  मुनि "रहते थे ,सदा उदासीन होने पर भी वे नित्य आनंद मग्न रहते थे , वे परम भक्त सारा दिन भगवन के पदारविन्द के ही स्मरण में समय व्यतीत  करते थे,आत्मज्ञान पूर्वक सदा भगवन में ही अनुरक्त रहते थे जब वे प्रभु भक्ति में लीन होते तो सिर्फ कौपीन पहनकर ही नाचते ,ताली बजाते , गदगद स्वर से रो पड़ते ,लम्बी सांसे लेते और 'हरे नारायण' नाम के उच्चारण में ही तादात्म्य हो जाते ,कभी बह जड़ के समान, कभी बहरे के समान ,कभी पागल के समान और भी महाज्ञानी के समान मालूम होते ,वह योगी कभी मंदिर मंदिर घूमकर प्रदक्षिणा करते ,बहुत से लोग उसे पागल समझते पर वह तो अनन्य प्रेमी परमात्मा में रमता राम जीव था ,संसार में उसकी जरा सी भी आसक्ति नहीं थी वह सम दृष्टि वाला, भेदभाव रहित, एकरस, एकाकार, द्वैत प्रपंच रहित द्वैत भाव को पराजित करने वाला, सदा परमात्मा में रमण करनेवाला था। जगत के किसी पदार्थ, प्राणी पर वह क्रोध, द्वेष नहीं करते थे ,कोई भी कार्य कामना के हेतु नहीं करते थे ,क्योकि फल की आशा से परमात्मा की भक्ति  करना भक्ति नहीं, परंतु व्यापर है। किसी भी स्वार्थ से ईश्वर भक्ति नहीं करनी चाहिए केवल निष्काम भाव से भक्ति करनी चाहिए जब भक्तजन पर ईश्वर प्रसन्न होते हैं और वरदान देने की इच्छा प्रकट करते हैं तब पवित्र भक्त , पूर्ण भक्त , निष्काम भक्त  कहता है मैंने फल की  आशा से भक्ति नहीं की , परंतु भक्ति ही की है। ऐसा अनन्य भक्त कभी भी फल की इच्छा नहीं करता है जैसे उवाला हुआ और कूटा हुआ धान फिर नहीं उगता वैसे जिस भक्त की चित्तवृति एकाकार हो गयी है वह फिर से सकाम होती ही नहीं है ।
                         उस योगी का प्रेम ऐसा ही था ,एक ही था ,उसका योग भी एक ही था । वह कभी भी योग क्षेम  नहीं  करता था शरीर शरीर निर्वाह के लिए उनके यहाँ नित्य अन्न आ जाता था उसे ही खाकर आनंद मग्न रहते थे वह स्वयं ब्रह्मरूप,महात्मारूप स्वयं प्रेम मूर्तिरूप थे उनका प्रेम सत्य था ।
                        कौण्डिन्य मुनि के आश्रम में नित्य अनेक संत ,ब्रह्मनिष्ठ आत्मज्ञानी संतो और साधुओं का समागम होता था और वे कौण्डिन्य मुनि के संग से पवित्र होकर इस अपार संसार से पार हो गए थे जब जब कौण्डिन्य मुनि सब लोगो को ब्रह्मनिष्ठ होने का उपदेश करते और परमात्मा के गुण कीर्तन का भेद समझाते,तब-तब कहते कि ,"इस जगत का प्रेम मूढमति के लिए है इसलिए जीव को चाहिए कि पहले वासना का ही त्याग कर सब बंधनो का नाश करने के लिए -भोग,देह,और कर्म सबकी वासना का लय करे । जो वासनामय होता है उसी को जन्म मरण के फेरा रूप बंधन में जकड़ना पड़ता है जगत के जीवों को राग, द्धेष ,क्रोध,भय,ईर्ष्या से मुक्त हो ज्ञानपूर्वक परमात्मा में परायण होकर उसी को प्रेम में एकाकार हो जाना चाहिए ,उन्ही का जन्म लेना ,जीना और मरना सफलता को प्राप्त होता है। वासना दो प्रकार की है शुद्ध और मलिन । शुद्ध वासना तत्व ज्ञान -परम भक्ति -पवित्र प्रेम में प्रेरणा करती है और मलिन वासना बंधन में डालती है मलिन वासना यदि शेष रही तो ब्रह्म का दर्शन हो नहीं सकता इसलिए वासना का क्षय करो , क्षय अभ्यास से परमात्मा के प्रेम में मग्न मस्त होने से हो सकता है और ऐसे प्रेमी होने से साक्षात् ब्रह्म के दर्शन होते हैं ऐसे उपदेशों से कौण्डिन्य मुनि के अनेक साथी जीव तर गए थे।
                       ऐसे पुनीत कौण्डिन्य मुनि जो सब वासना से मुक्त थे ,केवल अद्धेत में ही मगन मस्त थे,वे सिर्फ संसार  सम्बन्ध में रहने से ही जन्म मरण के फेरे में पड़े थे ।
                        इस मुनि के आश्रम के सामने ही एक गणिका(वैश्या)का घर था,किसी कर्म का फल भोगने के लिए उस घर की स्वामिनी का जन्म  गणिका जैसे अधम स्थान में हुआ था वह  गणिका अपने धर्म से क्षन भर भी चलाएमान नहीं होती थी वह परमात्मा के चरित्रगान में सदा तल्लीन रहती थी वह सदा प्रभु भक्तों पर दयालु रहती और सब धर्मो का पालन करती थी ।उसका प्रेम पवित्र और शुद्ध था सब काम वह ब्रह्मार्पण  विचार से करती थी और उसमे जरा भी लिप्त नहीं होती थी। इस गणिका के यहाँ जो-जो गुनी जन जाते थे,वे कौण्डिन्य मुनि की दृष्टि में पड़ते थे जब-जब उस वैश्या के घर में किसी पुरुष  देखते तब-तब मन में दुखित हो कहते।"अरे ! अभागी, पापी नरक में गिरने आया।"पाप कर्म द्दारा अपार नरक यातना को भोगने वाले जीवों को देखकर उनको दया आती और उस दया के कारण हि वे उस वैश्या के घर में जाने वाले मनुष्यों के लिए संताप करते थे यह संताप पवित्र था तो भी क्षण भर कर्म के बंधन में डालने वाला और वासना को बढ़ाने वाला था यह  मोक्ष से  गिरा देने वाली कष्ट कारिणी करुणा थी,नित्य के संताप से महात्मा धीरे-धीरे मुनि बंधन में पड़ते गए। परिणाम यह हुआ की मरने के समय भी उनका ध्यान यही रहा , जो पवित्र महात्मा अपार तेज वाले थे वे भी एक मलिन वासना करने के कारण जन्म मरण  फेरे में पड़े । कौण्डिन्य मुनि सब तरह से वासना मुक्त थे, सब कामना, तृष्णा और वासना का क्षय कर चुके थे सारी दैवी कला के भोगी थे परंतु अंतकाल में उदय होने वाली व्यावहारिक वासना से युक्त होने के कारण वह फिर से जन्म मरण के चक्कर में पड़े ,उन्हें इस वासना कारण और मारने के समय प्रभु की भक्ति भूल जाने के कारण फिर जन्म लेना पड़ा ।
                        कौण्डिन्य का जन्म उत्तम ब्राह्मण कुल में हुआ वैराग्य भावना के अत्यंत प्रबल होने से उन्हें अपने पूर्व जन्म का ज्ञान था और अपने इस जन्म के लिए बड़ा दुःख था , उन्होंने संसार से विरक्त रहने  संकल्प कर अपने इस जन्म को सफल करने का निश्चय कर लिया,माता पिता के अत्यंत लालन पालन करने पर भी वे विरक्त ही रहे ,माता के उदर से बहार आने पर न बोले और न ही दूध पिया। यह देख माता पिता बहुत दुखी हुए और यह बात सारे नगर में फ़ैल गयी कि योगिन्द्र मुनि के यहाँ पैदा हुआ बालक अत्यंत सुन्दर परम तेजस्वी होने पर भी  दूध नहीं पीता और न ही रोता ,यह महत आश्चर्य की बात है।
                          यह बात फैलते-फैलते गणिका के कानों में पड़ी वह बड़ी विस्मित हुई,यह जगत अन्नमय है बिना अन्न कोई भी जीव नहीं जी सकता, योगी भी देह निर्वाह के लिए अन्न फल का आहार करता है परंतु यह बालक बिना अन्न के जीता है और जन्म लेने के बाद  उसने कभी हुंकार भी नहीं की इसका कोई गुप्त कारण जरूर होगा, उस बालक का परम तेजस्वी स्वरुप देखते ही कर्म की विचित्र गति का स्मरण हुआ,अहो! महा प्रयास द्दारा शुभ कर्म के सेवन करने वाले ऐसे महात्मा योगी को दूसरे के हित के लिए की गयी  दुखित करती है,तो क्षुद्र प्राणी की तो गति ही क्या ? जरा सी भी वासना जन्म मरण के कष्ट को देने वाली हो जाती है ।                         यह कौण्डिन्य मुनि समर्थ आत्मवेत्ता थे भक्ति के साक्षात् स्वरुप थे तब यह गति कैसे ,अहो ज़रा सी वासना ने इस परम भक्त,परमज्ञानी की कैसी गति की है? ऐसा विचार कर वह गणिका उन ब्रह्मवास कौण्डिन्य मुनि के पास गयी और उन्हें प्रेमपूर्वक अपनी गोद में बिठाकर उनके शरीर पर हाथ फिराकर उन्ही की और एक टक  देखती रही,यह देख महात्मा कौण्डिन्य मुनि खिलखिलाकर हँस पड़े वहाँ पर खड़े हुए लोग विस्मित हुए क्योकि आज तक उन्हें  हँसते हुए या रोते हुए नहीं सुना था ।
                         गणिका  बालक को संबोधन कर बोली "  महात्मा कौण्डिन्य  यह आपकी क्या गति हुई ? आप तो सारे कर्मो से अलिप्त थे, आप स्वयं ही ब्रह्म रूप थे,ब्रह्म को ही अपने सब कर्म अर्पण करते और उसी  भजते, उन्ही की सेवा, उन्ही में विचरते थे, तो भी देव!आपकी यह गति क्योंकर हुई ?"  महात्मा कौण्डिन्य ने मुस्कुराकर कहा ",माता इस सबका कारण तू ही है !तेरे यहाँ आने वाले विषय जन्य की लालसा वाले जीवों का चरित्र देखने से मेरे भगवत स्मरण में पवित्र आत्मनिष्ठा में शिथिलता हुई और नित्य अभ्यास से मेरे अंतकाल में तेरे चारित्र की मलिन वासना के बल का स्मरण रहने से मेरी यह गति हुई" यह सुन गणिका बोली,"महात्मन! मैं चाहे जैसी थी,चाहे जैसे बुरे कर्म वाली थी,कामना में लुब्ध थी, परंतु आपने मेरा चिंतन क्यों किया?" गणिका की यह बात सुन, वाल कौण्डिल्य बोले "री परम पावनि अम्बा ! यह केवल दृढ़ आसक्ति का कारण है,तेरे यहाँ अनेक पुरुष आते और कुमार्ग में प्रबृत्त होते हैं  इस बात का मुझे सिर्फ करुणा के कारण महा परिताप होता, प्रत्येक पुरुष को देख कर खेद करता था, उसके अंतिम फल के रूप में मरते समय भी मुझमे नित्य के अभ्यास से वही चिंता रह गयी और मेरी यह दशा हुई,यह एक जन्म मुझे व्यर्थ ही अधिक भोगना पड़ा,तेरे यहाँ आने वाले पुरुषों को देखकर ऐसा विचार होता था कि ये मूढमति श्री कृष्ण परमात्मा का स्मरण, चिंतवन, भजन, पूजन और सेवन छोड़कर नरक द्धार  में क्यों जाते हैं ?"
                         गणिका वाल कौण्डिन्य के ऐसे वचन सुनकर बोली,"महात्मा! आपने बहुत बुरा किया,मनुष्य देह घर,सब कर्मो का क्षय करने पर भी, मुझ पापिनी के उद्धार में आपने बुद्धि लगाई इससे आपको पुनः जन्म का  फेर फिरना पड़ा ,देव! अब आप यह देह भोगें इसके बिना दूसरा उपाय नहीं है ।
                         मैं पापिनी दुराचारिणी कौन हूँ इसके लिए मेरे पूर्व जन्म का वृतांत  सुने," मैं जनकपुर की एक स्वरुपवती दासी, वैश्या पिंगला की दासी थी और अपनी स्वामिनी के आनंद के लिए काम करती थी जब उस वैश्या ने इस असार संसार से मोह तोड़कर सिर्फ ब्रह्म का स्मरण किया तो उसमे भी मैं उसके साथ थी मैंने भी परमात्मा श्री कृष्णचन्द्र में अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया,परंतु अपने पूर्व जन्म के कर्मो को भोगे बिना ही मेरी मृत्यु होने से मुझे यह जन्म लेना पड़ा है और आपके  समान महात्मा के दर्शन से ही मेरी बुद्धि पवित्र हुई है मैं नित्य ही आपकी पर्णकुटी में आने वाले महात्माओं को देखकर आनंद से उनके दर्शन कर मन वचन से उनके दर्शन करती नमस्कार करती,मन में सदा उन्ही का ध्यान करती कि,अहो! कैसे समर्थ महात्मा है कि जिनके दर्शन मात्र से मेरे समस्त पाप जल कर क्षार हो रहे हैं हर पल मैं उन महात्मा का ही चिंतन करती और हे महात्मा! आज भी देखो उन्ही के ध्यान के प्रभाव से मेरी सारी वृतियां विराम को प्राप्त हुई हैं और मैं नित्य  शांति भोग रही हूँ आपके और मेरे पूर्व जन्म का जो ज्ञान प्राप्त हुआ है वह इस दर्शन स्मरण और कीर्तन का प्रताप है, मैं नित्य शुद्ध बुद्ध परमात्मा श्री कृष्ण चंद्र का स्मरण, अर्चन, पूजन और वंदन करती हूँ सिवा उसके मेरा किसी पर प्यार नहीं है यह जीव्हा उन्ही का रटन  किया करती है, ये कान उन्ही का गान सुनते हैं और ये नेत्र उनके दर्शन से ही पवित्र होते हैं, वही मेरे प्रेम के पात्र हैं ,वही मेरे ह्रदय के देवता हैं उन्ही में मैं एक स्वरुप(तदाकार) हूँ, जो उनके गुणों से विमुख है वही नरक में पड़ते हैं मैंने कोई भी काम ब्रह्म अर्पण के बिना आजन्म नहीं किया,नीति के किसी भी मार्ग का उलंघन नहीं किया,संत पुरुषों को छोड़ मैंने अन्य किसी का दर्शन नहीं किया किन्तु आप ब्रह्म रूप  होने पर भी इस मिथ्या वासना का सेवन कर यह गति भोग रहे हैं मैं अपने यहाँ आने वाले मूढमति गवारों से कहा करती कि  जिन्होंने श्री कृष्ण का सेवन नहीं किया उन्हें धिक्कार है और यही उपदेश मैंने अपने मृदंग को दिया जो यही उपदेश किया करता है और करेगा,ज्ञानी को झूठे पदार्थ से प्रेम होना ही उसके पतन का चिन्ह है, मोक्ष में रूकावट करने वाला है अब आप जगत में रहकर मनन, निदिध्यासन करें,इस असार संसार से तरने के लिए के ब्रह्म के ही प्रेम में मस्त रहें । मन वचन कर्म से अपने प्रिय इष्ट देव को भजें,स्मरण करें,पूजन करें,भक्ति से सेवें,उन्ही का रूप हो जाएँ ,बस इससे इस समस्त भवपाश से मुक्ति मिलेगी।"
                         गणिका के चुप हो जाने पर उन योगिंद्र वाल कौण्डिन्य ने कहा," मुक्ते ! यह सब नियंता का खेल है उसकी इच्छा के बिना कुछ नहीं होता,एक पत्ता भी नहीं हिलता, जन्म लेना , मृत्यु को प्राप्त होना इन सबका निमित्तरूप कारण है,इसलिए जीव को चाहिए की कर्तापन का अहंकार छोड़कर सारी वासना का त्याग करे इस जगत में सिर्फ ब्रह्मानंद का ही भोगने वाला जीव निर्भय है दूसरा नहीं ,ब्रह्मरूप में शिथिलता ही वासना है और वही पतन  का कारण है यह जानते हुए भी मैंने द्धैत की वासना की, इसी का यह  फल है यदि जीव को ब्रह्मनिष्ठा का साधन कष्ट कारक मालूम हो तो उसके लिए निरंतर शक्ति का सुलभ मार्ग यह है कि वह पूर्ण प्रेमी बन जाए, जो तन्मय है,  पूर्ण प्रेमी है,  प्रेम में एकाकार है उसे थोड़े ही समय में परमात्मा इस असार संसार सागर से पार कर लेते हैं ।
                        इस प्रकार श्री परमात्मा को याद करते हुए कौण्डिन्य मुनि एकाकार हो, दोनों भक्त ,अंत के जन्म का भोग, भोग चुकने पर परमधाम में जा वसे।
                        महात्मा बटुक ने अपने पिता और राजा वरेप्सु से कहा "इन्ही कारणों से मैं संसार बंधन में पड़ने का अभिलाषी नहीं होता और उससे दूर भगता हूँ । "




                                                                                                           शरणागत 
                                                                                                        नीलम सक्सेना  





  
  

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