वासना का नाश
"मैं धर्म को जानता हूँ किन्तु उसमे मेरी प्रवृति नहीं है ,मैं अधर्म को भी जनता हूँ परंतु उससे मेरी निवृति नहीं होती किन्तु ह्रदय में स्थित कोई देव मुझे जैसी प्रेरणा करता है वैसा मैं करता हूँ ।"
" भोग के समूह की वासना त्यागकर तू देह वासना भी छोड़,फिर भाव और अभाव त्यागकर संदेह रहित होकर सुखी हो "
महाराज ने बटुक जी से विनय की कि "गुरु महाराज! आज्ञा हो तो एक प्रार्थना करून आपके पिता जी आप पर अत्यंत पवित्र प्रेम करने वाले हैं इतना आग्रह तो भी जाने से क्यों इंकार करते हैं महापुरुष हैं और जल में रहने वाले कमल के समान अलिप्त हैं इससे संसार में फंसने का तो आपको जरा भी भय नहीं फिर आप घर जाकर संसार में रहने से क्यों इंकार करते हैं" यह सुनकर बटुक जी ने कहा राजा तू जो कहता है वह ठीक है परंतु संसार में वास करने से मन विषयों में फसता है और इससे मनुष्य बार-बार चौरासी के फेरे में पड़ता है ।
श्री कृष्ण ने उद्धव से उपदेश करते हुए कहा कि "वनं तु सात्विको वासः" वन का ही निवास सात्विक है, संसार का निवास नहीं ,एकांत में रहने से मन सब उपाधियों से मुक्त होता है किसी भी तरह की तृष्णा नहीं होती ऐसे इच्छा रहित मनुष्य मुक्ति पाने को समर्थ होता है संसार बंधन मुक्त होने की इच्छा रखने वाले मनुष्य को सब विषय वासनाओं का त्याग कर देना चाहिए यह संसार की सब वासनाओं का मूल है ।
राजन ! ब्रह्म भाव से उन्नत स्थिति पंहुचा हुआ ज्ञानी क्या मायिक पदार्थ की ओर दौड़ेगा ? ज्ञानरूप सूर्य के उदय होने रात्रि के तारारूप संसार सुख की कौन इच्छा करता है राजन यह संसार नृगजल के समान है जब तक जीव संसार को चाहता है और मृतवत देह को प्यार करता है तब तक वह क्लेशरहित नहीं होता और जन्म मरण तथा व्याधि का सेवन करने वाला मूढ़ पशु बना रहता है यह संसार केवल क्लेश की मूर्ती है,उसमें क्या ज्ञानी मनुष्य प्रेम होगा ? ब्रह्म भाव से च्युत (पतित) होना इसके शिव संसार में और क्या सुख है। संसार में जो सुख माना मनाया है,वह विषय सुख है परब्रह्म के अंशावतार ऋषभ देव अपने पुत्रों को उपदेश देते हुए कहते हैं कि संसार में सच्चे संतों की सेवा को मुक्ति का द्धार कहा गया है मेरा कथन पाप या कपटरहित अंतःकरण वाली पवित्र पतिव्रता स्त्रियों के लिए नहीं है परंतु ऐसी स्त्री करोङो भी मिलना दुर्लभ है स्त्री में विशेषकर 'माया'का अंश प्रधान होता है और उसमे जड़त्व अधिक होता है स्त्रियां अधिकतर संसार के अनुकूल और परमार्थ के प्रतिकूल होती हैं।
निजस्वरूप निष्ठ जीव को तो वह महाक्लेश कारिणी है एक कुटिल स्त्री की कथा सुनाता हूँ सुनो -एक नगर में एक संत महात्मा रहते थे उनके पास कई मुमुक्षु कथा सुनने आते थे वे एकाग्र होकर अत्यंत भावपूर्वक गुरु के मुख से कथा सुनते और फिर घर जाकर उसका मनन करते थे मनन किये बिना श्रवण करना ब्यर्थ है साधक जीव गुरु से जो सुने उसे अपने ह्रदय में मनन द्वारा अच्छे से बैठाये,एक समय कथा के मध्य में ऐसा आया कि ,"यह संसार निरा स्वार्थी है उसका प्रत्येक प्राणी अधिकतर स्वार्थ के लिए स्नेह करने वाला होता है" यह सुनकर एक श्रोता ने पूछा,"गुरु जी यह कैसे माना जाये? जगत में क्या निःस्वार्थ स्नेह है ही नहीं ?" पति -पत्नी, माता-पुत्र, भाई-भाई, मित्र-मित्र , स्वामी-सेवक आदि क्या स्वार्थी है?"तब वह संत बोला हाँ भाई ऐसा ही है निःस्वार्थ स्नेह तो संसार में कहीं ही होता है ,मनुष्य के सारे सम्बन्ध का मूल पति-पत्नी सम्बन्ध ही है जो गाढ़े और पवित्र स्नेह से जुड़ता है ।
कहीं पुरुष स्नेहपात्र और शुद्ध अंतःकरण का होता है तो स्त्री प्रपंची होती है और स्त्री शुद्ध अंतःकरण की हुई तो पुरुष वैसा नहीं होता है ,अपने ही सुख की इच्छा करने का नाम स्वार्थ है इस नियम से संसार स्वार्थी और प्रपंची है ।
यह सुनकर एक श्रोता को विश्वास नहीं हुआ क्योंकि उसकी पत्नी उसके प्रति निष्कपट स्नेह रखने वाली उसके लिए जान न्योछावर करने वाली,हर तरह से प्रसन्न रखने वाली प्रतीत होती थी वह स्त्री के सौन्दर्य में लीन था । गुरु वचन से उसके मन में चिंता उत्पन्न हुई एक और गुरु महाराज के वचन पर विश्वास और दूसरी और अपनी पत्नी का अपार स्नेह इन दोनों में कौन सत्य है पर उसने बहुत विचार कर देखा परंतु कोई बात निश्चित नहीं हो सकी ,उसने अपने मन की बात एक श्रोता से कही ,श्रोता ने कहा पगले तुझे गुरु महाराज के वचनों पर विश्वास नहीं ? अरे ये तो महापुरुष हैं इनकावचन असत्य हो ही नहीं सकता । यह संसार प्रपंची है ,यह बात कभी असत्य नहीं है और स्त्रियों का स्नेह तो ऊपर ही ऊपर समझ ,शुद्ध अंतःकरण और सच्चे स्नेह वाली स्त्री तो सती कहलाती है और ऐसी सती क्या हर जगह होती है ? तू नहीं मानता तो परीक्षा कर देख ।
गुरु के वचनों पर विश्वास कर अपनी पत्नी की परीक्षा लेने का निश्चय किया ,उसने एक युक्ति की , एक दिन वह बाहर से हाँपते हुए घर में आया और बोला मेरे पेट में बहुत पीड़ा हो रही है ऐसा कहकर धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ा उसकी स्त्री तुरंत उसके पास आयी प्रिय वचनों से शांत कर धीरज देने लगी और उसका इलाज देने लगी परंतु कुछ भी आराम नहीं हुआ रोगी हो तो निरोगी हो जाए परंतु ढोंगी को क्या हो ,कुछ दिनों ऐसा लगने लगा कि वह अब अंतिम अवस्था में पहुँच गया है स्त्री ने जान लिया कि वह अब बचने वाला नहीं है इससे उसको बड़ी चिंता हुई और वह अपने भविष्य के लिए विचार करने लगी पति की अस्वस्थ अवस्था देख सोचने लगी कि इनके बाद मेरा क्या होगा ऐसा विचार कर पति से पैसा जायदाद के बारे में पूछने लगी,कितनी और कहाँ है ? पति ने कोई जबाब नहीं दिया,स्त्री निराश होकर शोक करने लगी कि पति ने मेरे लिए कुछ नहीं किया ऐसा सोचकर पति को अनेक कठोर बचन कहने लगी क्रोध में आकर । वह सब अच्छी तरह से सुनता देखता जाता था ज्यों ज्यों समय बीतता उसकी हालात बिगड़ती जा रही थी लेकिन पत्नी ने जरा भी चिंता उसकी नहीं की कि इसे कितना दुःख है यह कैसे काम हो । पति की चिंता किये बिना भविष्य में मेरा क्या होगा इसकी चिंता करने लगी । वह स्नेह करने वाली परम प्रेमिका और एक निष्ठ पतिभक्त परायणा स्त्री बिल्कुल वेगरज (निःस्पृही) बनी रही वह केवल स्वार्थ का ही विचार करने लगी कि अब मेरा क्या होगा?
यह सब देखकर उस शिष्य ने विचार किया कि यह दुष्टा तो ऐसी है अगर मैं मर जाऊँ तो इस पर कोई असर नहीं होगा इसलिए अब सचेत होने की बड़ी जरूरत है । वाह ! वाह ! धन्य है गुरुदेव के वचन !महात्मा श्री शंकराचार्य जी के यह वचन अक्षरशः सत्य है कि "किसकी स्त्री? किसका पुत्र? यह संसार अत्यंत विचित्र है मैं इस स्त्री के असत्य और स्वार्थ भरे प्रेम से मोहित होकर सत्य नही मानता था परंतु अभी जाना है की इसका प्रेम कैसा शुद्ध और पवित्र है" शिष्य ने क्षण भर में प्राणायाम द्धारा धीरे-धीरे सांस खींचकर बंद मृतक के समान हो गया ,पत्नी घबराई और रोने लगी, मुझे इस हालात में देखकर यकायक सांसारिक कर्म रोने के लिए बल की जरूरत होती है पति की मृत्यु का दुःख भूलकर दरवाजा बंद कर जल्दी से दूध पी लिया ,जल्दी से कलेवा कर लिया और थोड़ा सा उठाकर रख दिया और जोर जोर से रोने लगी सभी इकट्ठे हो गए रोनेकी आवाज सुनकर और उसे शमशान ले जाने की तयारी करने लगे,सभी उसकी पत्नी को धैर्य देने लगे । यह सब वह शिष्य एकाग्र चित्त से सुन रहा था उससे यह मिथ्या विलाप सुना नहीं गया,तब वह शिष्य जमुहाई ले हरिनाम उच्चारण करते उठ बैठा यह देख सब बड़े बिस्मित हो शव में 'जी आया जी आया 'कहने लगा वह शिष्य बुद्धिमान और विचारशील था और शास्त्र में भी कहा है कि :--
"आयुष्य,धन,घर के चल छिद्र,मन्त्र,मैथुन,औषध,मान,और अपमान ये नव सावधानी से गुप्त रखने चाहिए" इससे अपनी स्त्री की हंसी न हो,इसका विचार कर बोला "प्रिय! अरे पतिवृता! अरे भूखी प्यासी अबला तू चुप रह !चुप रह तेरे अवर्णीय प्रेम से ही मुझमे चैतन्य आया है यह तेरे सत्य का प्रताप है स्त्री मिले जैसी सटी ही मिलनी चाहिए । "
यह मार्मिक वचन सुनकर वह स्त्री बिल्कुल ही ठंडी पड़ गयी वह न कुछ बोल सकी न ऊपर ही देख सकी सब लोग यह सुनकर धीरे धीरे चले गए सबके चले जाने पर वह शिष्य उठकर कमरे मे गया और एकांत में रखा हुआ कलेवा (हलुवा) लेकर उस स्त्री के आगे प्रेम से खाया और स्त्री से कहा तुम भी खाओ क्योकि तेरे सत्य के मालूम हुआ है कि इस संसार में सब स्वर्थी हैं उसी स्वार्थ की हूबहू मूर्ती तू मेरी ललित ललना है !धन्य है श्री गुरुदेव को! जिन्होनें कृपा कर मुझे आज यह रहस्य समझाया। धिक्कार है इस संसार को ! फिर खड़ा होकर बोला कि -
"पिया पिया सब कोई करें , गान तान में गाये
पाया जो अपना पिया ,वाके नैन वैन पल्टाए"
ऐसा बोलता हुआ उसी समय वहां से उठ अपने गुरुदेव के पास जा कपडे त्याग सिर्फ एक कौपीन पहन और सारे शरीर में भस्म मल ,एक तुम्बी और एक दंड लेकर उनके चरणों में जा पड़ा और उनके वचन की सत्यता के लिए वारम्वार प्रणाम करने लगा गुरु विस्मित होकर बोले"बच्चा यह क्या" उसने उत्तर दिया "वस अब तो यही;आपकी कृपा से संसार को जान लिया,अब तो इसी में आनंद है यह प्रपंच झूठा है ,कोई किसी का नहीं सब स्वार्थ के साथी हैं अब आप कृपा कर दीक्षा दीजिये " गुरु ने उसका सत्य निष्ठ भाव देख दीक्षा दी , माया से निबृत हो वह शिष्य , सबको प्रणाम कर वहाँ से चलता हुआ,चलते समय उसने एक पद के रूप में जगत के स्वार्थपन के लिए कहा :-
" सब मतलब के यार ,जगत में सब मतलब के यार
मात पिता भ्राता भगिनी सूत, सुता और निज नार ॥
निस्वार्थ कोई हरि के प्यारे ,जिनके ह्रदय उदार
जिनको पर उपकार सदा प्रिय,तीन पर मैं बलिहार ॥ "
यह वृतांत कहकर वामदेव जी ने कहा इसलिए ब्रह्मनिष्ठ जीव को,संसार का त्याग करना और वासना से अलग रहना चाहिए, वासना इस जीवात्मा को जहर से अधिक दुःखद है इसलिए संसार को मई पुनः नमस्कार करता हूँ ।
कहीं पुरुष स्नेहपात्र और शुद्ध अंतःकरण का होता है तो स्त्री प्रपंची होती है और स्त्री शुद्ध अंतःकरण की हुई तो पुरुष वैसा नहीं होता है ,अपने ही सुख की इच्छा करने का नाम स्वार्थ है इस नियम से संसार स्वार्थी और प्रपंची है ।
यह सुनकर एक श्रोता को विश्वास नहीं हुआ क्योंकि उसकी पत्नी उसके प्रति निष्कपट स्नेह रखने वाली उसके लिए जान न्योछावर करने वाली,हर तरह से प्रसन्न रखने वाली प्रतीत होती थी वह स्त्री के सौन्दर्य में लीन था । गुरु वचन से उसके मन में चिंता उत्पन्न हुई एक और गुरु महाराज के वचन पर विश्वास और दूसरी और अपनी पत्नी का अपार स्नेह इन दोनों में कौन सत्य है पर उसने बहुत विचार कर देखा परंतु कोई बात निश्चित नहीं हो सकी ,उसने अपने मन की बात एक श्रोता से कही ,श्रोता ने कहा पगले तुझे गुरु महाराज के वचनों पर विश्वास नहीं ? अरे ये तो महापुरुष हैं इनकावचन असत्य हो ही नहीं सकता । यह संसार प्रपंची है ,यह बात कभी असत्य नहीं है और स्त्रियों का स्नेह तो ऊपर ही ऊपर समझ ,शुद्ध अंतःकरण और सच्चे स्नेह वाली स्त्री तो सती कहलाती है और ऐसी सती क्या हर जगह होती है ? तू नहीं मानता तो परीक्षा कर देख ।
गुरु के वचनों पर विश्वास कर अपनी पत्नी की परीक्षा लेने का निश्चय किया ,उसने एक युक्ति की , एक दिन वह बाहर से हाँपते हुए घर में आया और बोला मेरे पेट में बहुत पीड़ा हो रही है ऐसा कहकर धड़ाम से जमीन पर गिर पड़ा उसकी स्त्री तुरंत उसके पास आयी प्रिय वचनों से शांत कर धीरज देने लगी और उसका इलाज देने लगी परंतु कुछ भी आराम नहीं हुआ रोगी हो तो निरोगी हो जाए परंतु ढोंगी को क्या हो ,कुछ दिनों ऐसा लगने लगा कि वह अब अंतिम अवस्था में पहुँच गया है स्त्री ने जान लिया कि वह अब बचने वाला नहीं है इससे उसको बड़ी चिंता हुई और वह अपने भविष्य के लिए विचार करने लगी पति की अस्वस्थ अवस्था देख सोचने लगी कि इनके बाद मेरा क्या होगा ऐसा विचार कर पति से पैसा जायदाद के बारे में पूछने लगी,कितनी और कहाँ है ? पति ने कोई जबाब नहीं दिया,स्त्री निराश होकर शोक करने लगी कि पति ने मेरे लिए कुछ नहीं किया ऐसा सोचकर पति को अनेक कठोर बचन कहने लगी क्रोध में आकर । वह सब अच्छी तरह से सुनता देखता जाता था ज्यों ज्यों समय बीतता उसकी हालात बिगड़ती जा रही थी लेकिन पत्नी ने जरा भी चिंता उसकी नहीं की कि इसे कितना दुःख है यह कैसे काम हो । पति की चिंता किये बिना भविष्य में मेरा क्या होगा इसकी चिंता करने लगी । वह स्नेह करने वाली परम प्रेमिका और एक निष्ठ पतिभक्त परायणा स्त्री बिल्कुल वेगरज (निःस्पृही) बनी रही वह केवल स्वार्थ का ही विचार करने लगी कि अब मेरा क्या होगा?
यह सब देखकर उस शिष्य ने विचार किया कि यह दुष्टा तो ऐसी है अगर मैं मर जाऊँ तो इस पर कोई असर नहीं होगा इसलिए अब सचेत होने की बड़ी जरूरत है । वाह ! वाह ! धन्य है गुरुदेव के वचन !महात्मा श्री शंकराचार्य जी के यह वचन अक्षरशः सत्य है कि "किसकी स्त्री? किसका पुत्र? यह संसार अत्यंत विचित्र है मैं इस स्त्री के असत्य और स्वार्थ भरे प्रेम से मोहित होकर सत्य नही मानता था परंतु अभी जाना है की इसका प्रेम कैसा शुद्ध और पवित्र है" शिष्य ने क्षण भर में प्राणायाम द्धारा धीरे-धीरे सांस खींचकर बंद मृतक के समान हो गया ,पत्नी घबराई और रोने लगी, मुझे इस हालात में देखकर यकायक सांसारिक कर्म रोने के लिए बल की जरूरत होती है पति की मृत्यु का दुःख भूलकर दरवाजा बंद कर जल्दी से दूध पी लिया ,जल्दी से कलेवा कर लिया और थोड़ा सा उठाकर रख दिया और जोर जोर से रोने लगी सभी इकट्ठे हो गए रोनेकी आवाज सुनकर और उसे शमशान ले जाने की तयारी करने लगे,सभी उसकी पत्नी को धैर्य देने लगे । यह सब वह शिष्य एकाग्र चित्त से सुन रहा था उससे यह मिथ्या विलाप सुना नहीं गया,तब वह शिष्य जमुहाई ले हरिनाम उच्चारण करते उठ बैठा यह देख सब बड़े बिस्मित हो शव में 'जी आया जी आया 'कहने लगा वह शिष्य बुद्धिमान और विचारशील था और शास्त्र में भी कहा है कि :--
"आयुष्य,धन,घर के चल छिद्र,मन्त्र,मैथुन,औषध,मान,और अपमान ये नव सावधानी से गुप्त रखने चाहिए" इससे अपनी स्त्री की हंसी न हो,इसका विचार कर बोला "प्रिय! अरे पतिवृता! अरे भूखी प्यासी अबला तू चुप रह !चुप रह तेरे अवर्णीय प्रेम से ही मुझमे चैतन्य आया है यह तेरे सत्य का प्रताप है स्त्री मिले जैसी सटी ही मिलनी चाहिए । "
यह मार्मिक वचन सुनकर वह स्त्री बिल्कुल ही ठंडी पड़ गयी वह न कुछ बोल सकी न ऊपर ही देख सकी सब लोग यह सुनकर धीरे धीरे चले गए सबके चले जाने पर वह शिष्य उठकर कमरे मे गया और एकांत में रखा हुआ कलेवा (हलुवा) लेकर उस स्त्री के आगे प्रेम से खाया और स्त्री से कहा तुम भी खाओ क्योकि तेरे सत्य के मालूम हुआ है कि इस संसार में सब स्वर्थी हैं उसी स्वार्थ की हूबहू मूर्ती तू मेरी ललित ललना है !धन्य है श्री गुरुदेव को! जिन्होनें कृपा कर मुझे आज यह रहस्य समझाया। धिक्कार है इस संसार को ! फिर खड़ा होकर बोला कि -
"पिया पिया सब कोई करें , गान तान में गाये
पाया जो अपना पिया ,वाके नैन वैन पल्टाए"
ऐसा बोलता हुआ उसी समय वहां से उठ अपने गुरुदेव के पास जा कपडे त्याग सिर्फ एक कौपीन पहन और सारे शरीर में भस्म मल ,एक तुम्बी और एक दंड लेकर उनके चरणों में जा पड़ा और उनके वचन की सत्यता के लिए वारम्वार प्रणाम करने लगा गुरु विस्मित होकर बोले"बच्चा यह क्या" उसने उत्तर दिया "वस अब तो यही;आपकी कृपा से संसार को जान लिया,अब तो इसी में आनंद है यह प्रपंच झूठा है ,कोई किसी का नहीं सब स्वार्थ के साथी हैं अब आप कृपा कर दीक्षा दीजिये " गुरु ने उसका सत्य निष्ठ भाव देख दीक्षा दी , माया से निबृत हो वह शिष्य , सबको प्रणाम कर वहाँ से चलता हुआ,चलते समय उसने एक पद के रूप में जगत के स्वार्थपन के लिए कहा :-
" सब मतलब के यार ,जगत में सब मतलब के यार
मात पिता भ्राता भगिनी सूत, सुता और निज नार ॥
निस्वार्थ कोई हरि के प्यारे ,जिनके ह्रदय उदार
जिनको पर उपकार सदा प्रिय,तीन पर मैं बलिहार ॥ "
यह वृतांत कहकर वामदेव जी ने कहा इसलिए ब्रह्मनिष्ठ जीव को,संसार का त्याग करना और वासना से अलग रहना चाहिए, वासना इस जीवात्मा को जहर से अधिक दुःखद है इसलिए संसार को मई पुनः नमस्कार करता हूँ ।
शरणागत
नीलम सक्सेना
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