हरि भजन का अवसर कब?
तेजस्वी वाल महात्मा अपनी पूज्य मातु श्री के चरण दावते हुए अनेक मधुर वचनों उनको प्रसन्न कर रहे थे,महाराजा वरेप्सु बटुक जी के पिता के चरण चापते थे माता पिता के सो जाने पर "जिज्ञासु जीव"बटुक जी से प्रश्न करने लगा तभी राजा वरेप्सु ने बीच में ही हाथ जोड़कर कहा कि हम लोगों ने गुरु महाराज को बहुत ही परिश्रम दिया है इसलिए आज उन्हें सुख से सोने दो । बटुक जी वामदेव जी से बोले " मुझे किसी बात का परिश्रम नहीं है,जल का स्वाभाव ही वहने का है इसलिए वह रात दिन वहा ही करता है उसमे उसे क्या परिश्रम है? इसी तरह भगवत चर्चा करना इस शरीर का स्वाभाविक कर्म होने से उसमे मुझे क्या परिश्रम? कर्तव्य ही यही है कि देह को निरंतर चर्चा रूप परमार्थ में लगाऊँ , फिर सब मनुष्य प्राणी का भी कर्तव्य यही है कि सब कार्य छोड़कर भगवत स्मरणादि कार्य पहले करें। महापुरुषों ने कहा है :-
सौ काम छोड़कर भी दान करने का अवसर आवे तो उस समय दान करना चाहिए, समय पर हज़ार काम छोड़कर स्नान करना चाहिए, भूख लगने पर तो लाख काम छोड़कर भोजन करना चाहिए और ईश्वर का स्मरण करोङो छोड़कर भी करना चाहि, क्योकि इस क्षण भंगुर शरीर का कुछ भी भरोसा नहीं है मनुष्य देह तो मात्र भगवत प्राप्ति के लिए ही बना हुआ है इसलिए चौरासी लाख जीव देहों से मनुष्य देह श्रेष्ठ कहा गया है यह मनुष्य देह अपार दुःख और परिश्रम के बाद भगवत्कृपा से एक बार प्राप्त होता है उसका मूल्य न जानकर जो मनुष्य यों ही गँवा देता है वह अंत में खूब पछताता है ", वैश्य की कथा सुनाता हूँ सुनो :-
वामदेव ने कहा योगी अनेक तरह के होते हैं जो ध्यानपरायण हो वह ध्यान योगी, जो ज्ञान परायण है वो ज्ञान योगी है। जिसका मैं इतिहास कहता हूँ वह महात्मा ज्ञानयोगी था वह स्वेच्छानुसार सर्वत्र विचरता और भवसागर में डूबे हुए लोगो को ज्ञानमार्ग की उपदेशरूप नौका में विठाकर उद्धार करता था एक दिन भिक्षा मांगने के लिए वह एक नगर में गया वहाँ एक मुहल्ले में पहुँचा उस मुहल्ले में एक धनाढ्य वैश्य रहता था उसने महात्मा को देखते ही बड़े आदर से प्रणाम किया के लिए आग्रह किया उस महात्मा ने उनके यहाँ भोजन किया और जाने पर विचार किया कि वणिक के अन्न से जिस देह का पोषण हुआ है उस देह से अपना से अपना धर्म भलीभाँति पालन कर ऋण मुक्त होना चाहिए ,बटुक जी ने कहा," ऐसे महात्माजन अनेक उपायों से जगत का सही कल्याण करते हैं ।
महात्मा ने उसी समय सेठ का बदला चुकाने का निश्चय किया,फिर सेठ के समीप जाकर कहा,"वणिक!पंचतत्व से बने हुए इस शरीर को अन्न खिलाकर तूने तृप्त किया है इसलिए तेरे हित की दो बातें तुझसे कहता हूँ उन्हें क्या तू सुनेगा ,वैश्य सोचने लगा कि योगी सन्यासी और क्या कहेंगे कि संसार की आसक्ति त्याग दो और हरि को भजो, परंतु यह कैसे हो सकता है? इतना बड़ा व्यापर कैसे छोड़ दूं? यह तो तब हो जब समय आवे,मुझे अपने अपने काम के झंझट में भोजन करने का अवकाश तक नहीं मिलता,तो मैं हरि भजन को कैसे निष्काम बनूँ? ऐसा विचारकर उसने महात्मा को उत्तर सिया,"योगिराज! आप जो कहना चाहते हैं मैं जानता हूँ वह मेरे हित की बात है परंतु अभी मैं बहुत से कामों में फँसा हूँआप फिर कभी आकर मुझे कृतार्थ करेंगे ! वैश्य का ऐसा उत्तर सुन कर वह महात्मा हरि स्मरण करते हुए वहाँ से विदा हुए ।
इस बात को बहुत दिन बीत गए वह योगिराज घुमते हुए फिर से वहाँ आये और वणिक से बोले कि तूने मुझसे पहले कहा था कि महाराज आना किसी दूसरे समय आना, इसलिए मैं आया हूँ ,क्या तू दो घड़ा स्थिर चित्त करके ईश्वर संबंधी दो शब्द सुनेगा ! वैश्य बोला," क्या करूँ महाराज ! आज तो मुझे जरा सा भी अवकाश नहीं है,आप कल या परसों पधारना " वह चला गया वह योगी फिर आया तब वणिक बोला "आज तो महाराज! बहुत काम में फँसा हूँ ,इसलिए आप कल पधारना कल मैं आपकी बात अवश्य सुनूंगा।"
कल कल करते हुए बहुत दिन बीत गए लेकिन उस वैश्य को अवकाश नहीं मिला लेकिन महात्मा बार-बार चक्कर लगाता ही रहा,एक दिन महात्मा फिर से घुमते हुए उसके यहाँ गए,देखा तो अफ़सोस! जिस वणिक को क्षन भर भी काम से अवकाश नहीं मिलता था आज वह सब काम छोड़कर बिछौने पर पड़ा हुआ है,उसके शरीर को भयंकर रोग ने घेर लिया है उसके कष्ट का वर्णन नहीं हो सकता, ऐसी दशा देख,योगिराज बोला,"क्यों भाई,आज तुझे अवकाश है? आज निठल्ला है? आज तो काम नहीं है? काम छोड़कर आज तू इस तरह निश्चिन्त बिस्तर पर क्यों पड़ा है? आज तेरा यह काम कौन करता है? मुझे आश्चर्य होता है कि तुझे आज अवकाश कैसे मिला?" ऐसे मर्मपूर्ण वचन सुनकर दुःख में डूबा हुआ वह बैश्य बोला ,"महाराज, देव. महात्मा, प्रभु, अब तो मैं काल के गाल में पड़ा हुआ हूँ अब मैं क्या करूँ?अरे अपने कामों को कैसे सभालूँ? अरे मुझे धिक्कार है, आप जैसे महात्मा का, केवल मेरे ही मंगल के लिए किया हुआ परिश्रम मैंने जरा भी नहीं गिना,मैंने कल कल करके आपको अनेक चक्कर खिलाये तो भी इस पापी जीव ने इन कानों से आपके अमृतमय उपदेश नहीं सुने, योगिराज मैं इस भयंकर काल के पाश में फंस गया हूँ कल कल करते हुए मेरा कल पूरा नहीं हुआ परंतु यह काल आ पहुंचा संसार सुख में मगन रहने वाला आज मैं दुःख के रगड़े खा रहा हूँ ,मैंने पल भर भी हरिस्मरण नहीं किया। मेरे समान अभागी कौन होगा जिसने घर में आयी हुई गंगा स्नान का लाभ नहीं लिया? अरे! अंजलि में आये हुए अमृत को बिना पिए बह जाने दिया,हाय! अब मुझे महसूस होता है कि संसार में तो कभी भी अवकाश मिल ही नहीं सकता, हे देव! अब आप मुझर तारो,और उबारो मुझे इस संसार सागर के विषयजन्य सुख से छुड़ाओ। "
इतना कहकर वह रो पड़ा और नेत्रों से अश्रुओं की धारा बहाते हुए योगिराज से विनय कर क्षमा मांगी तथा निवेदन किया कि,"कृपानाथ! मुझपर दया करो ,मैं पापी हूँ, मैं महामूढ़ हूँ, देव! आपकी शरण में हूँ इसलिए जैसे बने मुझे तारो" करुणा स्वर- गदगद स्वर से बोलते हुए उस वैश्य को देख और उसकी ऐसी दयापूर्ण स्तिथि अवलोकन कर तथा उसका अन्तःकरण संसार कार्य से विरक्त हुआ जान, योगी ने उसे तुरंत भगवत शरण का ब्रह्मोपदेश देकर कृतार्थ किया फिर उसे आशीर्वाद देकर वहां से चला गया। अंतकाल वाले ब्रह्मोपदेश के द्वारा मुँह से प्राण त्यागकर,वह वैश्य अंत में ईश्वर की आराधना करके परम गति को प्राप्त हुआ।
कल कल करते हुए बहुत दिन बीत गए लेकिन उस वैश्य को अवकाश नहीं मिला लेकिन महात्मा बार-बार चक्कर लगाता ही रहा,एक दिन महात्मा फिर से घुमते हुए उसके यहाँ गए,देखा तो अफ़सोस! जिस वणिक को क्षन भर भी काम से अवकाश नहीं मिलता था आज वह सब काम छोड़कर बिछौने पर पड़ा हुआ है,उसके शरीर को भयंकर रोग ने घेर लिया है उसके कष्ट का वर्णन नहीं हो सकता, ऐसी दशा देख,योगिराज बोला,"क्यों भाई,आज तुझे अवकाश है? आज निठल्ला है? आज तो काम नहीं है? काम छोड़कर आज तू इस तरह निश्चिन्त बिस्तर पर क्यों पड़ा है? आज तेरा यह काम कौन करता है? मुझे आश्चर्य होता है कि तुझे आज अवकाश कैसे मिला?" ऐसे मर्मपूर्ण वचन सुनकर दुःख में डूबा हुआ वह बैश्य बोला ,"महाराज, देव. महात्मा, प्रभु, अब तो मैं काल के गाल में पड़ा हुआ हूँ अब मैं क्या करूँ?अरे अपने कामों को कैसे सभालूँ? अरे मुझे धिक्कार है, आप जैसे महात्मा का, केवल मेरे ही मंगल के लिए किया हुआ परिश्रम मैंने जरा भी नहीं गिना,मैंने कल कल करके आपको अनेक चक्कर खिलाये तो भी इस पापी जीव ने इन कानों से आपके अमृतमय उपदेश नहीं सुने, योगिराज मैं इस भयंकर काल के पाश में फंस गया हूँ कल कल करते हुए मेरा कल पूरा नहीं हुआ परंतु यह काल आ पहुंचा संसार सुख में मगन रहने वाला आज मैं दुःख के रगड़े खा रहा हूँ ,मैंने पल भर भी हरिस्मरण नहीं किया। मेरे समान अभागी कौन होगा जिसने घर में आयी हुई गंगा स्नान का लाभ नहीं लिया? अरे! अंजलि में आये हुए अमृत को बिना पिए बह जाने दिया,हाय! अब मुझे महसूस होता है कि संसार में तो कभी भी अवकाश मिल ही नहीं सकता, हे देव! अब आप मुझर तारो,और उबारो मुझे इस संसार सागर के विषयजन्य सुख से छुड़ाओ। "
इतना कहकर वह रो पड़ा और नेत्रों से अश्रुओं की धारा बहाते हुए योगिराज से विनय कर क्षमा मांगी तथा निवेदन किया कि,"कृपानाथ! मुझपर दया करो ,मैं पापी हूँ, मैं महामूढ़ हूँ, देव! आपकी शरण में हूँ इसलिए जैसे बने मुझे तारो" करुणा स्वर- गदगद स्वर से बोलते हुए उस वैश्य को देख और उसकी ऐसी दयापूर्ण स्तिथि अवलोकन कर तथा उसका अन्तःकरण संसार कार्य से विरक्त हुआ जान, योगी ने उसे तुरंत भगवत शरण का ब्रह्मोपदेश देकर कृतार्थ किया फिर उसे आशीर्वाद देकर वहां से चला गया। अंतकाल वाले ब्रह्मोपदेश के द्वारा मुँह से प्राण त्यागकर,वह वैश्य अंत में ईश्वर की आराधना करके परम गति को प्राप्त हुआ।
शरणागत
नीलम सक्सेना
नीलम सक्सेना
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