संसार दुर्ग
" जैसे आकाश में उड़ने के लिए पक्षियों को दो पंखों की जरूरत होती है वैसे ही संसार इच्छा रखने वाले को ज्ञान और कर्म परमात्मा संबंधी विचार और संसार विचार इन दोनों की आवश्यकता है। "
बटुक वामदेव जी के मुँह से यह बात सुनकर उनके पिता ने कहा"प्रिय पुत्र! यह बात सत्य है परंतु सबको संसार का त्याग करने की आवश्यकता नहीं है संसार को भोगने के बाद, दृढ विराग द्दारा जो त्याग हो वही सतत वैराग्य समझो,इसलिए मेरा विचार यह है कि संसार चाहे जैसा हो ,तथापि पहले उसका अनुभव कर उस पर जब स्वाभाविक अप्रीति हो तभी उसे तजना चाहिए,शास्त्रो ने भी गृहस्थाश्रम भोगना प्रत्येक मनुष्य का आवश्यक धर्म माना है गृहस्थाश्रम का पूर्ण अनुभव कर उससे धीरे धीरे प्रीती तोड़ने के लिए वानप्रस्थ अवस्था निर्माण की गयी है और यह अवस्था पालन करते हुए जब संसार आप ही आप अरुचिकर लगे तभी सन्यस्त ग्रहण करने के लिए मनुष्य को अधिकार होता है इस तरह विधिवत ग्रहण किया हुआ त्याग वैराग्य विचलित नहीं होता है यदि संसारी विधिपूर्वक संसार कासेवन करे तो त्याग की अपेक्षा शीघ्र तर जाता है, मैं एक राजा का संक्षिप्त इतिहास सुनाता हूँ उसे तू सुन !"
प्रापंचक नगर में शांतिप्रिय नाम का राजा था वह अपने नाम के अनुसार परम सुशील और धर्मपालक था वह राजा स्वभाव का शांत था इसी कारण शत्रु उस पर वारंवार चढ़ाई करते और क्रुद्ध होकर बहुत पीड़ित करते थे ,एक साधारण सा नियम है कि संसार में जो बलवान होता है वही निर्बल को वश में करता है और अपने से कोई बलवान मिले तो उसके अधीन हो जाता है परंतु ऐसा सामना करने वाला बलवान मिलना कठिन था। शांतिप्रिय ऐसा बलवान नहीं था रक्षा का कोई उपाय न होने से वह बहुत घबराया और इस मुक्त होने के लिए,शत्रुओं के अधीन होने के सिवा कोई उपाय नहीं सूझा, शांतिप्रिय को इस तरह अधीन होने पर भी प्राण और प्रतिष्ठा की रक्षा का का कोई उपाय न था सोचकर शांतिप्रिय बहुत घबराया आँखों से आंसू छलक आये।
शांतिप्रिय के मंत्रियों में चिततवीर्य नाम का मंत्री बद्धिमान और प्रपंच कुशल था,उसने राजा की महाविपत्तिपूर्ण दशा देख ,उसे धीरज दे शांत रखा और तुरंत ही एक रामवाण ( अचूक ) उपाय बतलाया वह बोला"महाराजाधिराज ! आप घबराते क्यों हैं ? आप महान पुरुषों के वंशधर हैं आपके पूर्वज महाप्रतापी थे उन्होंने अपने वंश की रक्षा के लिए अनेक साधन कर रखे हैं आपको अभी कोई नया प्रबंध करना नहीं है आपके नगर से तीन कोस दूर वह प्रपंच दुर्ग है क्या आप उसे नहीं जानते हैं ? इसलिए चिंता तजकर आप उसमे शीघ्र आश्रय ले। "
यह सुन राजा बोला,"प्यारे चित्तवीर्य!यह तो मैं भी जानता हूँ परंतु पहले से उसका आश्रय लिया होता तो काम का था,शत्रुओं ने तो उसे चारों ओर घेर लिया है अब वहां कैसे जा सकेंगे दुर्ग का द्वार बहुत दिनों से बंद होने के कारण उसमे सुरक्षित रूप से प्रवेश कैसे हो सकता है यह काम मुझे बिलकुल अशक्य लगता है। प्रधान बोला, "महाराज! चिंता न करें यह सेवक उसका सब उपाय जानता है चलिए तैयार हो जाइये तथा प्रजा को उसमे प्रवेश करने की आज्ञा दीजिये । "
राजा तुरंत ही प्रजा और चतुरंग सेना को लेकर और सारे नगर को लेकर दुर्ग में गया और तुरंत ही वह द्वार बंद कर लिया शत्रु ने जब यह बात सुनी तो बड़े विचार में पड़ गया और सोचने लगा कि राजा न जाने किस तरह भाग कर दुर्ग में चला गया, वे भी नगर को छोड़कर दुर्ग के पास आये,परंतु वहां तो एक नयी गाथा देखने में आयी । प्रपंच दुर्ग एक पर्वत के शिखर पर स्थित था वह बड़ी-बड़ी खाइयों ,शिखरों से घिरा हुआ अत्यंत दुर्गम पर्वत का किला था सात किलों से सुरक्षित रहने वाले प्रपंच दुर्ग को देखकर शत्रु सन्न रह गए उन्होंने अपनी अपार सेना के साथ चारों ओर से किला तोड़ने की बहुत कोशिश की परंतु समर्थ नहीं हो सके उन्होंने हारकर चले जाने का निश्चय किया परंतु शांति प्रिय का चतुर प्रधान चित्तवीर्य दुर्ग के ऊपर से अस्त्रों की ऐसी मर करने लगा जिससे भयभीत होकर शत्रु इधर-उधर भागने लगे जब शत्रुओं ने बचने का कोई उपाय नहीं दिखा तो, हम सब आपकी शरण में हैं हमारी रक्षा कीजिये ऐसा कहने लगे ,यह देख शांतिप्रिय बहुत प्रसन्न हुआ और निष्कंटक राज्य करने लगा ।
बटुक मुनि के पिता ने कहा,"पुत्र! मनुष्य शांतिप्रिय राजा के समान स्वाभाव का है वह यदि संसार का अनुभव न कर उसका त्याग करे तो अत्यंत निर्दय काम क्रोध आदि छः शत्रु उसे घेर लें इन सब अग्रणी है काम रुपी शत्रु के घेरते ही मनुष्य उसके वश में हो जाता है,प्राणी शुद्ध चित्त रूप प्रधान ,सुमार्ग बतला कर ,प्रपंच रूप (संसार गृहस्थ आश्रम रूप) दुर्ग का आश्रय कराता है ।
इस संसार दुर्ग में सात आवरण हैं,शांति ,संयम ,विवेक ,भक्ति ,श्रद्धा, ज्ञान और वैराग्य ऐसे आवरणों के किले में रहने वाले प्राणी को जब शुद्ध चित्त रूप प्रधान की सहायता हो तो संसार के काम,क्रोध,लोभ,मोह,मद,मत्सर आदि घातकी शत्रु भी कुछ नहीं कर सकते परंतु वे उसके अधीन हो जाते हैं अर्थात शुद्ध चित्त वाला विवेकी मनुष्य संसार में रहकर भी काम,क्रोध को जीत लेता है परंतु त्यागी इसमें से कुछ नहीं हो सकता, त्यागी निराधार और असहाय है इसलिए काम ,क्रोध आदि शत्रु एकदम वश कर लेते हैं अंत में उसके त्याग का विनाश हो जाता है इन सबसे बचने के लिए विवेकी वीर को जैसे परमार्थ करना योग्य है ,वैसे ही प्रपंच साधन भी जरूर जानना चाहिए ।
राजा तुरंत ही प्रजा और चतुरंग सेना को लेकर और सारे नगर को लेकर दुर्ग में गया और तुरंत ही वह द्वार बंद कर लिया शत्रु ने जब यह बात सुनी तो बड़े विचार में पड़ गया और सोचने लगा कि राजा न जाने किस तरह भाग कर दुर्ग में चला गया, वे भी नगर को छोड़कर दुर्ग के पास आये,परंतु वहां तो एक नयी गाथा देखने में आयी । प्रपंच दुर्ग एक पर्वत के शिखर पर स्थित था वह बड़ी-बड़ी खाइयों ,शिखरों से घिरा हुआ अत्यंत दुर्गम पर्वत का किला था सात किलों से सुरक्षित रहने वाले प्रपंच दुर्ग को देखकर शत्रु सन्न रह गए उन्होंने अपनी अपार सेना के साथ चारों ओर से किला तोड़ने की बहुत कोशिश की परंतु समर्थ नहीं हो सके उन्होंने हारकर चले जाने का निश्चय किया परंतु शांति प्रिय का चतुर प्रधान चित्तवीर्य दुर्ग के ऊपर से अस्त्रों की ऐसी मर करने लगा जिससे भयभीत होकर शत्रु इधर-उधर भागने लगे जब शत्रुओं ने बचने का कोई उपाय नहीं दिखा तो, हम सब आपकी शरण में हैं हमारी रक्षा कीजिये ऐसा कहने लगे ,यह देख शांतिप्रिय बहुत प्रसन्न हुआ और निष्कंटक राज्य करने लगा ।
बटुक मुनि के पिता ने कहा,"पुत्र! मनुष्य शांतिप्रिय राजा के समान स्वाभाव का है वह यदि संसार का अनुभव न कर उसका त्याग करे तो अत्यंत निर्दय काम क्रोध आदि छः शत्रु उसे घेर लें इन सब अग्रणी है काम रुपी शत्रु के घेरते ही मनुष्य उसके वश में हो जाता है,प्राणी शुद्ध चित्त रूप प्रधान ,सुमार्ग बतला कर ,प्रपंच रूप (संसार गृहस्थ आश्रम रूप) दुर्ग का आश्रय कराता है ।
इस संसार दुर्ग में सात आवरण हैं,शांति ,संयम ,विवेक ,भक्ति ,श्रद्धा, ज्ञान और वैराग्य ऐसे आवरणों के किले में रहने वाले प्राणी को जब शुद्ध चित्त रूप प्रधान की सहायता हो तो संसार के काम,क्रोध,लोभ,मोह,मद,मत्सर आदि घातकी शत्रु भी कुछ नहीं कर सकते परंतु वे उसके अधीन हो जाते हैं अर्थात शुद्ध चित्त वाला विवेकी मनुष्य संसार में रहकर भी काम,क्रोध को जीत लेता है परंतु त्यागी इसमें से कुछ नहीं हो सकता, त्यागी निराधार और असहाय है इसलिए काम ,क्रोध आदि शत्रु एकदम वश कर लेते हैं अंत में उसके त्याग का विनाश हो जाता है इन सबसे बचने के लिए विवेकी वीर को जैसे परमार्थ करना योग्य है ,वैसे ही प्रपंच साधन भी जरूर जानना चाहिए ।
शरणागत
नीलम सक्सेना
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