Friday, 3 February 2017

ऋणानुबंध

ऋणानुबंध 

                    मोहजित की स्त्री बोली "योगिराज" संसार मे पैदा हुए प्राणी को सारे जीवन मे निर्वाहदिक व्यव्हार के लिए दूसरे अनेक जीवो से सम्बन्ध करना पड़ता है ऋण अर्थात लेनदेन से जो बंधन होता है वही ऋणानुबंध है ,जैसे आप मेरे काम के लिए किसी तरह का परिश्रम करे और मैं उसका बदला न दूँ तो मेरे ऊपर आपका ऋण रहे उसका बदला ईश्वरी सत्ता मुझसे इस शरीर से नहीं तो दूसरे शरीर से अवश्य दिलाती है ऋण चुकाने के लिए प्राणियों को अनेक जन्म लेकर उसके निमित्त अनेक सुख दुःख उठाने पड़ते है और ऋण पूरा हुआ कि तुरन्त संसारी जीव अपने -२ रास्ते लगते है अपार विस्तार वाले इस विश्व मे ईश्वरी सत्ता ,यह कार्य ऐसी विचित्र रीति से पूर्ण करती है कि उसका पार कोई नहीं पा सकता और उसमे जरा भी भूल नहीं होती और उसमे किसी भी तरह का पक्षपात - अन्याय नहीं होने देती। मेरे परमपूज्य स्वामी ने मुझसे अनेक इतिहास कहे है उनमे से कुछ मैं आपको सुनाती हूँ।
           योगिराज ! संसार मे पैदा हुए प्राणी को सारे जीवन मे निर्वाहदिक व्यव्हार के लिए अनेक जीवो से सम्बन्ध करना पड़ता है । यह लाइने दुबारा लिख गई है गलती से क्षमा करे।
          प्राचीन काल मे पांचालपुर मे कर्म लब्ध नाम का एक महात्मा - ब्राह्मण रहता था वह नित्य स्नान , संध्या , भगवत्सेवा आदि सत्कर्मो मे प्रेम लगाए रहता था और उसी मे परम सुखी था जो कुछ अनायास मिल जाये उसी मे संतुष्ट रहता और किसी से कुछ मांगता नहीं था उसकी स्त्री भी परम सुशीला और पवित्रता थी । वह नित्य स्वामी की सेवा मे ही लगी रहती थी । योगिराज आप जानते ही है कि अनन्य भाव से भगवत चिंतन करने वाले के सारे व्यव्हार का बोझ प्रभु के ऊपर रहता है
      "श्री कृष्ण परमात्मा ने स्वयं कहा है"
 जो अनन्य भाव से मेरी नित्य उपासना करता है उनका योगक्षेम मैं स्वयं चलाया करता हूँ ।
भगवत सेवा करने वाले कर्मलब्ध मुनि का पवित्र गृहस्थ धर्म मे पालन करते हुए बहुत समय बीत गया । उनकी धर्मपरायण पत्नी ने रत्न के समान सुन्दर पुत्र को जन्म दिया । उतरती अवस्था मे पुत्र को पाकर वह दोनों परम आनंद से दिन बिताने लगे। कर्मलब्ध ज्योतिषशास्त्र भली भाँति जानता था । इससे पुत्र का भविष्य जानने के लिए वह जन्मपत्री बनाने लगा। पुत्र के गृह एक से एक अच्छे स्थानों मे पड़े , विघा भवन ,भाग्य भवन बहुत ऊँची स्थिति मे जानकर वह बहुत आनन्दित हुआ । उसने सोचा कि सबसे पहले आयुष्य का निर्णय करना  चाहिए क्योकि यदि आयु न हो तो ऊँचे गृह और ऊँचा भाग्य किस काम का ? इसका निर्णय करने के लिए जब उसने गणित लगाना आरम्भ किया तो उसका हाथ यकायक रुक गया और हृदय जोरो से धड़कने लगा । उसने देखा कि ऐसा बड़ा भाग्यशाली पुत्र अल्पायु है सोचने लगा गणित करने मे कोई गलती न हो गई हो । दुबारा गणित को फिर शोधा , शोधने पर मालूम हुआ कि मेरा और इस पुत्र का सम्बन्ध सिर्फ धन सम्बन्ध है बहुत साधन कमाकर मुझे देगा और फिर अपने रास्ते लगेगा ! ईश्वर इच्छा , जो होना होगा वह अवश्य ही होगा ।
          ज्ञानी होने से कर्मलब्ध ने अपने मन को रोका परन्तु उदास मुख देखकर पत्नि ने पूछा " कृपानाथ " आज आप बहुत उदास दीखते है क्या कोई दुःख की बात है यदि है तो आप मुझे अपनी सहचारिणी को बताकर अपना दुःख हल्का करे स्त्री के ऐसे विनीत वचन सुनकर ब्राह्मण ने कहा पतिव्रता यह सारा संसार ही दुःख रूप है इसलिए भविष्य के दुःख को या अभी के दुःख को क्या पूछना जिस समय जो बने वह देखो और भोगो सतधर्म शालिनी अभी तुझसे कहने की कोई जरूरत नहीं है समय आने पर मैं स्वयं ही तुझसे कहूँगा ।
      बालक बुद्धि का तीव्र और बड़ी स्मरणशक्तिशाली वाला था थोड़े ही समय मे उसने व्याकरण शास्त्र कंठाग्र (कण्ठस्थ) कर लिया ।
      कर्मलब्ध ने अपनी स्त्री से कहा , प्रिये अपना यह पुत्र बड़ा ही भाग्यशाली है क्योकि इसके जन्म से हमारे घर मे समृद्धि स्वयं आकर बसी है और सारे दुःख दूर हो गए। हम लोग स्वर्ग के समान सुख अनुभव कर रहे है । यह सब विघाओ मे निपुण हो गया है । विद्धान भी इसलिए यह तुम ध्यान रखना कि मेरे पीछे यह कहीं भी शास्त्रार्थ करने न जाये यह बहुत सुन्दर है इसकी विघा सजीव है , स्मरणशक्ति और वाकचातुर्य अत्यंत मनोहर होने से ,सहज ही किसी से नजर लग जाना संभव है इसलिए तू संभाल रखना ।
          दोनों को बुलाकर उनके समक्ष कहा तू सब विघायें पड़ चुका है पुत्र यह विघा किसी को अपमानित करने या जीत कर रोजी रोटी कमाना नहीं है यह मैं अच्छी तरह तुमसे कह देता है जिससे अनजान मे भी भूल न हो जाये। कर्मलब्ध को इतनी चौकसी करने कारण बस यह था कि उसने पुत्र के भविष्य के विषय मे जान रखा था यह पुत्र पहले जन्म का ऋणी था उसे विश्वास था कि यह बालक ऋण चुकाते ही चला जायेगा उसने पुत्र से कहा , कि तू मेरा सत्पुत्र है इसलिए आशा करता हूँ कि तू मेरी आज्ञा अच्छी तरह से मानेगा उसको समझाने लगा कि दान लेने से अपने सुकृत नष्ट हो जाते है और माँगने से मानहानि तथा सुकृत की भी हानि होती है वह दोनों अपने पुत्र की चौकसी करने लगे । वह कभी भी बालक को अपने साथ नहीं ले जाता था और न ही बाहर जाने देता था ,देखते ही देखते बालक बाल्य से किशोर अवस्था को प्राप्त हुआ ।
      एक दिन निमंत्रण आने से कर्मलब्ध को किसी कार्यवश दूसरे गाँव जाना पड़ा । जाने से पहले उसने अपनी पत्नि को सचेत किया कि पुत्र कही बाहर न जाये ।
 "दैवश्रेष्ठ ,परन्तु अद्रश्य है " उसके जाने के एक दिन पहले पांचालपुर मे राजा के यहाँ विदेश से एक पण्डित आया और शास्त्रार्थ करने वालो से शास्त्रार्थ करना चाहा। यह पण्डित वेदशास्त्र संपन्न और बड़ा वाचाल होने से अनेक देश के पण्डितो के शास्त्रार्थ मे जीत आया था । अपनी विद्धता के लिए उसे बड़ा अभिमान था । राजा ने उसका प्रस्ताव स्वीकार कर लिया , पांचाल पुर विघा और विद्धानों का घर माना जाता है इसलिए उसके साथ यदि शास्त्रार्थ न किया जाये अपयश होगा और शास्त्रार्थ मे पराजय होने से यश जायेगा राजा को मन ही मन यह चिंता सताने लगी। "परन्तु हरीच्छा ! वही पूर्ण पुरुषोत्तम इस नगर की लज्जा रखेगा " ऐसा विचार कर उसने अपनी सभा के सभी पंडितो को बुलवाया और नगर मे दौड़ी पिटवाई कि नगर मे जो कोई विद्धान हो वह कृपा करके सभा मे अवश्य पधारे। सभी विद्धवान पंडित पधारे शास्त्रार्थ हुआ ,परन्तु उस परदेशी पंडित ने राजा के पंडितो को अपनी वाक्चातुर्यता से परास्त कर दिया। सारे नगर मे कोलाहल मच गया कि पांचालपुर की सारी कीर्ति एक परदेशी पंडित हरण किये जाता है ।
   कर्मलब्ध के घर के सामने से जाते हुए लोग आपस मे कहने लगे कि आज तो कर्मलब्ध भी नहीं है अगर वह होता तो आज पांचाल पुर की लाज जाने नहीं देते पर देखें कल क्या होता है ।
   मार्ग मे जाते हुए ब्राह्मणों की ऐसी बातचीत सुनते ही उस कर्मलब्ध के पुत्र के मन मे बड़ी उत्तेजना हुई वह विचार करने लगा ऐसा कौन सा परदेशी पंडित है जो मेरे पिता के समान समर्थ पुरुष को हरा दे उसको देखना चाहिए अगर मेरी माता ने आज्ञा दी तो कल अवश्य उसे देखने जाऊँगा।
   कर्मलब्ध के पुत्र का नाम "ऋण दत्त " था । ऋण , दत्त अपनी माता के पास जाकर पूछने लगा कि माँ पड़ोस के सभी समयवी ब्राह्मण जा रहे है इन्ही के साथ मैं भी सभा देखने को जाऊँ , माता बोली "प्यारे तेरे पिता ने तुझे बाहर जाने से मना किया है "
    क्योकि बाहर जाने से तू कदाचिद किसी समय किसी का दान ले ले । पुत्र ने विनय की कि मैं पिताजी की आज्ञा को कभी भंग नहीं करूँगा। पुत्र का आग्रह देखकर माता ने आज्ञा दे दी , वह राजसभा मे गया और देखने लगा कि प्रश्नोत्तर कैसे होते है।
  सभा का कार्य आरम्भ होते ही उस विदेशी पंडित ने बड़े अभिमान से कहा , जब पहले दिन ही प्रश्नों का उत्तर नहीं मिला तो अब दूसरे प्रश्नों के लिए परिश्रम करने की क्या जरूरत है अब तो राजा जी सबकी संमति से मुझे विजय पत्र देकर विदा करे।
  यह सुनकर सारी सभा सन्न रह गयी यह देख वह ब्रह्मपुत्र जिसका नाम "ऋण दत्त" था वह चुप नहीं रह सका। उसकी सब विघायें प्रकाशित थी और वह ब्रह्म विघारूप भूषण से अलंकृत था वह किसी से भी पराजित होने वाला नहीं था , वह हाथ जोड़कर गंभीरता से बोला कि मुझे जान पड़ता है कि इस विदेशी आडम्बर वाले , मदोन्मत और उद्धत पंडित का विनय और विद्द्वता से शून्य तथा मूर्खता से पूर्ण भाषण सुनकर ये सब पंडित महाराज उसका प्रत्युत्तर देना अयोग्य और लज्जास्पद समझते है और यह सब यह सोच रहे कि यहाँ पर कोई बालक होता तो अच्छा वह ही इनके प्रश्नों का उत्तर दे देता।
    सभ्य महाशयों ! इन सब महाजनो की जिज्ञासा पूर्ण करने के लिए बालक के समान मैं इस पंडित के भाषण के उत्तर मे दो शब्दो कहना चाहता हूँ। आप लोगो की क्या आज्ञा है ? ऋण दत्त बोला , महाराजा पांचालपति ने नगर मे जिस पंडित के आने की प्रसिद्धि की है क्या यह वही पंडितराज है मैं पूछता हूँ क्या पंडित लोग अपने मुँह  से स्वयं अपनी बड़ाई और दूसरो की निंदा करना अपना बड़प्पन मानते है वह बालक अनुक्रम से प्रश्नों का उत्तर देने लगा। उत्तरो को सुनकर वह पंडित आश्चर्य चकित हो कहने लगा हे बुधवर्य ! इतनी छोटी उम्र मे तुम्हे ऐसा ज्ञान कहाँ से प्राप्त हुआ ? आप कौन और किसके पुत्र हो ? आप जैसे विद्धान के आगे मेरी क्या विसात , आपको धन्य है ऐसे वचनों से वह ऋण दत्त की प्रशंसा करने लगा ।
इस तरह बुद्धिमान और विद्धान ऋण दत्त ने विजय प्राप्त कर पांचाल पुर की कीर्ति रखी , मंडप मे भारी जयध्वनि हुई । पंडितो का मुरझाया हुआ मुख हर्ष से जगमगा उठा , राजा ने सभा के बीच बड़ा से सिंघासन बिछा कर उस पर ऋणदत्त को सत्कार पूर्वक बैठाया और उसका पूजन किया , अमूल्य वस्त्र , आभूषण , दक्षिणा रूप सोने की मुद्राओ से भरा हुआ एक बड़ा स्वर्ण थाल लाकर भेट स्वरुप देने लगा । तब उस बालक ने कहा राजन इसमें से मुझे कुछ नहीं चाहिए। यह वस्त्रलंकार इन पण्डित राज को अर्पण करो और धन दक्षिणा रूप मे इन सभा के ब्राह्मणों को बाँट दो। एक वक़्त के अन्न के सिवा दूसरा कुछ भी दान न लेने के लिए मेरे पिताजी की सख्त आज्ञा है। राजा के बहुत आग्रह करने पर भी उसने कुछ लेना स्वीकार नहीं किया और सभा से चलने लगा तब राजा ने उसे सुन्दर पालकी मे बैठाकर छत्र चामर सहित घर पहुँचवाया। सारे नगर मे जय जयकार व्याप रहा और सब लोग कर्मलब्ध के पुत्र ऋणदत्त की प्रशंसा करने लगे।
ऋणदत्त की माता पुत्र को इस तरह राजमान मिला देखकर परमानंदित और विस्मित हुई , उसने अपने पुत्र का स्वागत किया और ह्रदय से लगा लिया और अंदर ले जाकर कहा कि "वत्स" आज तेरे पिता की सिखाई हुई सब विघायें और हमारा सब परिश्रम सफल हुआ । उस पतिव्रता ने उत्तम पकवान बनाकर अपने पुत्र को प्रेम से भोजन कराया ।
राजा ने  विचार किया कि उस विद्धान ब्राह्मण बालक ने आज नगर की जाती हुई लाज रख ली। मेरी सभा से कुछ भी पारितोषिक लिए बिना चले जाना मेरी कीर्ति को कलंकित करने वाली बात है इस तरह राजा विचार मे लीन था तभी अचानक दासी ने आकर कहा कि आपको रानी ने अन्तःपुर मे पधारने की विनय की है । राजा तुरंत रानी के पास गया राजा को देखते ही रानी ने कहा "स्वामिनाथ पुत्री का आग्रह है कि मेरा विवाह उस बाल पंडित (ऋणदत्त) से हो , अब आप जैसा उचित समझे वैसा करे "। 
राजा ऋणदत्त पर तो प्रसन्न ही था उसने पुत्री का ऐसा आग्रह देखकर बहुत प्रसन्न हुआ , राजा सोचने लगा कि ऋणदत्त एक दिन के भोजन के सिवा और कुछ न ही लेता था इससे दक्षिणा मे उसको राजपुत्री का दान देना उचित लगा।
राजा ने राजवंशी पुरुष को टोकरी मे चार लड्डू रखकर , देकर ऋणदत्त के घर भेजा , उसने वहाँ जाकर उसकी मातुश्री से कहा कि मुझे राजा ने यह पकवान और यह पत्र देकर भेजा है यह पंडित राज को दे देना ,माँ सोचने लगी कि मेरे पति ने कहा है कि अनायास अपनी इच्छा से कोई अन्न दे जाये तो उसे अस्वीकार नहीं करना चाहिए । ऐसा सोचकर उसने बिना किसी संशय के वह पत्र और पकवान की टोकरी लेली ।
 माता ने वह टोकरी व पत्र अपने पुत्र ऋणदत्त को देकर कहा कि राजा ने यह भोजन और पत्र भेजा है ऋणदत्त ने कहा अच्छा दैव की विचित्र गति कौन जान सकता है और भाग्य को कौन पलट सकता है जैसे ही ऋणदत्त उसे अंदर रखकर आया त्यों ही उसने जोर से चीख मारी और " ओ माँ " हे परमात्मा ऐसा पुकारते हुए परलोक को सिधारा माता घबराकर काँपने लगी और रुदन करने कहिये "योगिराज" उस समय उसकी माँ पर क्या गुजरी होगी ।
इतने मे कर्मलब्ध पंडित घर आ पहुँचे। घर के आगे मनुष्यो की शोकातुर भीड़ देखकर सब कुछ समझ गए और सोचने लगे कि पुत्र को कुछ न कुछ हुआ है। घर मे आकर पुत्र को मृत देखकर उनके पैर पानी - पानी हो गए , वह परम ज्ञानी थे उन्होंने बहुत वर्ष पहले ही यह निश्चय कर रखा था कि कोई दिन मुझे निःसंतान करने वाला आएगा इसलिए उन्हें कुछ शोक नहीं हुआ। स्त्री से सब समाचार सुनकर जब वे लड्डू देखे तो प्रत्येक मे एक-२ अमूल्य हीरा था ये हीरे पांचाल राजा ने देखकर ऋणदत्त पंडित को गुप्त दक्षिणा रूप से लड्डुओं मे भरकर भेजे थे और जब पत्र खोलकर पड़ा तो राजा ने उसमे अपनी पुत्री का दान दिया था और बारह गांव दक्षिणा मे पंडित जी को भेट किये थे। 
कर्मलब्ध दुखी मन से बोले कि "दैव की गति कोई नहीं टाल सकता" यह पुत्र मुझे ऋण ही देने को पैदा हुआ था। ऋण अदा कर सदा के लिए चला गया। उसके बाद वह पत्नी सहित वन मे चला गया और वहाँ शांत चित्त से ईश्वर सेवा करके जीवन व्यतीत करने लगा ।
इतना कहकर मोहजिता चुप हो गई , योगी ने फिर पूछा " हे तत्वदर्शिनी - मोहरहिते " इस ऋणदत्त ने पिता का जो बड़ा ऋण चुकाया वह पूर्व जन्म मे उसने किस तरह लिया था वह बताओ । यह सुन मोहजिता कहने लगी।   
महाराज ! पहले स्वाश्रय नामक नगर मे एक वैश्य रहता था । उसके घर मे अपार धन था ,पतिव्रता स्त्री थी परंतु कोई संतान नहीं थी । वह धन का व्यय शुभ कार्यो मे करता था। काफी समय बाद भी जब संतान नहीं हुई तो दोनों स्त्री-पुरुषो ने तीर्थ मे जाकर अनेक शुभ कर्म करने का निश्चय किया और जाने से पहले अपनी संपत्ति का प्रबंध किया , न जाने कब लौटना हो। मार्ग मे व्यय करने के लिए बहुत सा धन लेकर वह दम्पत्ति यात्रा को चले उन्होंने बहुत से तीर्थ किये। श्री स्थल ,प्रयाग ,पुष्कर, काशी आदि उसके बाद उन्होंने अपने पास का धन किसी निर्भय स्थान मे रखने का निश्चय किया ।
मार्ग मे उन्हें गंगा के तट पर किसी तपस्वी का आश्रम दिखाई दिया वह वहाँ गए। दो चार उसके आश्रम मे रहे , रहने से उन्हें वह तपस्वी बिलकुल निःस्पृह और पवित्र मालूम हुआ । इससे वह वैश्य वह द्रव्यरूप भय उस महात्मा को सौपने लगा परंतु महात्मा ने बहुत मना किया परंतु वह दोनों उसके पैरो पड़कर प्रार्थना करने वह धन और ताम्रपत्र ( जिसमे बारह गांव का पट्टा लिखा हुआ था ) उसे सौंप निश्चिन्त होकर काशी चले गए। होनी प्रबल है। कुछ काल मे महात्मा तपस्वी को मालूम हुआ कि मेरा मरण काल निकट आ पहुँचा है। उसे साहूकार का धन याद हो आया इससे वह चिंता मे पड़ा । अरे वह साहूकार अभी तक नहीं आया और मैं निष्कारण उसके ऋण मे बंधा जाता हूँ। घबराकर उसने अपने शिष्यो को पास बुलाया और कहा शिष्यो तुम सब जानते हो कि मेरे पास उस साहूकार का धन है इस समय सिर्फ मुझे यह चिंता है कि जब साहूकार वापस धन लेने आएगा तो उसका धन उसे देकर मुझे ऋण से कौन छुड़वाएगा ? मेरे शरीर छोड़ने पर तुम सब अपने-२ स्थान को चले जाओगे। इस दशा मे उस धन के लिए क्या करूँ ? तब एक शिष्य ने कहा ,देव यदि आप उचित समझे तो यह धन वणिक पुष्पदत्त को जो नित्य आपके दर्शनों को आता है उसे सौप दे । वह अत्यंत पवित्र मन का है और धनवान है। इसलिए उसको धन सौपने मे कोई भय नहीं है। वह वणिक उस साहूकार को यह धन अवश्य सौप देगा ।
यह द्रव्य सौपने के लिए पास के आश्रम मे रहने वाले आपके स्नेही ऋत्वकता ऋषि को कह देना ही बस काफी है तपस्वी को यह बात ठीक जंची उसने तुरन्त ऋतवक्ता ऋषि को बुलाकर सारी बाते बतायी तब स्नेह के कारण उसने वह द्रव्य उस वणिक के यहाँ पहुँचाने का भार अपने ऊपर लिया ऐसा हो जाने से वह तपस्वी चिंता मुक्त हुआ और उसने अपने मन को ईश्वर मे लगाया और थोड़ी देर मे इस अनित्य देह का त्याग कर प्रभु धाम को चला गया।
इसके बाद ऋत्वकता ऋषि ने वह धन तपस्वी के शिष्यो द्धारा पुष्पदत्त के यहाँ पहुँचा दिया और साहूकार के आने पर उसे दे देने की बात कही परंतु असल साहूकार तो तपस्वी को धन सौंपकर काशी पहुचते ही कुछ दिनों मे समय आने पर सपत्नी सहित परलोकवासी हो गया ।  अब धन लेने कौन आवे? 
कुछ दिनों बाद तपस्वी का धन जमा करने वाला वणिक और जमा कराने वाला ऋतवक्ता ऋषि भी मृत्यु के वश हुए "पैदा होने वाले की मृत्यु व मारने वाले का जन्म अवश्य होता है" इस ईश्वराधीन नियम से अपने कर्म के अनुसार जन्म भी लिया ।
यात्रा करने वाला वैश्य स्त्री सहित कर्मलब्ध पंडित होकर जन्मा और इसका ऋणी तपस्वी उसका पुत्र ऋणदत्त हुआ। तपस्वी का धन उसके मरने के समय जमा करने वाला ऋतवक्ता ऋषि उसका धन वापस दिलाने के लिए विदेशी पंडित होकर जन्मा ,धन जमा करने वाला वैश्य पत्नी सहित पांचाल पुर का राजा होकर पैदा हुआ और फिर उन्होंने अपने -२ पूर्व के ऋण का शोधन किस तरह किया यह मैंने आपसे अभी ही निवेदन किया है । तपस्वी और उसके आश्रम मे महर्षियो की सेवा करने से एक वृद्ध दासी जिसके सब पाप सेवा करने से नष्ट हो गए थे वह यहाँ राजकन्या होकर जन्मी थी जो ऋणदत्त को अपने मन से वर लेने के कारण बिना विवाह हुए भी उसके मरने पर सहगामिनी होकर उसके सत्कर्म की भागिनी हुई। योगिराज ! वह राजकन्या ऋणदत्ता मैं स्वयं हूँ और वह ऋणदत्त पण्डित राज ही मेरा स्वामी है। यहाँ हम यह ईश्वरदत्त संसार भोग विधिवत भोगते हुए जल कमल के समान निर्लेप रह कर अंत मे उधर्व लोक को जायेंगे।
यह सब वृतान्त सुनकर आश्चर्य चकित हुए योगी ने कहा "राजपत्नी ! तुझे धन्य है और तेरे स्वामी को भी धन्य है" यह मैंने अच्छी तरह जाना कि तेरा मोहजिता नाम अत्यन्त ही योग्य है। बाले तेरा स्वामी सर्वथा कुशल है और उसके विषय मे मैंने सिर्फ तेरी परीक्षा लेने के लिए जो समाचार दिया है वह असत्य है। तेरा कल्याण हो और तेरा सौभाग्य अखण्ड तपे ! इतना कहकर योगी वहाँ से चल दिया और उसकी बहिन के यहाँ भाई का मृत्यु समाचार कहा ।



                                                                                                             शरणागत 
                                                                                                        नीलम सक्सेना 
 
  



























































































                

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