जगत जल के बतासे के समान है
साधू को देखते ही राजपुत्र की स्त्री ने बड़े आदर से आसन दिया और अतिथि योगी महात्मा के पूजन की तैयारी करने लगी । यह देख योगिराज घबराये हुए और उदास मुँह से बोले "राजवधु" इस समय तुझे पूजन या अतिथि सत्कार करने की जरूरत नहीं है तू नहीं जानती मैं इस समय किसलिए यहाँ आया हूँ । यह सुन शांतचित्तता मोहजित की भार्या ने पूछा "उपाधि रहित योगिराज" ऐसा क्या है जिसके बताने मे आप इतना दुखित होते है जो हो उसे मुझे कृपापूर्वक निःशंक होकर कहे तब योगी ने सजल नेत्रो से उदास मुँह से मोहजित की मृत्यु का कृत्रिम समाचार आदि से अंत तक कह सुनाया । और फिर बोले कि मोहजीत को मरने का शौक दुःख नहीं था परंतु एक चिंता उसके मन मे रह गयी । वह चिंता सिर्फ तेरे विषय की थी कि मेरे पीछे मेरी प्राणप्रिया की क्या दशा होगी ? उसका और मेरा मिलाप अब कहाँ होगा ? वह मेरे बिना कैसे रहेगी ?
यह सुन संसार मे रहने पर भी , वह निर्लेप स्त्री गंभीरता से बोली , हे योगिराज ! मेरा स्वामी संसार की असार माया के मिथ्यापन को भलिभाँति जानता था और वह मेरे मोह मे फॅसने वाला नहीं था । वह मोहजित है मैं उसके द्रढ़ सम्बन्ध से उसकी अनन्य दासी ,संसार के मिथ्यापन को जानती हुई इस संसार के किसी भी पदार्थ से आसक्त नहीं हूँ । योगिराज मैं तो क्या परंतु मेरा सारा परिवार मोहजित है । हे देव ! उसको ऐसे मोह ममता माया का आवरण होना यह विश्वास करने के योग्य वृतान्त नहीं है "।
ऐसा सुनकर योगिराज मौन हो गए । उनको चुप देखकर वह निर्मोही स्त्री बोली "महाराज" आपकी बात सुनकर आश्चर्य होता है तुम संसार आसक्ति छोड़ वन मे रह कर एकांतवास मे इच्छारहित केवल परमार्थ साधन रूप योगमार्ग का अवलम्बन करने वाले हो । समस्त शोक ,मोह और काम क्रोधादिक दुर्गुणों का त्याग करना कराना आपका मुख्य कर्तव्य है और यही आपके योगमार्ग का मुख्य साधन है । प्राणियों को वैसा होने के लिए उपदेश देना यही आपकी स्वाभाविक वृति होनी चाहिए । इसके बदले आप मुझे मोहरहित देख,शोक निमग्न होने को कहते हो यह क्या उचित है "योगिराज ! इस प्रवाही जगत मे कौन किसका शोक करे ?" नदी के प्रवाह के वेग से जल के उछलने से जो बुलबुले दिखाई देते है और प्रवाह के ऊपर बहते जाते है उन्ही के समान इस सृष्टि का खेल है ।
यह सुन योगिराज बोले , बाले तेरा कहना सत्य है परंतु क्या मनुष्य मे इन बुलबुलो के समान सम्बन्ध है मनुष्य इस सारी सृष्टि के सब प्राणियों से श्रेष्ठ ,विवेकी,ज्ञानवान है। सुख दुःख मे भली भाँति समझने वाला है । इस दशा मे उसकी तुलना जड़ पदार्थ से कैसे हो सकती है ? अरे संसार मे पति पत्नी के समान दूसरा गाड़ा सम्बन्ध कौन है ? वह इतना समीपी सम्बन्ध है कि उनके भाग्य भी एक दूसरे से जुड़े ही रहते है ऐसे जोड़े से यकायक अलग होना दूसरे से सहन नहीं हो सकता ,तो फिर उसका सदा के लिए छूट जाना कठिन से कठिन ह्रदय को भी वियोग के दुःख से पिघला देने वाला नहीं है । इस जगत के सारे पदार्थ प्रेम रूप है ,सब प्रेम के वश मे है प्रेम ही इस जगत का जीवन है , चल -अचल सबका जीवन है परन्तु जो प्रेम के शुद्ध स्वरुप को भलीभाँति नहीं जानता , वह अधोगति को पाता है।
राज सुंदरी बोली तपोधन ! यह सत्य है मैं तो वही कहती हूँ जो सत्य है मेरा अन्तःकरण कठोर नहीं है और विवेक शून्य भी नहीं है जैसा आप कहते है , मैं प्रेम को जानती हूँ ,प्रेम को भजती हूँ ,प्रेम मे लीन हूँ और प्रेम मे एक हो जाने वाली हूँ । उस प्रेम का स्वरुप मैं नहीं जानती ऐसा नहीं मानो । परन्तु योगिराज ! मुझे बताओ कि विवेक क्या है , और प्रेम क्या है ?
नित्य और अनित्य ,अविनाशी और विनाशी पदार्थ का जो यथार्थ ज्ञान है वही विवेक है मैं सत्य और नित्य वस्तु को चाहने वाली हूँ और मिथ्या -असत्य और अनित्य वस्तु के लिए उदास निःस्पृह रहती हूँ इससे क्या निष्ठुर ठहरती हूँ ? इस जगत मे आत्मा ही अविनाशी और सत्य स्वरुप है देह विनाशी है ,आत्मा अविनाशी है ,अविनाशी का विनाश नहीं है और विनाशी चिरंजीव नहीं है । जो ओंकार रूप ,नाद ,रूप ,शान्तरूप,कान्तिरूप और सत्य रूप देखता है वही प्रेमी है । यह जगत मायाप्रतीति का प्रवाह है इसलिए मन को ,जो सब मोह का कारण माना जाता है । शांत रख ज्ञानदृष्टि से सब समय, सब स्थानों मे परमात्मा -ब्रह्म को छोड़ अन्य का अवलोकन करने वाला जो जीव है उसी को यह शोक मोह बाधा करते है ।
जगत मे मनुष्य प्राणी सबसे श्रेष्ठ है उसमे सब प्राणियों की अपेक्षा सारासार विचार करने की विशेष बुद्धि होती है । अतः इस बुद्धि से हमें देखना चाहिए कि सत्य क्या है और असत्य क्या है ,सत्य प्रेम क्या है और असत्य प्रेम क्या है ? आपने स्त्री पुरुष के सम्बन्ध के लिए जो कुछ कहा वह सब सत्य है परन्तु वह कब तक ?स्त्री पुरुष का तो क्या ,परन्तु इस जगत का सारा सम्बन्ध नियत समय तक ही स्थिर होता है ,ज्यो ही देना चुका त्यों ही ऋण दाता और ऋणग्राही का सम्बन्ध पूरा हो जाता है और पूर्व का ऋणानुबंध पूरा होते ही संसार का सम्बन्ध भी पूरा हो जाता है संसार का सारा सम्बन्ध ऋणानुबंध पूर्ण होने के बाद चाहे जितने उपाय किये जाये तो भी सम्बन्ध रहना दुर्लभ है । तो फिर शोक करने से क्या लाभ ?
मुनि राजकुमारी स्त्री का ज्ञान जानने के लिए अनजान होकर बोले , वत्से ! यह ऋणानुबंध क्या है और उससे किस तरह सम्बन्ध जुड़ता होगा ?
शरणागत
नीलम सक्सेना
साधू को देखते ही राजपुत्र की स्त्री ने बड़े आदर से आसन दिया और अतिथि योगी महात्मा के पूजन की तैयारी करने लगी । यह देख योगिराज घबराये हुए और उदास मुँह से बोले "राजवधु" इस समय तुझे पूजन या अतिथि सत्कार करने की जरूरत नहीं है तू नहीं जानती मैं इस समय किसलिए यहाँ आया हूँ । यह सुन शांतचित्तता मोहजित की भार्या ने पूछा "उपाधि रहित योगिराज" ऐसा क्या है जिसके बताने मे आप इतना दुखित होते है जो हो उसे मुझे कृपापूर्वक निःशंक होकर कहे तब योगी ने सजल नेत्रो से उदास मुँह से मोहजित की मृत्यु का कृत्रिम समाचार आदि से अंत तक कह सुनाया । और फिर बोले कि मोहजीत को मरने का शौक दुःख नहीं था परंतु एक चिंता उसके मन मे रह गयी । वह चिंता सिर्फ तेरे विषय की थी कि मेरे पीछे मेरी प्राणप्रिया की क्या दशा होगी ? उसका और मेरा मिलाप अब कहाँ होगा ? वह मेरे बिना कैसे रहेगी ?
यह सुन संसार मे रहने पर भी , वह निर्लेप स्त्री गंभीरता से बोली , हे योगिराज ! मेरा स्वामी संसार की असार माया के मिथ्यापन को भलिभाँति जानता था और वह मेरे मोह मे फॅसने वाला नहीं था । वह मोहजित है मैं उसके द्रढ़ सम्बन्ध से उसकी अनन्य दासी ,संसार के मिथ्यापन को जानती हुई इस संसार के किसी भी पदार्थ से आसक्त नहीं हूँ । योगिराज मैं तो क्या परंतु मेरा सारा परिवार मोहजित है । हे देव ! उसको ऐसे मोह ममता माया का आवरण होना यह विश्वास करने के योग्य वृतान्त नहीं है "।
ऐसा सुनकर योगिराज मौन हो गए । उनको चुप देखकर वह निर्मोही स्त्री बोली "महाराज" आपकी बात सुनकर आश्चर्य होता है तुम संसार आसक्ति छोड़ वन मे रह कर एकांतवास मे इच्छारहित केवल परमार्थ साधन रूप योगमार्ग का अवलम्बन करने वाले हो । समस्त शोक ,मोह और काम क्रोधादिक दुर्गुणों का त्याग करना कराना आपका मुख्य कर्तव्य है और यही आपके योगमार्ग का मुख्य साधन है । प्राणियों को वैसा होने के लिए उपदेश देना यही आपकी स्वाभाविक वृति होनी चाहिए । इसके बदले आप मुझे मोहरहित देख,शोक निमग्न होने को कहते हो यह क्या उचित है "योगिराज ! इस प्रवाही जगत मे कौन किसका शोक करे ?" नदी के प्रवाह के वेग से जल के उछलने से जो बुलबुले दिखाई देते है और प्रवाह के ऊपर बहते जाते है उन्ही के समान इस सृष्टि का खेल है ।
यह सुन योगिराज बोले , बाले तेरा कहना सत्य है परंतु क्या मनुष्य मे इन बुलबुलो के समान सम्बन्ध है मनुष्य इस सारी सृष्टि के सब प्राणियों से श्रेष्ठ ,विवेकी,ज्ञानवान है। सुख दुःख मे भली भाँति समझने वाला है । इस दशा मे उसकी तुलना जड़ पदार्थ से कैसे हो सकती है ? अरे संसार मे पति पत्नी के समान दूसरा गाड़ा सम्बन्ध कौन है ? वह इतना समीपी सम्बन्ध है कि उनके भाग्य भी एक दूसरे से जुड़े ही रहते है ऐसे जोड़े से यकायक अलग होना दूसरे से सहन नहीं हो सकता ,तो फिर उसका सदा के लिए छूट जाना कठिन से कठिन ह्रदय को भी वियोग के दुःख से पिघला देने वाला नहीं है । इस जगत के सारे पदार्थ प्रेम रूप है ,सब प्रेम के वश मे है प्रेम ही इस जगत का जीवन है , चल -अचल सबका जीवन है परन्तु जो प्रेम के शुद्ध स्वरुप को भलीभाँति नहीं जानता , वह अधोगति को पाता है।
राज सुंदरी बोली तपोधन ! यह सत्य है मैं तो वही कहती हूँ जो सत्य है मेरा अन्तःकरण कठोर नहीं है और विवेक शून्य भी नहीं है जैसा आप कहते है , मैं प्रेम को जानती हूँ ,प्रेम को भजती हूँ ,प्रेम मे लीन हूँ और प्रेम मे एक हो जाने वाली हूँ । उस प्रेम का स्वरुप मैं नहीं जानती ऐसा नहीं मानो । परन्तु योगिराज ! मुझे बताओ कि विवेक क्या है , और प्रेम क्या है ?
नित्य और अनित्य ,अविनाशी और विनाशी पदार्थ का जो यथार्थ ज्ञान है वही विवेक है मैं सत्य और नित्य वस्तु को चाहने वाली हूँ और मिथ्या -असत्य और अनित्य वस्तु के लिए उदास निःस्पृह रहती हूँ इससे क्या निष्ठुर ठहरती हूँ ? इस जगत मे आत्मा ही अविनाशी और सत्य स्वरुप है देह विनाशी है ,आत्मा अविनाशी है ,अविनाशी का विनाश नहीं है और विनाशी चिरंजीव नहीं है । जो ओंकार रूप ,नाद ,रूप ,शान्तरूप,कान्तिरूप और सत्य रूप देखता है वही प्रेमी है । यह जगत मायाप्रतीति का प्रवाह है इसलिए मन को ,जो सब मोह का कारण माना जाता है । शांत रख ज्ञानदृष्टि से सब समय, सब स्थानों मे परमात्मा -ब्रह्म को छोड़ अन्य का अवलोकन करने वाला जो जीव है उसी को यह शोक मोह बाधा करते है ।
जगत मे मनुष्य प्राणी सबसे श्रेष्ठ है उसमे सब प्राणियों की अपेक्षा सारासार विचार करने की विशेष बुद्धि होती है । अतः इस बुद्धि से हमें देखना चाहिए कि सत्य क्या है और असत्य क्या है ,सत्य प्रेम क्या है और असत्य प्रेम क्या है ? आपने स्त्री पुरुष के सम्बन्ध के लिए जो कुछ कहा वह सब सत्य है परन्तु वह कब तक ?स्त्री पुरुष का तो क्या ,परन्तु इस जगत का सारा सम्बन्ध नियत समय तक ही स्थिर होता है ,ज्यो ही देना चुका त्यों ही ऋण दाता और ऋणग्राही का सम्बन्ध पूरा हो जाता है और पूर्व का ऋणानुबंध पूरा होते ही संसार का सम्बन्ध भी पूरा हो जाता है संसार का सारा सम्बन्ध ऋणानुबंध पूर्ण होने के बाद चाहे जितने उपाय किये जाये तो भी सम्बन्ध रहना दुर्लभ है । तो फिर शोक करने से क्या लाभ ?
मुनि राजकुमारी स्त्री का ज्ञान जानने के लिए अनजान होकर बोले , वत्से ! यह ऋणानुबंध क्या है और उससे किस तरह सम्बन्ध जुड़ता होगा ?
शरणागत
नीलम सक्सेना
No comments:
Post a Comment