गर्भवास ही नरक वास है
"हे ईश्वर !जो विषयों का अल्प सुख प्राप्त करने के लिए , संसार सागर से तारने वाली नौका के समान आपके चरण कमलों का सेवन करते हैं उन्हें आप वह सुख देते हैं,परंतु आपकी माया से उनकी बुद्धि को नष्ट हुई समझना चाहिए ,क्योंकि विषयों का सुख तो नरक में भी मिलता है "
गर्भवास और नरकवास दोनों एक ही हैं गर्भवास के भीतर अनेक दुखदायी ,कुतिस्त और दुर्गन्धमय वस्तुएँ भरी रहती हैं स्त्री के शरीर गर्भ स्थान है वह उसके मलाशय और मूत्राशय दोनों के बीच में है उस गर्भवास में जीव का देह बनता है फिर धीरे धीरे गर्भ धारण करने वाली माता जो कुछ अन्न आदि का भक्षण करती है उसका उसके पेट में रस बनने पर उसका कुछ अंश गर्भस्थान की नली द्धारा गर्भ में पहुँचता है जिससे गर्भ बढ़ता जाता है । ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता है त्यों-त्यों गर्भ बड़े आकार का बनता जाता है उसे सुख ,दुःखादि ,शीतोष्णादि उपद्रव होते हैं ऐसे में गर्भस्थ प्राणी सर के वल सिकुड़ा रहता है और जब माता उठती,बैठती,सोती,करवट बदलती,चलती फिरती,मेहनत करती है तब गर्भ को बार बार सिकुड़कर ,मुड़कर अनेक रीति से महा कष्ट होता है और फिर आस पास में रहने वाले मल -मूत्र के गढ़ों में रगड़ खाने के सिवा उसके देह के आस-पास लहू,मांस,कफ,लार, पीव और ऐसे ही अनेक दुर्गन्धादि पदार्थ भरे रहते हैं जिसके बीच उस जीव को रहना पड़ता है और जब माँ खट्टा,तीखा,चटपटा,कड़वा,उष्ण,बासा इत्यादि भोजन खाती है तब उससे गर्भ शरीर को बड़ी-बड़ी पीड़ाएँ होती हैं जिन्हें वह सहन नहीं कर सकता परंतु यह सब वह किससे कहे । अनेक दुखों के कारण गर्भवासी जीव कई बार मूर्छित हो जाता है, चैतन्यरहित हो जाता है यदि ईश्वर इच्छा से वह गर्भवास से पतित गर्भस्राव होने से बचा दुःख से बहुत घबराता और छूटने के लिए बहुत छटपटाता है परंतु छूटे कैसे ? वह तो एक-एक कर अनेको बंधनो-आवरणों के बीच लिपटा रहता है और वहाँ दरवाजे बंद रहते हैं ऐसे समय बहुत घबरा कर मूर्छित हो देह की सुध भूलने लगता है और जब चेत आता है तो सोचता है कि मैं कैसे महा दुःख में पड़ा हूँ ?और इस महा दुःख का कारण मैं स्वयं हूँ । मैं पूर्व जन्म में सांसारिक बिषयों में फंसा रहा और "जग नियंता प्रभु को भूल गया" उसी का यह फल है उसकी प्राप्ति के लिए मनुष्य देह में मुझे सब साधन अनुकूल थे तो भी मुझ दुष्ट ने उपेक्षा की इसलिए अपने कर्मों के कारण फिर इस कष्टमय नरक दुःख में आना पड़ा। मेरे समान कौन कृतघ्नी है? जगदीश्वर के सब उपकारों पर पानी फेरकर मैंने अपने हाथों से दुःख समेत समेट लिया है ,ऐसी अवस्था में वह प्रभु मुझे अब इस दुःख से क्यों छुड़ाएंगे ?परंतु अब इस संकट को कभी नहीं भूलूँगा यदि इस दुःख से छूट जाऊं तो केवल भगवत साधन करूंगा ,संसार में पड़ना नहीं चाहूंगा ऐसा विचार कर फिर वह प्राणी मन ही मन मे अनेक तरह से कृपालु प्रभु की स्तुति करता है और क्षमा मांगता है "हे दीनदयालु !हे परमात्मा! हे करुणासागर !मैं बारम्बार तेरे उपकारों को भूलता आया हूँ तो भी मेरी प्रार्थना पर लक्ष्य दे इससे पहले भी तूने असंख्य बार मुझे ऐसे दुखों से छुड़ाया है तो भी मैं दुष्ट तुझे भूलता ही गया,इसलिए हे नाथ! मेरे समान दूसरा कृतघ्नी कौन होगा?परंतु करुणामय!तू तो दया सागर है मेरी यह भूल तेरी दुस्तर माया को पार न कर सकने के कारण ही होती है। इसलिए हे जगतपिता!क्षमा कर मुझ दीन की अंतिम प्रार्थना पर ध्यान देकर सिर्फ इस बार ही मुझको दुःख से मुक्त कर अब मैं तुझे कभी नहीं भूलूंगा ।"
इस प्रकार अनेक प्रार्थनापूर्वक क्षमा मांगकर और संसार में लुब्ध न होकर भगवत सेवा करने के लिए जब जीव प्रतिज्ञा करता है तो दीनबंधु,कृपासिंधु,फिर उसपर दया कर ,कृपा कर उसे गर्भवास के महासंकट से मुक्त करते हैं ।
बटुक महाराज पिता से कहते हैं कि अनेक महासंकट का अनुभव कर केवल ईश्वर की कृपा से ही उससे छूटकर,अभी ही मुक्त हुआ क्या मई उस बात को भूल जाऊँ ? यदि ऐसा हो तो मेरे समान मूर्ख और नीच इस सारे संसार में दूसरा कौन है ! इसलिए पिताजी! तुम पिता और मैं पुत्र ऐसा जो अपना लौकिक सम्बन्ध हुआ है वही वस है उसी में संतुष्ट होकर घर जाओ और ईश्वर प्राप्ति का उपाय करो ।
शरणागत
नीलम सक्सेना
गर्भवास और नरकवास दोनों एक ही हैं गर्भवास के भीतर अनेक दुखदायी ,कुतिस्त और दुर्गन्धमय वस्तुएँ भरी रहती हैं स्त्री के शरीर गर्भ स्थान है वह उसके मलाशय और मूत्राशय दोनों के बीच में है उस गर्भवास में जीव का देह बनता है फिर धीरे धीरे गर्भ धारण करने वाली माता जो कुछ अन्न आदि का भक्षण करती है उसका उसके पेट में रस बनने पर उसका कुछ अंश गर्भस्थान की नली द्धारा गर्भ में पहुँचता है जिससे गर्भ बढ़ता जाता है । ज्यों-ज्यों समय बीतता जाता है त्यों-त्यों गर्भ बड़े आकार का बनता जाता है उसे सुख ,दुःखादि ,शीतोष्णादि उपद्रव होते हैं ऐसे में गर्भस्थ प्राणी सर के वल सिकुड़ा रहता है और जब माता उठती,बैठती,सोती,करवट बदलती,चलती फिरती,मेहनत करती है तब गर्भ को बार बार सिकुड़कर ,मुड़कर अनेक रीति से महा कष्ट होता है और फिर आस पास में रहने वाले मल -मूत्र के गढ़ों में रगड़ खाने के सिवा उसके देह के आस-पास लहू,मांस,कफ,लार, पीव और ऐसे ही अनेक दुर्गन्धादि पदार्थ भरे रहते हैं जिसके बीच उस जीव को रहना पड़ता है और जब माँ खट्टा,तीखा,चटपटा,कड़वा,उष्ण,बासा इत्यादि भोजन खाती है तब उससे गर्भ शरीर को बड़ी-बड़ी पीड़ाएँ होती हैं जिन्हें वह सहन नहीं कर सकता परंतु यह सब वह किससे कहे । अनेक दुखों के कारण गर्भवासी जीव कई बार मूर्छित हो जाता है, चैतन्यरहित हो जाता है यदि ईश्वर इच्छा से वह गर्भवास से पतित गर्भस्राव होने से बचा दुःख से बहुत घबराता और छूटने के लिए बहुत छटपटाता है परंतु छूटे कैसे ? वह तो एक-एक कर अनेको बंधनो-आवरणों के बीच लिपटा रहता है और वहाँ दरवाजे बंद रहते हैं ऐसे समय बहुत घबरा कर मूर्छित हो देह की सुध भूलने लगता है और जब चेत आता है तो सोचता है कि मैं कैसे महा दुःख में पड़ा हूँ ?और इस महा दुःख का कारण मैं स्वयं हूँ । मैं पूर्व जन्म में सांसारिक बिषयों में फंसा रहा और "जग नियंता प्रभु को भूल गया" उसी का यह फल है उसकी प्राप्ति के लिए मनुष्य देह में मुझे सब साधन अनुकूल थे तो भी मुझ दुष्ट ने उपेक्षा की इसलिए अपने कर्मों के कारण फिर इस कष्टमय नरक दुःख में आना पड़ा। मेरे समान कौन कृतघ्नी है? जगदीश्वर के सब उपकारों पर पानी फेरकर मैंने अपने हाथों से दुःख समेत समेट लिया है ,ऐसी अवस्था में वह प्रभु मुझे अब इस दुःख से क्यों छुड़ाएंगे ?परंतु अब इस संकट को कभी नहीं भूलूँगा यदि इस दुःख से छूट जाऊं तो केवल भगवत साधन करूंगा ,संसार में पड़ना नहीं चाहूंगा ऐसा विचार कर फिर वह प्राणी मन ही मन मे अनेक तरह से कृपालु प्रभु की स्तुति करता है और क्षमा मांगता है "हे दीनदयालु !हे परमात्मा! हे करुणासागर !मैं बारम्बार तेरे उपकारों को भूलता आया हूँ तो भी मेरी प्रार्थना पर लक्ष्य दे इससे पहले भी तूने असंख्य बार मुझे ऐसे दुखों से छुड़ाया है तो भी मैं दुष्ट तुझे भूलता ही गया,इसलिए हे नाथ! मेरे समान दूसरा कृतघ्नी कौन होगा?परंतु करुणामय!तू तो दया सागर है मेरी यह भूल तेरी दुस्तर माया को पार न कर सकने के कारण ही होती है। इसलिए हे जगतपिता!क्षमा कर मुझ दीन की अंतिम प्रार्थना पर ध्यान देकर सिर्फ इस बार ही मुझको दुःख से मुक्त कर अब मैं तुझे कभी नहीं भूलूंगा ।"
इस प्रकार अनेक प्रार्थनापूर्वक क्षमा मांगकर और संसार में लुब्ध न होकर भगवत सेवा करने के लिए जब जीव प्रतिज्ञा करता है तो दीनबंधु,कृपासिंधु,फिर उसपर दया कर ,कृपा कर उसे गर्भवास के महासंकट से मुक्त करते हैं ।
बटुक महाराज पिता से कहते हैं कि अनेक महासंकट का अनुभव कर केवल ईश्वर की कृपा से ही उससे छूटकर,अभी ही मुक्त हुआ क्या मई उस बात को भूल जाऊँ ? यदि ऐसा हो तो मेरे समान मूर्ख और नीच इस सारे संसार में दूसरा कौन है ! इसलिए पिताजी! तुम पिता और मैं पुत्र ऐसा जो अपना लौकिक सम्बन्ध हुआ है वही वस है उसी में संतुष्ट होकर घर जाओ और ईश्वर प्राप्ति का उपाय करो ।
शरणागत
नीलम सक्सेना
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