Tuesday, 31 January 2017

जो जन्मा है वह जायेगा ही

जो जन्मा है वह जायेगा ही 

राजपुत्र के चले जाने के बाद योगिराज विचार करने लगे कि चाहे जितना मोहजीत पन हो परन्तु जब तक अपने ऊपर आफत नहीं आती , तभी तक है । भाई मरा उसमे इसका क्या सोचा होगा भाई गया तो हिस्सेदार गया इसको तो उल्टा निष्कंटक राज्य मिला इसलिए भाई के मरण से इसे क्यों शोक हो । 
                  स्वामी के मरने का सच्चा शोक तो उसकी स्त्री को होता है । स्त्री उसका आधा अंग मानी जाती है इसलिए अब देखना चाहिए कि मोहजित की स्त्री की कैसी दशा है । ऐसा विचार कर वह नगर मे घुसा। रास्ते मे उसे एक सुन्दर नाव यौवना मिली। योगी ने उससे पूछा "बाले" तू कौन है और हाथ मे डलिया लिए कहाँ जा रही है ? वह स्त्री योगिराज को प्रणाम कर बोली , मैं इस राजकुटुम्ब की एक दासी हूँ और मोहजीत राजा के छोटे पुत्र की पत्नी के लिए, ईश्वर की सेवा मे काम आने वाले सुन्दर फूलों को लाने के लिए बागो मे जाती है। योगी ने कहा ,कि क्या तू नहीं जानती एक महा शोककारक घटना ! दासी बोली , नहीं कृपा कर मुझे बताइये । तब योगी ने राजपुत्र की मृत्यु का समाचार कहा ,उसे सुनकर दासी बोली ,"महाराज इसमें शोक कारक कौन सी बात है ? हर्ष और शोक तो उस अज्ञानी पुरुष को होता है जो संसार की झूठी माया मे मोहित होता है। यह सारा संसार विनाशी है विचार कर देखो तो प्रत्येक स्थावर -जंगम प्राणी और पदार्थ की गति काल के वश होने से प्रतिक्षण बदलती रहती है । बीज बोया जाता है ,अंकुर फूटते है ,उसका कोमल वृक्ष होता है ,समय आने पर उसी मे फूल आते है और फलता पकता है फिर आप ही आप सूखने लगता है । इसी तरह पशु, पक्षी, और मनुष्य की भी दशा जानो । 
 सारा संसार काल का ग्रास रूप है। 
योगिराज आप हमारे राजकुमार का जो समाचार कहते है उसका क्या शोक करे ? सारा विश्व ही विनाशी और क्षण भंगुर है । मेरी आपकी ,सारे राजकुटुंब की सब जगत की अंत मे यही गति है तो फिर आप मिथ्या शोक छोड़कर व्यर्थ परिश्रम न करे , सुख से अपने घर पधारे । दासी के ऐसे निर्मोही वचन सुनकर योगिराज चकित होकर बोले "बाला तेरे निर्मोहीपन को धन्य है तेरा कल्याण हो । दासी ने साधू को प्रणाम किया और पुष्प लेने चली गयी । 
महात्मा ने विचार किया कि राजपुत्र का शोक दासी को क्यों होगा वह तो ज्ञान की ऐसी बात करेगी ही ,ऐसा सोचकर योगिन्द्र राजमहल मे गए और अंतःपुर मे जाकर मोहजित की स्त्री से मिले।


                                                                                                                       शरणागत 
                                                                                                                  नीलम सक्सेना  
























आम का कुटुम्ब

आम का कुटुम्ब 

राजपुत्र ने योगी से कहा "योगेंद्र ! आप सामने की ओर देख रहे है वह आम का वृक्ष सुन्दर आम के पके हुए फलो से झुक रहा है परंतु देखो कैसा धूल उड़ाता हुआ बवंडर आया और देखते ही देखते ढेर के ढेर गुच्छे नीचे आ पड़े । मोहिजित बोला अरे यह कैसा संहार हो गया ? क्षण भर मे क्या हो गया कितना अनर्थ हो गया ? यह सुन योगी बोले राजपुत्र यह कैसी बाते करते हो वह बोला यह तो जड़ के समान है और इन सबकी यही दशा है इसलिए इनको शोक ही नहीं है।
राजपुत्र ने कहा मोहवश मुनिराज आप धन्य हो आपने मुझको कृतार्थ किया योगीन्द्र जैसे यह मरते है वैसे ही हम भी ,जब इनकी गति यही है तो हमारी भी यही है हमें भी इसी मार्ग मे जाना है न जाने किस समय जगनियंता का परवाना आ जायेगा क्या हमे इसकी चिंता करनी चाहिए। आप योगी होकर भी अयोगी के समान मुझे मोह मे डालने वाले वचन क्यों कहते हो । 
         "जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु ध्रुवो ,जन्म मृतस्य च ।"
"जिसने जन्म लिया है वह अवश्य मरेगा जो मरा है वह अवश्य जन्म लेगा "
जब ईश्वरी नियम ही ऐसा है तो फिर उसमे क्या शोक है । जो होना था वह अच्छा ही हुआ उसकी चिंता त्याग कर आप सुख से अपने आश्रम मे जाये और मुझको भी आज्ञा दे । 
 राजपुत्र की ऐसी निस्पृहता देख कर योगी विस्मित हो गए और आशीर्वाद देकर कहने लगे तेरे मोहजित नाम को धन्य है तेरा कल्याण हो । 


                                                                                                                       शरणागत 
                                                                                                                   नीलम सक्सेना 



कौन किसका शोक करे

कौन किसका शोक करे 

योगिराज बोले वीर तू इस नगर के मोहजीत राजा का पुत्र है । राजपुत्र प्रणाम करके बोला हाँ महात्मा ! योगी ने कहा तेरे कुटुम्ब मे अभी अभी एक महाशोक जनक घटना घटी है उसे तू नहीं जानता तू बड़े हर्ष के साथ कहाँ जाता है वह बोला मेरा पिता का बनवाया हुआ एक ब्रह्मनिष्ठाश्रम है वहाँ एक महात्मा पधारे है उनके आदरार्थ मैं वही जाता हूँ योगी बोले ,राजपुत्र आज सवेरे तेरा भाई वन मे गया था वहां एक भयंकर सिंह के साथ युद्ध करता हुआ मारा गया मुझे तो बहुत दुःख है और यही समाचार बतलाने के लिए यहाँ आया हूँ यह सुन राजपुत्र बोला योगिराज ,यह शोक समाचार ही है परंतु "कौन किसका शोक करे "इस जगत मे अनेक जन्म लेते है और मरते है यह सब मनुष्य के बंधु ही है तो मुझे किसका शोक और विषाद करना चाहिए योगी ने कहा "अनेक प्रयत्न करने पर भी जो फिर प्राप्त हो तो उसका शोक किस पुरुष को नहीं होता । इससे बढ़कर और शोककारक क्या हो सकता है ?"
यह सुनकर राजपुत्र ने कहा योगिराज आप महात्मा होकर भी मोह के वश होते हो ये हर्ष शोकादि की तरंगे सिर्फ अज्ञान अवस्था के अंग है परन्तु जहाँ " सद्सत के विवेक -सत -चित -आनंद -नित्यानित्य -मोह -ममता -ब्रह्मजीव और माया का विचार है वहाँ उसका वास नहीं होता " जीव का जो देह प्राप्त होता है वह ईश्वरी नियमानुसार प्राप्त होता है जब तक उसकी अवधि निश्चित होती है तब तक वह आत्मा के साथ रहता और आयु पूर्ण होते ही तुरंत पात हो जाता है । महात्मा ,जो जानता है कि "जन्म का पर्यायवाची शब्द मृत्यु है , क्षणभंगुर संसार मे सब पदार्थ नाश होने वाले है , आत्मा ही एक चिरंजीवी -अविनाशी है और जो कभी मृत्यु को प्राप्त नहीं  होती । यह शरीर नाश होने के लिए ही बनी है । विचारशील धीरात्मा न इस तुच्छ देह की ओर नजर करता है और न उसे व्यथा ही होती है वह तो सुख दुःख को समान समझकर ,असार संसार सागर से तर जाता है । ईश्वरी नियम ही ऐसा है तो फिर उसमे क्या शोक " ! 

                                                                                                            शरणागत 
                                                                                                        नीलम सक्सेना  









मोहजीत कुटुम्ब

मोहजीत कुटुम्ब 

निर्मोहा नगरी का एक राजपुत्र अपने साथियो के साथ वन विहार करने को निकला वन मे भ्रमण करते हुए उसे एक स्वच्छ और सुन्दर लताओं से छाई हुई पूर्णशाला दीख पड़ी । वहाँ पर उसे एक वृद्ध योगी दिखाई दिए । वह राजपुत्र को देखकर बाहर आये और आदरसहित अंदर ले जाकर आसन पर बैठने के लिए बोले , तत्पश्चात बोले तुम्हारा नाम क्या है और किस देश मे रहने वाले हो ? राजपुत्र प्रणाम करके बोला " मैं महाराज मोहजीत का पुत्र हूँ और मेरा नाम भी मोहजीत है। मेरे पिता की राजधानी निर्मोहा नाम नगरी है"। 
 यह सुन विस्मित होकर योगिराज बोला क्या तेरा नाम मोहजीत है मोहजीत तो वह कहलाता है जिसने  मोहरूप शत्रु को जीत लिया हो पर यह मोह तो जगत के जीव मात्र का परम शत्रु और मायाशक्ति का सगा भाई है इसलिए माया से व्याप्त जगत मे मोहरहित कौन हो सकता है जहाँ माया वहाँ मोह अवश्य ही है । जिसने मोह जीता उसने सारा संसार जीता और जो पुरुष मोह माया से मुक्त है उसे साक्षात् "हरि का सानिध्य है " मोह पर विजय प्राप्त करने वाला जीव तो विश्व मे बिरला ही होता है । 
   यह सुन राजपुत्र बोला मेरा सारा कुटुम्ब और वंश मोहजित ही है । यह बात योगिराज के हृदय मे नहीं बैठी । यह क्षत्रिय कुमार अपना सारा परिवार मोह रहित बताता है । इसके नगर का नाम भी निर्मोही नगरी है इससे जान पड़ता है कि यह सारा नगर ही मोहजीत होगा क्या यह सब सत्य होगा , यह सब प्रत्यक्ष देखकर अपना संशय दूर करूँगा ऐसा सोचकर महायोगी अपनी अदभुद योगशक्ति के द्धारा पलभर मे निर्मोही नगरी के भूभाग मे जा खड़े हुए । 


                                                                                                             शरणागत 
                                                                                                         नीलम सक्सेना 

भोला भाला ब्रह्मचारी , ज्ञानी भी चूकता है

                                    भोला भाला ब्रह्मचारी 
                                    -: ज्ञानी भी चूकता है :- 
माया चक्कर से मोह पैदा करती है ( भ्रम मे डालना ) माता ,सास या लड़की के साथ एकान्त मे कभी नहीं रहना चाहिए ,क्योंकि बलवान इन्द्रियों का समुदाय बड़े -बड़े विद्धानों को भी खींच लेता है । 
माया की विचित्रता से सिर्फ अज्ञानी को ही मोह होता है या ज्ञानी को भी ? यह सुनकर "वामदेव "जी बोले , हाँ ज्ञानी को भी मोह होता है इसी से महात्मा पुरुष बड़े सावधानी से चलते है प्रभु सवेश्वर की माया ऐसी अदभुद शक्तिमती है कि बड़े बड़े ज्ञानी भी उसके भुलावे मे पड़ गए है जब ब्रह्मदेव ,शंकरजी ,नारद ,इन्द्र ,चन्द्र ,वृहस्पति ,आदि अनेक समर्थ पुरुषो को भी माया ने बहुवार भुलाया है तो मनुष्य की क्या गणना है ? यह भुलावा आत्मा को नहीं परन्तु मन को होता है इसलिए महानुभाव पुरुष मन को जरा भी अवकाश नहीं देते । निरन्तर उसको अपने वश मे रखते है जरा भी छूटा स्वतंत्र हुआ कि बस साक्षात् ईश्वर के अंशरूप ,जगत का कल्याण करने के लिए पैदा हुए पुरुषो ने भी अपने मन को अवकाश नहीं दिया । ईश्वर के अवतार ऋषभदेव ने जब योग धारण किया तब अष्टमहासिद्धियां उनके आगे आकर खड़ी हुई और कहने लगी , महाराज हम आपके आधीन है आप हमे स्वीकार करे । परन्तु उनका त्याग करते हुए ऋषभदेव ने कहा "मैं तुमको ग्रहण नहीं करूँगा " यदि मैं तुमको स्वीकार करूँगा तो मेरा मन तुम्हारा उपयोग किये बिना नहीं मानेगा और इससे मेरा पतन हो जायेगा ,इसलिए देवियो ! तुम जाओ तुमको मैं प्रणाम करता हूँ । सारांश यह है कि जब ईश्वरावतार ऋषभदेव महात्मा ने भी जब मन को स्वतंत्रता से रखने मे संकोच किया है तो इस संसारी जीव की बात ही क्या कही जाये ? मन को यदि स्वतंत्रता दी जाये तो चाहे जैसा ज्ञानी हो  उसका भी मोह होगा । एक वृतांत सुनाता हूँ ध्यान से सुनो । 
    ईश्वर अवतार महात्मा वेदव्यास जी ने धर्म शासन रूप एक ग्रन्थ रचा । उसमे उन्होंने वर्ण और आश्रम धर्मो का चयन किया और उसमे कर्म,उपासना,ज्ञानकाण्ड का वर्णन किया था । व्यास जी ने अपना रचा हुआ ग्रन्थ अपने शिष्य जैमिनी को दिया । देखने देखने के लिए जैमिनी ऋषि ,महाविद्धान ,बुद्धिवान और धर्माग्रही थे । समर्थ जैमिनी ऋषि अपने गुरुदेव का लिखा हुआ ग्रन्थ आदि से अंत तक देखने लगे। एक जगह उन्होंने लिखा देखा कि "मनुष्य स्त्री के साथ एकांत मे न रहे "क्योकि एकांत मे रहने से ज्ञानी पुरुष को भी बलवान इन्द्रियों का समूह मोह पैदा करता है यह पड़ते ही जैमिनी के मन मे शंका उत्पन्न हुई क्योकि यह बात उन्हें उत्तम नहीं जंची और तुरंत अपने गुरु के पास गए और बोले गुरु महाराज ग्रन्थ बहुत ही श्रेष्ठ और सर्वमान्य है परन्तु एक जगह मुझे कुछ विपरीत जान पड़ता है यही बतलाने के लिए आया हूँ गुरु व्यास जी बोले बहुत अच्छा इसीलिए तो यह ग्रन्थ सबसे पहले तुझे पड़ने को दिया तू मेरा मुख्य शिष्य है  और बुद्धिमान है इसका नाम क्या रखना चाहिए ? इस पर भी तू विचार करना । 
  जैमिनी मेरे ग्रन्थ मे तुझे क्या अनुचित दिखा वह मुझे शीघ्र बता जैमिनी ऋषि ग्रन्थ को उनके सामने रखकर प्रणाम करके बैठे और बोले महाराज मुझको सिर्फ यह अयोग्य लगता है कि मनुष्य एकांत मे न रहे , यह तो ठीक है परन्तु एकांत मे साधू और ज्ञानी को भी बलवान इन्द्रियों का समूह मोह पैदा करता है "यह क्या है " ज्ञानी शब्द ही यह सूचित करता है कि जिससे अज्ञान और मोह दूर रहता है ,सत्य और असत्य क्या है इसका ज्ञान होता है । 
 सत्य सिर्फ परमात्मस्वरूप है और सब असत्य है मिथ्या है । इसको जानना ही ज्ञान है इन्द्रियों के समुदाय के बल से मोहित होने की जो अज्ञानता है वह जिसकी बिलकुल नष्ट हो गई हो वही ज्ञानी कहलाता है तो फिर ऐसे ज्ञानी को मोह क्यों होगा और उसका पतन कैसे हो सकता है ? मोह से रहित ज्ञानी कहलाता है "साधु और ज्ञानी पुरुष को भी  होता है" यह बात मुझको उचित नहीं लगती इसलिए गुरुदेव यह बात आप ग्रन्थ से निकाल दीजिये बस यही मेरी प्रार्थना है । 
  वेदव्यास जी ने मुस्कराकर कहा ! जैमिनी ईश्वर की माया कितनी प्रबल है इसे क्या तू नहीं जनता यह माया ही सारे विश्व को मोह कराने वाली महामोहिनी है पुरुषोत्तम श्री हरी की यह मूल -प्रक्रति है इसलिए जगत मे जो कुछ जड़ पदार्थो का समुदाय है उन सब की उत्पत्ति कराने वाली और जीवो को बंधन मे डालने वाली मूल देवी यही शक्ति है । यह ईश्वरी माया बड़ी दुस्तर है "पुरुषोत्तम ने श्री मुख से स्वयं कहा है कि मेरी माया वास्तव मे बड़ी दुरत्य है जो जानी नहीं जा सकती "। 
हे तात जैमिनी इस ईश्वरी माया मे बड़े -२  मोहित हो गए है इस जगत को बनाने वाले स्वयं ब्रह्मदेव,कैलाशवासी शिव शंकर और देवर्षि नारद मुनि को भी माया ने भुला दिया तो फिर दुसरो को क्या गिनती इसलिए पुत्र स्त्री के साथ एकान्त  मे रहना महा अनर्थकारी और पतित (भ्रष्ट )करने वाला है । यह सुन जैमिनी बोले प्रभो क्या शिव और ब्रह्मादि को भी माया ने मोहित किया । यह कैसे माना जाये यह सुनकर तो मुझे बड़ा आश्चर्य होता है वेदव्यास जी बोले इसमें आश्चर्य की कोई बात  नहीं है जगत की प्रत्येक स्थूल -सूक्ष्म वस्तु पर माया का आवरण चढ़ा हुआ है । 
 महामुनि वेदव्यास जी बोले "जैमिनी एक बार शंकर जी को बैकुष्ठ देखने की इच्छा हुई और वे दिव्य नित्यमुक्त विष्णुलोक को गए " वहाँ परमात्मा ,साक्षात् लक्ष्मीपति महाविष्णु विराजमान थे । दिव्य रूप महाविष्णु जी को नमन ,वंदनादि द्धारा हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे तब भगवान ने उनको अपने ह्रदय से लगा लिया और कहा "शिव परम कल्याण रूप ! मायातीत ! मेरी माया के आवरण को भेदकर तुम यहाँ आये हो यह देखकर मैं अत्यन्त प्रसन्न हुआ हूँ मेरी दुस्तर माया जिसकी सत्ता सब पर है उसको पार कर लेना तुम्हारे लिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योकि तुम तो मेरे आत्मा रूप और मेरी बड़ी विभूति रूप है । 
 परमात्मा विष्णु का यह संभाषण सुनकर सदाशिव शंकर जी ने कहा प्रभो मेरी एक इच्छा है उसे पूर्ण करे समुद्र मंथन के समय आपने जो मनमोहिनी का रूप धारण किया था । वह देखने की उत्कण्ठा हुई है उसे आप पूर्ण करे क्योकि उस समय मैं कैलाश पर था अपने धाम मे । इससे मुझे आपका वह स्वरुप देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ । त्रिभुवन पति विष्णु ने कहा "शिव" जगत के कल्याणकर्ता ! मेरी एक विचारपूर्ण बात सुनो ,यह मोहिनीस्वरूप मेरी देवी गुणप्रचुर महामाया का एक अंग है -विभूति है इसमें अच्छे-२ ज्ञानियो ने गोता खाया है -धैर्यच्युत हुए है इसलिए यह बात छोड़ देना ही ठीक है महादेव ने कहा मधुसूदन ,श्यामसुंदर मैं जरा भी विचलित नहीं होऊंगा एक बार तो मेरी इच्छा पूर्ण करो । श्री भगवन विष्णु हंसकर बोले , अच्छा मोहिनी स्वरुप दिखाऊंगा पर स्मरण रखना ,मेरी माया दुरत्य अजय है । 
    श्री हरि की यह बात , जगत के कल्याणकर्ता श्री शंकर को नहीं जंची । उन्होंने सोचा इनकी माया कितनी बलवती होगी कि जिसे इन्होंने अपने मुख से दुरत्य अजय कहा ? इसका आवरण सब पर है तो क्या मुझ पर भी है ऐसे सोचते हुए श्री शंकर जी विष्णु धाम का अवलोकन करने लगे । सुन्दर वाटिका का अवलोकन करते हुए शंकर जी ज्यो-ज्यो आगे चले त्यों-त्यों आनन्दसहित आश्चर्य मे लीन होते गए ,जैमिनी ! कैलाश मे निरंतर निवास करने वाले शंकर जी ,इस विष्णु धाम की शोभा देखने मे तल्लीन हो गए ,उन्होंने एक आश्चर्य देखा कि वृक्षलताओ मे एक सुंदरी है उसकी मुख देखने की लालसा मे उसके पीछे -२ दौड़ने लगे ज्यो हिं ज्ञानी प्राणियों के कल्याणकर्ता श्री शंकर जी माया मे लपटाए मोह मे फंसे और मोहिनीस्वरूप विष्णु मंद -मंद मुस्कराते हुए बोले "शिव मेरा मोहिनी स्वरुप देखा " शंकर जी ने अत्यन्त लज्जित होकर तुरन्त शीश नीचे कर लिया और उनके अन्तःकरण मे निश्चय हुआ कि परमात्मा की माया बिलकुल अनिवार्य है फिर शंकर जी ने नारायण जी की स्तुति की और कैलाश की ओर चले गए । 
   वामदेव अपने पिता से कहते है " पिताजी ! यह इतिहास सुनाकर वेदव्यास बोले इस तरह शंकरजी जैसे भगवान भी माया से मोहित हो जाते है ,तो फिर दुसरो की क्या गणना ,जब ऐसे ज्ञानी को भी मोह हुआ जो प्रमाणसिद्ध है तो फिर मेरे इस ग्रन्थ का वाक्य कैसे असत्य होगा । 
जैमिनी के मन को समाधान नहीं हुआ , ग्रन्थ को वही रख गुरु को प्रणाम कर अपने आश्रम को चले गए । गुरूजी ने जान लिया कि इसके मन को समाधान नहीं हुआ और उन्होंने जैमिनी की परीक्षा लेना सोच लिया । 
 जैमिनी कुछ ही देर मे अपने आश्रम मे पहुंचे और स्नान करने के पश्चात तप सम्बंधी नैमित्तक जप अनुष्ठान करने के लिए बैठे तभी अचानक शीतल वायु बहने लगी ,घटाये घिर आई और मंद - मंद फुहार पड़ने लगी । ऐसे समय मे जैमिनी को अपने आश्रम से कुछ दूरी पर आश्रय खोजती हुई एक बाला दिखाई दी जो सम्पूर्ण भीगी हुई ठण्ड से काँप रही थी वह आश्रम की ओर आने लगी जैमिनी ने उसे आश्रम मे आते हुए देखकर कहा सुन्दरी तुम कौन हो ? परंतु वह नहीं बोली तब ऋषि ने पास आकर कहा तू इतनी लाज क्यों करती है आश्रम मे क्यों नहीं आती है लज्जा को छोड़कर आश्रम मे आज यहाँ तू सुरक्षित रहेगी उसके स्वरुप से मालूम पड़ता था कि वो कोई राजपुत्री है । ऋषि ने कहा भीतर जा और सूखा कपडा पहन । ऋषि ने तुरंत वल्कल और ऊर्जा वस्त्र पहनने को दिए और कहा कि तुम इन्हें पहन लो तब तक तुम्हारे लिए मैं कुछ खाने के लिए लाता हूँ फल वगैरह , ऋषि ने फल मूलो को लाकर अपने हाथ से उसे खाने के लिए दिए ,सुन्दरी ने ज्यो ही ऋषि की ओर देखा ऋषि मोहित हो गए और उसके स्पर्श ने मुनिजी की चित्तवृत्ति को चलायमान कर दिया । उस बाला के कोमल मुखारविन्द पर हाथ फेरते समय अचानक उनके हाथ मे मोटी मोटी दाढ़ी के बाल हाथ मे आये। जैमिनी ऋषि स्तब्ध रह गए उन्होंने देखा कि उस बाला की जगह वृद्ध तपस्वी वेदव्यास मुनि बैठे थे उन्हें देखकर जैमिनी मन ही मन सोचने लगे मानो धरती मे समा जाय या मर जाये । मुनि का मुख बिलकुल उतर गया और वह एक शब्द भी नहीं बोल पाए वेदव्यास जी से । 
 गुरु वेदव्यास जी ने कहा ! जैमिनी यह क्षण हमेशा याद रखना कि ईश्वरी माया महा दुस्तर है यह बड़े से बड़े ज्ञानी को अपने पाश मे आकर्षित कर गिरा देती है इसलिए ज्ञानीपन का अभिमान छोड़ और सिर्फ भगवत्परायण होजा ,उस मायापति का द्रढ़ ,आश्रय कर ,जिससे उसकी माया से तुझे कभी बाधा न हो । इसके लिए प्रभु के स्वयं कहे हुए वचन प्रसिद्ध है "कि मुझमे परायण हुआ ही इस माया को तर सकता है " माया ऐसी ही है "तेरा कल्याण हो" ऐसा कहकर महामुनि वेदव्यास जी अपने आश्रम की ओर गए और जैमिनी ने अपने को धिक्कारते हुए इस पाप की वृति का प्रायश्चित किया । 
 वामदेव मुनि ने अपने पिता से कहा पिताजी ऐसे -ऐसे जब महान पुरुषो को मोह होता है तो मुझे डर क्यों न हो इसलिए मुझसे घर जाने का आग्रह न करो आप सुखपूर्वक पधारो और मेरी माता के मन को शान्त करो लेकिन बटुकजी को साथ लिए बिना घर वापस जाने को तैयार नहीं । 


                                                                                                                 शरणागत 
                                                                                                             नीलम सक्सेना  















  















   










































सनकादिक के उपदेश का ध्यान

सनकादिक के उपदेश का ध्यान

बटुकजी बोले ,पिताजी मेरा जन्म पहले अंगिरागोत्र मे ही हुआ था । वहां शास्त्र की आज्ञा के अनुसार वेदाध्ययन कर गृहस्थाश्रम मे पड़ा था।  उस जन्म मे मैं सब ऋषियों के साथ लगा  रहता था । मैंने अनेक यज्ञ किये और व्यव्हार और कर्मकाण्ड मे बहुत ही प्रवीण माना गया । उस समय ऋषि मुझे "वामदेव " नाम से जानते थे और बहुत आदर करते थे । मैं स्वर्ग की इच्छा , ऋषियों के साथ अनेक काम्यकर्म (फल इच्छा के काम ) करता और दुसरो को भी वैसा ही करने का उपदेश देता था क्योकि मैं नहीं जानता था कि इंद्रलोक और परलोक के सारे सुख अंत मे नश्वत है ।
  एक दिन सब प्राणियों के हित की इच्छा करने वाले "ब्रह्मपुत्र  सनकादिक मुनि " अनेक लोको मे भ्रमण करते हुए भूलोक मे पधारे ।
" पुनरपि जननं पुनरपि मरणं ,पुनरपि जननी जठरे शयनं " अवस्था मे दुःखित पाकर उन्हें बड़ा कष्ट हुआ । ये देवदया के वश होकर प्रजा के इस संसार के क्लेश मय  तापो को दूर करने का विचार करने लगे और हमने ब्रह्मपुत्रो को पूजादि करके संतुष्ट किया और विनयपूर्वक प्रश्न किया कि हे ब्रह्मपुत्रो ! इन दुखो के अंत होने और वास्तविक सुखानंद प्राप्ति के जो उपाय है वे कृपा कर बताये ।
यह सुनकर ब्रह्मपुत्रो मे ज्येष्ठ "मनकमुनि " बोले - स्थिर सुख का उपाय परमात्मा स्वरुप का सच्चा ज्ञान होना है ।
"संदनमुनि"ने कहा - मन का लय (नाश) करना ही परमात्मा रूप के ज्ञान होने का उपाय है ।

"सनातन मुनि" ने कहा - शुद्ध निष्काम कर्म -उपासना करना ही इच्छाओ के लय का उपाय है ।

"सनत्कुमार मुनि "ने कहा - यह सब जगत विनाशी है ऐसा विचार पूर्वक जानना और अनुभव करना द्रढ़ निश्चय करना ही निष्काम होने का उपाय है ।

यह अनमोल उपदेश देकर ब्रह्मपुत्र चारो मुनि देवलोक को चले गए । इन चारो सिद्धांतो मे तीसरा सिद्धांत यह है कि कल की इच्छा बिना कर्म करना और उसे परमात्मा के श्री चरणों मे अर्पण करना चाहिए इससे अन्तःकरण शुद्ध -पवित्र -ज्ञानरूप प्रकाश पाने के योग्य  होता है । इन बालक रूप महातेजस्वी सनकादि महर्षियो का कल्याण कारक उपदेश सुनकर मुझे तो उसी समय से भारी चोट लगी । मैं बारम्बार उनके वचनो का मनन करने लगा ,ज्यो -ज्यो मैं सृष्टि की लीला का विचारपूर्वक अवलोकन करता था त्यों-त्यों मुझको अनुभव होता था कि इस जगत की प्रत्येक वस्तु मिथ्या है अविनाशी नहीं है मुझे क्षणक्षण मे उनका उपदेश वचन याद होने लगा और मैं अपने प्रत्येक कार्य मे द्रढता  से उसका उपयोग करने लगा ,फल की इच्छा से किये जाने वाले कर्मो पर मेरी आस्था ही नहीं रही जो कर्म आवश्यक हो वही कर्म मैं करता और उसमे भी फलासक्ति नहीं रखता था । मुझको बहुत समय के अभ्यास से मालूम हुआ कि कर्मफल की आशा ही नही रखनी चाहिए । ऐसा ज्ञान होते ही मेरी सारी आशाये पूर्णरूप से स्वयं शांत हो गयी और पहले अनेक आशाओ मे भटकने वाला तथा जरा भी विश्राम न लेने वाला जो मेरा चंचल था वह बिलकुल शांत हो गया , उसने भटकना बिलकुल ही छोड़ दिया । पंचतत्वो का यह शरीर अकस्मात् प्रफुल्लित होने लगा और मैं हृष्ट पुष्ट हो गया । अंत मे आशा और संसार सक्ति इतनी शिथिल हो गई कि इस जीव ने धन ,स्त्री ,पुत्र , आश्रम सबको भूला दिया । मेरी इच्छाएं नष्ट हो गई उन महर्षियो के उपदेशानुसार परमात्मा स्वरुप के दर्शन की लालसा से और उसमे सदा लीन हो जाने के कारण शरीर भी शुद्ध स्वर्ण के समान होता गया और इस शरीर की विस्मृति हो गई  ,मन ब्रह्मविचार मे एकाग्र होने से ,ब्रह्मनिष्ठ जीववाला शरीरधारी मैं मानो जड़ ,बहरा ,गूंगा और सुधविहीन अवधूत के समान हो गया । अपनी पूर्ण एकाग्रता के फलस्वरूप ,परमात्मस्वरूप के दर्शन होने का समय मेरे समीप आ गया परन्तु ईश्वर दर्शन होने के पूर्व ही मेरा देह ईश्वर इच्छा से मृत्यु को प्राप्त हो गया इसलिए मुझको ईश्वरी नियमानुसार फिर गर्भवास मे आना पड़ा है ।

हे पिताजी ! मैंने तुम्हारे यहाँ गर्भवास का अंतिम दुस्तर अनुभव किया है परंतु गर्भवास मे महासंकट मेरा कुछ भी नहीं कर सका क्योकि मैं तो वहां पर भी ब्रह्मविचार मे मग्न था । वहां तो मेरा मन पूर्णरूप से एकाग्र हुआ क्योकि उस स्थान का निवास तो योगी लोगो के पर्वत के गुप्त से गुप्त ,एकांत से एकांत ,गुफा से भी बहुत गूढ़ एकांत वाला है । गर्भाशय के नरक के समान तीक्ष्ण दुखो के कारण जीव की संसारसाक्ति बिलकुल निर्मूल हो जाती है । ईश्वर ने वहां मुझ पर दया की । पांच भौतिक देह के ह्रदय मे अकस्मात् अदभुद प्रकाश हुआ । यह प्रकाश कैसा था इसका वर्णन कोई नहीं कर सकता हैं क्योंकि इसको तो वही जान सकता है जिसने इसका अनुभव किया है यह प्रकाश ,आनंदरूप ,महदानंद रूप ,परमानंद रूप ,परम सुखमय प्रकाश ,वायु से शून्य एकांत स्थान मे जलते हुए घी के दीपक के समान स्थिर था । इससे मैं उसको "प्रकाश"  नाम देता हूँ । उपनिषद शास्त्र ने इसे "ॐ तत ,सत, चित ,आनंद "इत्यादि विशेषण दिए है और इन सबका पूरा नाम वेद मे "ब्रह्म" नाम से वर्णन किया गया है यह वही परमात्मा स्वरुप है जिसका उपदेश मुझे उन सनकादिक महात्माओ ने दिया था यही सब दुःखो और संसार वासनाओ का अंत है यही परम सुख ,परमशान्ति ,परमआनंद यही जीव मुक्ति ,यही परम निर्वति और यही अचल पदवी तथा सर्वोत्तम धाम है मुझको स्पष्ट मालूम हुआ "अहो ! यही परमात्मा और यही मेरा मूलरूप है" । 
               बटुकजी बोले ,ऋषि जी मुझे इस समय वहाँ आनंदपूर्वक तुरंत स्मरण हो आया कि महर्षि सनकादिकों का उपदेश कितना अमूल्य है उसके बाद मैं तुरन्त जन्मा ,जन्म लेकर भी सब लोगो को सावधान करने के लिए यही काम करने को निकल पड़ा हूँ । हे जनो ! पहले मैं भी तुम्हारे समान एक था परन्तु उन सनकादिकों के उपदेश को मानकर द्रढता से ज्ञानभक्ति के साधन का आचरण करने लगा परिणाम स्वरुप परमात्मा के स्वरुप का प्रत्यक्ष दर्शन कर सुखी हुआ हूँ इसलिए तुम भी मेरे समान ही यत्न करके सुखी होओ और असावधानी त्याग दो । 
   बटुकजी  की ये बाते सुनकर सब सभा चकित हो गई और ऋषि वामदेव के पिता तो अत्यंत हर्ष के आवेश मे बटुकजी को बाहो मे भरकर आलिंगन कर बोले , मैं निसंदेह सौभाग्यशाली हूँ जो पुरुष सब लोगो का पूजनीय है वह मेरे यहाँ वामदेव ऋषि पुत्र रूप से पैदा हुए है । सृष्टि नियम के अनुसार जब आप मेरे यहाँ पुत्र रूप से पैदा हुए है तो अज्ञान के अंधकार मे पड़े हुए अपने वृद्ध माता पिता की पुत्र लालसा पूरी करने के लिए घर चलो "वामदेव" तुम्हारी माता को तुम्हारे प्रभाव का ज्ञान नहीं है इसलिए घर चल । उसको भी कृतार्थ करो । गृहस्थाश्रम का सुख भोगकर हमारी आँखों का आनंदित करो । हे वामदेव तुम दूसरी सब बातो को छोड़कर अब तू घर चल । 
   वामदेव फिर उन ऋषि को संबोधन करके बोला "पिताजी" जब एक बार जान लिया गया कि इस पदार्थ मे जहर है और इसके खाने से प्राण जाते है तो फिर वह पदार्थ चाहे मीठा हो तो भी क्या ज्ञानी पुरुष उसके खाने की सच-मुच इच्छा करता है । ऋषि ने कहा "नहीं बिलकुल नहीं " , बटुकजी बोले " तो वैसा ही मेरे लिए जानो"। 
  

                        आज से हम बटुकजी को "वामदेव" कहकर पुकारेंगे ।  

                                                                                                                                    शरणागत 
                                                                                                                                नीलम सक्सेना 



































Monday, 30 January 2017

यह जन्म नया नहीं है

यह जन्म नया नहीं है 

यह सुनकर बटुक बोले - इस संसार मे कौन बालक और कौन वृद्ध ? मेरी दृष्टि मे तो जगत के सभी प्राणी समवयी दिखते है । 

बटुकजी की यह बात सुनकर एक जिज्ञासु ने पुछा " देव यह कैसे हो सकता है? " सब समवयी कैसे हो सकते है ?  बटुकजी ने कहा जिज्ञासु सुन , जब से इस बीतते हुए श्वेतवराह कल्प की सृष्टि का प्रारम्भ हुआ तब से सब जीव अव्यक्त रूप से परमात्मा मे समाये हुए थे वे अलग -२ व्यक्तिरूप से प्रकट हुए और उन सबको सृष्टि स्वभाव और अहंकार अनुकूल हुआ । इस अहंकार और सृष्टि स्वभाव रूप माया के आवरण से वे नाना प्रकार के कर्मो  मे लिप्त होने लगे और इन कर्मो के कारण उन्हें फिर इन कर्मो का फल भोगने का जो ईश्वरीय नियम था वह लग गया जैसे -जैसे नए कर्म होते गए वैसे वैसे उनको भोगने के लिए फिर नए -नए देह धारण करने पड़े और इस तरह वाशंवर चक्र की तरह आवर्जन -विसर्जन ,जन्म -मरण ,और फिर जन्म होते गए परंतु उनका अंत नहीं आया । 

 जीव को कर्म करना,फल  भोगना, मरना और फिर जन्म लेना पड़ता है इसलिए हे जिज्ञासुओ आज तुम, मैं और ये सब जने नए नहीं हुए है हम सब आदि  से ही साथ है और सब अपने -२ कर्म प्रारब्ध भोगते है । हे ऋषिदेव तुम्हारे बतलाये हुए यह आश्रमधर्म इस जन्म के पहले एक नहीं परन्तु अनेकबार करते मैं थक गया हूँ तो भी तुम मुझको उन्ही को करने का उपदेश करते हो इस दशा मे तुम्हारे विचार उस कारीगर के पुत्र से नही मिलते तो और क्या है । 

    ऐसा अतिगूढ़ तत्वविचार वाला भाषण सुनकर ऋषि बिलकुल ही आश्चर्य मे डूब गए और विचार करने लगे कि मेरे यहाँ पैदा होने वाला यह बालक साधारण जीव नहीं ,परन्तु कोई देवांशी अवतार है । ऋषि ने बटुकजी से पुछा वत्स ,प्रिये पुत्र !  जब तू ऐसी ज्ञान की बातें करता है तो तू पूर्व जन्म का कौन है ? यह तुझे अवश्य ही स्मरण होगा ,अतः यह मुझको बतला , पिता की आज्ञा सुनकर बटुकजी अपने पूर्वजन्म का वृतांत कहने लगे । 


                                                                                                                           शरणागत 
                                                                                                                       नीलम सक्सेना 




  

कारीगर के पुत्र का पात्र

कारीगर के पुत्र का पात्र 

बटुकजी बोले - पिताजी ! अपने जो कहा वह सत्य है , परन्तु अविघा से हुए मनुष्य की तरह क्या मुझको भी बारम्बार नाटक दिखलाना चाहिए , पिताजी मेरी एक बात सुनो और उसका उत्तर दो , एक श्रेष्ठ कारीगर के लड़के ने खदान से धातु निकालकर गलाया ,तपाया ,ठोका -पीटा  और एक बर्तन बनाया और उसमे इच्छानुसार द्रव्य भरकर काम मे लाया और बड़ा आनंद पाया । दिन बीता रात आई सब सो गए । दूसरे दिन बर्तन को आग मे डालकर तोड़ -फोड़कर फिर से दूसरा नया पात्र बनाने लगा तब उसके पिता ने कहा मुर्ख लड़के तू यह क्या करता है तब लड़के ने उत्तर दिया पिताजी पात्र बनाता हूँ । पिता ने कहा यह पात्र ही तो है परन्तु पिताजी यह तो कल का बनाया हुआ है इसलिए इसी को फिर से उत्तम और नया पात्र बनाता हूँ । 

 इतना कहकर बटुकजी बोले ऋषिदेव इस कारीगर के पुत्र का उत्तर कैसा है ऋषिराज तुम्हारा भी विचार इस कारीगर के लड़के से मिलता जुलता है ऋषिदेव यह सुनकर अवाक् रह गए । 
और बोले पुत्र बालक बुद्धि छोड़कर घर चल । 

                                                                                                                   शरणागत 
                                                                                                                नीलम सक्सेना   

बटुक कौन है

बटुक कौन है 

"ज्ञानी द्रष्टा के समान सम्पूर्ण मिथ्या पदार्थो को देखते है फिर भी इन्हें  बंधन नहीं होता ,मुक्ति नहीं होती , परमात्मन भी नही होता , और न ही जीव पन ही होता है अर्थात वे सबसे अलिप्त रहते है "। 

      इस समय सबके मे संदेह है कि इतनी बड़ी ईश्वरी शक्ति वाला यह बालक कौन और किसका पुत्र है इतने मे एक कौतुक हुआ यज्ञशाला मे एक वृद्ध ऋषि दौड़ते हुए आते दिखाई दिए। ऊँचे सिंघासन पर बैठे बटुकजी को देखकर हे पुत्र ! हे पुत्र के संबोधन से पुकारने लगे उन्होंने बटुकजी को अपनी बाहो मे भरकर गले लगा लिया और बोले - हे प्रिये पुत्र तू जन्मते ही ऐसा निर्दयी क्यों बन गया ? तुझे इस वृद्ध माता -पिता पर दया नहीं आई तू घर जाकर अपनी वियोगिनी माता के ह्रदय को शांत कर ,ऐसा कहते हुए वृद्ध मुनि बटुकजी को उठाने लगे, परन्तु बटुकजी नहीं उठे ,मुनि बोले पुत्र तू इस वृद्ध पिता को क्यों दुखी करता है तेरी माता ने अन्न जल त्याग दिया है और अगर तुझसे वियोग अधिक समय तक रहेगा तो वह अपने प्राण त्याग देगी । वत्स हम दोनों तुझे प्राणों से भी अधिक प्रिय मानते है तेरी माता ने पुत्र सुख पाने के लिए अनेक कठिन तप ,व्रत आदि अनेक कष्ट सहकर तुझे बुढ़ापे मे प्राप्त किया है उसका क्या यही फल है।  

        बटुकजी बोले - अहोऋषिवर्य ! आप इतने अधीर क्यों है ? आपको यह कैसा मोह हुआ है ऋषिदेव इस संसार मे कौन पिता - कौन पुत्र - घर किसका - वार किसका , आप महा मोह सागर मे पड़े हुए है आप नहीं जानते कि यह जगत रूप कार्य सर्वमिथ्या है और सब व्यव्हार भी झूठे है यह सुनकर ऋषि ने कहा कि तू जो कुछ कहता है वह सब सत्य है परन्तु यह ज्ञान अभी किस काम है ? ये बाते तेरे जैसे बालक के काम की नहीं है तूने तो अभी माता पिता का लाड प्यार ,बालक्रीड़ा ,हमारी गोद मे बैठकर मीठी-मीठी द्धारा हमारे मन को संतुष्ट नहीं किया है। "यज्ञ नारायण के पूर्ण प्रसाद से तू उत्पन्न हुआ" इसलिए जन्मते ही आठ वर्ष का दिखा , तू तो बालक है अभी तो तुझे वेदों का अध्ययन करना है ,विवाह करके गृह्स्ताश्रम का सुख भोगकर, पत्नी के साथ, धर्मकार्य ,सत्कर्म करना, पुत्र का पिता बनना ,विषय सुख से शांत होकर फिर परमात्मा का स्वरुप का विचार करने के लिए वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण करना अभी यह पागलपन छोड़कर घर जाकर अपनी प्रेम करनेवाली माता के हृदय के शोक को दूर कर ॥ 

    
                                                                                                             शरणागत 
                                                                                                          नीलम सक्सेना          



















दुःख का कारण मन की शिथिलता है

दुःख का कारण मन की शिथिलता है 

"जिस मनुष्य ने मन को द्रढ़ कर लिया है वह अपने प्रिय प्राणों को भी तज देता है ,परन्तु जब संकट आ पड़ता है तो अधीर नहीं होता , बनाये हुए नियमो का उल्लंघन करने से अनर्थ होता है "

जिसके ह्रदय से पलभर भी हरि का नाम नहीं हटता ऐसा परम भक्त सदा दुःखी देखने मे आता है उसका व्यव्हार भी बहुत बिगड़ा हुआ जान पड़ता है वह भटकता रहता है परन्तु कोई भी मनुष्य उसे प्रेम की दृष्टि से नहीं देखता इन सबका क्या कारण है यह कृपा कर आप कहे क्योकि इस विषय मे  मुझे बड़ा भारी संशय है ।

          बटुक मुनि बोले  - यह कोई बड़ा प्रश्न नहीं है जो समझ मे नहीं आ सके क्योकि ऐसी प्रथा तो अनादि से चली आ रही है "पुण्यात्मा पीड़ित और पापात्मा सुखी" जान पड़ती है । इसका कारण अविघा मे लिप्त और अज्ञान से घिरा हुआ है ।
      यह तो निश्चय ही है कि धर्मात्मा पुरुष धर्मात्मा है और संसार को वैसा ही मालूम होता है परन्तु उसके भीतर छिपे घर मे "अन्तःकरण" नजर डालोगे जो जानोगे कि वहां परमात्मा का प्रेम जो सब सुख ,सब आनंद ,और सबका कल्याण का कारण है । द्रढ़ता से नहीं जमा उसकी श्रद्धा -विश्वास अस्थिर है और प्रतिज्ञा मे शिथिलता है और यही दुःख का बड़ा कारण है ।
मनुष्य चिंतागन मे सदा व्यर्थ तप करता है यदि इस चिंता के समय वह अपने ह्रदय को शांत करने की औषधि पिए तो वह स्वयं सुखी हो साथ-साथ उसे  व्यावहारिक सुख भी मिले । जिस जीव ने शास्त्र का अध्ययन किया है ,धर्म मे पूर्ण प्रेम दिखालाया हो लोगो मे उसका बोध भी कराया हो परन्तु वासना जो सब दुःखो का मूल है उसका त्याग न किया हो तो उसको उत्तम पद उत्तम स्थिति कैसे प्राप्त हो ?
बटुकजी ने कहा कि इस विषय मे आपको मैं एक प्रसंग सुनाता हूँ उसे सुनो ।
 बटुकजी बोले विवेकी,विरक्त,शांति,आदि गुणों से युक्त राजा युधिष्ठर ने श्री कृष्ण से पूछा महाराज मैं सब तरह से धर्मयुक्त व्यवहार करता हूँ कभी पापाचरण नहीं करता ,कभी झूठ नहीं बोलता , गौ ब्राह्मण का प्रतिपालन करने वाला हूँ परमात्मा के चरण कमलो मे सदा चित्त लगाए रहता हूँ  और गुरुजनो को मान देकर मैंने संसार के सब विषयो को त्याग दिया है तो भी मुझे वनों मे भटकना पड़ता है और मेरे भाई भी विपत्ति झेलते है , द्रौपदी कुश की सादरी पर सोती है ।
 और कौरव जो अधर्म का व्यव्हार करते है ,ईश्वर से भी नहीं डरते , फिर भी वे राज्यासन भोगते है इसका क्या कारण है ?
श्री कृष्ण मुस्करा कर बोले ,ज्ञानी को प्रमाद से बढ़कर दूसरा कुछ भी अनर्थकारी नहीं है क्योकि प्रमाद से बढ़कर दूसरा कुछ भी अनर्थकारी नहीं है क्योंकि प्रमाद से मोह ,मोह से अहंवृति ,अहंवृति से बंधन और बंधन से दुःख होता है और इस दुःख का कारण मन की शिथिलता है यदि मनुष्य द्रढ़ रहे तो दुःख नहीं आता परन्तु जब द्रढ़ता मे शिथिलता होती है तभी दुःख भोगता है मनुष्य अपने ही दोषो को देखे ।
यह सुनकर राजा युधिष्ठिर चुप हो रहे परन्तु अर्जुन ने कहा भाई मेरी प्रतिज्ञा मे तो कुछ भी कमी नहीं है तो भी मेरी अवस्था सबके समान है "श्री कृष्ण ने कहा" तेरी प्रतिज्ञा मे जरूर कोई कमी होगी नहीं तो ईश्वर संकट नहीं  आने दे । यह सुन अर्जुन बोला मेरी प्रतिज्ञा मे कोई कमी नहीं है अर्जुन की ये बाते श्री कृष्ण को अच्छी नहीं लगी उन्होंने सोचा जब तक अर्जुन को उसकी प्रतिज्ञा की शिथिलता नहीं बताई जाएगी तब तक वह नहीं मानेगा कि सत्य क्या है ।
 श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा तेरे गले मे जो यह माला है वह मुझे दे ! अर्जुन ने कहा कि प्राण भले ही चले जाएं परंतु यह माला तो मैं किसी को नहीं दूँगा । इन्द्र ने जब यह माला मुझे भेट की थी तो कहा था कि तू यह माला किसी को नही देना "श्री कृष्ण ने कहा अर्जुन तेरी इस टेक से मुझको बड़ा आनंद हुआ पर मित्र जब प्राण संकट मे आता है तो टेक नहीं रहती नीति भी कहती है ।" जब संकट आवे तब धन से कुटुंब की रक्षा और जब प्राण संकट आवे तब कुटुम्ब को छोड़कर प्राण की रक्षा करना चाहिए । प्रत्येक प्राणी को पहले जीने फिर सुख भोगने की तृष्णा (इच्छा ) होती है । प्राण चले जाने पर तेरी यह माला किस काम की अर्जुन ने कहा चाहे जैसा हो परन्तु मेरी टेक है कि चाहे जो हो मैं इस माला को नहीं छोडूंगा मेरी प्रतिज्ञा है कि यदि मैं इस माला को त्यागूँ तो मुझे रामदुहाई है । ऐसा कहकर सायं संध्या के लिए गंगा तट पर स्नान करने चले ।
  ईश्वर की लीलाये बड़ी विचित्र होती है अर्जुन ज्यो ही डुबकी मारकर पानी से बाहर निकले त्यों ही सामने एक भयंकर शेर गर्जना करते हुए मुँह फैलाकर अर्जुन की तरफ खड़ा दिखा उस समय अर्जुन के पास कोई शस्त्र नहीं था ।  सिंह गर्जना के साथ अर्जुन पर कूदने को तैयार था इसलिए प्राण बचाने के लिए उसने अपने गले की माला उतारी और मंत्र पड़कर सिंह पर फेक दी । सिंह माला को गले मे पहनकर अद्रश्य हो गया । अर्जुन विस्मित होकर देखता रहा यह क्या हुआ ? जब अर्जुन कपडे लेने गया तो माला कपड़ो पर रखी देगी। अर्जुन ने श्री कृष्ण को सिंह संबंधी सभी बाते बता दी तब श्री कृष्ण ने मुस्करा कर कहा ,कि हे अर्जुन तेरी टेक और रामदुहाई कहाँ है ? यह सुनकर अर्जुन शर्मा गया उसने मन मे निश्चय किया कि भविष्य मे अपनी टेक शिथिल नहीं होने दूंगा जो परमात्मा सबके हृदय मे विहार कर सबके विचारो को जानने वाला है उसने अर्जुन की यह इच्छा जान ली और विचार किया यदि अर्जुन को अपनी टेक का अभी यह अभिमान है तो उसकी परीक्षा फिर लूँगा ।
  कुछ समय बीतने पर एक दिन श्री कृष्ण और अर्जुन वन मे घूमते हुए बहुत दूर निकल गए। गर्मी के कारण भूख और प्यास दोनों ही लगने लगे । थकन के कारण अर्जुन के पैर इधर-उधर पड़ने लगे तब उसने परमात्मा से कहा कि मुझसे तो अब चला नहीं जाता यदि थोड़ा सा जल व कुछ खाने को मिले तो आगे चल सकूँ । श्री कृष्ण ने कहा तू यहाँ बैठ मैं जल और खाने को कुछ लेकर आता हूँ परन्तु तू यहाँ से आगे -पीछे नहीं होना तब अर्जुन ने कहा ,इस पेड़ की छाया से एक पैर भी बाहर रखूं तो मुझे "रामदुहाई "। श्री कृष्ण जी चले गए अर्जुन भूख और प्यास के कारण वह मूर्छित हो गया जब होश मे आया तो देखा कि भिखारियों का एक झुण्ड किसी गृहस्थ को घेरे हुए खड़ा है और गृहस्थ सबको चने बेच रहा है अर्जुन सचेत होकर अपनी प्रतिज्ञा भूलकर जो आदमी चने बेच रहा था उससे खरीदकर ,खाकर पानी पिया और शेष चने खाते हुए वृक्ष की ओर चल पड़ा , उधर से श्री कृष्ण भी एक मनुष्य के हाथ मे पानी और भोजन लेकर आ गए ,चने खाते हुए अर्जुन को देखकर श्री कृष्ण ने कहा यह खाना कहाँ से आया अर्जुन बोला भूख व्यास के कारण मेरे प्राण व्याकुल हो गए थे इसलिए इन्हें बेचने वाले से लेकर खा रहा हूँ। श्री कृष्ण बोले अर्जुन तेरी प्रतिज्ञा का क्या हुआ अर्जुन शर्मिंदा होकर चुप रहे। श्री कृष्ण ने कहा अर्जुन तेरा इसमें कोई दोष नहीं है मनुष्य की स्वाभाविक प्रकर्ति ही ऐसी है प्रतिज्ञा मे अस्थिरता ही सब दुःखो का कारण है संसार रचते समय मैंने  सब विधियाँ ऐसी ही बनाई है "कि यदि सब प्राणी भक्तिपूर्वक मेरा भरोसा रखे तो उनकी एक भी मनोभिलाषा अपूर्ण न रहे "।  
    तुम और राजा युद्धिष्ठर सबसे समान व्यवहार नहीं करते इसी से तुम दोनों दुःख पाते हों जो मन , वचन , कर्म से यह चाहता है कि सब सुखी ,निरोगी ,आनंदमय रहे किसी को दुःख न हो ,उसी को दुःख नहीं होता है अभी तू वैसा नहीं बना यही संकट का कारण है ।
 अर्जुन ने पूछा  "महाराज" तो सच्चा टेकी कैसा होता है मुझे बताओ श्री कृष्ण ने कहा अच्छा - अर्जुन और श्री कृष्ण ने साधु वेष धारण करके पास के गाँव मे प्रवेश किया ।
  इस नगर मे एक धर्मनिष्ठ महावैष्णव ब्राह्मण रहता था उसके दौनो "भिक्षानदेही" कहकर खड़े रहे ब्राह्मण ने प्रणामपूर्वक उनसे भोजन के लिए कहा उन दोनों ने वह निमंत्रण स्वीकार कर लिया ब्राह्मण ने अपनी स्त्री से कहा इन महात्मा के लिए स्वच्छा शुद्ध और पवित्र भोजन तैयार कर इन्हें भोजन कराओ पति की आज्ञा मानकर उस ब्राह्मण की दोनों स्त्रियां उन संतो की सेवा मे लगी। शीघ्र ही भोजन बनाकर उन्होंने उनको आसन पर बैठाया तब अर्जुन से श्री कृष्ण ने कहा , अर्जुन इस घर का स्वामी पूर्ण टेकी है । ईश्वर पर भरोसा और श्रद्धा रखता है और प्राण भले ही चले जाये परन्तु टेक छोड़ने वाला नहीं है।
  श्री कृष्ण ने पूछा ,सेठजी कहाँ है उनको बुलाओ उनके बिना हम भोजन नहीं करेंगे । दोनों स्त्रियां एक दूसरे का मुख देखने लगी और स्वामी के पास सब वृतान्त कहला भेजा अब तो धर्म संकट मे पड़ गया सोचने लगा और बोला महाराज मैंने भोजन कर लिया है आप लोग भोजन पाने की कृपा करे मेरे अपराध को  क्षमा करे परन्तु हे संतो मेरा नियम अकेले ही भोजन करने का है श्री कृष्ण ने कहा , होगा आज हमारे साथ भोजन नहीं करोगे तो हम उठकर चले जायेंगे अब तो सेठ धर्म संकट मे पड़ गया अगर संत भोजन न करे तो इससे कष्टकारक और कौन विषय होगा ।
  सेठ भोजन करने बैठ गया और भोजन के थाल को देखकर बोला इसमें आम का अथान (अचार )क्यों नहीं रखा बैठो मैं छत से लेकर आता हूँ जब वह बहुत देर तक नहीं लौटा तो पहले एक स्त्री गई फिर दूसरी गई परन्तु उनमे से कोई नहीं लौटी यह देखकर अर्जुन ने श्री कृष्ण जी से पुछा कि क्या कारण है कि तीन आदमी अथान लेने गए उनमे से एक भी नहीं लौटा महाराज मुझे तो इसमें कोई भेद मालूम होता है ऐसा कह दोनों छत पर गए वहां एक कमरे मे दोनों स्त्रियां और पुरुष मृतवत पड़े थे और उनका जीव (अंतरात्मा) परमात्मा के पास चला गया था ।
  अर्जुन का चित्त भ्रम हो गया वह श्री कृष्ण से बोला इसमें महाराज क्या रहस्य है कृपा कर मुझे समझावे ? अर्जुन टेक ही इस सबका कारण है  श्री कृष्ण ने जैसे ही दैवीय माया दूर की वैसे ही वह तीनो प्राणी जीवित होकर बैठ गए । वह ब्राह्मण हाथ जोड़कर अपराध की क्षमा माँगने लगा श्री कृष्ण ने आशीर्वाद देकर पूछा "भक्त " तेरे इस तरह करने का क्या प्रयोजन था ? ब्राह्मण बोला -यदि आपकी आज्ञा हो तो मेरे अपराध की कथा सुनिये मेरे पिता ने मेरा ब्याह छुटपन मे ही इस बड़ी स्त्री से किया था । तरुणाई मे मेरी माता ने अपनी स्त्री को मायके से लाने की आज्ञा दी । मैं घोड़े पर सवार हुए जा रहा था। गांव के बाहर उसने बुलाकर पुछा घोड़े के सवार मेरे सिर यह टोकरी रख दो यदि मेरे शरीर से तुमने ज़रा भी हाथ लगाया तो तुम्हे राम दुहाई है । मैंने कहा बाला तू चिन्ता मत कर , मैं तेरे शरीर को ज़रा भी स्पर्श नहीं करूँगा। उसके सिर पर टोकरी रखकर गोबर की घोड़े पर सवार होकर गाँव मे आया और अपने श्वसुर के यहाँ उतरा कुछ समय पश्चात वह भी गोबर की टोकरी लिए वहाँ पहुँची। मुझे उसकी सखियो के द्धारा पता चला कि वह मेरी स्त्री है मैं एक दम सन्न रह गया कि यह क्या हुआ हम दोनों प्रतिज्ञा मे बंध गए इसलिए मैंने हरिच्छानुसार व्यव्हार करने का निश्चय किया।
   प्रतिज्ञा पालन करना ही मनुष्य का जीवन है ऐसे विचार से मैंने सदा के लिए इसे त्याग दिया और मन मे प्रार्थना की। कि हे ईश्वर मेरी रामदुहाई को पूर्ण करने का मुझे बल दो और अपनी स्त्री से कहा अब तुम रामदुहाई निभाने के लिए धर्म से बर्ताव करो और मुझे मे करने दो संसार के सुख को छोड़ो और धर्म से बर्ताव करो और मुझे मे करने दो संसार के सुख को छोड़ो और धर्म पर प्रीति करो इसने भी रामदुहाई यथार्थ रीति से पाली है यह नित्य ईश्वर ध्यान मे लगी रहती है एक बार ऐश्वर्य को देखकर मेरी स्त्री के मन मे विचार हुआ मैं संतान उत्पन्न कर वंश का नाम रखूँ इसने मेरा दूसरा विवाह अपनी बहिन से करा दिया " ईश्वर की गति बड़ी बलवती होती है " विदाई के समय मेरे श्वसुर ने उपदेश दिया मुझे कि जमाई जी आपने जैसे मेरी बड़ी लड़की को सुख दिया है उसी तरह मेरी इस दूसरी बेटी को भी देना सुख ,यदि इसमें और उसमे जरा भी भेदभाव रखो तो " तुम्हे रामदुहाई है" मैंने उसी समय भगवान से प्रार्थना की कि भगवन आपने जैसे मेरी एक रामदुहाई निवाही है उसी तरह अब दूसरी रामदुहाई भी निबाहने का बल दो , यह दूसरी स्त्री भी मेरे लिए माता के समान है यह दोनों बहिने ईश्वर के ध्यान मे मग्न रहती है और यथायोग्य धर्म का पालन करती है इसलिए इस शरीर से इन स्त्रियों का सब सम्बन्ध त्याग दिया है । शब्द स्पर्श के सिवा इनसे सब व्यव्हार बंद कर दिया है क्योंकि शब्द स्वयं परमात्मा का ही स्वरुप है  चंचल और अस्थिर मन चाहे जब हाथ से छूट जाये इसलिए बड़े कष्ट से उसको नियम मे रखने के लिए मैंने सबका त्याग किया है सिर्फ भक्ति तथा वैराग्य मे अपना कालक्षेप कर रहा हूँ ।
  आप महात्मा आज मेरे यहाँ पधारे है और मुझ गरीब पर दया कर भोजन करने की इच्छा प्रकट की है और सो भी इन स्त्रियों के हाथ से ही , यदि मैं आपके साथ भोजन करूँ तो मेरी रामदुहाई मे न्यूनता हो मेरी प्रतिज्ञा भंग हो क्योकि इनके हाथ का भोजन करूँ तो भी यह एक तरह  का स्पर्श ही हैं मैं आपकी आज्ञा को इंकार नहीं कर सकता , इस माह खेद से अथान के बहाने अटारी पर जाकर " मैंने ईश्वर से प्रार्थना की कि मुझे इस संकट से बचाओ " ऐसी इच्छा करने से परमेश्वर ने तुरन्त ही दया कर मेरे प्राण को इस शरीर से मुक्त कर मेरी टेक रखी और स्त्रियों ने भी मेरे साथ अपने शरीर से मुक्ति पा ली। ये दोनों महासती है पति की धर्मप्रतिज्ञा सफल करने वाली है " स्त्रियों का धर्म है कि सब तरह से पति के धर्म कार्य मे सहायक रहे " यह योगिनी है क्योकि इच्छा का त्याग किये बिना कोई भी योगी नहीं हो सकता ।
   भगवान श्री कृष्ण ने कहा हे ब्राह्मण तुम श्रेष्ठ है आप जानते हो कि मैं श्री कृष्ण और यह मेरा सखा अर्जुन है इसलिए मेरी आज्ञा मानो और आज से तुम अपनी के साथ संसार का सुख भोगो तुम तीनो का यह नया जन्म हुआ है इसलिए अब तुम्हारी पूर्वजन्म की " रामदुहाई " तुम तीनो को बंधन मे डालने वाली नहीं है । श्री कृष्ण और अर्जुन उस ब्राह्मण को आशीर्वाद देकर वहाँ से विदा हुए वह ब्राह्मण गृहस्थ अनेक जन्मो के सुकृत योग से ज्ञान भक्तिपूर्वक परमात्मा की भक्ति कर ,संसार के अलौकिक सुखभोग ,स्त्रियों के साथ परमगति को प्राप्त हुआ ।
  मार्ग मे जाते हुए श्री कृष्ण से अर्जुन ने कहा कि महाराज इस ब्रह्मदेव के सामने तो मेरी टेक किसी भी गणना मे नहीं है ,तब श्री कृष्ण बोले - काम ,क्रोध ,लोभ ही मनुष्य को सब संकट पैदा करते है यह तीनो अहंकार वृत्तियाँ मनुष्य की । द्रढ़ से द्रढ़ टेक मे शिथिलता प्रकट करती है यह तीनो वृत्तियाँ ईश्वर की भक्ति को भी समयानुसार शिथिल कर देती है। अर्जुन - दुःख का कारण अपनी टेक ,विश्वास ,श्रद्धा मे भरोसा न होना है इसी कारण हरि भक्ति -परायणता मे शिथिलता होती है।
    यह कथा कर गुरु बटुक जी बोले ,भक्तो जब कभी मनुष्य पर संकट आये लो उसे निश्चित रूप से जानना चाहिए कि ईश्वर के प्रति उसकी जो आस्था (विश्वास)है उसमे कचाई है ।


                                                                                                                     शरणागत 
                                                                                                                 नीलम सक्सेना 



















   


















 





























Friday, 27 January 2017

शिवजी का उपदेश

 शिवजी का उपदेश 

बटुकजी बोले , विलास को इस तरह अनन्य भाव से शरण आया देख कर शंकरजी बहुत प्रसन्न हुए और बोले "वत्स"  अब तू इस अविनाशी अखण्ड सुख की प्राप्ति का अधिकारी हुआ इसलिए जो मैं कहूँ उस पर एकाग्र होकर ध्यान दे यह संसार दुःख रूप ही है इसलिए सुख की इच्छा वाला तू पहले अपने मन को प्रत्येक पदार्थ से हटाकर एक जगह अपने हृदय मे स्थिर कर जगत मे तेरा कोई भी नहीं है जिसको तू अपना समझ कर प्रीति करेगा यह संसार दुःख की कीच मे डुबो देने वाला है इसलिए इस बात का मनन बारबार और अच्छी तरह कर , मन को  जो सब माया का बंधन का कारण है स्वाधीन कर इससे विराग व्यापेगा और विराग से स्थिर हुआ तेरा मन फिर नहीं भटकेगा । 
 रात का समय होने से वन बिलकुल शान्त था वहाँ शिवजी के प्रकट होने से चारो ओर दिव्य प्रकाश फैल रहा था । शंकर जी विलास से बोले "मुमुक्ष (सच्चा सुख चाहने वाले) अपने दोनों पैरो की एडिया दोनों जंघा के शिरे पर रख पालथी मारकर उत्तर की ओर बैठ, दोनों हाथ घुटनों पर रख , नजर को एकाग्र कर , आँखें बंद करके ,सांस को बिलकुल धीमी करके नियम मे रख । 
 विलास अपने मन और तन को पर्वत के शिखर के समान स्थिर करके बैठा ,फिर शंकरजी बोले -अब अपनी मनोमय दृष्टि से अपने आगे पीछे ,आसपास और आगे ,पीछे ,ऊपर,नीचे,सर्वत्र दिये की ज्योति के मध्य भाग के समान अथवा सूर्य की किरण के जैसा प्रकाश देख , क्षण भर तो तू इसके सिवा और कुछ भी नहीं देख । इस प्रकाश के बीच मे अपनी मनोमय दृष्टि के आगे एक विस्तृत और कोमल हरियाली से पूर्ण मैदान देख उसमे खड़े हुए केले के वृक्ष ,खिले हुए गुलाब ,मोगरा ,चमेली के फूलो के गुच्छे देख ,चारो किनारे से निर्मल झरने झर रहे है 
मैदान की सुकोमल तृणवाली भूमि पर अनेक कल्पतरु शोभित हो रहे है बीचो बीच एक छः सात वर्ष का जो बालक खेल रहा है उसे देख जो बहुत सुन्दर ,सुकोमल ,मेघो के समान तेजस्वी है श्री अंग मे रेशमी पीताम्बर ,मस्तक पर रत्न से जड़ा हुआ मुकुट जो चारो ओर से मोर के पंखो से शोभित है मुख चंद्र के समान शोभायमान ,कान मे बड़े प्रकाश वाले कुण्डल , नाक मे मुक्ताफल ,गले मे दिव्य रत्नों की माला ,छाती पर कौस्तुभ मणि ,दोनों बाहो मे कड़े , पहुँचो मे कंकणमय पहुँची है , उंगलियो मे रत्न मुन्दरियाँ , कमर मे क्षुद्र घंटिका और पैरो मे सुन्दर नृपुर है । हाथ पैर के नख तारो के समान चमक रहे है और मंद मुस्कान से ओठो के बीच छिपी हुए रतनपंकित सरोखी रतनपंकित आप ही आप दिख जाती है । 
 इस बालक का अदभुद रूप लू उसके पैरो से लगाकर ऊपर मुकुट तक देख यह विचित्र बालक सारी सृष्टि का स्वामी है गोचर और अगोचर सब चीज़ों का उत्पादक है और सबको अपनी अदभुद शक्ति द्धारा धारण कर रहा है । मैं ,ब्रह्मा ,विष्णु  तीनो उससे ही पैदा हुए है वह सबकी आत्मा और प्रभु है इसलिए मनोमय हो उसके चरणों मे सिर झुकाकर ,केसर ,कस्तूरी चन्दन से तिलक कर सुन्दर फूलो की माला श्री कंठ मे अर्पण कर ,तुलसी दल सहित भोजन पकवान रत्नजड़ित सोने के थाल मे रखकर भोजन करने के लिए विनय कर यह बालक इच्छारहित है प्रीति के वश है इसलिए प्रीति पूर्वक प्रार्थना करने से यह उपहार स्वीकार करेगा । सोने की झारी मे गंगाजल भर पीने के लिए अर्पण कर, दंडवत नमस्कार करके अपने ऊपर कृपा करने की प्रार्थना कर अब इस सुन्दर दिव्य स्वरुप को नख से शिखापर्यत देख । 
   देखते -देखते यह स्वरुप तो खस -खस के कण से भी छोटा हो गया पर वाह कैसा चमत्कार इतने सूक्ष्म रूप मे भी इसके अवयव और वस्त्र जेवर उतने ही स्पष्ट और दिव्य दिखते है इस रूप को अपने मन मे द्रढ़ कर ले । मनोमय दृष्टि से इसका दर्शन कर यही सर्वोत्तम सुख है ,यही जीव है , यही शिव है , यही परमब्रह्म है , यही परमात्मा है ,यही परमेश्वर है , यही सब जगहों मे पूर्णरूप से भरा हुआ है यही तेरे तथा सब प्राणियों के हृदय मे साक्षी रूप से बस रहा है  यही अपार सुख का मूल है ,यही परमानन्द धन है , यही परमतत्व का तत्व है और यही सब कारणों का कारण है यह निरन्तर तेरे हृदय रूप आकाश मे बस रहा है परन्तु इसको तू नही जानता अब इसको अच्छी तरह जान ले । 
  शिवजी के श्री मुख से ऐसा सुनकर विलास के शरीर मे आनंद की लहरें उठी और रोमांच हो आया ,सारे शरीर से पसीना छूटने लगा और उसके साथ ही उसके हृदय की गाँठ खुल गयी उसमे एकाएक अदभुद प्रकाश प्रकट हुआ और उसके भीतर उसे सचिदानंद धन परमात्मा के स्वरुप के साक्षात दर्शन हुए। उसके आनंद की सीमा नहीं रही । वह आनंद रूपी ही बन गया उसको शरीर की सुध नहीं रही वह अहंवृति भूल गया मैं कहाँ हूँ ,क्या हूँ यह भी याद जाती रही सर्वत्र एक आनंदरस ही बह रहा था । 
  विलास को इस तरह देखकर शंकरजी ने उसके सिर पर हाथ रखा और प्रेमपूर्वक ह्रदय से लगाकर कहा , वत्स तेरा  कल्याण हो । अब तू इस परमात्मा के रूप का सदा स्मरण करता रह तू मुक्त हुआ है । अब तुझे इस संसार मे जन्म मरण नहीं है इतना कहकर शंकरजी उसी क्षण अंतर्ध्यान हो गए । 
                                                     "बोलिये शिवजी महाराज की जय" 
बटुकजी बोले , वरेप्सु इस तरह सब ब्रह्मरूप दीखने से सर्वत्र समान देखने वाला विलासवर्मा फिरते हुए कुछ समय मे शरीर देश के "हृदय नगर " मे जा पहुँचा ।  "मनश्चन्द्र" अपने परिवार सहित आगे आया और आदरसहित उसे नगर मे ले गया । विलास की माता भोग तृष्णा मृत्यु को प्राप्त हो गयी थी। विमाता प्रज्ञा देवी ,भाई शान्तिसेन , पिता मनश्चन्द्र और राजा आत्मसेन सब उसकी ब्रह्मरूप स्तिथि देखकर सानंद आश्चर्य मे डूब गए और उनसे आनंदपूर्वक भेटने लगे । महात्मा शान्तिसेन उससे बड़े प्रेम से मिला शान्तिविलास एक रूप हो गए और अपने वृद्ध माता पिता को उनकी जीवन संध्या देख तत्वज्ञान सुनाने लगे उसको सुनने से वे ब्रह्मानंद मे प्रेम मगन हो उसी क्षण शांतिविलास मे मिलकर लीन हो गए । राजा आत्मसेन जो मनश्चन्द्र की कुटिलता से घने अंधकार मे पड़े हुए थे वह इस मन शक्ति विलासरूप दीपक के जलने से तेजपूर्ण होकर उसी समय एक नया रूप प्रकट हो गया और आत्मसेन- मन- शांति -विलास ये सब एक रूप हो गए और "आत्मशान्ति"नाम को प्राप्त होकर अखंड आनंद रूप से विराजने लगे । 
   महात्मा बटुकजी सबको संबोधित कर बोले "जिज्ञासु जनो" सच्चा और श्रेष्ठ सुख किसमे है वह तुझे विलासवर्मा की अंतिम दशा से जान लेना चाहिए ऐसा अदभुद ब्रह्मोपदेश सुनकर सारा जन मण्डल तल्लीन हो गया । प्रेम से विहल वरेप्सु ने जय-जय गुरुदेव की ध्वनि के साथ बटुकजी के चरणकमलों मे अपना शेष रख दिया और गदगद हो गए सारी सभा जय -जय शब्द की महा ध्वनि करने लगी । 
 इस कथा मे यह समझना है कि मनश्चन्द्र तो मन है और प्रज्ञा सद्बुद्धि , ज्ञानबुद्धि है मन प्रज्ञा के अधीन हो तो शांति पाता है । सत्संकल्प होते है उत्तमविचार आते है और उनके अनुसार काम करके अपने स्वामी जीवात्मा का कल्याण कर सकता है । 
परन्तु मन की स्वाभाविक इच्छा तो मायिक असत बुद्धि की आश्रयी और चंचल है । इससे उसको सद्बुद्धि प्रिय नहीं लगती, ज्ञान नहीं भाता, वह तुरंत असतबुद्धि का दास बन जाता है । शीघ्र भोग -तृष्णा का आश्रय ग्रहण करता है अर्थात उससे असत संकल्प रूपी विलास पुत्र जन्मता है और वह भोग तृष्णा मे पड़ता है । 
  मन का धर्म है कि अधिक विलास -विषय भोगने के बाद उससे कुछ समय के लिए विरक्ति होती है तब यह विलास को धिक्कारता है छोड़ता है और शांति को गोद मे लेता है । विलास विषय से जब मन विरक्त हो जाता है तभी वह उसे दूर करने के आवेश मे आकर विचार करता है । 
शुद्ध मन विलास -विषय -भोगेच्छा को सदा के लिए त्याग करता है परन्तु  क्षणविरागी मन विषय को छोड़ता है और फिर उसके अधीन हो जाता है ।  
 मन का मुख्य स्थान ह्रदय है ,ह्रदय का स्थान शरीर मे है मन से ही विलास वैभव की इच्छा ,कामना ,विषय वासना पैदा होती है और शांति भी उसी से जन्म पाती है । 
शरीर देश अर्थात शरीर सम्बन्धी देश ,उसका राज्य मनश्चन्द्र अर्थात मन ,आत्मसेन अर्थात शुद्ध जीवात्मा । 


                                                                                                                   शरणागत 
                                                                                                               नीलम सक्सेना 

































































   

अमृत में विष

 अमृत में विष

इसी तरह विलास थकहारकर उदास होकर एक घर के चबूतरे पर वैठा था उधर से एक मनुष्य गुजरा उसने विलास को ऐसे सोच मे डूबा देखकर पास  आकर बोला भाई तुम कौन हो और ऐसे क्यों वैठे हो ? विलास ने कहा मैं वटोही हूँ और जिस काम  लिए बहुत समय  भटकता था उसके लिए आज बिलकुल निराश हो जाने से  उदास हूँ उसने पूछा कौन सा काम था विलास ने उसे सुख खोजने की सारी बातें बता कर कहा कि मैंने जगह-जगह मनुष्य की   जाँच की परंतु यही सार निकला कि संसारमें कोई सुखी नहीं है  क्या ईश्वर ने सुख पैदा ही नहीं किया ?यह सुनकर वो मनुष्य बोला भाई "पान्थ" तू भूलता है क्या,जगत मे सुख है ही नहीं तुझसे खोज करते नहीं बना। इस नगर मे ही मैं एक ऐसे सुखी को जनता हूँ जिनके सुख का पार नहीं है संसार मे सुख का साधन धन है जिसका उसके घर मे अखण्ड भण्डार है दूसरा साधन स्त्री है वह भी उसके यहाँ ऐसी अनुपम है जिसके रूप , गुण और पातिव्रत्य की तुलना संसार मे किसी स्त्री से नहीं हो सकती वह स्त्री साक्षात सीता है समृद्धि के अनुसार इसके पुण्य का भी पार नहीं है भूखे ,प्यासे ,गरीबो को अन्न ,जल ,कपड़ा ,पैसा इनका हर दिन दान होता है इनके द्धार से कोई भी खाली नहीं जाता। भिखारियों के आशीर्वाद का घोष गूँजता ही रहता है ऐसे पुण्यात्मा भाग्यशाली के तो दर्शन करने से भी पाप दूर हो जाते है इसलिए उस सुख आत्मा के दर्शन करके पवित्र हो जाओ विलास उस सुखी जीव के महल के आगे नित्य सवेरे से शाम तक जाकर बैठता और चर्चा सुनता जब वह उस सेठ को देखता तो उसका मुखकमल हास्यपूर्ण ही दीखता था। स्त्री भी आनंदपूर्ण थी , सेवक भी आज्ञाकारी थे।  वह मन मे खुश हुआ कि सत्य ही यहाँ पर सुख है। मैं शिवजी से यही सुख माँगू । 
     विलास को यही नित्य बैठा देखकर कामदार पूछने लगे क्यों भाई तुम्हे क्या चाहिए वह तुम्हे सेठ जी देंगे विलास ने कहा कुछ भी नहीं चाहिए मैं मांगने को नहीं आया परंतु इतनी अच्छा है कि ऐसे पुण्य आत्मा सेठजी से घड़ी भर भेट हो जाये तो अच्छा है यह सुनकर कामदार ने सेठ से जाकर विनय की अपने महल के सामने कोई विदेशी बहुत दिनों से नित्य आकर बैठता है सिर्फ आपसे मुलाकात की इच्छा प्रकट करता है इसलिए आज्ञा हो तो ऊपर आने दूँ सेठ प्रसन्न होकर बोला अच्छा उसको मेरे पास ले आओ । सेठ की आज्ञा होते ही कामदार विलास को सेठ के पास ले आया । दीवानखाने मे पैर रखते ही आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा । बैठक अनेक सुख साधनो से सजी रहने से ऐसी लगती थी मानो इन्द्र भवन हो । वहाँ सेठ एक सुन्दर आसन पर बैठा था । विलास की आत्मा  तो भीतर जाते ही बिलकुल शांत हो गयी । सेठ ने विलास का आदर सत्कार करके एक आसन पर बैठाया और आने का कारण पूछा उसने कहा सेठजी आज मेरा धन्यभाग है क्योकि बहुत समय से निराश हुए मुझ प्राणी की आशा आज सफल हुई है बहुत समय के अनुभव से मुझको आज ऐसा निश्चय हुआ है कि आज ऐसे भूले हुए मुझ जीव को सबके भोग करने वाले और सब दुःखो से रहित आपका समागम होने से मैं कृतकृत्य हुआ आप सब तरह के दुखो से रहित और सम्पूर्ण सुख भोगने वाले है अब मुझे पूर्ण संतोष हुआ कि "संसार मे सुख है" आपका कल्याण हो आपका सुख अखण्ड बना रहे । 
      इतना कहकर विलास उठकर खड़ा हुआ और जाने का विचार करने लगा । सेठ ने विचार किया "मैं सुखी हूँ " इतना निश्चय कर लेने से इसको क्या लाभ है ऐसा विचार कर सेठ बोला अजी पंथी ऐसी उतावली क्या है मेरे यहाँ पधारे हो तो बिना भोजन के नहीं जाओगे इस तरह आग्रहपूर्वक विलास को रोक लिया सेठ अपने पाहुने विलासवर्मा को साथ लेकर पाकशाला मे गया । भोजन परोसा गया सेठ ने श्री हरि को निवेदन किया और फिर विलास सहित खाने लगा । आज विलास को भोजन करते समय निश्चय हुआ कि जो कुछ सुख है वह यही है सेठ ने आदरपूर्वक विलास को बैठाकर अपने मन मे उत्पन्न हुए प्रश्न के रहस्य जानने का विचार किया । 
वह बोला भाई तुम सच-सच कहना कि तुम्हे किसी दूसरी चीज़ की इच्छा न होते हुए भी मैं सर्वाङ्ग सुखी हूँ या नहीं । सिर्फ यह जानने की क्या आवश्यकता थी यह सुनकर विलास ने अपना सारा हाल कह सुनाया उसने कहा श्रेष्ठ ,भाग्यवंत ,सुखीजन इस विश्वास्थ मे मैंने जो-जो प्रयत्न किये वे अंत मे दुःखरूप ही निकले तब हैरान हो वन मे जाकर तप करके मैंने शिवजी से सुख माँगा , शिवजी ज्यो-त्यों समझाकर कहा कि "संसार मे तो सुख ही नहीं है" परन्तु मैं कब मानने वाला था मेरी सच्ची हठ देखकर शिव ने कहा तू सब जगह खोज कर जो सुख तुझको जरा भी दुःख बिना श्रेष्ठ मालूम हो वह मुझसे माँग ले शंकर जी की इस आज्ञा से मैं सुख की खोज को निकला परन्तु कैलासपति ने जैसा कहा था वैसा ही हुआ अब तक मैंने कही सुख नहीं देखा ।  जहाँ - २ देखा वहाँ -२  ऊपर से तो सुख सही दिखा परन्तु भीतर दुःख का समूह दिखा मेरा यत्न आज सफल हुआ इसलिए आप ही के सुख जैसा सुख मैं शिवजी महाराज से माँग लूँगा क्योकि आप सब तरह से सुखी है । 
   यह सुनकर सेठ इस तरह उदास हो गया मानो एकाएक बड़े दुःख के समुद्र मे डूब गया हो उसने गहरी सांस लेकर सेठ गदगद स्वर से बोला पंथी संसार के गुरु शंकर जी का वचन झूठा नहीं है संसार मे कही भी पूर्ण सुख नहीं है फिर यहाँ पर कहाँ से होगा इसलिए मेरी विनय इतनी है कि तू अब सुख प्राप्त करने का झूठा प्रयत्न छोड़ संतोषी बनकर शिवजी की शरण मे जा । 
 मेरे समान इस पृथ्वी पर कोई भी दुखी नहीं है मेरा दुःख किसी से कहने लायक भी नहीं परन्तु तूने सच्ची प्रतिज्ञा की है तो तुझसे कहना ही पड़ता है परन्तु यह सुनने के बाद फिर किसी से न कहने की प्रतिज्ञा कर तो कहूँ विलास ने सेठ की आगे द्रढ़ -प्रतिज्ञा की तब सेठ ने कहना आरम्भ किया । 
   सेठ बोला मेरी प्रिया और मुझमे द्रढ़ प्रेम है वह द्रढ़ पतिव्रता और मैं एक पत्नी व्रत धारी हूँ हम एक दूसरे से संतुष्ट थे देव संयोग से वह बीमार पड़ी और दवा करने पर भी रोग ने उसके शरीर मे घर कर लिया । हम सब कुटुम्बियों और वैघ्यादि को ऐसा निश्चय हुआ कि वह अब नहीं बचेगी । 
उसका इतना कष्ट होता था कि हमसे देखा नहीं जाता था मेरे मन को बहुत दुःख और विचार हुआ कि हे देव इसका आत्मा किस वासना के कारण इस बड़े कष्ट से नहीं छूटता प्रभु इस स्त्री का कष्ट मुझे भले ही हो परन्तु इसके आत्मा का छुटकारा हो जाये अब मुझसे इसका दुःख देखा नहीं जाता । उसका सिर अपनी छाती से लगाया और पूछा प्रिये अब इस महासंकट से अपने आत्मा को शीघ्र पार कर और स्वर्ग मे जाकर इस वियोगी पति की राह देख प्रिये तेरे बिना मैं एक पल भी जीता नहीं रह सकूँगा । इसलिए थोड़े ही समय मे इस मिथ्या जगत को छोड़कर मैं तुझसे आ मिलूँगा हे प्रिये तेरे प्राण किसमें अटका है तू मुझे बता कुछ भी नहीं छिपाना । यह सुनकर मेरी पत्नी को बड़ी शांति मिली और मुझे लगा वह मुझसे कुछ कहना चाहती है उसके बोलने के भाव से मुझे प्रतीत हुआ कि उसके मन मे सिर्फ एक बात खटक रही है कि मरे न रहने पर तुम दूसरी शादी कर लोगे और वो सबकी स्वामिन हो जाएगी । मेरी जगह वह ले लेगी इन वचनों से हृदय भिद गया और मैंने द्रढ़ प्रतिज्ञा कर ली कि प्रिये तेरे बिना जगत की सब स्त्रियां मेरी माता के तुल्य है माया मे फँसा हुआ जीव माया को छोड़ने मे असमर्थ था प्राण वल्लभे मैं सत्य कहता हूँ कि मैं कभी दूसरी स्त्री नहीं करूँगा अगर तुझे विश्वास नहीं है तो मैं स्त्री सुख भोगने का साधन ही समूल नष्ट किये देता हूँ और मैंने ऐसा ही किया अपनी "उपस्थ इन्द्रिया" नष्ट कर दी । 
    इतना कहकर सेठ बोला हे सुख के ढूँढने वाले बटोही ! मैं सोचने लगा कि अब इसको पंचभूत शरीर को आत्मा छोड़ देगी परन्तु ऐसा नहीं है "हे सुखेच्छु पथिक" वह धीरे -२ ठीक होने मैं भी बिलकुल चंगा हो गया । मेरो जोड़ा जैसा पहले था वैसा ही फिर हो गया और हम आज बेऔलाद है यह बात सुनकर विलास चित्रवत सा हो गया और बोला अहो यह क्या सत्य है अगर ऐसा है तो आपके समान इस संसार मे कोई दुखी नहीं है और आप अपना दुःख किसी से कह भी नहीं सकते । यह तो ऐसा दुःख है विलास बोला सेठजी सुख तो अब संसार मे है ही नहीं । सेठ ने कहा नहीं बिलकुल ही नहीं संसार मे वही सुख की इच्छा रखे जो मुर्ख हो संसार स्वयं दुःखरूप है इसलिए सुख चाहने वाले राही यदि तेरी वास्तविक सुख प्राप्त करने की इच्छा हो तो वह सुख परमपिता परमात्मा जगद्गुरु शंकरजी के चरण कमलो मे है इसलिए ये सारी झूठी सबटपटे छोड़कर उन कृपालु महादेव जी शरण मे जा वे ही तेरा बेड़ा पार करेंगे । 
   सेठ का कहा हुआ विलास ने अच्छी तरह समझ लिया वह सेठ को प्रणाम कर वहां से चला । वह थोड़ी देर मे वहीँ पंहुचा जहाँ पर उसने पहले तप शुरू किया था । चित्त को स्थिर करके उसने शिवजी का ध्यान किया और दर्शन पाने के लिए मनोमय नम्र प्रार्थना की इतने मे ही शंकर जी प्रकट हुए और बोले क्यों भक्त तूने सुख की खोज की है बता अब तुझे कैसा सुख दूँ ? विलास हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और कहने लगा " कृपालु प्रभो " मैं मूर्ख , अघम ,पापी और माया मे फँसा हुआ आपके प्रभाव को नहीं जान सका । क्षमा करो प्रभो क्षमा करो ! मैंने अब अच्छी तरह से जान लिया है कि महासुख का भूल तो आपके चरण कमल ही है इसलिए सदा के लिए मैं तुम्हारी शरण मे हूँ प्रभु जो परमसुख का सत्यमार्ग हो वो मुझे बताओ । 
"सत्यसुख तो ब्रम्हानंद मे ही हैं " वही आनंद सत्य है ,नित्य है ,दुःखरहित है ,अमर है ,अविकारी है । इस सुखरूप अनुभव से परिपूर्ण कानों और मन को सुख देने वाले सुखानंद सागर मे मुझको स्नान कराओ मेरी गति सिर्फ आप ही हो , आप ही अविघा को हरने वाले हो ,  सर्वोत्तम आनंदस्वरूप हो , सर्वव्यापक हो , सर्वनियन्ता हो , सब के कारण हो , आदि हो , नित्य हो , मेरे कल्याण का उपाय बताओ । अब संसार सुख को छोड़कर दूसरा सुख चाहिए जो अखण्ड है वो मुझको दो । यह कहकर उसने शिवजी के चरणों मे अपना सिर रख दिया । देवो के देव शंकर जी की शरण मिली इससे वह अखण्ड सुख का भोक्ता हुआ । 

 वरेप्सु बोला कृपानाथ शंकरजी शरण जाने से वह राजपुत्र वरेप्सु किस तरह अखण्ड सुख का भोक्ता हुआ वह कहो । बटुकजी की फिर अमृत स्वरुप वाणी की वर्षा होने लगी । 

                                                                                                         शरणागत 
                                                                                                      नीलम सक्सेना 






























  
























Thursday, 26 January 2017

कुँवारियों का भय

कुँवारियों का भय 

इतने मे आगे बढ़ते हुए उसने कई कन्याये आनंदपूर्वक जाते हुए देखी । ये कन्याऐं कपड़ो और जेवरो से सजी हुई देवकन्याओं के समान सुन्दर थी वह भी उनके पीछे -२ चल पड़ा इतने मे एक बोली ,बहिनों ज़रा जल्दी-२ चलो देर होगी तो माँ नाराज होगी घर का काम करना है। चौका ,बर्तन ,झाड़ू करना है रसोई बनाना भी सीखनी है।  उनमे से एक बोली कृष्णा अच्छी है पड़ने जाती है , कृष्णा बोली हाँ हाँ मुझे तो अपने छोटे बहिन भाई भी खिलाने पड़ते है ऐसा कहकर सब लड़कियाँ अपने - २ घर चली गयी । विलास उदास होकर इधर उधर भटकने लगा अब क्या करूँ ? 

                                                                                                                       शरणागत 
                                                                                                                    नीलम सक्सेना 

शैशव अवस्था मे सुख नहीं है

शैशव अवस्था मे सुख नहीं है 

                     एक दिन विलास को चार से आठ वर्ष के बच्चे आपस मे खेलते हुए दिखाई दिए । वह उनके पास जाकर खड़ा हो गया खेल मनोहर था एकाग्र चित्त होकर देखने लगा एक बच्चा सुन्दर सा खिलौना लेकर बाहर आया दूसरा बच्चा उसे देखकर माँगने लगा वह अपनी माँ को बुला लाया। माँ ने उसे समझाया लेकिन वह रोने लगा तब उसकी माँ उसे मारने लगी और घसीट कर घर ले गई।

          ऐसे एक बच्चा खाने की चीज़ लेकर बाहर आया और आपस मे बाँटकर खाने लगा यह देखकर उसकी माँ बोली अरे गोपाल खाने की चीज़ क्या लड़को को बॉटने के लिए दी है चल इधर आ आने दे अपने बाप को ।
         एक लड़के की माँ ने कहा क्या तूने पाठ याद कर लिया गुरु जी को क्या उत्तर देगा। आनन्द से खेलता हुआ लड़का एकदम चिन्तातुर हो गया और खेल छोड़कर चला गया।
         इतने मे दो चार बच्चे हाथ मे वास्ता लेकर आते हुए दिखाई उनको देखते ही खेलते हुए लड़को आपस मे कहने लगे अरे विलम्ब हो गया । आज तो गुरूजी के हाथो मार पड़ेगी ऐसा कहर सब झटपट खेल छोड़कर चले गए।
        यह देखकर विलास बोला अरे निर्दोष बालको को भी आराम से बैठने या इच्छानुसार खेलने का सुख नहीं है तो औरो को सुख कहाँ से होगा।


                                                                                                           शरणागत 
                                                                                                        नीलम सक्सेना 

Wednesday, 25 January 2017

दुःखी स्त्रियों का दल

यह दुःखी स्त्रियों का दल 

परमेश्वर ने सुख तो स्त्री जाति मे ही लाकर रखा है स्त्रियों की टोली को देखकर सोचने लगा कि इनमे से जरा भी किसी के मुख पर दुःख का बोध नहीं । सब आपस मे मुस्कराती-बतियाती जा रही है। अपने रूप सौन्दर्य के कारण वे दुसरो के मन को अपनी ओर खीचने मे अहोभाग्य मानती है। वाह अब मुझे पता लगा कि स्त्री जाति ही सुखी है । 

इतने मे एक स्त्री से कहते हुए सुना क्यों कृष्णा हमारे साथ क्या अच्छा नहीं लगा यह सुन कृष्णा हँसकर बोली बहन साँझ होने को चली है पुरुषो के घर आने की बेला है स्त्री तो पुरुष की तावेदार हैं पुरुष से ही तो अपना निर्वाह है बिना पुरुष  की स्त्री बिना सिर की पगड़ी के समान है ।  जहाँ हम पति पत्नि मे अच्छा तालमेल नहीं है वहाँ उस घर मे क्लेश है उनमे से एक अधेड़ स्त्री बोली हाँ भई उनसे हम है और हमसे वे है। अधेड़ स्त्री ने अपनी बहू से कहा बेटा धीरे धीरे चलना यह सुन दूसरी स्त्री बोली क्या यह गर्भ से है कितने महीने हुए, अभी से इतनी कमजोर क्यों है  वह स्त्री आँखों मे आँसू भरकर बोली क्या करे ईश्वर की मर्जी, एक बार तो गर्भपात हो गया यह दूसरी बारी है।  प्रत्येक स्त्री के सिर पर यह गर्भ की अवस्था बड़ी भयंकर और मौत की निशानी है अपना यह स्त्री अवतार बड़ा ही अभागा है । दूसरी स्त्री बोली हाँ बहन हमारे दुःखो का पार नहीं है हमने अभी तक लड़के का मुँह नहीं देखा लड़कियाँ ही पैदा हुई इतना कहते हुए ही उसकी आँखे डबडबा गयी । सब एक दूसरे को समझाने लगी कहने लगी भगवन सब अच्छा ही करते है और करेंगे भी ।निराश न हो देखो संसार मे किसको सुख है ? विस्तार बढ़ने से भी कही सुख होता है कुछ नहीं "जैसा फोड़ा तैसी पीड़ा " यह सुनकर विलास बिलकुल शान्त हो गया और जोर से बोला "हरे -हरे" 
यहाँ तो एक नहीं अनेको दुखो की नदियां बहती दिखलाई देती है 

                                                                                                          शरणागत 
                                                                                                      नीलम सक्सेना   















सन्यासी को क्या सुख है

सन्यासी को क्या सुख है 

फिरते फिरते एक दिन उसने राजपथ पर एक सन्यासी को जाते हुए देखा सन्यासी के एक  हाथ मे दण्ड और दूसरे मे जल से पूर्ण कमण्डलु था। लज्जा की रक्षा के लिए उसके पास सिर्फ एक लंगोटी पर लिपटे हुए भगवा वस्त्र के एक टुकड़े के सिवा दूसरा कोई कपडा नहीं था। मुँह से वह "प्रणव" शब्द का जप करते हुए एकाग्र दृष्टि से चला जा रहा था जो लोग रस्ते मे उसे प्रणाम करते उनसे वह "नारायण - नारायण" कहता था । विलास ने सोचा यही सच्चा सुखी है ऐसा सोचकर वह बहुत दूर तक उसके पीछे -२ गया और दण्डवत करके बोला कहिये महाराज "दुखो से त्रास पाए  हुए को संसार मे सुख रूप रास्ता कौन सा है " स्वामी बोले कि "सन्यस्त"के समान दूसरा मार्ग है ही नहीं इसके द्धारा लोग संसार के सब दुःखो से मुक्त हो जाते है और उनको परम पद की प्राप्ति होती है । विलास बोला अगर ऐसा है तो मुझे आपसे इस विषय मे और भी बातें जाननी है, सन्यासी बोला अभी तो मुझे भिक्षा के लिए जाना है अगर भिक्षा लेने नहीं गया तो उपवास मे ही दिन बीत जायेगा इसलिए तुम किसी दूसरे समय आना । मेरे आश्रम मे विलास अपने मन मे विचार करने लगा "हरे हरे " यहाँ तो और भी दुःख का  पहाड़ दीखता है इस सन्यास मे तो रोज नित्य उठकर भोजन की बाधा दूसरे से भोजन की आशा । 

    बटुकजी बोले वरेप्सु इस तरह विलासवर्मा चारो वर्णो मे घूमा , असंख्य मनुष्यो की स्थिति देखी परन्तु उसे कोई भी मनुष्य सुखी नहीं दिखा इससे निराश होकर मन मे बड़बड़ाया मैं सोचता हूँ कि नर जाति दुःखरूप ही पैदा हुई है परन्तु स्त्री जाति उसमे नहीं है इसलिए स्त्रियां ही वास्तव मे सुख की भोगने वाली होगी। उनको धन कमाने की कोई चिन्ता नहीं होती है क्योकि वे पुरुष की कमाई पर मौज मारा करती है। 

                                                                                                            शरणागत 
                                                                                                        नीलम सक्सेना 




ब्याहे को पीड़ा और कुँवारे को लालसा

ब्याहे को पीड़ा और कुँवारे को लालसा 

एक रात को विलास ने एक हट्टे -कट्टे जवान को सुन्दर कपडे पहने हुए एक तंबोली की दुकान के आगे खड़ा हुआ देखा । विलास अपने मन को संतुष्ट करने के लिए उनके पास गया और एक ओर छिपकर खड़ा हो गया इतने मे वह दूसरे युवा मित्र से कहने लगा आजकल तुम दिखाई नहीं देते , वह बोला भाई तुम जानते हो उसके बिना मेरी क्या दशा क्या है जबसे उसको देखा है तब से नींद नहीं आती और न ही अन्न भाता है किसी भी उपाय से उसके साथ मेरा विवाह हो जायेगा तब मुझे चैन पड़ेगा । उसका मित्र सर पर हाथ रखकर बोला भाई क्या कहूँ "ब्याह का लड्डू खाय वह भी पछताय , न खाये वह भी पछताय " जब तक ब्याह नहीं हुआ तब तक तुम्हारी ही भांति मुझको भी मालूम होता था कि जो कुछ सुख है वह सब विवाह करके संसार सुख भोगने ,पुत्रो को प्यार करने और विवाह कर पोषण करने मे है परन्तु अब सब मनोरथ पूरा हुआ जैसे बड़ा कोई कैदी हो उस तरह मैं अनेक तरह की सांसारिक बेड़ियो से जकड़ा हुआ है क्या करूँ शास्त्र की आज्ञा माननी पड़ती है नहीं तो इन सारे प्रपंचो को छोड़कर त्यागी बन जाता। विलास इतने से ही दुःखित होकर बोला यह तो दोनों ही महादुःखी दिखाई देते है विचार करने लगा इन दोनों की बातें सुनने से वास्तव मे ऐसा लगता है मानो गृहस्थाश्रम मे जरा भी सुख नहीं है इसलिए संसार को त्याग कर उपाधिहीन होने मे ही सुख भरा होगा । 

                                                                                                          शरणागत 
                                                                                                      नीलम सक्सेना 

सुख नहि सोवे आपो आप

सुख नहि सोवे आपो आप 

             
                  एक दिन वह ऐसे विचारो मे चले जा रहा था इतने मे उसे सामने वाले रास्ते से एक गाडी आती दिखाई दी । उसमे एक बहुत मोटा ताजा आदमी बैठा था उसके लक्षणों से लगता था कि वो कोई बड़ा गृहस्थ है रास्ते के लोग सेठ को सिर झुकाकर प्रणाम करते थे । ऐसे धूमधाम से सेठ को आते हुए देखकर विलास ने  विचार किया वास्तव मे यह बहुत सुखी जीव मालूम होता है। इसको कोई रोग दुःख भी नहीं है । विलास ने सेठ के नौकर से पूछा क्यों भाई इस गाड़ी मे बैठकर कौन गया , नौकर ने कहा तुम नहीं जानते हो यह नगर सेठ है "विलास ने पूछा यह बहुत सुखी है यह बात ठीक है न "?  नौकर ने कहा इसमें क्या पूछना है इनके समान आज कौन सुखी है। इनसे पूछ कर राजा भी काम करता है इनका नाम सारे नगर और देश मे किसी से छिपा नहीं है । इनके यहाँ लक्ष्मी का पार नहीं ,इनके घर मे हजारों नौकर -चाकर ,बहुत बड़ा पुत्र परिवार ,इनके यहाँ दान धर्म की थाह नहीं , इनकी कोठियाँ देश देशान्तर और शहर -शहर मे है। जिनमे लाखो रूपए का लेनदेन होता है इनके सुख का क्या कहना है ।

                आजकल राज्य मे बहुत गड़बड़ी मची हुई है उसके लिए भी चिंता हो रही है कि न जाने क्या होगा।
नौकर  बोला जी हाँ ये स्वयं ही सब काम जाँच करते है इससे उनको पूरी नींद लेने का भी अवकाश नहीं मिलता ।विलास बोला तब तो इन्हें भारी दुःखी कहना चाहिए इतनी समृद्धि होते हुए भी सुख से सोने का अवकाश नहीं यह क्या विलास को अब धन और बड़प्पन से घृणा हो गई अब वह साधारण मनुष्यो की और अवलोकन करने लगा।  
                                                                                                       शरणागत 
                                                                                                    नीलम सक्सेना