Wednesday, 18 January 2017

परलोक मे प्रवास

परलोक मे  प्रवास 

वरेप्सु  बोला हे गुरुदेव जब आपने मुझसे कहा कि अब तो इन्द्र पद भी मेरा है,तेरा कोई अधिकार नहीं है । तब आपके  यह बचन सुनते ही मुझे बहुत दुःख हुआ और ब्याकुलता सहन न कर सकने के कारण  मेरी आत्मा शरीर को तुरंत त्यागकर कही थोड़ी देर के लिए गुम गई बहुत देर तक तो मुझे कुछ भान ही नहीं रहा मैं कहाँ था  और मैं कहाँ हूँ ,मैं हूँ या नहीं । जब चेत में आया तो मैंने अनेक तेजस्वी पुरुषों को अपनी ओऱ आते देखा और महात्मा पुरुषों के दर्शन हुए वे किसी बड़े पद के अधिकारी मालूम पड़ते थे वे सब अच्छी-अच्छी सबारियों में बैठे हुए थे सबसे आगे चार आदमी दिव्य पालकी  लिए  हुए आ  रहे थे जिसमे कोई भी नहीं था उनमें सुन्दर रत्न जड़ित कोमल तकिये तथा मशरू  का गोल गद्दा बिछा हुआ था ऊपर मणिमुक्ता की झालर वाला दिव्य छत्र लगा था । सचेत होने पर मुझे सब प्रकाशमय मालूम होता था मुझ पर दिव्य फूलों की वर्षा करके और जय-जय के शब्दों के साथ मुझे उठा लिया और पालकी में बैठा लिया और गुरु महाराज  सुशोभित भव्य मंदिर में ले गए,एक  महातेजस्वी रत्न जड़ित सिंघासन पर मुझे बिठाया ,वहां मेरी आदर पूर्वक पूजा की गयी उसके बाद एक-एक  करके अधिकारी आने लगे क्षन भर भर में सभा भर गयी उसमे से एक प्रधान अधिकारी "देवेश धर्मराज"से बोला प्रभु आपकी आज्ञा के अनुसार वरेप्सु महाराज का शुभागमन यहाँ पर हुआ है अब क्या आज्ञा है प्रभो  राजा वरेप्सु  जन्म से लेकर राज्य मिलने तक ऋषि के साथ रहकर सत्संग और वेदाध्ययन  में निष्पाप और पवित्र जीवन बिताया है । राज्य मिलने पर भी तरह का अधर्म नहीं किया राज्य मिलने  भी सर्वोत्तम नीति और प्रेम  का पालन किया है इसका राज्य धर्म राज्य है । राज्य का दौर करते समय वन में अप्सरा  देखकर कुदृष्टि की ,इंद्र पद  की कामना से एक-एक  करके सौ अश्वमेघ यज्ञ किये और होम तथा वलिदान के लिए उपयोग में लाये हुए पशु सम्बन्धी पाप भी किये हैं।
                       महा समर्थ  ब्रम्हनिष्ठ ऋषिपुत्र बटुक को स्त्री, राज्य, देहादि सर्वस्व अर्पण  करने से महाराजा को जो पुण्य लाभ हुआ है उसकी गरणा करने में मैं अस्मर्थ हूँ परन्तु मन में क्षोभ हुआ की हाय मैंने अपना सर्वस्व दे दिया अब मैं क्या करूँगा इससे यह  दूषित भी हुआ है इतना कहकर प्रधान बैठ गया इस उम्र तक इसके किये हुए पाप पुण्यों की यह सच्ची याददाश्त है इस पुण्यवान  पुरुष की योग्यता बड़ी भारी है इसका न्याय करना  हमारे अधिकार के बहार है क्योंकि भविष्य मे हम इस प्रतापी पुरुष को महाराज इन्द्र की पदवी पर देखेंगे  इसीलिए मैं  सोचता हु की शीघ्र "अमरपुरी " की और जाना चाहिए परंतु इससे पहले इसको पाप का फल मिलना चाहिए

बटुकजी को संबोधन कर वरेप्सु बोले वेदोप्रधान चित्रगुप्त थे और नगरी  यमपुरी थी कुछ समय पश्चात ऐसा लगा मानो वे मुझे कही दूसरी जगह भेज रहे हो मुझे विमान मे बिठाकर ले चले मेरा ह्रदय आनंद से पूर्ण था और आश्चर्यचकित भी । धर्मराज के भाषण से मुझे विचार हुआ कि उन्होंने मेरे पापो को फिर से याद किया और आपस मे निर्णय हुआ कि पापो का दण्ड देना है इतने मे ही भयंकर,घोर,गहरी,घटा घिर आयी चारो ओर अंधकार छा गया।  आँखें बंद हो गयी , मैं घबराया हुआ विचार करने लगा कि यह क्या हुआ इतने मे हवा का वेग कम हुआ आँखें खोलकर देखा तो मैं एक बड़े ही लंबे चौड़े अँधेरे मैदान मे खड़ा हूँ मेरे सिवाय वहां कोई नहीं था वहाँ चारो ओर से बड़ी दुःख देने वाली चीत्कार सुनाई दी । गुरु महाराज उस चीत्कार से मेरा ह्रदय फटने लगा और मैं खूब रोया। सहायता के लिए पुकार करने लगा। ऐसा प्रतीत हुआ कि सामने से आग के बड़े बड़े  गोले आ रहे है वह अग्नि गोले मेरे पास आये मुझे एक भयनाक स्त्री का आकर दिखाई देने लगा उस अग्नि मे से उसे देखकर मैं तोह चिल्ला उठा । अग्नि के समान वह स्त्री मेरे चारो तरफ हाथ फैलाकर घूमने लगी और भयंकर शब्दो मे बोली खड़ा रह  भागता कहा है मैं तुझको जाने नहीं दूँगी मैं तुझे अप्सरा जैसी नहीं लगती मेरे पास आ।  गुरुमहाराज मैं बहुत घबराया चिल्लाया परन्तु सहायता के लिये कोई नहीं आया वह मुझे चारो तरफ हाथ फैलाकर बाहों मे भरना चाहती थी मैं बहुत पछताया कि मैं वन मे देखी हुई अप्सरा की इच्छा नहीं करता तो आज मेरी यह दशा नहीं होती मैं चिल्लाकर बोला अरे मैंने बहुत बुरा किया अपनी स्त्री के होते हुए भी मैंने दूसरी स्त्री पर नजर डाली लेकिन मेरी बातो का उस पर कोई असर नहीं हुआ । दयालु गुरुदेव मैं इस भय से छूटा भी नहीं कि दूसरा बड़ा भारी भय मुझ पर आकर टूट पड़ा । देखते -२ वज्र के समान बड़ी पैनी दाड़ो वाले भाले के समान तेज सींग वाले अशंख्य पशु चारो दिशाओ से मेरी ओर को दौड़े और मुझे मारने लगे किसी ने मेरी सहायता नहीं की मेरे दुःख की कोई सीमा नहीं " देव " कितना दुःख कितना त्रास । उस समय मैं चिल्ला चिल्लाकर हार गया आँखें बैठ गयी शरीर टूट गया । अग्नि की ज्वाला के समान वह स्त्री कहने लगी अब क्यों रोता है यज्ञ करते समय इन्द्र बनने की उमंग मे असंख्य पशुओ का बलिदान कर प्राण लेते समय क्या तूने उनकी तरफ देखा अरे दुष्ट कामी निर्दोष गरीब प्राणियों को मारने से उनको अपार दुःख होता होगा इसका कभी मन मे विचार किया अब बता ये पशु तुझे कैसे छोड़ेंगे । सहायता के लिए किसको बुलाता है यहाँ कोई नहीं आने वाला तुझको तो इन्द्रासन का महासुख भोगना है पहले इन कराल ( भयंकर) पशुओ के साथ इन्द्रपद भोग ऐसा कहकर क्रूर राक्षसी मुझे पकड़ने को दौड़ी और सारे भयंकर दिखने वाले पशु भी इकहट्टे होकर फुफकार करते हुए पैने सींगो से मुझे मारने लगे । राक्षसी कहने लगी इन्द्र होने की लालसा मैं पहले तो दान दिया पीछे पछताया , ले अब दंड भोग उसके यह वचन मुझे तीर के समान चुभे उसी समय मुझे विचार हुआ कि दान तो मैंने बटुकजी को दिया था अगर पछताया नहीं होता तो मैं बटुकजी की शरण मे होता वह मुझे इन सब दुःखो से मुक्त कर देते मेरे मन मे इतना विचार आते ही मेरे चारो ओर प्रकाश फैल गया और वह दुष्ट राक्षसी क्रूर पशु सब जाते रहे घोर अंधकार मिट गया और अनुपम उज्जवलता का राज्य छा गया मैंने तुरंत आपको देखा गुरुदेव अपार प्रेम से धड़कते हुए ह्रदय से मैंने आपको कृपालु चरणों मे अपना सिर रख दिया।  कृपालु जब मैं वहाँ आपके चरण कमलो मे पड़ा तब भारी परिश्रम से थक जाने पर विश्राम करने से दुःख से शान्त होकर मैं आपकी शरण आने जैसे सुख मे लीन हो गया । धर्मराज का न्याय और दण्ड अचूक और अटल है राजा से रंक तथा मनुष्य से देव तक सबके लिए वह समान है उसी समय जयजयकार का शब्द गूँज उठा और आदर के साथ मुझे विमान पर बैठाया और मंगल ध्वनि के साथ विमान आकाश की ओर उड़ चला । 

कुछ समय मे वह एक बहुत ही तेजस्वी भूमि के पास जा पहुँचा विमान मे बैठे हुए सेवक लोग जय जय शब्द की गर्जना करने लगे जय -जय शब्द की ध्वनि के साथ मुझ पर दिव्य फूलो की वर्षा करने लगे मुझे  दिव्य आसन पर बैठाकर दिव्य समान से मेरा पूजन किया । एक ओर पवित्र आसनो पर बहुत से दिव्य शरीर वाले महर्षि बैठे थे एक ओर सैनिक ,सभाध्यक्ष विराजमान थे उसी समय एक भव्य पुरुष ने सभा मे प्रवेश किया उसने आकर इन्द्र महाराज से विनय की और आसान पर बैठ गया वह यमराज थे यमराज के आसान पर बैठने के बाद इन्द्र महाराज खड़े हुए और कहने लगे । 
यह वरेप्सु राजऋषि है इस महात्मा के पुण्यो का पार नहीं है इसका सारा जीवन ही पुण्य रूप है इसने अपार दक्षिणा वाला यज्ञ करके यज्ञनारायण देव को बहुत प्रसन्न किया है और उससे प्राप्त होने वाले इन्द्रपद को भविष्य मे प्राप्त करने का अधिकार प्राप्त किया है समय आने पर इसको वह सत्ता अर्पण की जाएगी यह पुन्यपुरुष "पितामह" के दर्शनों के लिए भाग्यशाली है । 
इन्द्र का यह भाषण पूरा होते ही सारी सभा मे जयजयकार की ध्वनि गूंजने लगी और मुझ पर फूलो की वर्षा होने लगी सभी लोग एक सुन्दर विमान मे बैठ गए मुझे अपने साथ लेकर और विमान आकाश की ओर उड़ने लगा मार्ग मे सुन्दर -२ स्थान आते गए जिनकी शोभा का वर्णन नहीं किया जा सकता एक अतिरमणीय स्थान को देखकर इन्द्र मुझसे कहने लगे यह महर्लोक है दूसरी जगह जो आयी वो जनलोक व्  तीसरा भूखंड तपलोक बतलाया गुरुदेव ! यह सब स्थान एक से बढ़कर एक और सबसे अधिक तेजस्वी थे इतने मे सबसे श्रेष्ठ और ऊँचा सब लोको का मुकुटमणि महा दिव्य चौथा लोक आया इन्द्र ने मुझसे कहा राजर्षि यह सत्यलोक है इसमें सारे संसार को बनाने वाले पितामह ब्रह्मदेव विराजते है इसको ब्रह्मलोक भी कहते है।  
हमारा विमान ब्रह्मसभा के आगे जाकर खड़ा हुआ मेरे साथ देवराज इन्द्र विमान से उतरकर ब्रह्मसभा मे गए मैं वहाँ के तेज और  सौभाग्य से बिलकुल विस्मित हो गया पहले की सारी दिव्य सृष्टि मुझे इस ब्रह्मसभा के आगे तुच्छ और फीकी लगी सभास्थान अनेक दिव्य दर्शको से भरपूर था । दिव्य दर्शक "स्त्रियां व पुरुष" सभी हाथ जोड़कर इस संसार को बनाने वाले जगतपिता ब्रह्मदेव की स्तुति कर रहे थे । "गुरुदेव" वहाँ वीणाधारी देवर्षि नारद और उन्ही समान दूसरे अशंख्य देवर्षि भी विराजते थे वहाँ पांच वर्ष के बालक के समान ब्रह्मा के चार पुत्र सनकादिक और दूसरे बहुत से महर्षियो का पुण्यरूप समूह भी विराजमान था , चार वेद ,उपवेद सब छंद और वाणी  अधिष्ठात्री श्री ब्रह्मशक्ति सरस्वती भी वहाँ सुशोभित थी सूर्यादि सब ग्रहमंडल और सब भूमण्डल के सुन्दर अधिष्ठाता देवो से सभा स्थान परिपूर्ण था इन सबके बीच मे सुन्दर श्रेष्ठ आसान पर सूर्य के समान प्रकाशित करने वाले ब्रह्मदेव विराजमान थे ऐसा परम अदबुध सुन्दर स्वरुप देखकर मेरे आनन्द का ठिकाना नहीं रहा । दिव्य सामग्री से इन्द्र उन प्रभु की पूजा करने लगा मैं जय जय करते हुए प्रभु  चरणों मे दण्डवत नमस्कार करने के लिए गिर पड़ा ब्रह्मदेव मुझको देखते ही परम कृपापूर्ण वचनो से इन्द्र से कुछ बोले सुनते ही इन्द्र दण्डवत प्रणामकर मुझको लेकर पीछे की ओर मुड़ा वह ब्रह्मसभा के बाहर आया इससे मैं सोचने लगा कि अहो मैंने तो जो अनुष्ठान किया है वह स्वर्ग का राजा होने की इच्छा से किया है यदि मैंने इससे भी बढ़कर कोई बड़ा अनुष्ठान कर इस ब्रह्मलोक मे वसने का अधिकार प्राप्त किया होता तो कितना अच्छा होता।  सत्यलोक के सामने हजारो स्वर्ग इकहट्टे हो तो  भी क्या ? इस तरह दुःखित मन से मैं इन्द्र के साथ बाहर आया और खिन्न हृदय से मैं विमान मे बैठ गया मैं बड़ा दुःखी हो गया " गुरुमहाराज"जीव का आदि से ही विलक्षण स्वभाव है जिस चीज़ का वह भोग करता है उससे विशेष उत्तम पदार्थ देखने या जानने मे आता है तो उसका मन पदार्थ को पाने के लिए अधीर हो उठता है इसी तरह मैं भी सत्यलोक की इच्छा से बहुत ही दुःखी  हो गया था इतने में इन्द्र की इच्छा से चलने वाला विमान आकाश मे ही अटक गया इन्द्र ने बहुत उपाय किये परन्तु वह जरा भी नहीं हिला इन्द्र बहुत चिंतित हुआ सोचने लगा इसका क्या कारण है इतने मे आकाश से कुछ मीठी वाणी सुनाई दी इन्द्रसहित मैं भी शांत चित्त से उस दिव्यवाणी को सुनने लगा । 

              राजन वरेप्सु ! मनुष्यरत्न ! तू दुःखित न हो तेरा पुण्य अपार है तेरे यहाँ भिक्षुक के रूप मे आने वाला महात्मा बटुक का समागम तुझको अपार पुण्य देने वाला है उन्ही की कृपा से तू सत्यलोक के दर्शन को भाग्यशाली हुआ है सर्वस्व दान देकर तू जगत मे किये हुए पाप,पुण्यरूपी मल से मुक्त हुआ है तेरा अन्त:करण शुद्ध हो गया है तू इच्छारहित हुआ है सबके ईश्वर परमात्मा के दर्शन करने की तुझमे सामर्थ्य आई है सर्वशक्तिमान परमेश्वर ने गुरुरूप तत्व है ऐसा बनाया है जिसकी श्रेष्ठता की तुलना किसी से भी नहीं की जा सकती गुरुतत्व मे स्वयं परमेश्वर पूर्णरूप से विराजते है और वे उस गुरु के द्धारा जगत का कल्याण ,भला करते है तू विचार कर देख की तेरे यज्ञ मे आने वाले बटुकजी ने बड़ी युक्ति से एक ही वचन से तेरे अगणित जन्मो के पुण्य और पापरूपी मल से तुझे मुक्त और पवित्र कर दिया तो भी बहुत प्रबल इच्छा होने से माया ने तुझे पीछे ढकेलने का प्रयत्न किया भूलोक मे तेरा जीवन अभी शेष है इसलिए वहाँ जाकर गुरु की कृपा प्राप्त कर अपनी श्रेष्ठ इच्छा पूर्ण कर ॥ 

                                                                                                           शरणागत 
                                                                                                       नीलम सक्सेना   
  

























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