यह जन्म नया नहीं है
यह सुनकर बटुक बोले - इस संसार मे कौन बालक और कौन वृद्ध ? मेरी दृष्टि मे तो जगत के सभी प्राणी समवयी दिखते है ।
बटुकजी की यह बात सुनकर एक जिज्ञासु ने पुछा " देव यह कैसे हो सकता है? " सब समवयी कैसे हो सकते है ? बटुकजी ने कहा जिज्ञासु सुन , जब से इस बीतते हुए श्वेतवराह कल्प की सृष्टि का प्रारम्भ हुआ तब से सब जीव अव्यक्त रूप से परमात्मा मे समाये हुए थे वे अलग -२ व्यक्तिरूप से प्रकट हुए और उन सबको सृष्टि स्वभाव और अहंकार अनुकूल हुआ । इस अहंकार और सृष्टि स्वभाव रूप माया के आवरण से वे नाना प्रकार के कर्मो मे लिप्त होने लगे और इन कर्मो के कारण उन्हें फिर इन कर्मो का फल भोगने का जो ईश्वरीय नियम था वह लग गया जैसे -जैसे नए कर्म होते गए वैसे वैसे उनको भोगने के लिए फिर नए -नए देह धारण करने पड़े और इस तरह वाशंवर चक्र की तरह आवर्जन -विसर्जन ,जन्म -मरण ,और फिर जन्म होते गए परंतु उनका अंत नहीं आया ।
जीव को कर्म करना,फल भोगना, मरना और फिर जन्म लेना पड़ता है इसलिए हे जिज्ञासुओ आज तुम, मैं और ये सब जने नए नहीं हुए है हम सब आदि से ही साथ है और सब अपने -२ कर्म प्रारब्ध भोगते है । हे ऋषिदेव तुम्हारे बतलाये हुए यह आश्रमधर्म इस जन्म के पहले एक नहीं परन्तु अनेकबार करते मैं थक गया हूँ तो भी तुम मुझको उन्ही को करने का उपदेश करते हो इस दशा मे तुम्हारे विचार उस कारीगर के पुत्र से नही मिलते तो और क्या है ।
ऐसा अतिगूढ़ तत्वविचार वाला भाषण सुनकर ऋषि बिलकुल ही आश्चर्य मे डूब गए और विचार करने लगे कि मेरे यहाँ पैदा होने वाला यह बालक साधारण जीव नहीं ,परन्तु कोई देवांशी अवतार है । ऋषि ने बटुकजी से पुछा वत्स ,प्रिये पुत्र ! जब तू ऐसी ज्ञान की बातें करता है तो तू पूर्व जन्म का कौन है ? यह तुझे अवश्य ही स्मरण होगा ,अतः यह मुझको बतला , पिता की आज्ञा सुनकर बटुकजी अपने पूर्वजन्म का वृतांत कहने लगे ।
शरणागत
नीलम सक्सेना
यह सुनकर बटुक बोले - इस संसार मे कौन बालक और कौन वृद्ध ? मेरी दृष्टि मे तो जगत के सभी प्राणी समवयी दिखते है ।
बटुकजी की यह बात सुनकर एक जिज्ञासु ने पुछा " देव यह कैसे हो सकता है? " सब समवयी कैसे हो सकते है ? बटुकजी ने कहा जिज्ञासु सुन , जब से इस बीतते हुए श्वेतवराह कल्प की सृष्टि का प्रारम्भ हुआ तब से सब जीव अव्यक्त रूप से परमात्मा मे समाये हुए थे वे अलग -२ व्यक्तिरूप से प्रकट हुए और उन सबको सृष्टि स्वभाव और अहंकार अनुकूल हुआ । इस अहंकार और सृष्टि स्वभाव रूप माया के आवरण से वे नाना प्रकार के कर्मो मे लिप्त होने लगे और इन कर्मो के कारण उन्हें फिर इन कर्मो का फल भोगने का जो ईश्वरीय नियम था वह लग गया जैसे -जैसे नए कर्म होते गए वैसे वैसे उनको भोगने के लिए फिर नए -नए देह धारण करने पड़े और इस तरह वाशंवर चक्र की तरह आवर्जन -विसर्जन ,जन्म -मरण ,और फिर जन्म होते गए परंतु उनका अंत नहीं आया ।
जीव को कर्म करना,फल भोगना, मरना और फिर जन्म लेना पड़ता है इसलिए हे जिज्ञासुओ आज तुम, मैं और ये सब जने नए नहीं हुए है हम सब आदि से ही साथ है और सब अपने -२ कर्म प्रारब्ध भोगते है । हे ऋषिदेव तुम्हारे बतलाये हुए यह आश्रमधर्म इस जन्म के पहले एक नहीं परन्तु अनेकबार करते मैं थक गया हूँ तो भी तुम मुझको उन्ही को करने का उपदेश करते हो इस दशा मे तुम्हारे विचार उस कारीगर के पुत्र से नही मिलते तो और क्या है ।
ऐसा अतिगूढ़ तत्वविचार वाला भाषण सुनकर ऋषि बिलकुल ही आश्चर्य मे डूब गए और विचार करने लगे कि मेरे यहाँ पैदा होने वाला यह बालक साधारण जीव नहीं ,परन्तु कोई देवांशी अवतार है । ऋषि ने बटुकजी से पुछा वत्स ,प्रिये पुत्र ! जब तू ऐसी ज्ञान की बातें करता है तो तू पूर्व जन्म का कौन है ? यह तुझे अवश्य ही स्मरण होगा ,अतः यह मुझको बतला , पिता की आज्ञा सुनकर बटुकजी अपने पूर्वजन्म का वृतांत कहने लगे ।
शरणागत
नीलम सक्सेना
No comments:
Post a Comment