शिवजी का उपदेश
बटुकजी बोले , विलास को इस तरह अनन्य भाव से शरण आया देख कर शंकरजी बहुत प्रसन्न हुए और बोले "वत्स" अब तू इस अविनाशी अखण्ड सुख की प्राप्ति का अधिकारी हुआ इसलिए जो मैं कहूँ उस पर एकाग्र होकर ध्यान दे यह संसार दुःख रूप ही है इसलिए सुख की इच्छा वाला तू पहले अपने मन को प्रत्येक पदार्थ से हटाकर एक जगह अपने हृदय मे स्थिर कर जगत मे तेरा कोई भी नहीं है जिसको तू अपना समझ कर प्रीति करेगा यह संसार दुःख की कीच मे डुबो देने वाला है इसलिए इस बात का मनन बारबार और अच्छी तरह कर , मन को जो सब माया का बंधन का कारण है स्वाधीन कर इससे विराग व्यापेगा और विराग से स्थिर हुआ तेरा मन फिर नहीं भटकेगा ।
रात का समय होने से वन बिलकुल शान्त था वहाँ शिवजी के प्रकट होने से चारो ओर दिव्य प्रकाश फैल रहा था । शंकर जी विलास से बोले "मुमुक्ष (सच्चा सुख चाहने वाले) अपने दोनों पैरो की एडिया दोनों जंघा के शिरे पर रख पालथी मारकर उत्तर की ओर बैठ, दोनों हाथ घुटनों पर रख , नजर को एकाग्र कर , आँखें बंद करके ,सांस को बिलकुल धीमी करके नियम मे रख ।
विलास अपने मन और तन को पर्वत के शिखर के समान स्थिर करके बैठा ,फिर शंकरजी बोले -अब अपनी मनोमय दृष्टि से अपने आगे पीछे ,आसपास और आगे ,पीछे ,ऊपर,नीचे,सर्वत्र दिये की ज्योति के मध्य भाग के समान अथवा सूर्य की किरण के जैसा प्रकाश देख , क्षण भर तो तू इसके सिवा और कुछ भी नहीं देख । इस प्रकाश के बीच मे अपनी मनोमय दृष्टि के आगे एक विस्तृत और कोमल हरियाली से पूर्ण मैदान देख उसमे खड़े हुए केले के वृक्ष ,खिले हुए गुलाब ,मोगरा ,चमेली के फूलो के गुच्छे देख ,चारो किनारे से निर्मल झरने झर रहे है
मैदान की सुकोमल तृणवाली भूमि पर अनेक कल्पतरु शोभित हो रहे है बीचो बीच एक छः सात वर्ष का जो बालक खेल रहा है उसे देख जो बहुत सुन्दर ,सुकोमल ,मेघो के समान तेजस्वी है श्री अंग मे रेशमी पीताम्बर ,मस्तक पर रत्न से जड़ा हुआ मुकुट जो चारो ओर से मोर के पंखो से शोभित है मुख चंद्र के समान शोभायमान ,कान मे बड़े प्रकाश वाले कुण्डल , नाक मे मुक्ताफल ,गले मे दिव्य रत्नों की माला ,छाती पर कौस्तुभ मणि ,दोनों बाहो मे कड़े , पहुँचो मे कंकणमय पहुँची है , उंगलियो मे रत्न मुन्दरियाँ , कमर मे क्षुद्र घंटिका और पैरो मे सुन्दर नृपुर है । हाथ पैर के नख तारो के समान चमक रहे है और मंद मुस्कान से ओठो के बीच छिपी हुए रतनपंकित सरोखी रतनपंकित आप ही आप दिख जाती है ।
इस बालक का अदभुद रूप लू उसके पैरो से लगाकर ऊपर मुकुट तक देख यह विचित्र बालक सारी सृष्टि का स्वामी है गोचर और अगोचर सब चीज़ों का उत्पादक है और सबको अपनी अदभुद शक्ति द्धारा धारण कर रहा है । मैं ,ब्रह्मा ,विष्णु तीनो उससे ही पैदा हुए है वह सबकी आत्मा और प्रभु है इसलिए मनोमय हो उसके चरणों मे सिर झुकाकर ,केसर ,कस्तूरी चन्दन से तिलक कर सुन्दर फूलो की माला श्री कंठ मे अर्पण कर ,तुलसी दल सहित भोजन पकवान रत्नजड़ित सोने के थाल मे रखकर भोजन करने के लिए विनय कर यह बालक इच्छारहित है प्रीति के वश है इसलिए प्रीति पूर्वक प्रार्थना करने से यह उपहार स्वीकार करेगा । सोने की झारी मे गंगाजल भर पीने के लिए अर्पण कर, दंडवत नमस्कार करके अपने ऊपर कृपा करने की प्रार्थना कर अब इस सुन्दर दिव्य स्वरुप को नख से शिखापर्यत देख ।
देखते -देखते यह स्वरुप तो खस -खस के कण से भी छोटा हो गया पर वाह कैसा चमत्कार इतने सूक्ष्म रूप मे भी इसके अवयव और वस्त्र जेवर उतने ही स्पष्ट और दिव्य दिखते है इस रूप को अपने मन मे द्रढ़ कर ले । मनोमय दृष्टि से इसका दर्शन कर यही सर्वोत्तम सुख है ,यही जीव है , यही शिव है , यही परमब्रह्म है , यही परमात्मा है ,यही परमेश्वर है , यही सब जगहों मे पूर्णरूप से भरा हुआ है यही तेरे तथा सब प्राणियों के हृदय मे साक्षी रूप से बस रहा है यही अपार सुख का मूल है ,यही परमानन्द धन है , यही परमतत्व का तत्व है और यही सब कारणों का कारण है यह निरन्तर तेरे हृदय रूप आकाश मे बस रहा है परन्तु इसको तू नही जानता अब इसको अच्छी तरह जान ले ।
शिवजी के श्री मुख से ऐसा सुनकर विलास के शरीर मे आनंद की लहरें उठी और रोमांच हो आया ,सारे शरीर से पसीना छूटने लगा और उसके साथ ही उसके हृदय की गाँठ खुल गयी उसमे एकाएक अदभुद प्रकाश प्रकट हुआ और उसके भीतर उसे सचिदानंद धन परमात्मा के स्वरुप के साक्षात दर्शन हुए। उसके आनंद की सीमा नहीं रही । वह आनंद रूपी ही बन गया उसको शरीर की सुध नहीं रही वह अहंवृति भूल गया मैं कहाँ हूँ ,क्या हूँ यह भी याद जाती रही सर्वत्र एक आनंदरस ही बह रहा था ।
विलास को इस तरह देखकर शंकरजी ने उसके सिर पर हाथ रखा और प्रेमपूर्वक ह्रदय से लगाकर कहा , वत्स तेरा कल्याण हो । अब तू इस परमात्मा के रूप का सदा स्मरण करता रह तू मुक्त हुआ है । अब तुझे इस संसार मे जन्म मरण नहीं है इतना कहकर शंकरजी उसी क्षण अंतर्ध्यान हो गए ।
"बोलिये शिवजी महाराज की जय"
बटुकजी बोले , वरेप्सु इस तरह सब ब्रह्मरूप दीखने से सर्वत्र समान देखने वाला विलासवर्मा फिरते हुए कुछ समय मे शरीर देश के "हृदय नगर " मे जा पहुँचा । "मनश्चन्द्र" अपने परिवार सहित आगे आया और आदरसहित उसे नगर मे ले गया । विलास की माता भोग तृष्णा मृत्यु को प्राप्त हो गयी थी। विमाता प्रज्ञा देवी ,भाई शान्तिसेन , पिता मनश्चन्द्र और राजा आत्मसेन सब उसकी ब्रह्मरूप स्तिथि देखकर सानंद आश्चर्य मे डूब गए और उनसे आनंदपूर्वक भेटने लगे । महात्मा शान्तिसेन उससे बड़े प्रेम से मिला शान्तिविलास एक रूप हो गए और अपने वृद्ध माता पिता को उनकी जीवन संध्या देख तत्वज्ञान सुनाने लगे उसको सुनने से वे ब्रह्मानंद मे प्रेम मगन हो उसी क्षण शांतिविलास मे मिलकर लीन हो गए । राजा आत्मसेन जो मनश्चन्द्र की कुटिलता से घने अंधकार मे पड़े हुए थे वह इस मन शक्ति विलासरूप दीपक के जलने से तेजपूर्ण होकर उसी समय एक नया रूप प्रकट हो गया और आत्मसेन- मन- शांति -विलास ये सब एक रूप हो गए और "आत्मशान्ति"नाम को प्राप्त होकर अखंड आनंद रूप से विराजने लगे ।
महात्मा बटुकजी सबको संबोधित कर बोले "जिज्ञासु जनो" सच्चा और श्रेष्ठ सुख किसमे है वह तुझे विलासवर्मा की अंतिम दशा से जान लेना चाहिए ऐसा अदभुद ब्रह्मोपदेश सुनकर सारा जन मण्डल तल्लीन हो गया । प्रेम से विहल वरेप्सु ने जय-जय गुरुदेव की ध्वनि के साथ बटुकजी के चरणकमलों मे अपना शेष रख दिया और गदगद हो गए सारी सभा जय -जय शब्द की महा ध्वनि करने लगी ।
इस कथा मे यह समझना है कि मनश्चन्द्र तो मन है और प्रज्ञा सद्बुद्धि , ज्ञानबुद्धि है मन प्रज्ञा के अधीन हो तो शांति पाता है । सत्संकल्प होते है उत्तमविचार आते है और उनके अनुसार काम करके अपने स्वामी जीवात्मा का कल्याण कर सकता है ।
परन्तु मन की स्वाभाविक इच्छा तो मायिक असत बुद्धि की आश्रयी और चंचल है । इससे उसको सद्बुद्धि प्रिय नहीं लगती, ज्ञान नहीं भाता, वह तुरंत असतबुद्धि का दास बन जाता है । शीघ्र भोग -तृष्णा का आश्रय ग्रहण करता है अर्थात उससे असत संकल्प रूपी विलास पुत्र जन्मता है और वह भोग तृष्णा मे पड़ता है ।
मन का धर्म है कि अधिक विलास -विषय भोगने के बाद उससे कुछ समय के लिए विरक्ति होती है तब यह विलास को धिक्कारता है छोड़ता है और शांति को गोद मे लेता है । विलास विषय से जब मन विरक्त हो जाता है तभी वह उसे दूर करने के आवेश मे आकर विचार करता है ।
शुद्ध मन विलास -विषय -भोगेच्छा को सदा के लिए त्याग करता है परन्तु क्षणविरागी मन विषय को छोड़ता है और फिर उसके अधीन हो जाता है ।
मन का मुख्य स्थान ह्रदय है ,ह्रदय का स्थान शरीर मे है मन से ही विलास वैभव की इच्छा ,कामना ,विषय वासना पैदा होती है और शांति भी उसी से जन्म पाती है ।
शरीर देश अर्थात शरीर सम्बन्धी देश ,उसका राज्य मनश्चन्द्र अर्थात मन ,आत्मसेन अर्थात शुद्ध जीवात्मा ।
शरणागत
नीलम सक्सेना
बटुकजी बोले , विलास को इस तरह अनन्य भाव से शरण आया देख कर शंकरजी बहुत प्रसन्न हुए और बोले "वत्स" अब तू इस अविनाशी अखण्ड सुख की प्राप्ति का अधिकारी हुआ इसलिए जो मैं कहूँ उस पर एकाग्र होकर ध्यान दे यह संसार दुःख रूप ही है इसलिए सुख की इच्छा वाला तू पहले अपने मन को प्रत्येक पदार्थ से हटाकर एक जगह अपने हृदय मे स्थिर कर जगत मे तेरा कोई भी नहीं है जिसको तू अपना समझ कर प्रीति करेगा यह संसार दुःख की कीच मे डुबो देने वाला है इसलिए इस बात का मनन बारबार और अच्छी तरह कर , मन को जो सब माया का बंधन का कारण है स्वाधीन कर इससे विराग व्यापेगा और विराग से स्थिर हुआ तेरा मन फिर नहीं भटकेगा ।
रात का समय होने से वन बिलकुल शान्त था वहाँ शिवजी के प्रकट होने से चारो ओर दिव्य प्रकाश फैल रहा था । शंकर जी विलास से बोले "मुमुक्ष (सच्चा सुख चाहने वाले) अपने दोनों पैरो की एडिया दोनों जंघा के शिरे पर रख पालथी मारकर उत्तर की ओर बैठ, दोनों हाथ घुटनों पर रख , नजर को एकाग्र कर , आँखें बंद करके ,सांस को बिलकुल धीमी करके नियम मे रख ।
विलास अपने मन और तन को पर्वत के शिखर के समान स्थिर करके बैठा ,फिर शंकरजी बोले -अब अपनी मनोमय दृष्टि से अपने आगे पीछे ,आसपास और आगे ,पीछे ,ऊपर,नीचे,सर्वत्र दिये की ज्योति के मध्य भाग के समान अथवा सूर्य की किरण के जैसा प्रकाश देख , क्षण भर तो तू इसके सिवा और कुछ भी नहीं देख । इस प्रकाश के बीच मे अपनी मनोमय दृष्टि के आगे एक विस्तृत और कोमल हरियाली से पूर्ण मैदान देख उसमे खड़े हुए केले के वृक्ष ,खिले हुए गुलाब ,मोगरा ,चमेली के फूलो के गुच्छे देख ,चारो किनारे से निर्मल झरने झर रहे है
मैदान की सुकोमल तृणवाली भूमि पर अनेक कल्पतरु शोभित हो रहे है बीचो बीच एक छः सात वर्ष का जो बालक खेल रहा है उसे देख जो बहुत सुन्दर ,सुकोमल ,मेघो के समान तेजस्वी है श्री अंग मे रेशमी पीताम्बर ,मस्तक पर रत्न से जड़ा हुआ मुकुट जो चारो ओर से मोर के पंखो से शोभित है मुख चंद्र के समान शोभायमान ,कान मे बड़े प्रकाश वाले कुण्डल , नाक मे मुक्ताफल ,गले मे दिव्य रत्नों की माला ,छाती पर कौस्तुभ मणि ,दोनों बाहो मे कड़े , पहुँचो मे कंकणमय पहुँची है , उंगलियो मे रत्न मुन्दरियाँ , कमर मे क्षुद्र घंटिका और पैरो मे सुन्दर नृपुर है । हाथ पैर के नख तारो के समान चमक रहे है और मंद मुस्कान से ओठो के बीच छिपी हुए रतनपंकित सरोखी रतनपंकित आप ही आप दिख जाती है ।
इस बालक का अदभुद रूप लू उसके पैरो से लगाकर ऊपर मुकुट तक देख यह विचित्र बालक सारी सृष्टि का स्वामी है गोचर और अगोचर सब चीज़ों का उत्पादक है और सबको अपनी अदभुद शक्ति द्धारा धारण कर रहा है । मैं ,ब्रह्मा ,विष्णु तीनो उससे ही पैदा हुए है वह सबकी आत्मा और प्रभु है इसलिए मनोमय हो उसके चरणों मे सिर झुकाकर ,केसर ,कस्तूरी चन्दन से तिलक कर सुन्दर फूलो की माला श्री कंठ मे अर्पण कर ,तुलसी दल सहित भोजन पकवान रत्नजड़ित सोने के थाल मे रखकर भोजन करने के लिए विनय कर यह बालक इच्छारहित है प्रीति के वश है इसलिए प्रीति पूर्वक प्रार्थना करने से यह उपहार स्वीकार करेगा । सोने की झारी मे गंगाजल भर पीने के लिए अर्पण कर, दंडवत नमस्कार करके अपने ऊपर कृपा करने की प्रार्थना कर अब इस सुन्दर दिव्य स्वरुप को नख से शिखापर्यत देख ।
देखते -देखते यह स्वरुप तो खस -खस के कण से भी छोटा हो गया पर वाह कैसा चमत्कार इतने सूक्ष्म रूप मे भी इसके अवयव और वस्त्र जेवर उतने ही स्पष्ट और दिव्य दिखते है इस रूप को अपने मन मे द्रढ़ कर ले । मनोमय दृष्टि से इसका दर्शन कर यही सर्वोत्तम सुख है ,यही जीव है , यही शिव है , यही परमब्रह्म है , यही परमात्मा है ,यही परमेश्वर है , यही सब जगहों मे पूर्णरूप से भरा हुआ है यही तेरे तथा सब प्राणियों के हृदय मे साक्षी रूप से बस रहा है यही अपार सुख का मूल है ,यही परमानन्द धन है , यही परमतत्व का तत्व है और यही सब कारणों का कारण है यह निरन्तर तेरे हृदय रूप आकाश मे बस रहा है परन्तु इसको तू नही जानता अब इसको अच्छी तरह जान ले ।
शिवजी के श्री मुख से ऐसा सुनकर विलास के शरीर मे आनंद की लहरें उठी और रोमांच हो आया ,सारे शरीर से पसीना छूटने लगा और उसके साथ ही उसके हृदय की गाँठ खुल गयी उसमे एकाएक अदभुद प्रकाश प्रकट हुआ और उसके भीतर उसे सचिदानंद धन परमात्मा के स्वरुप के साक्षात दर्शन हुए। उसके आनंद की सीमा नहीं रही । वह आनंद रूपी ही बन गया उसको शरीर की सुध नहीं रही वह अहंवृति भूल गया मैं कहाँ हूँ ,क्या हूँ यह भी याद जाती रही सर्वत्र एक आनंदरस ही बह रहा था ।
विलास को इस तरह देखकर शंकरजी ने उसके सिर पर हाथ रखा और प्रेमपूर्वक ह्रदय से लगाकर कहा , वत्स तेरा कल्याण हो । अब तू इस परमात्मा के रूप का सदा स्मरण करता रह तू मुक्त हुआ है । अब तुझे इस संसार मे जन्म मरण नहीं है इतना कहकर शंकरजी उसी क्षण अंतर्ध्यान हो गए ।
"बोलिये शिवजी महाराज की जय"
बटुकजी बोले , वरेप्सु इस तरह सब ब्रह्मरूप दीखने से सर्वत्र समान देखने वाला विलासवर्मा फिरते हुए कुछ समय मे शरीर देश के "हृदय नगर " मे जा पहुँचा । "मनश्चन्द्र" अपने परिवार सहित आगे आया और आदरसहित उसे नगर मे ले गया । विलास की माता भोग तृष्णा मृत्यु को प्राप्त हो गयी थी। विमाता प्रज्ञा देवी ,भाई शान्तिसेन , पिता मनश्चन्द्र और राजा आत्मसेन सब उसकी ब्रह्मरूप स्तिथि देखकर सानंद आश्चर्य मे डूब गए और उनसे आनंदपूर्वक भेटने लगे । महात्मा शान्तिसेन उससे बड़े प्रेम से मिला शान्तिविलास एक रूप हो गए और अपने वृद्ध माता पिता को उनकी जीवन संध्या देख तत्वज्ञान सुनाने लगे उसको सुनने से वे ब्रह्मानंद मे प्रेम मगन हो उसी क्षण शांतिविलास मे मिलकर लीन हो गए । राजा आत्मसेन जो मनश्चन्द्र की कुटिलता से घने अंधकार मे पड़े हुए थे वह इस मन शक्ति विलासरूप दीपक के जलने से तेजपूर्ण होकर उसी समय एक नया रूप प्रकट हो गया और आत्मसेन- मन- शांति -विलास ये सब एक रूप हो गए और "आत्मशान्ति"नाम को प्राप्त होकर अखंड आनंद रूप से विराजने लगे ।
महात्मा बटुकजी सबको संबोधित कर बोले "जिज्ञासु जनो" सच्चा और श्रेष्ठ सुख किसमे है वह तुझे विलासवर्मा की अंतिम दशा से जान लेना चाहिए ऐसा अदभुद ब्रह्मोपदेश सुनकर सारा जन मण्डल तल्लीन हो गया । प्रेम से विहल वरेप्सु ने जय-जय गुरुदेव की ध्वनि के साथ बटुकजी के चरणकमलों मे अपना शेष रख दिया और गदगद हो गए सारी सभा जय -जय शब्द की महा ध्वनि करने लगी ।
इस कथा मे यह समझना है कि मनश्चन्द्र तो मन है और प्रज्ञा सद्बुद्धि , ज्ञानबुद्धि है मन प्रज्ञा के अधीन हो तो शांति पाता है । सत्संकल्प होते है उत्तमविचार आते है और उनके अनुसार काम करके अपने स्वामी जीवात्मा का कल्याण कर सकता है ।
परन्तु मन की स्वाभाविक इच्छा तो मायिक असत बुद्धि की आश्रयी और चंचल है । इससे उसको सद्बुद्धि प्रिय नहीं लगती, ज्ञान नहीं भाता, वह तुरंत असतबुद्धि का दास बन जाता है । शीघ्र भोग -तृष्णा का आश्रय ग्रहण करता है अर्थात उससे असत संकल्प रूपी विलास पुत्र जन्मता है और वह भोग तृष्णा मे पड़ता है ।
मन का धर्म है कि अधिक विलास -विषय भोगने के बाद उससे कुछ समय के लिए विरक्ति होती है तब यह विलास को धिक्कारता है छोड़ता है और शांति को गोद मे लेता है । विलास विषय से जब मन विरक्त हो जाता है तभी वह उसे दूर करने के आवेश मे आकर विचार करता है ।
शुद्ध मन विलास -विषय -भोगेच्छा को सदा के लिए त्याग करता है परन्तु क्षणविरागी मन विषय को छोड़ता है और फिर उसके अधीन हो जाता है ।
मन का मुख्य स्थान ह्रदय है ,ह्रदय का स्थान शरीर मे है मन से ही विलास वैभव की इच्छा ,कामना ,विषय वासना पैदा होती है और शांति भी उसी से जन्म पाती है ।
शरीर देश अर्थात शरीर सम्बन्धी देश ,उसका राज्य मनश्चन्द्र अर्थात मन ,आत्मसेन अर्थात शुद्ध जीवात्मा ।
शरणागत
नीलम सक्सेना
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