सन्यासी को क्या सुख है
फिरते फिरते एक दिन उसने राजपथ पर एक सन्यासी को जाते हुए देखा सन्यासी के एक हाथ मे दण्ड और दूसरे मे जल से पूर्ण कमण्डलु था। लज्जा की रक्षा के लिए उसके पास सिर्फ एक लंगोटी पर लिपटे हुए भगवा वस्त्र के एक टुकड़े के सिवा दूसरा कोई कपडा नहीं था। मुँह से वह "प्रणव" शब्द का जप करते हुए एकाग्र दृष्टि से चला जा रहा था जो लोग रस्ते मे उसे प्रणाम करते उनसे वह "नारायण - नारायण" कहता था । विलास ने सोचा यही सच्चा सुखी है ऐसा सोचकर वह बहुत दूर तक उसके पीछे -२ गया और दण्डवत करके बोला कहिये महाराज "दुखो से त्रास पाए हुए को संसार मे सुख रूप रास्ता कौन सा है " स्वामी बोले कि "सन्यस्त"के समान दूसरा मार्ग है ही नहीं इसके द्धारा लोग संसार के सब दुःखो से मुक्त हो जाते है और उनको परम पद की प्राप्ति होती है । विलास बोला अगर ऐसा है तो मुझे आपसे इस विषय मे और भी बातें जाननी है, सन्यासी बोला अभी तो मुझे भिक्षा के लिए जाना है अगर भिक्षा लेने नहीं गया तो उपवास मे ही दिन बीत जायेगा इसलिए तुम किसी दूसरे समय आना । मेरे आश्रम मे विलास अपने मन मे विचार करने लगा "हरे हरे " यहाँ तो और भी दुःख का पहाड़ दीखता है इस सन्यास मे तो रोज नित्य उठकर भोजन की बाधा दूसरे से भोजन की आशा ।
बटुकजी बोले वरेप्सु इस तरह विलासवर्मा चारो वर्णो मे घूमा , असंख्य मनुष्यो की स्थिति देखी परन्तु उसे कोई भी मनुष्य सुखी नहीं दिखा इससे निराश होकर मन मे बड़बड़ाया मैं सोचता हूँ कि नर जाति दुःखरूप ही पैदा हुई है परन्तु स्त्री जाति उसमे नहीं है इसलिए स्त्रियां ही वास्तव मे सुख की भोगने वाली होगी। उनको धन कमाने की कोई चिन्ता नहीं होती है क्योकि वे पुरुष की कमाई पर मौज मारा करती है।
शरणागत
नीलम सक्सेना
फिरते फिरते एक दिन उसने राजपथ पर एक सन्यासी को जाते हुए देखा सन्यासी के एक हाथ मे दण्ड और दूसरे मे जल से पूर्ण कमण्डलु था। लज्जा की रक्षा के लिए उसके पास सिर्फ एक लंगोटी पर लिपटे हुए भगवा वस्त्र के एक टुकड़े के सिवा दूसरा कोई कपडा नहीं था। मुँह से वह "प्रणव" शब्द का जप करते हुए एकाग्र दृष्टि से चला जा रहा था जो लोग रस्ते मे उसे प्रणाम करते उनसे वह "नारायण - नारायण" कहता था । विलास ने सोचा यही सच्चा सुखी है ऐसा सोचकर वह बहुत दूर तक उसके पीछे -२ गया और दण्डवत करके बोला कहिये महाराज "दुखो से त्रास पाए हुए को संसार मे सुख रूप रास्ता कौन सा है " स्वामी बोले कि "सन्यस्त"के समान दूसरा मार्ग है ही नहीं इसके द्धारा लोग संसार के सब दुःखो से मुक्त हो जाते है और उनको परम पद की प्राप्ति होती है । विलास बोला अगर ऐसा है तो मुझे आपसे इस विषय मे और भी बातें जाननी है, सन्यासी बोला अभी तो मुझे भिक्षा के लिए जाना है अगर भिक्षा लेने नहीं गया तो उपवास मे ही दिन बीत जायेगा इसलिए तुम किसी दूसरे समय आना । मेरे आश्रम मे विलास अपने मन मे विचार करने लगा "हरे हरे " यहाँ तो और भी दुःख का पहाड़ दीखता है इस सन्यास मे तो रोज नित्य उठकर भोजन की बाधा दूसरे से भोजन की आशा ।
बटुकजी बोले वरेप्सु इस तरह विलासवर्मा चारो वर्णो मे घूमा , असंख्य मनुष्यो की स्थिति देखी परन्तु उसे कोई भी मनुष्य सुखी नहीं दिखा इससे निराश होकर मन मे बड़बड़ाया मैं सोचता हूँ कि नर जाति दुःखरूप ही पैदा हुई है परन्तु स्त्री जाति उसमे नहीं है इसलिए स्त्रियां ही वास्तव मे सुख की भोगने वाली होगी। उनको धन कमाने की कोई चिन्ता नहीं होती है क्योकि वे पुरुष की कमाई पर मौज मारा करती है।
शरणागत
नीलम सक्सेना
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