विश्वपालसुत वरेप्सु
पत्र का समाचार सुनकर सारी सभा सन्न रह गयी राजा ने बदले मे कोई भी जवाब नहीं दिया और बाण वापस हो गया उत्तर न पाकर वरेप्सु को क्रोध आया और सोचने लगा क्या किया जाये थोड़ी दूर उसे एक मंदिर दिखाई दिया वह वहाँ पहुच गया उसे पता चला कि राजा की बेटी यहाँ पूजा करने आती है मन ही मन वरेप्सु सोचने लगा मैं क्षत्रिय हूँ मैं कन्या हरण कर सकता हूँ लेकिन बिना हाथ लगाये उसे मंदिर मे बंद कर दूँगा ऐसा सोच ही रहा था क्या देखता है कि राजा की पुत्री अपनी सहेलियों के साथ मंदिर मे आ रही है वह ओट मे हो गया और जैसे ही राजकुमारी ने मंदिर मे प्रवेश किया उसने तुरंत मन्दिर के कपाट बंद कर दिये और युद्ध का ऐलान कर दिया स्वयं मंदिर के द्धार पर खड़ा हो गया सतर्कतापूर्वक राजा के आने का इन्तज़ार करने लगा।

सारे नगर मे हाहाकार मच गया युद्ध शुरू हो गया राजा के सारे सैनिक मारे गये राजा स्वयं आ पहुंचा राजा को आया हुआ देखकर भयंकर सिंह की गर्जना करते हुए बोला " रे विषयांध विषयसेन "तैयार हो जा । युद्ध के लिये झूठा क्षत्रिय नाम धराने वाला तेरे सामान दूसरा कौन मुर्ख होगा उठ ! सचेत हो और प्रभु को याद कर ऐसा कहकर अस्त्र शस्त्रो की वर्षा करने लगा ।
राजा की सेना मारी जाने लगी कुछ घबराकर इधर उधर भागने लगे। राजा घबरा गया ,रथ से नीचे गिर गया और राजा कैद हो गया । वरेप्सु की जय हुई वरेप्सु ने बंदी बने राजा से कहा "रे अन्यायी" मेरे पिता के प्राण तूने नाहक लिए परन्तु आगे दीनता से बंधा पड़ा है "तू" यह देखकर तुझ पर दया आती है तुझे अपनी शरण मे पड़ा हुआ देखकर मैं तुझे मार भी नहीं सकता ।
गुरूजी ने वरेपसु की खबर लेने शिष्यो को भेजा उसको राज्य प्राप्त हो गया हो तोह तुरंत राज्य सिंघासन पर बैठा देना और मुझे खबर देना । शिष्य देवी मंदिर पहुचे और बड़े हर्ष से वीर वरेपसु की जय से स्वागत किया ।
वरेप्सु ने नमस्कार किया और पूछने लगा आप सब यहाँ ? सब आपस मे बातें करने लगे।
इतने मे नगर से रानी संग्राम भूमि मे पहुँची राजा मन मे बहुत लज्जित था और सोच रहा था इससे तो मै युद्धभूमि मे मारा जाता। राजा, वरेप्सु से कहने लगा मुझे मार दो वरेप्सु ने कहा निर्बलों को मरना ठीक नहीं वीर का धर्म नहीं तब राजा ने प्रतिज्ञा की कि मई जंगल मे तपस्या करके अपनी भूल का प्रायश्चित करूँगा।
वरेप्सु ने राजकन्या मंदिर से बहार कर राजा को सौप दी उसी समय भारी जयघोष के साथ वरेप्सु का राज्याभिषेक हुआ और जयजयकार होने लगी।
वरेप्सु ने बंधन मे पडे हुए राजा को लाने के लिए अधिकारियो को भेजा लेकिन राजा ने उत्तर दिया अब तो मैं यही उत्तम समझता हूँ या तो मर जाऊं या प्रभु की आराधना करु और तुम मेरी पुत्री को ले जाओ और वरेप्सु से कहना कि इसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करे वह इस कन्या के पति होने योग्य है। अधिकारियो ने विषयसेन को बंधन से मुक्त कर वरेप्सु को सारा समाचार सुनाया।
राजा रानी जंगल मे प्रभु आराधना के लिए चले गए।
वरेप्सु सेना सजाकर अपने गुरूजी को लाने के लिए आश्रम मे पंहुचा गुरूजी ने उसे अपने ह्रदय से लगा लिया और कहा विषयसेन की पुत्री से विवाह कर सुख भोग और नीति से प्रजापालन करना यही मेरा आशिर्वाद है।
दितीय अध्याय समाप्त
शरणागत
नीलम सक्सेना
गुरूजी ने वरेपसु की खबर लेने शिष्यो को भेजा उसको राज्य प्राप्त हो गया हो तोह तुरंत राज्य सिंघासन पर बैठा देना और मुझे खबर देना । शिष्य देवी मंदिर पहुचे और बड़े हर्ष से वीर वरेपसु की जय से स्वागत किया ।
वरेप्सु ने नमस्कार किया और पूछने लगा आप सब यहाँ ? सब आपस मे बातें करने लगे।
इतने मे नगर से रानी संग्राम भूमि मे पहुँची राजा मन मे बहुत लज्जित था और सोच रहा था इससे तो मै युद्धभूमि मे मारा जाता। राजा, वरेप्सु से कहने लगा मुझे मार दो वरेप्सु ने कहा निर्बलों को मरना ठीक नहीं वीर का धर्म नहीं तब राजा ने प्रतिज्ञा की कि मई जंगल मे तपस्या करके अपनी भूल का प्रायश्चित करूँगा।
वरेप्सु ने राजकन्या मंदिर से बहार कर राजा को सौप दी उसी समय भारी जयघोष के साथ वरेप्सु का राज्याभिषेक हुआ और जयजयकार होने लगी।
वरेप्सु ने बंधन मे पडे हुए राजा को लाने के लिए अधिकारियो को भेजा लेकिन राजा ने उत्तर दिया अब तो मैं यही उत्तम समझता हूँ या तो मर जाऊं या प्रभु की आराधना करु और तुम मेरी पुत्री को ले जाओ और वरेप्सु से कहना कि इसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार करे वह इस कन्या के पति होने योग्य है। अधिकारियो ने विषयसेन को बंधन से मुक्त कर वरेप्सु को सारा समाचार सुनाया।
राजा रानी जंगल मे प्रभु आराधना के लिए चले गए।
वरेप्सु सेना सजाकर अपने गुरूजी को लाने के लिए आश्रम मे पंहुचा गुरूजी ने उसे अपने ह्रदय से लगा लिया और कहा विषयसेन की पुत्री से विवाह कर सुख भोग और नीति से प्रजापालन करना यही मेरा आशिर्वाद है।
दितीय अध्याय समाप्त
शरणागत
नीलम सक्सेना
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