Monday, 30 January 2017

दुःख का कारण मन की शिथिलता है

दुःख का कारण मन की शिथिलता है 

"जिस मनुष्य ने मन को द्रढ़ कर लिया है वह अपने प्रिय प्राणों को भी तज देता है ,परन्तु जब संकट आ पड़ता है तो अधीर नहीं होता , बनाये हुए नियमो का उल्लंघन करने से अनर्थ होता है "

जिसके ह्रदय से पलभर भी हरि का नाम नहीं हटता ऐसा परम भक्त सदा दुःखी देखने मे आता है उसका व्यव्हार भी बहुत बिगड़ा हुआ जान पड़ता है वह भटकता रहता है परन्तु कोई भी मनुष्य उसे प्रेम की दृष्टि से नहीं देखता इन सबका क्या कारण है यह कृपा कर आप कहे क्योकि इस विषय मे  मुझे बड़ा भारी संशय है ।

          बटुक मुनि बोले  - यह कोई बड़ा प्रश्न नहीं है जो समझ मे नहीं आ सके क्योकि ऐसी प्रथा तो अनादि से चली आ रही है "पुण्यात्मा पीड़ित और पापात्मा सुखी" जान पड़ती है । इसका कारण अविघा मे लिप्त और अज्ञान से घिरा हुआ है ।
      यह तो निश्चय ही है कि धर्मात्मा पुरुष धर्मात्मा है और संसार को वैसा ही मालूम होता है परन्तु उसके भीतर छिपे घर मे "अन्तःकरण" नजर डालोगे जो जानोगे कि वहां परमात्मा का प्रेम जो सब सुख ,सब आनंद ,और सबका कल्याण का कारण है । द्रढ़ता से नहीं जमा उसकी श्रद्धा -विश्वास अस्थिर है और प्रतिज्ञा मे शिथिलता है और यही दुःख का बड़ा कारण है ।
मनुष्य चिंतागन मे सदा व्यर्थ तप करता है यदि इस चिंता के समय वह अपने ह्रदय को शांत करने की औषधि पिए तो वह स्वयं सुखी हो साथ-साथ उसे  व्यावहारिक सुख भी मिले । जिस जीव ने शास्त्र का अध्ययन किया है ,धर्म मे पूर्ण प्रेम दिखालाया हो लोगो मे उसका बोध भी कराया हो परन्तु वासना जो सब दुःखो का मूल है उसका त्याग न किया हो तो उसको उत्तम पद उत्तम स्थिति कैसे प्राप्त हो ?
बटुकजी ने कहा कि इस विषय मे आपको मैं एक प्रसंग सुनाता हूँ उसे सुनो ।
 बटुकजी बोले विवेकी,विरक्त,शांति,आदि गुणों से युक्त राजा युधिष्ठर ने श्री कृष्ण से पूछा महाराज मैं सब तरह से धर्मयुक्त व्यवहार करता हूँ कभी पापाचरण नहीं करता ,कभी झूठ नहीं बोलता , गौ ब्राह्मण का प्रतिपालन करने वाला हूँ परमात्मा के चरण कमलो मे सदा चित्त लगाए रहता हूँ  और गुरुजनो को मान देकर मैंने संसार के सब विषयो को त्याग दिया है तो भी मुझे वनों मे भटकना पड़ता है और मेरे भाई भी विपत्ति झेलते है , द्रौपदी कुश की सादरी पर सोती है ।
 और कौरव जो अधर्म का व्यव्हार करते है ,ईश्वर से भी नहीं डरते , फिर भी वे राज्यासन भोगते है इसका क्या कारण है ?
श्री कृष्ण मुस्करा कर बोले ,ज्ञानी को प्रमाद से बढ़कर दूसरा कुछ भी अनर्थकारी नहीं है क्योकि प्रमाद से बढ़कर दूसरा कुछ भी अनर्थकारी नहीं है क्योंकि प्रमाद से मोह ,मोह से अहंवृति ,अहंवृति से बंधन और बंधन से दुःख होता है और इस दुःख का कारण मन की शिथिलता है यदि मनुष्य द्रढ़ रहे तो दुःख नहीं आता परन्तु जब द्रढ़ता मे शिथिलता होती है तभी दुःख भोगता है मनुष्य अपने ही दोषो को देखे ।
यह सुनकर राजा युधिष्ठिर चुप हो रहे परन्तु अर्जुन ने कहा भाई मेरी प्रतिज्ञा मे तो कुछ भी कमी नहीं है तो भी मेरी अवस्था सबके समान है "श्री कृष्ण ने कहा" तेरी प्रतिज्ञा मे जरूर कोई कमी होगी नहीं तो ईश्वर संकट नहीं  आने दे । यह सुन अर्जुन बोला मेरी प्रतिज्ञा मे कोई कमी नहीं है अर्जुन की ये बाते श्री कृष्ण को अच्छी नहीं लगी उन्होंने सोचा जब तक अर्जुन को उसकी प्रतिज्ञा की शिथिलता नहीं बताई जाएगी तब तक वह नहीं मानेगा कि सत्य क्या है ।
 श्री कृष्ण ने अर्जुन से कहा तेरे गले मे जो यह माला है वह मुझे दे ! अर्जुन ने कहा कि प्राण भले ही चले जाएं परंतु यह माला तो मैं किसी को नहीं दूँगा । इन्द्र ने जब यह माला मुझे भेट की थी तो कहा था कि तू यह माला किसी को नही देना "श्री कृष्ण ने कहा अर्जुन तेरी इस टेक से मुझको बड़ा आनंद हुआ पर मित्र जब प्राण संकट मे आता है तो टेक नहीं रहती नीति भी कहती है ।" जब संकट आवे तब धन से कुटुंब की रक्षा और जब प्राण संकट आवे तब कुटुम्ब को छोड़कर प्राण की रक्षा करना चाहिए । प्रत्येक प्राणी को पहले जीने फिर सुख भोगने की तृष्णा (इच्छा ) होती है । प्राण चले जाने पर तेरी यह माला किस काम की अर्जुन ने कहा चाहे जैसा हो परन्तु मेरी टेक है कि चाहे जो हो मैं इस माला को नहीं छोडूंगा मेरी प्रतिज्ञा है कि यदि मैं इस माला को त्यागूँ तो मुझे रामदुहाई है । ऐसा कहकर सायं संध्या के लिए गंगा तट पर स्नान करने चले ।
  ईश्वर की लीलाये बड़ी विचित्र होती है अर्जुन ज्यो ही डुबकी मारकर पानी से बाहर निकले त्यों ही सामने एक भयंकर शेर गर्जना करते हुए मुँह फैलाकर अर्जुन की तरफ खड़ा दिखा उस समय अर्जुन के पास कोई शस्त्र नहीं था ।  सिंह गर्जना के साथ अर्जुन पर कूदने को तैयार था इसलिए प्राण बचाने के लिए उसने अपने गले की माला उतारी और मंत्र पड़कर सिंह पर फेक दी । सिंह माला को गले मे पहनकर अद्रश्य हो गया । अर्जुन विस्मित होकर देखता रहा यह क्या हुआ ? जब अर्जुन कपडे लेने गया तो माला कपड़ो पर रखी देगी। अर्जुन ने श्री कृष्ण को सिंह संबंधी सभी बाते बता दी तब श्री कृष्ण ने मुस्करा कर कहा ,कि हे अर्जुन तेरी टेक और रामदुहाई कहाँ है ? यह सुनकर अर्जुन शर्मा गया उसने मन मे निश्चय किया कि भविष्य मे अपनी टेक शिथिल नहीं होने दूंगा जो परमात्मा सबके हृदय मे विहार कर सबके विचारो को जानने वाला है उसने अर्जुन की यह इच्छा जान ली और विचार किया यदि अर्जुन को अपनी टेक का अभी यह अभिमान है तो उसकी परीक्षा फिर लूँगा ।
  कुछ समय बीतने पर एक दिन श्री कृष्ण और अर्जुन वन मे घूमते हुए बहुत दूर निकल गए। गर्मी के कारण भूख और प्यास दोनों ही लगने लगे । थकन के कारण अर्जुन के पैर इधर-उधर पड़ने लगे तब उसने परमात्मा से कहा कि मुझसे तो अब चला नहीं जाता यदि थोड़ा सा जल व कुछ खाने को मिले तो आगे चल सकूँ । श्री कृष्ण ने कहा तू यहाँ बैठ मैं जल और खाने को कुछ लेकर आता हूँ परन्तु तू यहाँ से आगे -पीछे नहीं होना तब अर्जुन ने कहा ,इस पेड़ की छाया से एक पैर भी बाहर रखूं तो मुझे "रामदुहाई "। श्री कृष्ण जी चले गए अर्जुन भूख और प्यास के कारण वह मूर्छित हो गया जब होश मे आया तो देखा कि भिखारियों का एक झुण्ड किसी गृहस्थ को घेरे हुए खड़ा है और गृहस्थ सबको चने बेच रहा है अर्जुन सचेत होकर अपनी प्रतिज्ञा भूलकर जो आदमी चने बेच रहा था उससे खरीदकर ,खाकर पानी पिया और शेष चने खाते हुए वृक्ष की ओर चल पड़ा , उधर से श्री कृष्ण भी एक मनुष्य के हाथ मे पानी और भोजन लेकर आ गए ,चने खाते हुए अर्जुन को देखकर श्री कृष्ण ने कहा यह खाना कहाँ से आया अर्जुन बोला भूख व्यास के कारण मेरे प्राण व्याकुल हो गए थे इसलिए इन्हें बेचने वाले से लेकर खा रहा हूँ। श्री कृष्ण बोले अर्जुन तेरी प्रतिज्ञा का क्या हुआ अर्जुन शर्मिंदा होकर चुप रहे। श्री कृष्ण ने कहा अर्जुन तेरा इसमें कोई दोष नहीं है मनुष्य की स्वाभाविक प्रकर्ति ही ऐसी है प्रतिज्ञा मे अस्थिरता ही सब दुःखो का कारण है संसार रचते समय मैंने  सब विधियाँ ऐसी ही बनाई है "कि यदि सब प्राणी भक्तिपूर्वक मेरा भरोसा रखे तो उनकी एक भी मनोभिलाषा अपूर्ण न रहे "।  
    तुम और राजा युद्धिष्ठर सबसे समान व्यवहार नहीं करते इसी से तुम दोनों दुःख पाते हों जो मन , वचन , कर्म से यह चाहता है कि सब सुखी ,निरोगी ,आनंदमय रहे किसी को दुःख न हो ,उसी को दुःख नहीं होता है अभी तू वैसा नहीं बना यही संकट का कारण है ।
 अर्जुन ने पूछा  "महाराज" तो सच्चा टेकी कैसा होता है मुझे बताओ श्री कृष्ण ने कहा अच्छा - अर्जुन और श्री कृष्ण ने साधु वेष धारण करके पास के गाँव मे प्रवेश किया ।
  इस नगर मे एक धर्मनिष्ठ महावैष्णव ब्राह्मण रहता था उसके दौनो "भिक्षानदेही" कहकर खड़े रहे ब्राह्मण ने प्रणामपूर्वक उनसे भोजन के लिए कहा उन दोनों ने वह निमंत्रण स्वीकार कर लिया ब्राह्मण ने अपनी स्त्री से कहा इन महात्मा के लिए स्वच्छा शुद्ध और पवित्र भोजन तैयार कर इन्हें भोजन कराओ पति की आज्ञा मानकर उस ब्राह्मण की दोनों स्त्रियां उन संतो की सेवा मे लगी। शीघ्र ही भोजन बनाकर उन्होंने उनको आसन पर बैठाया तब अर्जुन से श्री कृष्ण ने कहा , अर्जुन इस घर का स्वामी पूर्ण टेकी है । ईश्वर पर भरोसा और श्रद्धा रखता है और प्राण भले ही चले जाये परन्तु टेक छोड़ने वाला नहीं है।
  श्री कृष्ण ने पूछा ,सेठजी कहाँ है उनको बुलाओ उनके बिना हम भोजन नहीं करेंगे । दोनों स्त्रियां एक दूसरे का मुख देखने लगी और स्वामी के पास सब वृतान्त कहला भेजा अब तो धर्म संकट मे पड़ गया सोचने लगा और बोला महाराज मैंने भोजन कर लिया है आप लोग भोजन पाने की कृपा करे मेरे अपराध को  क्षमा करे परन्तु हे संतो मेरा नियम अकेले ही भोजन करने का है श्री कृष्ण ने कहा , होगा आज हमारे साथ भोजन नहीं करोगे तो हम उठकर चले जायेंगे अब तो सेठ धर्म संकट मे पड़ गया अगर संत भोजन न करे तो इससे कष्टकारक और कौन विषय होगा ।
  सेठ भोजन करने बैठ गया और भोजन के थाल को देखकर बोला इसमें आम का अथान (अचार )क्यों नहीं रखा बैठो मैं छत से लेकर आता हूँ जब वह बहुत देर तक नहीं लौटा तो पहले एक स्त्री गई फिर दूसरी गई परन्तु उनमे से कोई नहीं लौटी यह देखकर अर्जुन ने श्री कृष्ण जी से पुछा कि क्या कारण है कि तीन आदमी अथान लेने गए उनमे से एक भी नहीं लौटा महाराज मुझे तो इसमें कोई भेद मालूम होता है ऐसा कह दोनों छत पर गए वहां एक कमरे मे दोनों स्त्रियां और पुरुष मृतवत पड़े थे और उनका जीव (अंतरात्मा) परमात्मा के पास चला गया था ।
  अर्जुन का चित्त भ्रम हो गया वह श्री कृष्ण से बोला इसमें महाराज क्या रहस्य है कृपा कर मुझे समझावे ? अर्जुन टेक ही इस सबका कारण है  श्री कृष्ण ने जैसे ही दैवीय माया दूर की वैसे ही वह तीनो प्राणी जीवित होकर बैठ गए । वह ब्राह्मण हाथ जोड़कर अपराध की क्षमा माँगने लगा श्री कृष्ण ने आशीर्वाद देकर पूछा "भक्त " तेरे इस तरह करने का क्या प्रयोजन था ? ब्राह्मण बोला -यदि आपकी आज्ञा हो तो मेरे अपराध की कथा सुनिये मेरे पिता ने मेरा ब्याह छुटपन मे ही इस बड़ी स्त्री से किया था । तरुणाई मे मेरी माता ने अपनी स्त्री को मायके से लाने की आज्ञा दी । मैं घोड़े पर सवार हुए जा रहा था। गांव के बाहर उसने बुलाकर पुछा घोड़े के सवार मेरे सिर यह टोकरी रख दो यदि मेरे शरीर से तुमने ज़रा भी हाथ लगाया तो तुम्हे राम दुहाई है । मैंने कहा बाला तू चिन्ता मत कर , मैं तेरे शरीर को ज़रा भी स्पर्श नहीं करूँगा। उसके सिर पर टोकरी रखकर गोबर की घोड़े पर सवार होकर गाँव मे आया और अपने श्वसुर के यहाँ उतरा कुछ समय पश्चात वह भी गोबर की टोकरी लिए वहाँ पहुँची। मुझे उसकी सखियो के द्धारा पता चला कि वह मेरी स्त्री है मैं एक दम सन्न रह गया कि यह क्या हुआ हम दोनों प्रतिज्ञा मे बंध गए इसलिए मैंने हरिच्छानुसार व्यव्हार करने का निश्चय किया।
   प्रतिज्ञा पालन करना ही मनुष्य का जीवन है ऐसे विचार से मैंने सदा के लिए इसे त्याग दिया और मन मे प्रार्थना की। कि हे ईश्वर मेरी रामदुहाई को पूर्ण करने का मुझे बल दो और अपनी स्त्री से कहा अब तुम रामदुहाई निभाने के लिए धर्म से बर्ताव करो और मुझे मे करने दो संसार के सुख को छोड़ो और धर्म से बर्ताव करो और मुझे मे करने दो संसार के सुख को छोड़ो और धर्म पर प्रीति करो इसने भी रामदुहाई यथार्थ रीति से पाली है यह नित्य ईश्वर ध्यान मे लगी रहती है एक बार ऐश्वर्य को देखकर मेरी स्त्री के मन मे विचार हुआ मैं संतान उत्पन्न कर वंश का नाम रखूँ इसने मेरा दूसरा विवाह अपनी बहिन से करा दिया " ईश्वर की गति बड़ी बलवती होती है " विदाई के समय मेरे श्वसुर ने उपदेश दिया मुझे कि जमाई जी आपने जैसे मेरी बड़ी लड़की को सुख दिया है उसी तरह मेरी इस दूसरी बेटी को भी देना सुख ,यदि इसमें और उसमे जरा भी भेदभाव रखो तो " तुम्हे रामदुहाई है" मैंने उसी समय भगवान से प्रार्थना की कि भगवन आपने जैसे मेरी एक रामदुहाई निवाही है उसी तरह अब दूसरी रामदुहाई भी निबाहने का बल दो , यह दूसरी स्त्री भी मेरे लिए माता के समान है यह दोनों बहिने ईश्वर के ध्यान मे मग्न रहती है और यथायोग्य धर्म का पालन करती है इसलिए इस शरीर से इन स्त्रियों का सब सम्बन्ध त्याग दिया है । शब्द स्पर्श के सिवा इनसे सब व्यव्हार बंद कर दिया है क्योंकि शब्द स्वयं परमात्मा का ही स्वरुप है  चंचल और अस्थिर मन चाहे जब हाथ से छूट जाये इसलिए बड़े कष्ट से उसको नियम मे रखने के लिए मैंने सबका त्याग किया है सिर्फ भक्ति तथा वैराग्य मे अपना कालक्षेप कर रहा हूँ ।
  आप महात्मा आज मेरे यहाँ पधारे है और मुझ गरीब पर दया कर भोजन करने की इच्छा प्रकट की है और सो भी इन स्त्रियों के हाथ से ही , यदि मैं आपके साथ भोजन करूँ तो मेरी रामदुहाई मे न्यूनता हो मेरी प्रतिज्ञा भंग हो क्योकि इनके हाथ का भोजन करूँ तो भी यह एक तरह  का स्पर्श ही हैं मैं आपकी आज्ञा को इंकार नहीं कर सकता , इस माह खेद से अथान के बहाने अटारी पर जाकर " मैंने ईश्वर से प्रार्थना की कि मुझे इस संकट से बचाओ " ऐसी इच्छा करने से परमेश्वर ने तुरन्त ही दया कर मेरे प्राण को इस शरीर से मुक्त कर मेरी टेक रखी और स्त्रियों ने भी मेरे साथ अपने शरीर से मुक्ति पा ली। ये दोनों महासती है पति की धर्मप्रतिज्ञा सफल करने वाली है " स्त्रियों का धर्म है कि सब तरह से पति के धर्म कार्य मे सहायक रहे " यह योगिनी है क्योकि इच्छा का त्याग किये बिना कोई भी योगी नहीं हो सकता ।
   भगवान श्री कृष्ण ने कहा हे ब्राह्मण तुम श्रेष्ठ है आप जानते हो कि मैं श्री कृष्ण और यह मेरा सखा अर्जुन है इसलिए मेरी आज्ञा मानो और आज से तुम अपनी के साथ संसार का सुख भोगो तुम तीनो का यह नया जन्म हुआ है इसलिए अब तुम्हारी पूर्वजन्म की " रामदुहाई " तुम तीनो को बंधन मे डालने वाली नहीं है । श्री कृष्ण और अर्जुन उस ब्राह्मण को आशीर्वाद देकर वहाँ से विदा हुए वह ब्राह्मण गृहस्थ अनेक जन्मो के सुकृत योग से ज्ञान भक्तिपूर्वक परमात्मा की भक्ति कर ,संसार के अलौकिक सुखभोग ,स्त्रियों के साथ परमगति को प्राप्त हुआ ।
  मार्ग मे जाते हुए श्री कृष्ण से अर्जुन ने कहा कि महाराज इस ब्रह्मदेव के सामने तो मेरी टेक किसी भी गणना मे नहीं है ,तब श्री कृष्ण बोले - काम ,क्रोध ,लोभ ही मनुष्य को सब संकट पैदा करते है यह तीनो अहंकार वृत्तियाँ मनुष्य की । द्रढ़ से द्रढ़ टेक मे शिथिलता प्रकट करती है यह तीनो वृत्तियाँ ईश्वर की भक्ति को भी समयानुसार शिथिल कर देती है। अर्जुन - दुःख का कारण अपनी टेक ,विश्वास ,श्रद्धा मे भरोसा न होना है इसी कारण हरि भक्ति -परायणता मे शिथिलता होती है।
    यह कथा कर गुरु बटुक जी बोले ,भक्तो जब कभी मनुष्य पर संकट आये लो उसे निश्चित रूप से जानना चाहिए कि ईश्वर के प्रति उसकी जो आस्था (विश्वास)है उसमे कचाई है ।


                                                                                                                     शरणागत 
                                                                                                                 नीलम सक्सेना 



















   


















 





























No comments:

Post a Comment