Tuesday, 31 January 2017

भोला भाला ब्रह्मचारी , ज्ञानी भी चूकता है

                                    भोला भाला ब्रह्मचारी 
                                    -: ज्ञानी भी चूकता है :- 
माया चक्कर से मोह पैदा करती है ( भ्रम मे डालना ) माता ,सास या लड़की के साथ एकान्त मे कभी नहीं रहना चाहिए ,क्योंकि बलवान इन्द्रियों का समुदाय बड़े -बड़े विद्धानों को भी खींच लेता है । 
माया की विचित्रता से सिर्फ अज्ञानी को ही मोह होता है या ज्ञानी को भी ? यह सुनकर "वामदेव "जी बोले , हाँ ज्ञानी को भी मोह होता है इसी से महात्मा पुरुष बड़े सावधानी से चलते है प्रभु सवेश्वर की माया ऐसी अदभुद शक्तिमती है कि बड़े बड़े ज्ञानी भी उसके भुलावे मे पड़ गए है जब ब्रह्मदेव ,शंकरजी ,नारद ,इन्द्र ,चन्द्र ,वृहस्पति ,आदि अनेक समर्थ पुरुषो को भी माया ने बहुवार भुलाया है तो मनुष्य की क्या गणना है ? यह भुलावा आत्मा को नहीं परन्तु मन को होता है इसलिए महानुभाव पुरुष मन को जरा भी अवकाश नहीं देते । निरन्तर उसको अपने वश मे रखते है जरा भी छूटा स्वतंत्र हुआ कि बस साक्षात् ईश्वर के अंशरूप ,जगत का कल्याण करने के लिए पैदा हुए पुरुषो ने भी अपने मन को अवकाश नहीं दिया । ईश्वर के अवतार ऋषभदेव ने जब योग धारण किया तब अष्टमहासिद्धियां उनके आगे आकर खड़ी हुई और कहने लगी , महाराज हम आपके आधीन है आप हमे स्वीकार करे । परन्तु उनका त्याग करते हुए ऋषभदेव ने कहा "मैं तुमको ग्रहण नहीं करूँगा " यदि मैं तुमको स्वीकार करूँगा तो मेरा मन तुम्हारा उपयोग किये बिना नहीं मानेगा और इससे मेरा पतन हो जायेगा ,इसलिए देवियो ! तुम जाओ तुमको मैं प्रणाम करता हूँ । सारांश यह है कि जब ईश्वरावतार ऋषभदेव महात्मा ने भी जब मन को स्वतंत्रता से रखने मे संकोच किया है तो इस संसारी जीव की बात ही क्या कही जाये ? मन को यदि स्वतंत्रता दी जाये तो चाहे जैसा ज्ञानी हो  उसका भी मोह होगा । एक वृतांत सुनाता हूँ ध्यान से सुनो । 
    ईश्वर अवतार महात्मा वेदव्यास जी ने धर्म शासन रूप एक ग्रन्थ रचा । उसमे उन्होंने वर्ण और आश्रम धर्मो का चयन किया और उसमे कर्म,उपासना,ज्ञानकाण्ड का वर्णन किया था । व्यास जी ने अपना रचा हुआ ग्रन्थ अपने शिष्य जैमिनी को दिया । देखने देखने के लिए जैमिनी ऋषि ,महाविद्धान ,बुद्धिवान और धर्माग्रही थे । समर्थ जैमिनी ऋषि अपने गुरुदेव का लिखा हुआ ग्रन्थ आदि से अंत तक देखने लगे। एक जगह उन्होंने लिखा देखा कि "मनुष्य स्त्री के साथ एकांत मे न रहे "क्योकि एकांत मे रहने से ज्ञानी पुरुष को भी बलवान इन्द्रियों का समूह मोह पैदा करता है यह पड़ते ही जैमिनी के मन मे शंका उत्पन्न हुई क्योकि यह बात उन्हें उत्तम नहीं जंची और तुरंत अपने गुरु के पास गए और बोले गुरु महाराज ग्रन्थ बहुत ही श्रेष्ठ और सर्वमान्य है परन्तु एक जगह मुझे कुछ विपरीत जान पड़ता है यही बतलाने के लिए आया हूँ गुरु व्यास जी बोले बहुत अच्छा इसीलिए तो यह ग्रन्थ सबसे पहले तुझे पड़ने को दिया तू मेरा मुख्य शिष्य है  और बुद्धिमान है इसका नाम क्या रखना चाहिए ? इस पर भी तू विचार करना । 
  जैमिनी मेरे ग्रन्थ मे तुझे क्या अनुचित दिखा वह मुझे शीघ्र बता जैमिनी ऋषि ग्रन्थ को उनके सामने रखकर प्रणाम करके बैठे और बोले महाराज मुझको सिर्फ यह अयोग्य लगता है कि मनुष्य एकांत मे न रहे , यह तो ठीक है परन्तु एकांत मे साधू और ज्ञानी को भी बलवान इन्द्रियों का समूह मोह पैदा करता है "यह क्या है " ज्ञानी शब्द ही यह सूचित करता है कि जिससे अज्ञान और मोह दूर रहता है ,सत्य और असत्य क्या है इसका ज्ञान होता है । 
 सत्य सिर्फ परमात्मस्वरूप है और सब असत्य है मिथ्या है । इसको जानना ही ज्ञान है इन्द्रियों के समुदाय के बल से मोहित होने की जो अज्ञानता है वह जिसकी बिलकुल नष्ट हो गई हो वही ज्ञानी कहलाता है तो फिर ऐसे ज्ञानी को मोह क्यों होगा और उसका पतन कैसे हो सकता है ? मोह से रहित ज्ञानी कहलाता है "साधु और ज्ञानी पुरुष को भी  होता है" यह बात मुझको उचित नहीं लगती इसलिए गुरुदेव यह बात आप ग्रन्थ से निकाल दीजिये बस यही मेरी प्रार्थना है । 
  वेदव्यास जी ने मुस्कराकर कहा ! जैमिनी ईश्वर की माया कितनी प्रबल है इसे क्या तू नहीं जनता यह माया ही सारे विश्व को मोह कराने वाली महामोहिनी है पुरुषोत्तम श्री हरी की यह मूल -प्रक्रति है इसलिए जगत मे जो कुछ जड़ पदार्थो का समुदाय है उन सब की उत्पत्ति कराने वाली और जीवो को बंधन मे डालने वाली मूल देवी यही शक्ति है । यह ईश्वरी माया बड़ी दुस्तर है "पुरुषोत्तम ने श्री मुख से स्वयं कहा है कि मेरी माया वास्तव मे बड़ी दुरत्य है जो जानी नहीं जा सकती "। 
हे तात जैमिनी इस ईश्वरी माया मे बड़े -२  मोहित हो गए है इस जगत को बनाने वाले स्वयं ब्रह्मदेव,कैलाशवासी शिव शंकर और देवर्षि नारद मुनि को भी माया ने भुला दिया तो फिर दुसरो को क्या गिनती इसलिए पुत्र स्त्री के साथ एकान्त  मे रहना महा अनर्थकारी और पतित (भ्रष्ट )करने वाला है । यह सुन जैमिनी बोले प्रभो क्या शिव और ब्रह्मादि को भी माया ने मोहित किया । यह कैसे माना जाये यह सुनकर तो मुझे बड़ा आश्चर्य होता है वेदव्यास जी बोले इसमें आश्चर्य की कोई बात  नहीं है जगत की प्रत्येक स्थूल -सूक्ष्म वस्तु पर माया का आवरण चढ़ा हुआ है । 
 महामुनि वेदव्यास जी बोले "जैमिनी एक बार शंकर जी को बैकुष्ठ देखने की इच्छा हुई और वे दिव्य नित्यमुक्त विष्णुलोक को गए " वहाँ परमात्मा ,साक्षात् लक्ष्मीपति महाविष्णु विराजमान थे । दिव्य रूप महाविष्णु जी को नमन ,वंदनादि द्धारा हाथ जोड़कर स्तुति करने लगे तब भगवान ने उनको अपने ह्रदय से लगा लिया और कहा "शिव परम कल्याण रूप ! मायातीत ! मेरी माया के आवरण को भेदकर तुम यहाँ आये हो यह देखकर मैं अत्यन्त प्रसन्न हुआ हूँ मेरी दुस्तर माया जिसकी सत्ता सब पर है उसको पार कर लेना तुम्हारे लिए कोई आश्चर्य की बात नहीं है क्योकि तुम तो मेरे आत्मा रूप और मेरी बड़ी विभूति रूप है । 
 परमात्मा विष्णु का यह संभाषण सुनकर सदाशिव शंकर जी ने कहा प्रभो मेरी एक इच्छा है उसे पूर्ण करे समुद्र मंथन के समय आपने जो मनमोहिनी का रूप धारण किया था । वह देखने की उत्कण्ठा हुई है उसे आप पूर्ण करे क्योकि उस समय मैं कैलाश पर था अपने धाम मे । इससे मुझे आपका वह स्वरुप देखने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ । त्रिभुवन पति विष्णु ने कहा "शिव" जगत के कल्याणकर्ता ! मेरी एक विचारपूर्ण बात सुनो ,यह मोहिनीस्वरूप मेरी देवी गुणप्रचुर महामाया का एक अंग है -विभूति है इसमें अच्छे-२ ज्ञानियो ने गोता खाया है -धैर्यच्युत हुए है इसलिए यह बात छोड़ देना ही ठीक है महादेव ने कहा मधुसूदन ,श्यामसुंदर मैं जरा भी विचलित नहीं होऊंगा एक बार तो मेरी इच्छा पूर्ण करो । श्री भगवन विष्णु हंसकर बोले , अच्छा मोहिनी स्वरुप दिखाऊंगा पर स्मरण रखना ,मेरी माया दुरत्य अजय है । 
    श्री हरि की यह बात , जगत के कल्याणकर्ता श्री शंकर को नहीं जंची । उन्होंने सोचा इनकी माया कितनी बलवती होगी कि जिसे इन्होंने अपने मुख से दुरत्य अजय कहा ? इसका आवरण सब पर है तो क्या मुझ पर भी है ऐसे सोचते हुए श्री शंकर जी विष्णु धाम का अवलोकन करने लगे । सुन्दर वाटिका का अवलोकन करते हुए शंकर जी ज्यो-ज्यो आगे चले त्यों-त्यों आनन्दसहित आश्चर्य मे लीन होते गए ,जैमिनी ! कैलाश मे निरंतर निवास करने वाले शंकर जी ,इस विष्णु धाम की शोभा देखने मे तल्लीन हो गए ,उन्होंने एक आश्चर्य देखा कि वृक्षलताओ मे एक सुंदरी है उसकी मुख देखने की लालसा मे उसके पीछे -२ दौड़ने लगे ज्यो हिं ज्ञानी प्राणियों के कल्याणकर्ता श्री शंकर जी माया मे लपटाए मोह मे फंसे और मोहिनीस्वरूप विष्णु मंद -मंद मुस्कराते हुए बोले "शिव मेरा मोहिनी स्वरुप देखा " शंकर जी ने अत्यन्त लज्जित होकर तुरन्त शीश नीचे कर लिया और उनके अन्तःकरण मे निश्चय हुआ कि परमात्मा की माया बिलकुल अनिवार्य है फिर शंकर जी ने नारायण जी की स्तुति की और कैलाश की ओर चले गए । 
   वामदेव अपने पिता से कहते है " पिताजी ! यह इतिहास सुनाकर वेदव्यास बोले इस तरह शंकरजी जैसे भगवान भी माया से मोहित हो जाते है ,तो फिर दुसरो की क्या गणना ,जब ऐसे ज्ञानी को भी मोह हुआ जो प्रमाणसिद्ध है तो फिर मेरे इस ग्रन्थ का वाक्य कैसे असत्य होगा । 
जैमिनी के मन को समाधान नहीं हुआ , ग्रन्थ को वही रख गुरु को प्रणाम कर अपने आश्रम को चले गए । गुरूजी ने जान लिया कि इसके मन को समाधान नहीं हुआ और उन्होंने जैमिनी की परीक्षा लेना सोच लिया । 
 जैमिनी कुछ ही देर मे अपने आश्रम मे पहुंचे और स्नान करने के पश्चात तप सम्बंधी नैमित्तक जप अनुष्ठान करने के लिए बैठे तभी अचानक शीतल वायु बहने लगी ,घटाये घिर आई और मंद - मंद फुहार पड़ने लगी । ऐसे समय मे जैमिनी को अपने आश्रम से कुछ दूरी पर आश्रय खोजती हुई एक बाला दिखाई दी जो सम्पूर्ण भीगी हुई ठण्ड से काँप रही थी वह आश्रम की ओर आने लगी जैमिनी ने उसे आश्रम मे आते हुए देखकर कहा सुन्दरी तुम कौन हो ? परंतु वह नहीं बोली तब ऋषि ने पास आकर कहा तू इतनी लाज क्यों करती है आश्रम मे क्यों नहीं आती है लज्जा को छोड़कर आश्रम मे आज यहाँ तू सुरक्षित रहेगी उसके स्वरुप से मालूम पड़ता था कि वो कोई राजपुत्री है । ऋषि ने कहा भीतर जा और सूखा कपडा पहन । ऋषि ने तुरंत वल्कल और ऊर्जा वस्त्र पहनने को दिए और कहा कि तुम इन्हें पहन लो तब तक तुम्हारे लिए मैं कुछ खाने के लिए लाता हूँ फल वगैरह , ऋषि ने फल मूलो को लाकर अपने हाथ से उसे खाने के लिए दिए ,सुन्दरी ने ज्यो ही ऋषि की ओर देखा ऋषि मोहित हो गए और उसके स्पर्श ने मुनिजी की चित्तवृत्ति को चलायमान कर दिया । उस बाला के कोमल मुखारविन्द पर हाथ फेरते समय अचानक उनके हाथ मे मोटी मोटी दाढ़ी के बाल हाथ मे आये। जैमिनी ऋषि स्तब्ध रह गए उन्होंने देखा कि उस बाला की जगह वृद्ध तपस्वी वेदव्यास मुनि बैठे थे उन्हें देखकर जैमिनी मन ही मन सोचने लगे मानो धरती मे समा जाय या मर जाये । मुनि का मुख बिलकुल उतर गया और वह एक शब्द भी नहीं बोल पाए वेदव्यास जी से । 
 गुरु वेदव्यास जी ने कहा ! जैमिनी यह क्षण हमेशा याद रखना कि ईश्वरी माया महा दुस्तर है यह बड़े से बड़े ज्ञानी को अपने पाश मे आकर्षित कर गिरा देती है इसलिए ज्ञानीपन का अभिमान छोड़ और सिर्फ भगवत्परायण होजा ,उस मायापति का द्रढ़ ,आश्रय कर ,जिससे उसकी माया से तुझे कभी बाधा न हो । इसके लिए प्रभु के स्वयं कहे हुए वचन प्रसिद्ध है "कि मुझमे परायण हुआ ही इस माया को तर सकता है " माया ऐसी ही है "तेरा कल्याण हो" ऐसा कहकर महामुनि वेदव्यास जी अपने आश्रम की ओर गए और जैमिनी ने अपने को धिक्कारते हुए इस पाप की वृति का प्रायश्चित किया । 
 वामदेव मुनि ने अपने पिता से कहा पिताजी ऐसे -ऐसे जब महान पुरुषो को मोह होता है तो मुझे डर क्यों न हो इसलिए मुझसे घर जाने का आग्रह न करो आप सुखपूर्वक पधारो और मेरी माता के मन को शान्त करो लेकिन बटुकजी को साथ लिए बिना घर वापस जाने को तैयार नहीं । 


                                                                                                                 शरणागत 
                                                                                                             नीलम सक्सेना  















  















   










































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