सुख कहाँ है
" इन्द्र को भी कोई सुख नहीं ,वैसे ही चक्रवर्ती को भी नहीं ,परन्तु " एकांत मे जीवन बिताने वाले विरक्त मुनि को ही सुख होता है ।
बटुकजी ने फिर कहा , तुम सबके मन को एक सा समाधान होने के लिए मैं फिर एक कथा कहता हूँ उसको सुनो संसार मे सुख है या नहीं इसका निश्चय तुम ही करोगे ।
किसी समय शरीर नाम के देश मे मनश्चन्द्र नाम का मंत्री था वह बहुत पराक्रमी था और राज्य का स्वामी आत्मसेन था मंत्री के दो विवाह हुए पहली पत्नी "प्रज्ञा " और पुत्र " शान्तिसेन" , दूसरी पत्नी " दुर्मुर्ति " और पुत्र "विलासवर्मा " । प्रज्ञा और शान्तिसेन धार्मिक प्रवति के थे और विलासवर्मा बड़ा ही नीच ,घमंडी और चंचल स्वभाव का था।
मंत्री के राजा को वश मे करके राज्य का भार अपने हाथ मे ले लिया उसका पुत्र विलासी और मनमौजी निकला "यथातातस्तथासुतः" " जैसा बाप वैसा बेटा " मनश्चन्द्र के समान उसमे ही गुण प्रकट होने लगे बाप बेटे के बीच क्लेश रहना लगा । मनश्चन्द्र ने उसे बहुत समझाया परंतु वह निष्फल रहा उसने अपने पुत्र को देश निकाला दे दिया आज से तू न मेरा पुत्र और न मैं तेरा पिता ।
पिता के नाराज होने विलासवर्मा नगर के बाहर आ गया और सोचने लगा कहाँ जाऊँ इतने मे उसका भाई शांतिसेन वहाँ आ पंहुचा विलासवर्मा को दुःखी देखकर कहने लगा भाई क्या बात है आज इतने उदास और दुःखी क्यों हो ? विलासवर्मा सोचने लगा मैंने इसके साथ बुरा व्यवहार किया फिर भी यह मेरी परेशानी मे मेरे साथ है बहुत लज्जित हुआ । मन ही मन नजरे मिलाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था ।
शान्तिसेन ने कहा भले ही पिता ने मुझे और मेरी माँ को छुटपन से ही अलग रखा है अपने से परंतु हम है तो भाई-भाई ही । शान्तिसेन अति प्रेम से बोला भाई घबराओ मत मैं वचन देता हूँ कि तेरे संकट मे मैं हमेशा तेरा सहायक रहूँगा छोटा भाई होने से तेरे अनेक दोष भी सहकर तेरा कल्याण चाहना मेरा सनातन धर्म है आगे पीछे की सब बातें भूल जा व्याकुलता का त्याग कर अपना दुःख मुझे बता ।
ऐसा सुनकर विलासवर्मा दीन स्वर से बोला पूज्य बड़े भाई क्या कहूँ मुझको इस शरीरदेश की हृदयपुर सीमा मे रहने की आज्ञा नहीं है पिताजी ने मेरा सदा के लिए देश से निष्कासन कर दिया है इसमें मैं स्वयं अपराधी हूँ मैंने पिताजी को बहुत सताया है उनकी आज्ञा के अधीन होकर तुरंत चल पड़ा इसलिए अब बड़े भाई तुम्हारी शरण हूँ और चाहता हूँ कि कोई ऐसा उपाय बतलाओ जिससे मुझको लाभ हो उसको ऐसा निश्चय देखकर शान्तिसेन ने कहा विलासभाई अगर तू पिता के पास रहता तो मुझे अच्छा लगता परंतु जब तुमने निश्चय ही कर लिया है तो कोई चिंता नहीं तू थोड़ी देर उधर ठहर। मैं पहले अपनी मातुश्री और गुरुदेव की आज्ञा ले आऊँ। शान्तिसेन नगर मे गया और माँ प्रज्ञादेवी से आज्ञा लेकर तुरंत ही वापस विलास के पास आ गया और बोला गुरुदेव का आश्रम रास्ते मे ही पड़ेगा वहाँ पर गुरुदेव से आज्ञा ले लेंगे।
विलासवर्मा और शान्तिसेन गुरुदेव के आश्रम की ओऱ चले शान्तिसेन ने कहा यह मेरे गुरुदेव का आश्रम है दोनों आश्रय के पास जाकर पर्णकुटी मे गए अत्यन्त सुन्दर फूलवाड़ी के बीच मे बनी हुई एक पवित्र पर्णशाला मे गुरु महात्मा बैठे थे सामने जाते ही शान्तिसेन ने गुरुदेव के चरणकमलों मे दण्डवत नमस्कार किया देखा देखी विलासवर्मा ने भी नमस्कार किया गुरुदेव आशीर्वचन पूर्वक शान्तिसेन से बोले वत्स आज इतने दिनों बाद कैसे आये और यह साथ मे कौन है शान्तिसेन ने विलासवर्मा का परिचय कराया और विनय की कि "कृपानाथ" इस मेरे छोटे भाई विलास के लिए कोई ऐसा उत्तम स्थान बताये जहाँ रहकर यह सुखी रहे यह सुनकर गुरुदेव ने कहा भाई शान्तिसेन विश्वाअरण्य नाम का एक बड़ा प्रदेश है उसमे शुभमति नाम का एक विस्तीर्ण पर्वत है वहाँ विलास को सचेत होकर चलना पड़ेगा वहाँ अनेक भूलभूलैया है यह भूलभूलैया शोभा मे गुलाबरूप है परंतु कठिन काँटो से परिपूर्ण है इस प्रकार बहुत से चेतावनी देकर गुरूजी चुप हो गए। गुरूजी का आशीर्वाद लेकर दोनों राजपुत्र विश्वाअरण्य मे प्रविष्ट हुए। यह विश्वाअरण्य है इसमें वैसे ही चमत्कार भरे है जैसे गुरूजी ने बताये थे । हमें तो पहले शुभमतिगिरि पर जाकर महात्मा मुनि के आश्रम की खोज करनी चाहिए " सद्धबुद्धि के पास हमेशा शान्ति रहती है " पर विलास ने अपने रहने के लिए एक स्वतन्त्र आश्रम पसंद किया शान्तिसेन उसको वहाँ छोड़कर कुछ दिनों मे अपने देश को लौटने के लिए तैयार हो गया तब विलास आँखों मे आँसू भर कर कहने लगा भाई क्या इस जंगल मे मुझे अकेले छोड़कर तुम चले जाओगे मुझको कौन उत्तम मार्ग बतलायेगा मैं किसके आगे दुःख सुख की बातें कहूँगा तब शान्तिसेन ने धीरज देकर कहा भाई मैं क्या करूँ तू तो जानता ही है कि घर माँ अकेली है मेरे बिना उनको जरा भी चैन नहीं पड़ता होगा वे सदा मेरा रास्ता देखती होंगी । यदि कोई संकट आ पड़े तो मेरा स्मरण करना मैं तुरंत आ जाऊंगा मुझको गुरुमहाराज की कृपा से स्मरणगामीपन की अदभुद शक्ति प्राप्त हुई है । तू हमेशा अच्छा आचरण करेगा तो प्रभुजी कृपा करेंगे। जय गुरुदेव कहकर अपने घर को लौटा विलासवर्मा शुभमतिगिरि पर रह गया।
विलास तो विलास ही है "यथानाम तथा गुण:" जन्म से आज तक वह पिता के आश्रय मे रहकर वह सदा विलास और सुख ही भोगता रहा इससे इस जंगल के दुःख उससे कैसे सहे जाये। धीरे धीरे वह अपने आस-पास के आश्रम मे जाने लगा कि वहाँ स्त्री-पुरुषो के लिए ओढ़ने पहनने को वल्कलवस्त्र (वृक्षो के छाल के कपडे) सोने के लिए कुश की चटाइयाँ ,खाने को कंद मूल फल या वनधान्य ( पसई के चावल ) काम करने को तप , अग्निहोत्र वैदाध्यन आदि धर्मकार्य और बोलने को थोड़ा तथा सच्चा था वह अपने मन मे कहने लगा "अरे" यह मैं कैसे सह सकूँगा इसलिए मैं तो नहीं जाऊंगा जहाँ सुख होगा और इच्छानुसार मन को आनंद मिलेगा ॥
शरणागत
नीलम सक्सेना
" इन्द्र को भी कोई सुख नहीं ,वैसे ही चक्रवर्ती को भी नहीं ,परन्तु " एकांत मे जीवन बिताने वाले विरक्त मुनि को ही सुख होता है ।
बटुकजी ने फिर कहा , तुम सबके मन को एक सा समाधान होने के लिए मैं फिर एक कथा कहता हूँ उसको सुनो संसार मे सुख है या नहीं इसका निश्चय तुम ही करोगे ।
किसी समय शरीर नाम के देश मे मनश्चन्द्र नाम का मंत्री था वह बहुत पराक्रमी था और राज्य का स्वामी आत्मसेन था मंत्री के दो विवाह हुए पहली पत्नी "प्रज्ञा " और पुत्र " शान्तिसेन" , दूसरी पत्नी " दुर्मुर्ति " और पुत्र "विलासवर्मा " । प्रज्ञा और शान्तिसेन धार्मिक प्रवति के थे और विलासवर्मा बड़ा ही नीच ,घमंडी और चंचल स्वभाव का था।
मंत्री के राजा को वश मे करके राज्य का भार अपने हाथ मे ले लिया उसका पुत्र विलासी और मनमौजी निकला "यथातातस्तथासुतः" " जैसा बाप वैसा बेटा " मनश्चन्द्र के समान उसमे ही गुण प्रकट होने लगे बाप बेटे के बीच क्लेश रहना लगा । मनश्चन्द्र ने उसे बहुत समझाया परंतु वह निष्फल रहा उसने अपने पुत्र को देश निकाला दे दिया आज से तू न मेरा पुत्र और न मैं तेरा पिता ।
पिता के नाराज होने विलासवर्मा नगर के बाहर आ गया और सोचने लगा कहाँ जाऊँ इतने मे उसका भाई शांतिसेन वहाँ आ पंहुचा विलासवर्मा को दुःखी देखकर कहने लगा भाई क्या बात है आज इतने उदास और दुःखी क्यों हो ? विलासवर्मा सोचने लगा मैंने इसके साथ बुरा व्यवहार किया फिर भी यह मेरी परेशानी मे मेरे साथ है बहुत लज्जित हुआ । मन ही मन नजरे मिलाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था ।
शान्तिसेन ने कहा भले ही पिता ने मुझे और मेरी माँ को छुटपन से ही अलग रखा है अपने से परंतु हम है तो भाई-भाई ही । शान्तिसेन अति प्रेम से बोला भाई घबराओ मत मैं वचन देता हूँ कि तेरे संकट मे मैं हमेशा तेरा सहायक रहूँगा छोटा भाई होने से तेरे अनेक दोष भी सहकर तेरा कल्याण चाहना मेरा सनातन धर्म है आगे पीछे की सब बातें भूल जा व्याकुलता का त्याग कर अपना दुःख मुझे बता ।
ऐसा सुनकर विलासवर्मा दीन स्वर से बोला पूज्य बड़े भाई क्या कहूँ मुझको इस शरीरदेश की हृदयपुर सीमा मे रहने की आज्ञा नहीं है पिताजी ने मेरा सदा के लिए देश से निष्कासन कर दिया है इसमें मैं स्वयं अपराधी हूँ मैंने पिताजी को बहुत सताया है उनकी आज्ञा के अधीन होकर तुरंत चल पड़ा इसलिए अब बड़े भाई तुम्हारी शरण हूँ और चाहता हूँ कि कोई ऐसा उपाय बतलाओ जिससे मुझको लाभ हो उसको ऐसा निश्चय देखकर शान्तिसेन ने कहा विलासभाई अगर तू पिता के पास रहता तो मुझे अच्छा लगता परंतु जब तुमने निश्चय ही कर लिया है तो कोई चिंता नहीं तू थोड़ी देर उधर ठहर। मैं पहले अपनी मातुश्री और गुरुदेव की आज्ञा ले आऊँ। शान्तिसेन नगर मे गया और माँ प्रज्ञादेवी से आज्ञा लेकर तुरंत ही वापस विलास के पास आ गया और बोला गुरुदेव का आश्रम रास्ते मे ही पड़ेगा वहाँ पर गुरुदेव से आज्ञा ले लेंगे।
विलासवर्मा और शान्तिसेन गुरुदेव के आश्रम की ओऱ चले शान्तिसेन ने कहा यह मेरे गुरुदेव का आश्रम है दोनों आश्रय के पास जाकर पर्णकुटी मे गए अत्यन्त सुन्दर फूलवाड़ी के बीच मे बनी हुई एक पवित्र पर्णशाला मे गुरु महात्मा बैठे थे सामने जाते ही शान्तिसेन ने गुरुदेव के चरणकमलों मे दण्डवत नमस्कार किया देखा देखी विलासवर्मा ने भी नमस्कार किया गुरुदेव आशीर्वचन पूर्वक शान्तिसेन से बोले वत्स आज इतने दिनों बाद कैसे आये और यह साथ मे कौन है शान्तिसेन ने विलासवर्मा का परिचय कराया और विनय की कि "कृपानाथ" इस मेरे छोटे भाई विलास के लिए कोई ऐसा उत्तम स्थान बताये जहाँ रहकर यह सुखी रहे यह सुनकर गुरुदेव ने कहा भाई शान्तिसेन विश्वाअरण्य नाम का एक बड़ा प्रदेश है उसमे शुभमति नाम का एक विस्तीर्ण पर्वत है वहाँ विलास को सचेत होकर चलना पड़ेगा वहाँ अनेक भूलभूलैया है यह भूलभूलैया शोभा मे गुलाबरूप है परंतु कठिन काँटो से परिपूर्ण है इस प्रकार बहुत से चेतावनी देकर गुरूजी चुप हो गए। गुरूजी का आशीर्वाद लेकर दोनों राजपुत्र विश्वाअरण्य मे प्रविष्ट हुए। यह विश्वाअरण्य है इसमें वैसे ही चमत्कार भरे है जैसे गुरूजी ने बताये थे । हमें तो पहले शुभमतिगिरि पर जाकर महात्मा मुनि के आश्रम की खोज करनी चाहिए " सद्धबुद्धि के पास हमेशा शान्ति रहती है " पर विलास ने अपने रहने के लिए एक स्वतन्त्र आश्रम पसंद किया शान्तिसेन उसको वहाँ छोड़कर कुछ दिनों मे अपने देश को लौटने के लिए तैयार हो गया तब विलास आँखों मे आँसू भर कर कहने लगा भाई क्या इस जंगल मे मुझे अकेले छोड़कर तुम चले जाओगे मुझको कौन उत्तम मार्ग बतलायेगा मैं किसके आगे दुःख सुख की बातें कहूँगा तब शान्तिसेन ने धीरज देकर कहा भाई मैं क्या करूँ तू तो जानता ही है कि घर माँ अकेली है मेरे बिना उनको जरा भी चैन नहीं पड़ता होगा वे सदा मेरा रास्ता देखती होंगी । यदि कोई संकट आ पड़े तो मेरा स्मरण करना मैं तुरंत आ जाऊंगा मुझको गुरुमहाराज की कृपा से स्मरणगामीपन की अदभुद शक्ति प्राप्त हुई है । तू हमेशा अच्छा आचरण करेगा तो प्रभुजी कृपा करेंगे। जय गुरुदेव कहकर अपने घर को लौटा विलासवर्मा शुभमतिगिरि पर रह गया।
विलास तो विलास ही है "यथानाम तथा गुण:" जन्म से आज तक वह पिता के आश्रय मे रहकर वह सदा विलास और सुख ही भोगता रहा इससे इस जंगल के दुःख उससे कैसे सहे जाये। धीरे धीरे वह अपने आस-पास के आश्रम मे जाने लगा कि वहाँ स्त्री-पुरुषो के लिए ओढ़ने पहनने को वल्कलवस्त्र (वृक्षो के छाल के कपडे) सोने के लिए कुश की चटाइयाँ ,खाने को कंद मूल फल या वनधान्य ( पसई के चावल ) काम करने को तप , अग्निहोत्र वैदाध्यन आदि धर्मकार्य और बोलने को थोड़ा तथा सच्चा था वह अपने मन मे कहने लगा "अरे" यह मैं कैसे सह सकूँगा इसलिए मैं तो नहीं जाऊंगा जहाँ सुख होगा और इच्छानुसार मन को आनंद मिलेगा ॥
शरणागत
नीलम सक्सेना
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