अलौकिक दिव्यरूप वाला बालक जो तुरंत की यज्ञयोपवित दीक्षा लिया हुआ शरीर की कोमलता से तुरंत का जन्मा जैसा जान पड़ता था । जिसके दर्शन हमने जंगल मे किये थे अकस्मात् यज्ञशाला मे आता हुआ दिखाई दिया। उसका रूप और तेज देखकर लोग आप ही आप रास्ता देने लगे। भारी भीड़ होने पर भी बिना किसी को छुए यज्ञमण्डप के पास जहाँ राजा दान देने के लिए बैठे थे, आ पंहुचे उनका नाम "बटुक" था महात्मा बटुक जी को किसी भी दान व मान की इच्छा नहीं थी । आत्म प्रेरणा से किसी बडे काम के लिए आये थे एकाएक अचानक आया हुआ देखकर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ उसकी दिव्य कांति ने सबकी चित्तवृति को अपनी ओर खींच लिया ऐसा लगा मानो राजा को दर्शन देने के लिए साक्षात् यज्ञ नारायण प्रभु ही इस रूप मे पधारे हो ।
राजा ने महात्मा बटुक जी का आदर सत्कार पूजन कर सिर झुकाकर प्रणाम किया। राजा ने बड़ा संतोष माना कि ऐसे समय मे पवित्र ब्रह्मचारी आ पंहुचा है , मैं बड़ा भाग्यशाली हूँ इस महात्मा को कोई उत्तम दान देकर कृतार्थ होऊंगा ऐसा सोचकर उस बाल बटुक को रत्नजड़ित सिंघासन पर बैठाया और हाथ जोड़कर विनय की कि हे बटुक आपको जो अच्छा लगे वह दान मांगे ।
राजा के ऐसे वचन सुन बटुक जी बोले कि मैं कोई दान लेने नहीं आया अगर तेरे कहेअनुसार मैंने दान माँगा तोह तू मुझे दान नहीं दे पायेगा । तुझको यदि किसी भी चीज़ की इच्छा है तो मांग ले ! उस बाल बटुक के ऐसे वचन सुनकर सारा ऋषिमण्डल,प्रजासहित राजा वरेप्सु आश्चर्य चकित हो गए ।
राजा सोचने लगे बालक कहता है कि माँगा हुआ दान देने मे मैं समर्थ नहीं यह सोचकर वरेप्सु लज्जित सा हो गया यदि इसका माँगा हुआ दान मैं नहीं दू तो अपने पूर्ण समय के समर्थ यज्ञ करने वालो की दान शीलता की प्रथा को लज्जित करूँगा मेरे पास क्या नहीं है जो मैं इस बाल बटुक को नहीं दे पाउँगा इस शरीर तथा प्राण को भी मांगेगा तो भी दान देने को तैयार हूँ राजा ने उस बालक से हाथ जोड़कर विनय की कि हे "ब्रह्मदेव" हे महातेजस्वी तुम्हारी जो इच्छा हो वह मुझसे मांगो यह सुनकर ब्रह्मचारी बालक बोला राजा व्यर्थ क्यों आग्रह करते हो मांगने मे कुछ देर नहीं लगेगी लेकिन देने मे देर लगेगी ।
इस तरह बालक को बोलते हुए देखकर सबने निश्चय किया की ये कोई साधारण बालक नहीं यह तो कोई अवतारी पुरुष है पुरोहित समझाने लगे की महाराज आप दान देने के लिए ज्यादा ज़ोर न दे आपका यह आखिरी यज्ञ है और इसमें यह विचित्र बालक यकायक आ गया है अवश्य विघ्न करने वाला मालूम होता है पूर्वकाल मे राजा बलि के साथ भी ऐसा ही हुआ था बलि ने वामन प्रभु को तीन पैर पृथ्वी के दान देने का संकल्प किया, संकल्प का जल पड़ते ही वामन जी का शरीर महाप्रचण्ड हो गया और परमात्मा ने दो पैरो मे तीनो लोक नाप लिए और तीसरे पैर के लिए स्थान माँगा तब निरुपाय होकर बलि ने अपने शरीर रूपी भूमि पर तीसरे पैर को नापने को कहा इतने मे वामन जी ने वैसा ही करके उसे पाताल मे दाव दिया जो अब तक वही रहता है महाराज यह भी वैसा ही कोई रूप मालूम होता है इसलिए तुम इस बटुक को दान देने का आग्रह न करो ।
ऋषियों के ऐसे शब्द सुनकर वरेप्सु बोले ,मन मे दान देने का संकल्प करके फिर दान न दूँ तो मैं भारी अपराधी होऊंगा चाहे जो हो " कर्म का लेख" झूठा नहीं होता , बटुकजी जो मांगेंगे वह मैं अवश्य दूंगा ।
राजा वरेप्सु बटुकजी को संबोधन करके बोले ब्रह्मपुत्र देर न करो जो इच्छा हो सो मांगो यह बटुकजी बोले , शांति - शांति ,धन्य -धन्य राजन ! यदि तेरी ऐसी ही इच्छा है तो दान देने के लिए तुझे कही से कोई चीज़ नहीं लानी पड़ेगी व् न ही कोई परिश्रम करना पड़ेगा। मेरी याचना यही है कि " जो तेरा है वो मेरा है "
बटुकजी की ऐसी विचित्र मांग सुनकर वरेप्सु सन्न रह गया इस याचना से राजा बहुत देर तक चुप रहा किन्तु अंत मे उसने अपनी बुद्धि लगाकर विचार किया और कहा ऋषिपुत्र मेरा धन्यभाग्य है कि आप जैसे याचक मेरे यहाँ पधारे है लीजिये पहले मेरी यह धनधान्य रूप सब संपत्ति आपको अर्पण है ,मेरी सारी सेना ,रथ , हाथी ,घोड़े आपको अर्पण है राज सत्ता भी मै आपको अर्पण करता हूँ यह सब आप ग्रहण करे , मेरी रानी भी आपको अर्पण करता हूँ अब आप संतुष्ट हुए ऋषिपुत्र बटुकजी ने कहा कि अभी तो बहुत कुछ बाकी है राजा विचार करने लगा अब क्या बाकी है अपने शरीर के सभी आभूषण भी ऋषि को दान कर दिए और पुनः बोले अब प्रभु संतोष है बटुक जी ने कहा " नहीं " अभी बहुत कुछ बाकी है इस जवाब से राजा विस्मित हो गया और विचार कर बोला अब क्या बाकी है अब इसे कैसे संतुष्ट करू ।
इस प्रकार राजा को व्याकुल देखकर बटुकजी बोल उठे राजन वरेप्सु कौन है तब राजा बोला मै स्वयं हूँ बटुकजी बोले तेरे पास जो है वह सब मुझे दे राजा ने स्वयं अपने शरीर के प्रत्येक अंगो पर नजर डालकर देखी तो विचार करने लगा कि बटुकजी के कहे अनुसार मेरे पास अपना बहुत कुछ है यह शरीर भी तो मेरा है यह शरीर भी मैं आपको अर्पण करता हूँ अब तो दान का संकल्प लीजिये लेकिन बटुकजी बोले कि अभी तो तेरे पास बहुत बडी समृद्धि है उसको दिए बिना मैं कैसे दान ले लूँ बटुकजी के ऐसे वचन सुनकर राजा बोला अब मेरे पास क्या है ? बटुकजी ने कहा सावधान होकर देख तूने विचार किसके साथ किया ,राजा ने कहा "मन " के साथ , मन भी मैं आपको अर्पण करता हूँ राजा बटुकजी से बोला कि अब मेरी बुद्धि की परिसीमा ( अंत ) हो गयी मैंने बहुत विचार किया अब तो मेरा जी घबराता है बटुकजी बोले यह जीव क्या है जो तूने अभी अभी कहा जीव अकुलाता है तो यह जीव किसका है राजा बोला हां ऋषिदेव यह जीव मेरा है परंतु अब मैं आपसे हाथ जोड़कर विनय करता हूँ कि इसके सिवा मेरे पास और भी कुछ है तो बतलाइये मैं उसे भी संकल्प कर दूँ दान कर दूँ ।
बटुकजी बोले अब तेरे पास कुछ नहीं है तेरे पास इतनी बड़ी पूंजी है यह सब मुझे शीघ्र दे दे देर क्यों करता है दान कर ।
राजा यज्ञ,दान,अच्छे अच्छे कर्म करके महापुण्यवान तथा पापहीन हुआ था उसका अंत:करण शुद्ध होने मे देर नहीं थी बटुकजी के ये अंतिम वचन सुनकर मानों वह गहरी नींद से जागा हो वह सावधान होकर विचार करने लगा अहो मेरे पास इतनी बड़ी पूँजी थी अब मैं उन सबसे अलग हूँ और अकेला हूँ तो मैं कौन हूँ ?
राजा ने बटुकजी से हाथ जोड़कर पूछा, हे देव ! मुझको बतलाओ मैं कौन हूँ? तब बटुकजी बोले तूने ठीक पूछा है , सुन ।
जिसको महापुरुष अविनाशी ,अनादि ,अजन्मा ,निराकार ,निर्गुण ,सर्वेश्वर ,देवो के देव आदिनाम से जानते है जो सत्य , जो केवल एक ,श्रेष्ठ ,सब जीवो का पिता ,जगत का पालनहार ,चैतन्य ,आनंदस्वरूप है जो चराचर जगत मे साक्षी रूप से निवास कर रहा है सबका गतिरूप है ,सर्वशक्तिमान है ,अपार है ,अनंत है
"सोहवम " वही स्वयं तू है " तत्वमसि " ॥
यह सुनकर राजा बोला अहो मैं ऐसा हूँ नहीं यह मुझे असम्भव लगता है जब मैं स्वयं वह हूँ तो यह कैसे हो सकता है कि मैं स्वयं को देख न सकू । अज्ञानता क्या इतनी बड़ी है ?
बटुकजी बोले "हाँ" अज्ञानता इससे भी बड़ी है तुझको तो अपने महत्वपूर्ण कर्मो के प्रताप से इतना सुनने और जानने का अवसर प्राप्त हुआ है कि मैं स्वयं परमात्मा हूँ । परन्तु दूसरे संस्कार हीन प्राणी ,पापी ,जो बुरे ही कर्म करते है इतने बड़े अंधकार ,अज्ञान मे पड़े रहते है कि उन्हें अपने ही कल्याण की कोई खबर नहीं होती है हम कौन है ,कहाँ से आये है और कहाँ जाना है इसके लिए कभी पलभर भी उन्हें विचार नहीं होता वह तो केवल वासना और पेट की फ़िक्र मे ही हमेशा विचार किया करते है ।
राजा ने पूछा ,हाँ यह बात सत्य है मैं भी अभी तक ऐसा ही था ऐसा होने का कारण क्या है ?
बटुकजी ने कहा ,अपना स्वरुप जानने मे तीन सबल कारण होते है उनका नाश करने मे मनुष्य असमर्थ होता है जिससे प्राणी का अन्तःकरण मैला रहता है उसे मालूम नहीं होता कि सत्य क्या है ।
१-जैसे -दर्पण साफ़ हो तो मुँह ज्यो का त्यों साफ़ दिखाई देता है और गन्दा हो "धूल का आवरण हो " तो उसमे किसी भी चीज़ का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता कोई भी वस्तु दिखाई नहीं देती ।
२- " मन की चंचलता " से मन अस्थिर रहकर चारो ओर भटकता रहता है और वह सत्य स्वरुप को नहीं देख पाता , परंतु जब मन स्थिर हो तभी सत्य स्वरुप देखने मे आता है ।
३- तीसरा कारण " अज्ञान अविद्धया है " इससे सत्यस्वरूप नहीं जान पड़ता ।
यह सुनकर राजा बोला "कृपानाथ" कृपा करके आप मेरे स्वरुप के दर्शन कराओ ये बाधा डालने वाले कारण क्या किसी तरह से दूर नहीं हो सकते ?
बटुकजी बोले ,यह तीन साधन है जो शास्त्रो मे विधिवत रूप से बताते है । कर्मयोग ,ज्ञानयोग ,उपासनायोग
राजा बोला कर्म ,ज्ञान ,उपासना यह क्या है बटुकजी ने कहा यज्ञादिक क्रिया करना "कर्म " , परमात्मा की भक्ति करके मन को उसमे द्रढ़ता से लगाना "उपासना " ब्रह्म के साथ जीव की एकता मानना "ज्ञान" है ।
राजा ने कहा अहो तब तो मुझे अपना स्वरुप जानने मे बहुत देर है बटुकजी बोले , इस समय तू मुझे दान दे राजा ने कहा मैं अपना सर्वस्व ऋषिपुत्र को अर्पण करता हूँ राजा विचार करने लगा कि मैं अब तक जिसे अपना स्वरुप मानता था वह मेरा देह, अन्त:करण ,मनबुद्धि अहंकार और चित्त तथा जीवात्मा सहित सब वस्तुओ से भरे इस शरीर सहित ऋषि को अर्पण करता दूँ और उनके चरणों मे जा गिरूँ इन सब चीज़ों का दान करने के बाद जो बचा वही " मैं स्वयं हूँ" ऐसा विचार करने लगा।
लीजिये महाराज मेरा यह सब आपको अर्पण है ऐसा कहकर ब्रह्मचारी के श्री चरणों मे जा गिरा।
जो लोग यज्ञ दर्शन करने आये थे राजा और ब्रह्मचारी की यह विचित्र बातें सुनकर बोले वाह क्या मांग है धन्य है इसकी "सूक्ष्मबुद्धि " को , ऐसा कहकर सब आश्चर्य मे डूब गये और सोचने लगे अब आगे क्या होगा ।
शरणागत
नीलम सक्सेना
राजा ने महात्मा बटुक जी का आदर सत्कार पूजन कर सिर झुकाकर प्रणाम किया। राजा ने बड़ा संतोष माना कि ऐसे समय मे पवित्र ब्रह्मचारी आ पंहुचा है , मैं बड़ा भाग्यशाली हूँ इस महात्मा को कोई उत्तम दान देकर कृतार्थ होऊंगा ऐसा सोचकर उस बाल बटुक को रत्नजड़ित सिंघासन पर बैठाया और हाथ जोड़कर विनय की कि हे बटुक आपको जो अच्छा लगे वह दान मांगे ।
राजा के ऐसे वचन सुन बटुक जी बोले कि मैं कोई दान लेने नहीं आया अगर तेरे कहेअनुसार मैंने दान माँगा तोह तू मुझे दान नहीं दे पायेगा । तुझको यदि किसी भी चीज़ की इच्छा है तो मांग ले ! उस बाल बटुक के ऐसे वचन सुनकर सारा ऋषिमण्डल,प्रजासहित राजा वरेप्सु आश्चर्य चकित हो गए ।
राजा सोचने लगे बालक कहता है कि माँगा हुआ दान देने मे मैं समर्थ नहीं यह सोचकर वरेप्सु लज्जित सा हो गया यदि इसका माँगा हुआ दान मैं नहीं दू तो अपने पूर्ण समय के समर्थ यज्ञ करने वालो की दान शीलता की प्रथा को लज्जित करूँगा मेरे पास क्या नहीं है जो मैं इस बाल बटुक को नहीं दे पाउँगा इस शरीर तथा प्राण को भी मांगेगा तो भी दान देने को तैयार हूँ राजा ने उस बालक से हाथ जोड़कर विनय की कि हे "ब्रह्मदेव" हे महातेजस्वी तुम्हारी जो इच्छा हो वह मुझसे मांगो यह सुनकर ब्रह्मचारी बालक बोला राजा व्यर्थ क्यों आग्रह करते हो मांगने मे कुछ देर नहीं लगेगी लेकिन देने मे देर लगेगी ।
इस तरह बालक को बोलते हुए देखकर सबने निश्चय किया की ये कोई साधारण बालक नहीं यह तो कोई अवतारी पुरुष है पुरोहित समझाने लगे की महाराज आप दान देने के लिए ज्यादा ज़ोर न दे आपका यह आखिरी यज्ञ है और इसमें यह विचित्र बालक यकायक आ गया है अवश्य विघ्न करने वाला मालूम होता है पूर्वकाल मे राजा बलि के साथ भी ऐसा ही हुआ था बलि ने वामन प्रभु को तीन पैर पृथ्वी के दान देने का संकल्प किया, संकल्प का जल पड़ते ही वामन जी का शरीर महाप्रचण्ड हो गया और परमात्मा ने दो पैरो मे तीनो लोक नाप लिए और तीसरे पैर के लिए स्थान माँगा तब निरुपाय होकर बलि ने अपने शरीर रूपी भूमि पर तीसरे पैर को नापने को कहा इतने मे वामन जी ने वैसा ही करके उसे पाताल मे दाव दिया जो अब तक वही रहता है महाराज यह भी वैसा ही कोई रूप मालूम होता है इसलिए तुम इस बटुक को दान देने का आग्रह न करो ।
ऋषियों के ऐसे शब्द सुनकर वरेप्सु बोले ,मन मे दान देने का संकल्प करके फिर दान न दूँ तो मैं भारी अपराधी होऊंगा चाहे जो हो " कर्म का लेख" झूठा नहीं होता , बटुकजी जो मांगेंगे वह मैं अवश्य दूंगा ।
राजा वरेप्सु बटुकजी को संबोधन करके बोले ब्रह्मपुत्र देर न करो जो इच्छा हो सो मांगो यह बटुकजी बोले , शांति - शांति ,धन्य -धन्य राजन ! यदि तेरी ऐसी ही इच्छा है तो दान देने के लिए तुझे कही से कोई चीज़ नहीं लानी पड़ेगी व् न ही कोई परिश्रम करना पड़ेगा। मेरी याचना यही है कि " जो तेरा है वो मेरा है "
बटुकजी की ऐसी विचित्र मांग सुनकर वरेप्सु सन्न रह गया इस याचना से राजा बहुत देर तक चुप रहा किन्तु अंत मे उसने अपनी बुद्धि लगाकर विचार किया और कहा ऋषिपुत्र मेरा धन्यभाग्य है कि आप जैसे याचक मेरे यहाँ पधारे है लीजिये पहले मेरी यह धनधान्य रूप सब संपत्ति आपको अर्पण है ,मेरी सारी सेना ,रथ , हाथी ,घोड़े आपको अर्पण है राज सत्ता भी मै आपको अर्पण करता हूँ यह सब आप ग्रहण करे , मेरी रानी भी आपको अर्पण करता हूँ अब आप संतुष्ट हुए ऋषिपुत्र बटुकजी ने कहा कि अभी तो बहुत कुछ बाकी है राजा विचार करने लगा अब क्या बाकी है अपने शरीर के सभी आभूषण भी ऋषि को दान कर दिए और पुनः बोले अब प्रभु संतोष है बटुक जी ने कहा " नहीं " अभी बहुत कुछ बाकी है इस जवाब से राजा विस्मित हो गया और विचार कर बोला अब क्या बाकी है अब इसे कैसे संतुष्ट करू ।
इस प्रकार राजा को व्याकुल देखकर बटुकजी बोल उठे राजन वरेप्सु कौन है तब राजा बोला मै स्वयं हूँ बटुकजी बोले तेरे पास जो है वह सब मुझे दे राजा ने स्वयं अपने शरीर के प्रत्येक अंगो पर नजर डालकर देखी तो विचार करने लगा कि बटुकजी के कहे अनुसार मेरे पास अपना बहुत कुछ है यह शरीर भी तो मेरा है यह शरीर भी मैं आपको अर्पण करता हूँ अब तो दान का संकल्प लीजिये लेकिन बटुकजी बोले कि अभी तो तेरे पास बहुत बडी समृद्धि है उसको दिए बिना मैं कैसे दान ले लूँ बटुकजी के ऐसे वचन सुनकर राजा बोला अब मेरे पास क्या है ? बटुकजी ने कहा सावधान होकर देख तूने विचार किसके साथ किया ,राजा ने कहा "मन " के साथ , मन भी मैं आपको अर्पण करता हूँ राजा बटुकजी से बोला कि अब मेरी बुद्धि की परिसीमा ( अंत ) हो गयी मैंने बहुत विचार किया अब तो मेरा जी घबराता है बटुकजी बोले यह जीव क्या है जो तूने अभी अभी कहा जीव अकुलाता है तो यह जीव किसका है राजा बोला हां ऋषिदेव यह जीव मेरा है परंतु अब मैं आपसे हाथ जोड़कर विनय करता हूँ कि इसके सिवा मेरे पास और भी कुछ है तो बतलाइये मैं उसे भी संकल्प कर दूँ दान कर दूँ ।
बटुकजी बोले अब तेरे पास कुछ नहीं है तेरे पास इतनी बड़ी पूंजी है यह सब मुझे शीघ्र दे दे देर क्यों करता है दान कर ।
राजा यज्ञ,दान,अच्छे अच्छे कर्म करके महापुण्यवान तथा पापहीन हुआ था उसका अंत:करण शुद्ध होने मे देर नहीं थी बटुकजी के ये अंतिम वचन सुनकर मानों वह गहरी नींद से जागा हो वह सावधान होकर विचार करने लगा अहो मेरे पास इतनी बड़ी पूँजी थी अब मैं उन सबसे अलग हूँ और अकेला हूँ तो मैं कौन हूँ ?
राजा ने बटुकजी से हाथ जोड़कर पूछा, हे देव ! मुझको बतलाओ मैं कौन हूँ? तब बटुकजी बोले तूने ठीक पूछा है , सुन ।
जिसको महापुरुष अविनाशी ,अनादि ,अजन्मा ,निराकार ,निर्गुण ,सर्वेश्वर ,देवो के देव आदिनाम से जानते है जो सत्य , जो केवल एक ,श्रेष्ठ ,सब जीवो का पिता ,जगत का पालनहार ,चैतन्य ,आनंदस्वरूप है जो चराचर जगत मे साक्षी रूप से निवास कर रहा है सबका गतिरूप है ,सर्वशक्तिमान है ,अपार है ,अनंत है
"सोहवम " वही स्वयं तू है " तत्वमसि " ॥
यह सुनकर राजा बोला अहो मैं ऐसा हूँ नहीं यह मुझे असम्भव लगता है जब मैं स्वयं वह हूँ तो यह कैसे हो सकता है कि मैं स्वयं को देख न सकू । अज्ञानता क्या इतनी बड़ी है ?
बटुकजी बोले "हाँ" अज्ञानता इससे भी बड़ी है तुझको तो अपने महत्वपूर्ण कर्मो के प्रताप से इतना सुनने और जानने का अवसर प्राप्त हुआ है कि मैं स्वयं परमात्मा हूँ । परन्तु दूसरे संस्कार हीन प्राणी ,पापी ,जो बुरे ही कर्म करते है इतने बड़े अंधकार ,अज्ञान मे पड़े रहते है कि उन्हें अपने ही कल्याण की कोई खबर नहीं होती है हम कौन है ,कहाँ से आये है और कहाँ जाना है इसके लिए कभी पलभर भी उन्हें विचार नहीं होता वह तो केवल वासना और पेट की फ़िक्र मे ही हमेशा विचार किया करते है ।
राजा ने पूछा ,हाँ यह बात सत्य है मैं भी अभी तक ऐसा ही था ऐसा होने का कारण क्या है ?
बटुकजी ने कहा ,अपना स्वरुप जानने मे तीन सबल कारण होते है उनका नाश करने मे मनुष्य असमर्थ होता है जिससे प्राणी का अन्तःकरण मैला रहता है उसे मालूम नहीं होता कि सत्य क्या है ।
१-जैसे -दर्पण साफ़ हो तो मुँह ज्यो का त्यों साफ़ दिखाई देता है और गन्दा हो "धूल का आवरण हो " तो उसमे किसी भी चीज़ का प्रतिबिम्ब नहीं पड़ता कोई भी वस्तु दिखाई नहीं देती ।
२- " मन की चंचलता " से मन अस्थिर रहकर चारो ओर भटकता रहता है और वह सत्य स्वरुप को नहीं देख पाता , परंतु जब मन स्थिर हो तभी सत्य स्वरुप देखने मे आता है ।
३- तीसरा कारण " अज्ञान अविद्धया है " इससे सत्यस्वरूप नहीं जान पड़ता ।
यह सुनकर राजा बोला "कृपानाथ" कृपा करके आप मेरे स्वरुप के दर्शन कराओ ये बाधा डालने वाले कारण क्या किसी तरह से दूर नहीं हो सकते ?
बटुकजी बोले ,यह तीन साधन है जो शास्त्रो मे विधिवत रूप से बताते है । कर्मयोग ,ज्ञानयोग ,उपासनायोग
राजा बोला कर्म ,ज्ञान ,उपासना यह क्या है बटुकजी ने कहा यज्ञादिक क्रिया करना "कर्म " , परमात्मा की भक्ति करके मन को उसमे द्रढ़ता से लगाना "उपासना " ब्रह्म के साथ जीव की एकता मानना "ज्ञान" है ।
राजा ने कहा अहो तब तो मुझे अपना स्वरुप जानने मे बहुत देर है बटुकजी बोले , इस समय तू मुझे दान दे राजा ने कहा मैं अपना सर्वस्व ऋषिपुत्र को अर्पण करता हूँ राजा विचार करने लगा कि मैं अब तक जिसे अपना स्वरुप मानता था वह मेरा देह, अन्त:करण ,मनबुद्धि अहंकार और चित्त तथा जीवात्मा सहित सब वस्तुओ से भरे इस शरीर सहित ऋषि को अर्पण करता दूँ और उनके चरणों मे जा गिरूँ इन सब चीज़ों का दान करने के बाद जो बचा वही " मैं स्वयं हूँ" ऐसा विचार करने लगा।
लीजिये महाराज मेरा यह सब आपको अर्पण है ऐसा कहकर ब्रह्मचारी के श्री चरणों मे जा गिरा।
जो लोग यज्ञ दर्शन करने आये थे राजा और ब्रह्मचारी की यह विचित्र बातें सुनकर बोले वाह क्या मांग है धन्य है इसकी "सूक्ष्मबुद्धि " को , ऐसा कहकर सब आश्चर्य मे डूब गये और सोचने लगे अब आगे क्या होगा ।
शरणागत
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