Tuesday, 24 January 2017

माया का दुःख

 माया का दुःख

इस मन मे चित्त -मन की चंचल वृत्तियाँ ही सब अर्थ , सुख और दुःख का हेतु है वही अनेक तरह के प्रापंचिक काम करती है वही नई -नई सृष्टि रचती है और वही उसका नाश देखकर दुखी होती है चित्तक्षीण हुआ कि सब क्षीण हुआ । मन को वश मे न रखने से जीव की बड़ी दुर्गति होती है । मनोनिग्रह बिना चित्त की शुद्धि नहीं होती उसके बिना जगत की मोहनी नहीं जाती और ब्रह्मभाव का उदय नहीं होता ,बिना ब्रह्मभावना के शांति नहीं मिलती ,शांति बिना त्यागवृति नहीं होती और त्याग बिना वैराग्य नहीं होता है ,वैराग्य बिना इच्छाये नष्ट नहीं होती ,इच्छा का नाश हुआ बिना मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है ।
एक दिन घूमते हुए वह शुभमतिगिरी से निकल कर उसकी तलहटी मे गया वहाँ जाकर बहुत ही रमणीक फूलो के बागो मे घूमने लगा " अहा " ऐसी सुन्दर शोभा और इतना बड़ा आनन्द होते हुए भी शान्तिसेन और गुरूजी ने तलहटी के वन मे आने से क्यों रोका था चाहे कितना भी अच्छा हो है तो सौतेला भाई ।
अब तो मैं यहीं या इससे भी अच्छा स्थान होगा वहाँ जाकर रहूँगा और जहाँ तहाँ आनंद में फिरूँगा इतने में उसे मंजुल मीठा गान सुनाई पड़ा इस मोहक मधुर गान के अलाप से व्याकुल और पागल हुआ विलास को यह जानने की बड़ी उत्कंठा हुई कि यह स्वर किसका है दूसरे दिन सवेरे से ही वह नीचे उतरा और फुलबाड़ियों में चारों तरफ
भटकता रहा किन्तु वहाँ किसी को न देखकर वह फिर पहले वाले स्थान पर जा वैठा तब पहले जैसा अलाप उसको फिर  दिया,यह अलाप किस ओर से आ रहा है यह सोचकर फिर उस ओर को बढ़ा । सरोवर के तट पर एक अशोक के पेड़ के नीचे कोई सुन्दर वाला वैठी हुई थी उसकी सखियाँ आस-पास की लताओं  में घूम रही थीं । उनको पास बुलाने के लिए वह आनंद में आकर अलाप कर रही थी उससे बात करने के लिए वह  उसके पास जाने का विचार करने लगा । इतने में उसको  देखते ही वाला चौंक पड़ी और अरे !यह कौन है ऐसा कहकर छुप  गयी और वह नहीं दिखी ,मुझे उसकी खोज करनी चाहिए ऐसा विचार कर वह तीन दिनों का भूखा प्यासा उठकर खड़ा हो गया ।
राजा को  संबोधन कर बटुक जी बोले "अहा" वरेप्सु । सिर्फ पल भर देखने से विलास वर्मा को उस सुकुमारी का इतना ध्यान हो गया । यदि इतना ध्यान "श्री हरि  चरणों " तो उसको उस कृपालु प्रभु अवश्य सम्मिलन होता परंतु वह कैसे हो ? जगन्नमाता शक्ति  जिन चरण कमलों  निरंतर सेवन करती हैं और समर्थ मुनिगण,योगी और शिव, ब्रमहादि  बारम्बार ध्यान धरते हैं उन पवित्र चरणों का स्मरण विलास के समान माया  फसे जीव को ?  खैर अब उसका क्या होता है सुनो
उस सुकुमारी सुंदरी की खोज के लिए लता-घटा में फिरने लगा चलते-चलते उसको ठोकरें लगने लगीं एक  गुफा जिसके आगे कदाचित एक बहुत बड़ा कुआँ था बनस्पतियों से ढके हुए किनारे से दौड़ते समय वह उसी में जा पड़ा हरे-हरे !माया  लुब्ध हुए लोगों की यही दशा है एक भक्त ने ऐसा  कहा है -
                                                       तजि माया सेइय परलोका 
                                                       मिटे सकल भव संभव शोका  ॥
वह कुआँ महा भयंकर था और यों ही बहुत दिनों का पड़ा होने से सांप बिच्छू आदि विषैले जीवों का निवास स्थान बन गया था कितना कष्ट, कितना संताप उसमें सूर्य  प्रकाश भी नहीं जाता था इसमें और यमराज की नरक यातना मे क्या अंतर है ऐसे भयंकर अंधे कुँए मे गिरने पर भी उसे उस सुकुमारी की अभिलाषा के लिए कुछ कुविचार नहीं हुआ वह उल्टा अपने भाग्य को धिक्कारने लगा । हाय मेरे भाग्य मे उस स्त्री रत्न का लाभ नहीं लिखा है ।
           अरे पिता ने मुझे त्याग दिया तो भी मैंने शान्तिसेन का कहना नहीं माना , मेरा अब यहाँ कौन साथी है शान्तिसेन ने मुझे वचन दिया था तेरे दुःख मे मैं तेरा सहायक होऊंगा परंतु कौन किसका सहायक होता है।  "कहाँ वह और कहाँ मैं " ,ऐसा सोचकर वह ज़ोर ज़ोर से रोने लगा और शान्तिसेन को पुकारने लगा मेरी रक्षा करो - रक्षा करो इतने मे ही उसे तुरन्त सुनाई दिया मत घबरा -मत घबरा , भाई मैं आ पंहुचा और अभी तुझे बाहर निकलता हूँ ।  विलास ने ऊपर देखा तो किनारे पर उसका बड़ा भाई शान्तिसेन खड़ा था । शान्तिसेन ने उसे बहार निकालकर कहा यह सब किसलिए हुआ, मेरे और गुरु महाराज के कहने पर तुझको विश्वास नहीं हुआ यह उसी का फल है भाई।
           विलास लज्जा के मारे नीचे देखता रहा शान्तिसेन के पूछने पर उसने ऊपर की सारी घटनायें सुना दी । शान्तिसेन ने कहा यह तो सब तूने सुखी होने के लिए किया था।  क्या तुझे सुख मिला भाई ? इस जगत मे सुख है ही कहाँ जिसके लिए तू प्रयत्न कर रहा है।  जगत मे सर्वत्र दुःख ही है संसार रचते समय ब्रह्मदेव ने सुख पैदा ही नहीं किया।  इस मायापूर्ण संसार मे सुख प्राप्त करने की इच्छा करनी ही महादुःखों का बीजांकुर रूप है मैंने तुझे शुभमतिगिरी पर रहने वाले ऋषिमुनियों के समागम मे लाकर मैंने रखा था परन्तु उनके सादे और संतोषपूर्ण आचरण तुझको दुःखद लगे माया के सपाटे मे एक बार आ जाने पर फिर छूटना अशक्य है माया मे लिपटने पर उससे छूटने के लिए जो उपाय किये जाते है वे उसमे और भी फसाने वाले होते जाते है विलासवर्मा बोला भाई क्षमा करो तीन दिन हुए मैंने भोजन नहीं किया शान्तिसेन ने कहा " हाथ का किया हुआ ही ह्रदय को पीड़ित करता है प्रभु ने कुछ कृपा करदी जो तेरी रक्षा हो गयी इसीलिए अब द्रढ़ प्रतिज्ञा हो कि ऐसे नाशकारी सुख की इच्छा कभी नहीं करूँगा।  दोनों ने साथ बैठकर प्रभु को अर्पण करके भोजन किया और फिर दोनों शुभमतिगिरी की ओर चल पड़े । आश्रम मे पहुँचकर शान्तिसेन ने कहा कि अब तुझे इस गिरि से नीचे नहीं उतारना चाहिए किसी भी तरह के दुख मे न पड़ने के लिए ही मैंने तुझको इन ऋषियों के साथ मे रखा है सारे विश्वआरण्य मे इन्ही की स्थिति सबसे श्रेष्ठ और दुःख रहित है और यही स्थिति अंत मे अमर सुख मिल सकता है। सच्चे संत अहंकार ,दंभ ,बड़पन ,अत्याचार ,निर्दयता ,इत्यादि दुर्गुणों से रहित बड़े दयालु ,स्नेही , और निरभिमानी होते है और उनसे क्रोध, लोभ,मोह इत्यादि दुर्गुण सदा दूर रहते है । शरण मे आने वाले का वह सहज ही कल्याण करते है इसलिए उन्ही के समागम मे समय बिताना , इतना कहकर शान्तिसेन वहाँ से विदा हुआ। शान्तिसेन के उपदेश से विलास को स्मशान वैराग्य पैदा हुआ परंतु सुख क्या है और किसमे होगा ,कहाँ होगा , इसकी उसको ज़रा भी खबर नहीं थी जब वह अकेला पड़ता तो उसे वह सुकुमारी याद हो आती परन्तु साथ ही उसे वह अँधा कुआँ भी तुरंत याद हो आता था जिससे उदास होकर उसे यह विचार त्यागना पड़ता था ऐसी अस्वस्थ दशा मे उसने बहुत सा समय बिताया ।
       एक दिन विलास भोजन के लिए वन मे फल लेने गया अचानक उसकी दृष्टि पर्वत की तलहटी पर पड़ी और उसने उसी सुकुमारी को देखा और विचलित हो गया विलास ने सोचा यह राजा की लड़की है और मैं भी राजा का लड़का हूँ अर्थात मेरा और इसका सम्बन्ध होना कुछ गलत नहीं होगा परन्तु हे भगवन मैं उसे कैसे प्राप्त करूँ और उसका मन इसी उधेड़ बुन मे लग गया उसने जल्द ही पता लगा लिया कि यह राजपुत्री है और वह विवाह के योग्य हो गयी है इसलिए उसी के समान रूप गुण वाले राज पुत्र की खोज करने निकल पड़े है यह संभव नाम के देश के राजा है और अपने राज्य का दौरा करने भी निकले है अनायास रास्ते मे सत्यसमागम का लाभ लेने के लिए ऋषियों के आश्रम की ओर जा रहे है ।
      विलास बहुत चतुर था उसने राजा की पुत्री को मांगने का विचार किया और राजा के पास पहुँचा और बोला मैंने सुना है कि आपकी कन्या विवाह के योग्य है मैं राजपुत्र हूँ मैं विघाभ्यास के लिए गुरु के पास आया और मैंने पूर्ण शिक्षा प्राप्त करली है और अब मैं पाणिग्रहण करने की इच्छा रखता हूँ।  राजा बोला आप कौन और कहाँ के रहने वाले है? विलास ने कहा मैं 'शरीरदेश ' के स्वामी मनश्चन्द्र का पुत्र हूँ मेरा नाम विलासवर्मा है यह सुनकर राजा और रानी प्रसन्न हुए और उन्होंने विलास से कहा तुमने तो हमारी सारी चिंता ही दूर करदी । राजा  ने सम्मान पूर्वक विलास को अपने यहाँ रखा । अच्छे काम मे ढील नहीं करनी चाहिए ऐसा विचार ऋषियों को निमंत्रण देकर ब्याह की तैयारी कर ली और विधि पूर्वक विलासवर्मा के साथ राजकन्या का विवाह कर दिया इस विवाह से विलास की सारी इच्छाये पूर्ण हो गयी उसने सोचा कि मैं अब सचमुच सुखी हो गया ।
    'यह है भी सत्य क्योकि बहुत समय से जिसको जिस वस्तु की चाह होती है वह वस्तु अंत मे आनंद रूप है या नहीं इस विषय का विचार करने का काम तो बुद्धिमान और विवेकियों का होता है। 
      राजकन्या "विलासवती " को विलास को सौपकर अपने नगर की ओर चल पड़ा।  जाते समय उसने  पुत्री को दास,दासियाँ,घोड़े ,हाथ,रथ,समृद्धि,बहुत सा धन देकर कहा जमाई जी अब तुम भी अपने देश जाओ ,राजा नहीं जनता था कि मनश्चन्द्र  ने उसे देश से बाहर निकल दिया है । राजा विदा हुआ विलास ने मन  चाही वस्तु पाकर अपने को बहुत सुखी माना ।
परंतु मन ही मन सोचने लगा "मेरे माथे कितना बड़ा बोझ आ पड़ा है" अब दास,दासियों,घोड़े,रथ,हाथी,बहुत से शस्त्र धारी रक्षक आदि से बने हुए  एक छोटे  राज्य के पोषण करने का भार उसके ऊपर आ पड़ा है उसका भरण तो वनफल से हो जाता था परंतु अब पत्नी और यह सब समूह वनफल पर कैसे रखा जा सकता है राजकुमारी तो नित्य मिठाई खाने वाली और रंगमहल  में रहने वाली थी अब यह पर्णशाला में कैसे रहेगी काफी दिन तो ससुर के दिए गए धन से काट गए परंतु यह सब  कब तक चलता  कुछ ही समय में खर्च के लाले पड़ने लगे । अपने राजस्वी कुटुंब और नौकरो के पोषण के लिए बड़ी चिंता हुई विलासवती ने घर वापस जाने के लिए विलास से कहा , विलास ने समझाया मैं अपने पिता से नाराज होकर चला आया अब वापस नहीं जाऊंगा उसने हर तरह से धनसंग्रह करने का प्रयत्न किया उसने स्वतंत्र रहने का निश्चय करके एक नगर बसाना आरम्भ किया। न्याय  से ही धन संग्रह करना ठीक है परंतु वह बहुत कठिन है।  विलास ने न्याय -अन्याय का प्रश्न किनारे रखकर काम करना आरम्भ किया और पापकर्मो से उसने बहुत सा धन एकत्र किया और एक महल बनाया और उसमे उसने विलासवती को रखा और आनंदपूर्वक रहने लगा उसने एक सेना भी बना ली उनके रहने के लिए आस पास घर बनाकर वहाँ  नगर के समान एक बस्ती बसा ली ।
         नाना अनर्थ करके वह धन एकत्र करता था इससे आसपास के सभी राज्यो मे उसके लिए बहुत बड़ा द्वेष भाव बाद गया था। विलास जैसे निर्दय भयंकर लुटेरे के प्रतिदिन बढ़ते हुए त्रास से उन सब राज्यो ने एकत्र होकर अपने एकत्र बल से इस दुष्ट को पराजित  करने का निश्चय किया और धोखे से विलास के नगर को घेर लिया।
राजाओ ने उसकी जमा की हुई सारी समृद्धि सहित उसका सारा नगर लूट लिया। दास दासियो को बाँध लिया और अंत मे विलासवती को भी दुर्दशा कर उसे अकेली छोड़कर सब लोग विलास की खोज मे निकल पड़े ।
       विलास रात दिन भागता रहा अंत मे पिता के शरीर देश मे जा पहुँचा वह पिता के पास जाना नहीं चाहता था।  परंतु कोई उपाय न होने से उसने चुपचाप ह्रदय नगर मे प्रवेश किया और अपनी माता "भोगतृषणा "से मिलकर उसके एकान्त महल मे जा छुपा । राजाओ की सेना उसका पीछा करती हुई हृदयनगर मे पहुँच गयी और हृदयनगर को चारो ओर से घेर लिया जब राजा मनश्चन्द्र को पता लगा तब उसने दूतो द्धारा पुछवाया उनके ऐसा करने का क्या कारण है उत्तर मिला " विलासवर्मा" नाम का हमारा अपराधी लुटेरा ह्रदय नगर मे आ छिपा है उसको हमारे अधीन करो या लड़ाई करो मनश्चन्द्र सोचने लगा विलास तो मेरा पुत्र है इस दुष्ट को मैंने इसके कुटिल क्लेशमय  स्वभाव के कारण त्याग दिया तो भी इसको ज्ञान नहीं हुआ इसने मुझे संकट मे डाल दिया अब मैं क्या करूँ? इस दुष्ट के लिए युद्ध कर मैं लाखो जीवो का नाश नहीं करूँगा । मनश्चन्द्र विलास की खोज कराने लगा लेकिन वह नहीं मिला इससे आयी हुई राजाओ की सेना नाराज हुई और मनश्चन्द्र को कैद करने की तैयारी करने लगे मनश्चन्द्र पछताने लगा।  हरे-हरे मैंने कैसा अनर्थ काम किया जिसे अपना पुत्र माना उसके कुकर्म से मैं कैसी मुसीबत मे फँस गया हूँ और जो ऐसे संकटो मे सिंह की तरह सहायक होने वाला मेरा ज्येष्ठ पुत्र था उसे मैंने बिना कारण नाराज कर राज्य से बाहर निकाल दिया परमात्मा अभी वह सपूत होता तो इन शत्रुओ की क्या शक्ति थी।  इतना स्मरण करते ही स्मरणगामी शान्तिसेन वहाँ सिंघ की भाँति गर्जना करते हुए वहाँ प्रकट हो गया और मनश्चन्द्र को धीरज देकर युद्ध करने लगा, उसके दिव्य बाणों से शत्रु त्राहि -त्राहि कर भागने लगे शत्रु पराजित हो ह्रदय नगर को छोड़कर चले गए ।
      " परमात्मा का नाम लेते ही सारी विषय -वासनाये ह्रदय के मन मंदिर को छोड़कर चली गयी परमात्मा के नाम मे इतनी शक्ति है इसलिए परमात्मा को कभी नहीं भूलना चाहिए " 
     " मन का मुख्य स्थान ह्रदय है ह्रदय का स्थान शरीर मे है। मन से ही विलास -वैभव की इच्छा -कामना , विषय-वासना पैदा होती है और शांति भी उससे ही जन्म पाती हैं । "
      विलासवर्मा अपने पिता को मुँह नहीं दिखलाना चाहता था वह इस चिंता मे था कि शान्तिसेन के प्रताप से शत्रु भाग गए तो वहाँ से रातोरात चले जाने का विचार किया और वेश बदलकर रात को हृदयपुर छोड़ दिया जाते समय उसे दूत मिला उसका उसने समाचार दिया कि विलासवती उसकी पत्नी इस महादुःख से मृतक सी होकर महल मे रो रही है शत्रुओ ने उसे चारो ओर से घेर रखा है विलास छिपता हुआ अपने नगर के पास जा पहुँचा लेकिन अंदर जाने का साहस नहीं हुआ वहाँ उसने शत्रुओ का पूर्ण अधिकार देखा। अब क्या करना चाहिए ? उसने चारों ओर नजर घुमाकर देखा अचानक महल मे घूमती हुई एक अबला स्त्री दिखाई दी। वह स्त्री दीन थी निराशा से उसकी आँखों से आँसू टपक रहे थे , विलास ने देखा यह तो मेरी पत्नी विलासवती है आँखों के आगे अपनी प्यारी की ऐसी दुर्दशा देखकर रोने लगा ,सोचने लगा इस प्रिया के लिए तो मैं अपने प्राण देने को तैयार था उसकी ऐसी दुर्दशा सोच-सोचकर दुःखी होने लगा गुप्तचर ने उसको धीरज रखकर दुःख से छूटने का कोई उपाय सोचना अपना कर्तव्य है ।
उठकर बैठो और सुनो मुझे एक उपाय सूझा है उचित हो तो उसे काम मे लाओ , जासूस की बात सुनकर विलास कुछ शान्त हुआ और बोला बताओ क्या उपाय है दूत ने कहा महाराज आपके ससुर जी बड़े समर्थ है इसलिए उनकी सेना का सहायता मांगी जाये सब कुछ ठीक हो जायेगा।  विलास को यह विचार उचित लगा सेना की सहायता के लिए उसने तुरंत अपने उसी दूत को अपने ससुर के पास भेज दिया वह बलवान सेना ले आया उसने रात्रि मे शत्रुओ पर धावा बोल दिया ,सेना के अचानक आक्रमण से शत्रुओ मे भगदड़ मच गयी और शत्रुओ की सेना भाग गयी विलासवर्मा ने बहुत समय के बाद अपनी दुःखी पत्नी को अपने आश्रय मे ले लिया और विचार करने लगा कि अपने राज्य की रक्षा के लिए क्या उपाय करूँ इतने मे शत्रु राज्यो मे खबर फ़ैल गयी कि फिर शत्रु पूर्णबल के साथ उन पर चढ़ आया है उनके सामने विलास का बल कुछ भी नहीं था अंत मे शत्रुओ ने महल मे घुसकर विलास और उसकी पत्नी दोनों को बाँध लिया। विलास ने विचार किया कि अब मैं इस काल के मुँह से बचने वाला नहीं ! मैंने शान्तिसेन का कहना नहीं माना उसी का यह परिणाम है अब मुझे कौन बचायेगा अरे मैंने अपने शुभचिंतक शान्तिसेन का कहा नहीं माना। अब मैं उसे क्या मुँह दिखाऊँ इस संसार रूपी वन मे सब संकट ,सब दुःख सब अनिष्ट करके इस लोक का बिगाड़ने वाला और परलोक से गिराने वाला काम है इस प्रकार  विलास अपने मन मे संताप कर ही रहा था इतने मे शत्रुसेना के बीच बड़ी भयंकर गर्जना हुई।  शान्तिसेन वहाँ आ पहुँचा और शत्रुओ पर विजय प्राप्त की । शत्रुओ ने विलास को शान्तिसेन के अधीन कर अपनी हार मानी और संधि करने की विनय की। संधि की शर्तो मे निश्चय हुआ कि सब राज्य मिलकर विलास को अमुक राज्य का भाग दो और उसके काम मे बाधा मत दो ।
     विलास शान्तिसेन के पैरो मे गिर पड़ा शान्तिसेन अनेक उदहारणों से विलास को समझाया कि इस विश्वारण्य  मे सच्चा सुख नहीं है सुख का आभासरूप सिर्फ दुःख है संसार मे सुख की भ्रांति होती है परन्तु सुख नहीं जैसे "सीप मे चाँदी का भ्रम होता है परंतु वह चाँदी नहीं है " अब तो कुछ विचार कर आजतक जो हुआ सो हुआ परन्तु "अब से तेरे पास जो कुछ है उसमे संतुष्ट रह विशेष सुख की तृष्णा न कर"  ऐसा कर शान्तिसेन ने उसको राज्य आरूढ़ किया और विलास अपनी प्यारी पत्नी के साथ फिर संसार सुख का अनुभव करने लगा ।

"बटुकजी बोले वरेप्सु संसार मे सुख के लाभ को देखा। अपनी इतनी दुर्दशा होते भी विलास को  सुख से कुछ अरुचि नहीं हुई उसे और बड़ा सुख प्राप्त करने की इच्छा थी "। 




                                           



































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