अमृत में विष
इसी तरह विलास थकहारकर उदास होकर एक घर के चबूतरे पर वैठा था उधर से एक मनुष्य गुजरा उसने विलास को ऐसे सोच मे डूबा देखकर पास आकर बोला भाई तुम कौन हो और ऐसे क्यों वैठे हो ? विलास ने कहा मैं वटोही हूँ और जिस काम लिए बहुत समय भटकता था उसके लिए आज बिलकुल निराश हो जाने से उदास हूँ उसने पूछा कौन सा काम था विलास ने उसे सुख खोजने की सारी बातें बता कर कहा कि मैंने जगह-जगह मनुष्य की जाँच की परंतु यही सार निकला कि संसारमें कोई सुखी नहीं है क्या ईश्वर ने सुख पैदा ही नहीं किया ?यह सुनकर वो मनुष्य बोला भाई "पान्थ" तू भूलता है क्या,जगत मे सुख है ही नहीं तुझसे खोज करते नहीं बना। इस नगर मे ही मैं एक ऐसे सुखी को जनता हूँ जिनके सुख का पार नहीं है संसार मे सुख का साधन धन है जिसका उसके घर मे अखण्ड भण्डार है दूसरा साधन स्त्री है वह भी उसके यहाँ ऐसी अनुपम है जिसके रूप , गुण और पातिव्रत्य की तुलना संसार मे किसी स्त्री से नहीं हो सकती वह स्त्री साक्षात सीता है समृद्धि के अनुसार इसके पुण्य का भी पार नहीं है भूखे ,प्यासे ,गरीबो को अन्न ,जल ,कपड़ा ,पैसा इनका हर दिन दान होता है इनके द्धार से कोई भी खाली नहीं जाता। भिखारियों के आशीर्वाद का घोष गूँजता ही रहता है ऐसे पुण्यात्मा भाग्यशाली के तो दर्शन करने से भी पाप दूर हो जाते है इसलिए उस सुख आत्मा के दर्शन करके पवित्र हो जाओ विलास उस सुखी जीव के महल के आगे नित्य सवेरे से शाम तक जाकर बैठता और चर्चा सुनता जब वह उस सेठ को देखता तो उसका मुखकमल हास्यपूर्ण ही दीखता था। स्त्री भी आनंदपूर्ण थी , सेवक भी आज्ञाकारी थे। वह मन मे खुश हुआ कि सत्य ही यहाँ पर सुख है। मैं शिवजी से यही सुख माँगू ।
विलास को यही नित्य बैठा देखकर कामदार पूछने लगे क्यों भाई तुम्हे क्या चाहिए वह तुम्हे सेठ जी देंगे विलास ने कहा कुछ भी नहीं चाहिए मैं मांगने को नहीं आया परंतु इतनी अच्छा है कि ऐसे पुण्य आत्मा सेठजी से घड़ी भर भेट हो जाये तो अच्छा है यह सुनकर कामदार ने सेठ से जाकर विनय की अपने महल के सामने कोई विदेशी बहुत दिनों से नित्य आकर बैठता है सिर्फ आपसे मुलाकात की इच्छा प्रकट करता है इसलिए आज्ञा हो तो ऊपर आने दूँ सेठ प्रसन्न होकर बोला अच्छा उसको मेरे पास ले आओ । सेठ की आज्ञा होते ही कामदार विलास को सेठ के पास ले आया । दीवानखाने मे पैर रखते ही आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा । बैठक अनेक सुख साधनो से सजी रहने से ऐसी लगती थी मानो इन्द्र भवन हो । वहाँ सेठ एक सुन्दर आसन पर बैठा था । विलास की आत्मा तो भीतर जाते ही बिलकुल शांत हो गयी । सेठ ने विलास का आदर सत्कार करके एक आसन पर बैठाया और आने का कारण पूछा उसने कहा सेठजी आज मेरा धन्यभाग है क्योकि बहुत समय से निराश हुए मुझ प्राणी की आशा आज सफल हुई है बहुत समय के अनुभव से मुझको आज ऐसा निश्चय हुआ है कि आज ऐसे भूले हुए मुझ जीव को सबके भोग करने वाले और सब दुःखो से रहित आपका समागम होने से मैं कृतकृत्य हुआ आप सब तरह के दुखो से रहित और सम्पूर्ण सुख भोगने वाले है अब मुझे पूर्ण संतोष हुआ कि "संसार मे सुख है" आपका कल्याण हो आपका सुख अखण्ड बना रहे ।
इतना कहकर विलास उठकर खड़ा हुआ और जाने का विचार करने लगा । सेठ ने विचार किया "मैं सुखी हूँ " इतना निश्चय कर लेने से इसको क्या लाभ है ऐसा विचार कर सेठ बोला अजी पंथी ऐसी उतावली क्या है मेरे यहाँ पधारे हो तो बिना भोजन के नहीं जाओगे इस तरह आग्रहपूर्वक विलास को रोक लिया सेठ अपने पाहुने विलासवर्मा को साथ लेकर पाकशाला मे गया । भोजन परोसा गया सेठ ने श्री हरि को निवेदन किया और फिर विलास सहित खाने लगा । आज विलास को भोजन करते समय निश्चय हुआ कि जो कुछ सुख है वह यही है सेठ ने आदरपूर्वक विलास को बैठाकर अपने मन मे उत्पन्न हुए प्रश्न के रहस्य जानने का विचार किया ।
वह बोला भाई तुम सच-सच कहना कि तुम्हे किसी दूसरी चीज़ की इच्छा न होते हुए भी मैं सर्वाङ्ग सुखी हूँ या नहीं । सिर्फ यह जानने की क्या आवश्यकता थी यह सुनकर विलास ने अपना सारा हाल कह सुनाया उसने कहा श्रेष्ठ ,भाग्यवंत ,सुखीजन इस विश्वास्थ मे मैंने जो-जो प्रयत्न किये वे अंत मे दुःखरूप ही निकले तब हैरान हो वन मे जाकर तप करके मैंने शिवजी से सुख माँगा , शिवजी ज्यो-त्यों समझाकर कहा कि "संसार मे तो सुख ही नहीं है" परन्तु मैं कब मानने वाला था मेरी सच्ची हठ देखकर शिव ने कहा तू सब जगह खोज कर जो सुख तुझको जरा भी दुःख बिना श्रेष्ठ मालूम हो वह मुझसे माँग ले शंकर जी की इस आज्ञा से मैं सुख की खोज को निकला परन्तु कैलासपति ने जैसा कहा था वैसा ही हुआ अब तक मैंने कही सुख नहीं देखा । जहाँ - २ देखा वहाँ -२ ऊपर से तो सुख सही दिखा परन्तु भीतर दुःख का समूह दिखा मेरा यत्न आज सफल हुआ इसलिए आप ही के सुख जैसा सुख मैं शिवजी महाराज से माँग लूँगा क्योकि आप सब तरह से सुखी है ।
यह सुनकर सेठ इस तरह उदास हो गया मानो एकाएक बड़े दुःख के समुद्र मे डूब गया हो उसने गहरी सांस लेकर सेठ गदगद स्वर से बोला पंथी संसार के गुरु शंकर जी का वचन झूठा नहीं है संसार मे कही भी पूर्ण सुख नहीं है फिर यहाँ पर कहाँ से होगा इसलिए मेरी विनय इतनी है कि तू अब सुख प्राप्त करने का झूठा प्रयत्न छोड़ संतोषी बनकर शिवजी की शरण मे जा ।
मेरे समान इस पृथ्वी पर कोई भी दुखी नहीं है मेरा दुःख किसी से कहने लायक भी नहीं परन्तु तूने सच्ची प्रतिज्ञा की है तो तुझसे कहना ही पड़ता है परन्तु यह सुनने के बाद फिर किसी से न कहने की प्रतिज्ञा कर तो कहूँ विलास ने सेठ की आगे द्रढ़ -प्रतिज्ञा की तब सेठ ने कहना आरम्भ किया ।
सेठ बोला मेरी प्रिया और मुझमे द्रढ़ प्रेम है वह द्रढ़ पतिव्रता और मैं एक पत्नी व्रत धारी हूँ हम एक दूसरे से संतुष्ट थे देव संयोग से वह बीमार पड़ी और दवा करने पर भी रोग ने उसके शरीर मे घर कर लिया । हम सब कुटुम्बियों और वैघ्यादि को ऐसा निश्चय हुआ कि वह अब नहीं बचेगी ।
उसका इतना कष्ट होता था कि हमसे देखा नहीं जाता था मेरे मन को बहुत दुःख और विचार हुआ कि हे देव इसका आत्मा किस वासना के कारण इस बड़े कष्ट से नहीं छूटता प्रभु इस स्त्री का कष्ट मुझे भले ही हो परन्तु इसके आत्मा का छुटकारा हो जाये अब मुझसे इसका दुःख देखा नहीं जाता । उसका सिर अपनी छाती से लगाया और पूछा प्रिये अब इस महासंकट से अपने आत्मा को शीघ्र पार कर और स्वर्ग मे जाकर इस वियोगी पति की राह देख प्रिये तेरे बिना मैं एक पल भी जीता नहीं रह सकूँगा । इसलिए थोड़े ही समय मे इस मिथ्या जगत को छोड़कर मैं तुझसे आ मिलूँगा हे प्रिये तेरे प्राण किसमें अटका है तू मुझे बता कुछ भी नहीं छिपाना । यह सुनकर मेरी पत्नी को बड़ी शांति मिली और मुझे लगा वह मुझसे कुछ कहना चाहती है उसके बोलने के भाव से मुझे प्रतीत हुआ कि उसके मन मे सिर्फ एक बात खटक रही है कि मरे न रहने पर तुम दूसरी शादी कर लोगे और वो सबकी स्वामिन हो जाएगी । मेरी जगह वह ले लेगी इन वचनों से हृदय भिद गया और मैंने द्रढ़ प्रतिज्ञा कर ली कि प्रिये तेरे बिना जगत की सब स्त्रियां मेरी माता के तुल्य है माया मे फँसा हुआ जीव माया को छोड़ने मे असमर्थ था प्राण वल्लभे मैं सत्य कहता हूँ कि मैं कभी दूसरी स्त्री नहीं करूँगा अगर तुझे विश्वास नहीं है तो मैं स्त्री सुख भोगने का साधन ही समूल नष्ट किये देता हूँ और मैंने ऐसा ही किया अपनी "उपस्थ इन्द्रिया" नष्ट कर दी ।
इतना कहकर सेठ बोला हे सुख के ढूँढने वाले बटोही ! मैं सोचने लगा कि अब इसको पंचभूत शरीर को आत्मा छोड़ देगी परन्तु ऐसा नहीं है "हे सुखेच्छु पथिक" वह धीरे -२ ठीक होने मैं भी बिलकुल चंगा हो गया । मेरो जोड़ा जैसा पहले था वैसा ही फिर हो गया और हम आज बेऔलाद है यह बात सुनकर विलास चित्रवत सा हो गया और बोला अहो यह क्या सत्य है अगर ऐसा है तो आपके समान इस संसार मे कोई दुखी नहीं है और आप अपना दुःख किसी से कह भी नहीं सकते । यह तो ऐसा दुःख है विलास बोला सेठजी सुख तो अब संसार मे है ही नहीं । सेठ ने कहा नहीं बिलकुल ही नहीं संसार मे वही सुख की इच्छा रखे जो मुर्ख हो संसार स्वयं दुःखरूप है इसलिए सुख चाहने वाले राही यदि तेरी वास्तविक सुख प्राप्त करने की इच्छा हो तो वह सुख परमपिता परमात्मा जगद्गुरु शंकरजी के चरण कमलो मे है इसलिए ये सारी झूठी सबटपटे छोड़कर उन कृपालु महादेव जी शरण मे जा वे ही तेरा बेड़ा पार करेंगे ।
सेठ का कहा हुआ विलास ने अच्छी तरह समझ लिया वह सेठ को प्रणाम कर वहां से चला । वह थोड़ी देर मे वहीँ पंहुचा जहाँ पर उसने पहले तप शुरू किया था । चित्त को स्थिर करके उसने शिवजी का ध्यान किया और दर्शन पाने के लिए मनोमय नम्र प्रार्थना की इतने मे ही शंकर जी प्रकट हुए और बोले क्यों भक्त तूने सुख की खोज की है बता अब तुझे कैसा सुख दूँ ? विलास हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और कहने लगा " कृपालु प्रभो " मैं मूर्ख , अघम ,पापी और माया मे फँसा हुआ आपके प्रभाव को नहीं जान सका । क्षमा करो प्रभो क्षमा करो ! मैंने अब अच्छी तरह से जान लिया है कि महासुख का भूल तो आपके चरण कमल ही है इसलिए सदा के लिए मैं तुम्हारी शरण मे हूँ प्रभु जो परमसुख का सत्यमार्ग हो वो मुझे बताओ ।
"सत्यसुख तो ब्रम्हानंद मे ही हैं " वही आनंद सत्य है ,नित्य है ,दुःखरहित है ,अमर है ,अविकारी है । इस सुखरूप अनुभव से परिपूर्ण कानों और मन को सुख देने वाले सुखानंद सागर मे मुझको स्नान कराओ मेरी गति सिर्फ आप ही हो , आप ही अविघा को हरने वाले हो , सर्वोत्तम आनंदस्वरूप हो , सर्वव्यापक हो , सर्वनियन्ता हो , सब के कारण हो , आदि हो , नित्य हो , मेरे कल्याण का उपाय बताओ । अब संसार सुख को छोड़कर दूसरा सुख चाहिए जो अखण्ड है वो मुझको दो । यह कहकर उसने शिवजी के चरणों मे अपना सिर रख दिया । देवो के देव शंकर जी की शरण मिली इससे वह अखण्ड सुख का भोक्ता हुआ ।
वरेप्सु बोला कृपानाथ शंकरजी शरण जाने से वह राजपुत्र वरेप्सु किस तरह अखण्ड सुख का भोक्ता हुआ वह कहो । बटुकजी की फिर अमृत स्वरुप वाणी की वर्षा होने लगी ।
शरणागत
नीलम सक्सेना
इसी तरह विलास थकहारकर उदास होकर एक घर के चबूतरे पर वैठा था उधर से एक मनुष्य गुजरा उसने विलास को ऐसे सोच मे डूबा देखकर पास आकर बोला भाई तुम कौन हो और ऐसे क्यों वैठे हो ? विलास ने कहा मैं वटोही हूँ और जिस काम लिए बहुत समय भटकता था उसके लिए आज बिलकुल निराश हो जाने से उदास हूँ उसने पूछा कौन सा काम था विलास ने उसे सुख खोजने की सारी बातें बता कर कहा कि मैंने जगह-जगह मनुष्य की जाँच की परंतु यही सार निकला कि संसारमें कोई सुखी नहीं है क्या ईश्वर ने सुख पैदा ही नहीं किया ?यह सुनकर वो मनुष्य बोला भाई "पान्थ" तू भूलता है क्या,जगत मे सुख है ही नहीं तुझसे खोज करते नहीं बना। इस नगर मे ही मैं एक ऐसे सुखी को जनता हूँ जिनके सुख का पार नहीं है संसार मे सुख का साधन धन है जिसका उसके घर मे अखण्ड भण्डार है दूसरा साधन स्त्री है वह भी उसके यहाँ ऐसी अनुपम है जिसके रूप , गुण और पातिव्रत्य की तुलना संसार मे किसी स्त्री से नहीं हो सकती वह स्त्री साक्षात सीता है समृद्धि के अनुसार इसके पुण्य का भी पार नहीं है भूखे ,प्यासे ,गरीबो को अन्न ,जल ,कपड़ा ,पैसा इनका हर दिन दान होता है इनके द्धार से कोई भी खाली नहीं जाता। भिखारियों के आशीर्वाद का घोष गूँजता ही रहता है ऐसे पुण्यात्मा भाग्यशाली के तो दर्शन करने से भी पाप दूर हो जाते है इसलिए उस सुख आत्मा के दर्शन करके पवित्र हो जाओ विलास उस सुखी जीव के महल के आगे नित्य सवेरे से शाम तक जाकर बैठता और चर्चा सुनता जब वह उस सेठ को देखता तो उसका मुखकमल हास्यपूर्ण ही दीखता था। स्त्री भी आनंदपूर्ण थी , सेवक भी आज्ञाकारी थे। वह मन मे खुश हुआ कि सत्य ही यहाँ पर सुख है। मैं शिवजी से यही सुख माँगू ।
विलास को यही नित्य बैठा देखकर कामदार पूछने लगे क्यों भाई तुम्हे क्या चाहिए वह तुम्हे सेठ जी देंगे विलास ने कहा कुछ भी नहीं चाहिए मैं मांगने को नहीं आया परंतु इतनी अच्छा है कि ऐसे पुण्य आत्मा सेठजी से घड़ी भर भेट हो जाये तो अच्छा है यह सुनकर कामदार ने सेठ से जाकर विनय की अपने महल के सामने कोई विदेशी बहुत दिनों से नित्य आकर बैठता है सिर्फ आपसे मुलाकात की इच्छा प्रकट करता है इसलिए आज्ञा हो तो ऊपर आने दूँ सेठ प्रसन्न होकर बोला अच्छा उसको मेरे पास ले आओ । सेठ की आज्ञा होते ही कामदार विलास को सेठ के पास ले आया । दीवानखाने मे पैर रखते ही आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा । बैठक अनेक सुख साधनो से सजी रहने से ऐसी लगती थी मानो इन्द्र भवन हो । वहाँ सेठ एक सुन्दर आसन पर बैठा था । विलास की आत्मा तो भीतर जाते ही बिलकुल शांत हो गयी । सेठ ने विलास का आदर सत्कार करके एक आसन पर बैठाया और आने का कारण पूछा उसने कहा सेठजी आज मेरा धन्यभाग है क्योकि बहुत समय से निराश हुए मुझ प्राणी की आशा आज सफल हुई है बहुत समय के अनुभव से मुझको आज ऐसा निश्चय हुआ है कि आज ऐसे भूले हुए मुझ जीव को सबके भोग करने वाले और सब दुःखो से रहित आपका समागम होने से मैं कृतकृत्य हुआ आप सब तरह के दुखो से रहित और सम्पूर्ण सुख भोगने वाले है अब मुझे पूर्ण संतोष हुआ कि "संसार मे सुख है" आपका कल्याण हो आपका सुख अखण्ड बना रहे ।
इतना कहकर विलास उठकर खड़ा हुआ और जाने का विचार करने लगा । सेठ ने विचार किया "मैं सुखी हूँ " इतना निश्चय कर लेने से इसको क्या लाभ है ऐसा विचार कर सेठ बोला अजी पंथी ऐसी उतावली क्या है मेरे यहाँ पधारे हो तो बिना भोजन के नहीं जाओगे इस तरह आग्रहपूर्वक विलास को रोक लिया सेठ अपने पाहुने विलासवर्मा को साथ लेकर पाकशाला मे गया । भोजन परोसा गया सेठ ने श्री हरि को निवेदन किया और फिर विलास सहित खाने लगा । आज विलास को भोजन करते समय निश्चय हुआ कि जो कुछ सुख है वह यही है सेठ ने आदरपूर्वक विलास को बैठाकर अपने मन मे उत्पन्न हुए प्रश्न के रहस्य जानने का विचार किया ।
वह बोला भाई तुम सच-सच कहना कि तुम्हे किसी दूसरी चीज़ की इच्छा न होते हुए भी मैं सर्वाङ्ग सुखी हूँ या नहीं । सिर्फ यह जानने की क्या आवश्यकता थी यह सुनकर विलास ने अपना सारा हाल कह सुनाया उसने कहा श्रेष्ठ ,भाग्यवंत ,सुखीजन इस विश्वास्थ मे मैंने जो-जो प्रयत्न किये वे अंत मे दुःखरूप ही निकले तब हैरान हो वन मे जाकर तप करके मैंने शिवजी से सुख माँगा , शिवजी ज्यो-त्यों समझाकर कहा कि "संसार मे तो सुख ही नहीं है" परन्तु मैं कब मानने वाला था मेरी सच्ची हठ देखकर शिव ने कहा तू सब जगह खोज कर जो सुख तुझको जरा भी दुःख बिना श्रेष्ठ मालूम हो वह मुझसे माँग ले शंकर जी की इस आज्ञा से मैं सुख की खोज को निकला परन्तु कैलासपति ने जैसा कहा था वैसा ही हुआ अब तक मैंने कही सुख नहीं देखा । जहाँ - २ देखा वहाँ -२ ऊपर से तो सुख सही दिखा परन्तु भीतर दुःख का समूह दिखा मेरा यत्न आज सफल हुआ इसलिए आप ही के सुख जैसा सुख मैं शिवजी महाराज से माँग लूँगा क्योकि आप सब तरह से सुखी है ।
यह सुनकर सेठ इस तरह उदास हो गया मानो एकाएक बड़े दुःख के समुद्र मे डूब गया हो उसने गहरी सांस लेकर सेठ गदगद स्वर से बोला पंथी संसार के गुरु शंकर जी का वचन झूठा नहीं है संसार मे कही भी पूर्ण सुख नहीं है फिर यहाँ पर कहाँ से होगा इसलिए मेरी विनय इतनी है कि तू अब सुख प्राप्त करने का झूठा प्रयत्न छोड़ संतोषी बनकर शिवजी की शरण मे जा ।
मेरे समान इस पृथ्वी पर कोई भी दुखी नहीं है मेरा दुःख किसी से कहने लायक भी नहीं परन्तु तूने सच्ची प्रतिज्ञा की है तो तुझसे कहना ही पड़ता है परन्तु यह सुनने के बाद फिर किसी से न कहने की प्रतिज्ञा कर तो कहूँ विलास ने सेठ की आगे द्रढ़ -प्रतिज्ञा की तब सेठ ने कहना आरम्भ किया ।
सेठ बोला मेरी प्रिया और मुझमे द्रढ़ प्रेम है वह द्रढ़ पतिव्रता और मैं एक पत्नी व्रत धारी हूँ हम एक दूसरे से संतुष्ट थे देव संयोग से वह बीमार पड़ी और दवा करने पर भी रोग ने उसके शरीर मे घर कर लिया । हम सब कुटुम्बियों और वैघ्यादि को ऐसा निश्चय हुआ कि वह अब नहीं बचेगी ।
उसका इतना कष्ट होता था कि हमसे देखा नहीं जाता था मेरे मन को बहुत दुःख और विचार हुआ कि हे देव इसका आत्मा किस वासना के कारण इस बड़े कष्ट से नहीं छूटता प्रभु इस स्त्री का कष्ट मुझे भले ही हो परन्तु इसके आत्मा का छुटकारा हो जाये अब मुझसे इसका दुःख देखा नहीं जाता । उसका सिर अपनी छाती से लगाया और पूछा प्रिये अब इस महासंकट से अपने आत्मा को शीघ्र पार कर और स्वर्ग मे जाकर इस वियोगी पति की राह देख प्रिये तेरे बिना मैं एक पल भी जीता नहीं रह सकूँगा । इसलिए थोड़े ही समय मे इस मिथ्या जगत को छोड़कर मैं तुझसे आ मिलूँगा हे प्रिये तेरे प्राण किसमें अटका है तू मुझे बता कुछ भी नहीं छिपाना । यह सुनकर मेरी पत्नी को बड़ी शांति मिली और मुझे लगा वह मुझसे कुछ कहना चाहती है उसके बोलने के भाव से मुझे प्रतीत हुआ कि उसके मन मे सिर्फ एक बात खटक रही है कि मरे न रहने पर तुम दूसरी शादी कर लोगे और वो सबकी स्वामिन हो जाएगी । मेरी जगह वह ले लेगी इन वचनों से हृदय भिद गया और मैंने द्रढ़ प्रतिज्ञा कर ली कि प्रिये तेरे बिना जगत की सब स्त्रियां मेरी माता के तुल्य है माया मे फँसा हुआ जीव माया को छोड़ने मे असमर्थ था प्राण वल्लभे मैं सत्य कहता हूँ कि मैं कभी दूसरी स्त्री नहीं करूँगा अगर तुझे विश्वास नहीं है तो मैं स्त्री सुख भोगने का साधन ही समूल नष्ट किये देता हूँ और मैंने ऐसा ही किया अपनी "उपस्थ इन्द्रिया" नष्ट कर दी ।
इतना कहकर सेठ बोला हे सुख के ढूँढने वाले बटोही ! मैं सोचने लगा कि अब इसको पंचभूत शरीर को आत्मा छोड़ देगी परन्तु ऐसा नहीं है "हे सुखेच्छु पथिक" वह धीरे -२ ठीक होने मैं भी बिलकुल चंगा हो गया । मेरो जोड़ा जैसा पहले था वैसा ही फिर हो गया और हम आज बेऔलाद है यह बात सुनकर विलास चित्रवत सा हो गया और बोला अहो यह क्या सत्य है अगर ऐसा है तो आपके समान इस संसार मे कोई दुखी नहीं है और आप अपना दुःख किसी से कह भी नहीं सकते । यह तो ऐसा दुःख है विलास बोला सेठजी सुख तो अब संसार मे है ही नहीं । सेठ ने कहा नहीं बिलकुल ही नहीं संसार मे वही सुख की इच्छा रखे जो मुर्ख हो संसार स्वयं दुःखरूप है इसलिए सुख चाहने वाले राही यदि तेरी वास्तविक सुख प्राप्त करने की इच्छा हो तो वह सुख परमपिता परमात्मा जगद्गुरु शंकरजी के चरण कमलो मे है इसलिए ये सारी झूठी सबटपटे छोड़कर उन कृपालु महादेव जी शरण मे जा वे ही तेरा बेड़ा पार करेंगे ।
सेठ का कहा हुआ विलास ने अच्छी तरह समझ लिया वह सेठ को प्रणाम कर वहां से चला । वह थोड़ी देर मे वहीँ पंहुचा जहाँ पर उसने पहले तप शुरू किया था । चित्त को स्थिर करके उसने शिवजी का ध्यान किया और दर्शन पाने के लिए मनोमय नम्र प्रार्थना की इतने मे ही शंकर जी प्रकट हुए और बोले क्यों भक्त तूने सुख की खोज की है बता अब तुझे कैसा सुख दूँ ? विलास हाथ जोड़कर खड़ा हो गया और कहने लगा " कृपालु प्रभो " मैं मूर्ख , अघम ,पापी और माया मे फँसा हुआ आपके प्रभाव को नहीं जान सका । क्षमा करो प्रभो क्षमा करो ! मैंने अब अच्छी तरह से जान लिया है कि महासुख का भूल तो आपके चरण कमल ही है इसलिए सदा के लिए मैं तुम्हारी शरण मे हूँ प्रभु जो परमसुख का सत्यमार्ग हो वो मुझे बताओ ।
"सत्यसुख तो ब्रम्हानंद मे ही हैं " वही आनंद सत्य है ,नित्य है ,दुःखरहित है ,अमर है ,अविकारी है । इस सुखरूप अनुभव से परिपूर्ण कानों और मन को सुख देने वाले सुखानंद सागर मे मुझको स्नान कराओ मेरी गति सिर्फ आप ही हो , आप ही अविघा को हरने वाले हो , सर्वोत्तम आनंदस्वरूप हो , सर्वव्यापक हो , सर्वनियन्ता हो , सब के कारण हो , आदि हो , नित्य हो , मेरे कल्याण का उपाय बताओ । अब संसार सुख को छोड़कर दूसरा सुख चाहिए जो अखण्ड है वो मुझको दो । यह कहकर उसने शिवजी के चरणों मे अपना सिर रख दिया । देवो के देव शंकर जी की शरण मिली इससे वह अखण्ड सुख का भोक्ता हुआ ।
वरेप्सु बोला कृपानाथ शंकरजी शरण जाने से वह राजपुत्र वरेप्सु किस तरह अखण्ड सुख का भोक्ता हुआ वह कहो । बटुकजी की फिर अमृत स्वरुप वाणी की वर्षा होने लगी ।
शरणागत
नीलम सक्सेना
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