इन्द्र पद की महत्ता
राजा ने पूछा महाराज ब्रह्मदेव के एक दिन मे चौदह इन्द्रो का अधिकार होता है तो ब्रह्मदेव का दिन कितना बड़ा होता है जब सतयुग ,त्रेतायुग ,द्धापरयुग ,कलयुग चारो युग पूरे होते है इसे चौकड़ी कहते है जब यह बीत जाये तो एक दिन होता है और उतनी ही बड़ी रात । जब रात होती है ब्रह्मदेव की तो महात्मा लोग प्रलय के नाम से जानते है इस समय इस भूलोक से लेकर इंद्रलोक तक की सृष्टि जल मे डूब जाएगी और जल के सिवा कुछ नहीं रहेगा और उस समय इंद्रलोक का भी अंत हो जायेगा ।
यह सुनकर राजा वरेप्सु बोला गुरु महाराज क्या इस इंद्रलोक का भी लय हो जाता है बटुकजी ने कहा हाँ और इससे ऊपर रहने वाले महर्लोक ,जनलोक ,तपलोक और सत्यलोक का भी लय हो जाता है ब्रह्मदेव के एक दिन और रात को कल्प कहते है जब महाप्रलय होगा तब जड़ चेतन रूप सारा जगत जलरूप महाभूत मे मिल जायेगा। जल अग्निरूप महाभूत मे लीन हो जायेगा । अग्नि वायु मे , वायु आकाश मे मिल जायेगा । सबसे अंत मे महाभूत शून्य आकाश ही रह जायेगा "वरेप्सु बोला" महाराज नाश न होने वाला अविनाशी क्या है? बटुकजी ने कहा परमात्मा का स्थान, यही अविनाशी स्थान ,यही अच्युत पद यह सबसे बड़े सुख का स्थान है । यही परमानन्दपुरी यही सदा बना रहने वाला शांति का स्थान है वहाँ जाने वाला कभी नहीं लौटता। यही परवृक्ष ,यही सचिदानंद प्रभु ,यही "ॐ तत सत ब्रह्मा " है वहाँ तूने जो ज्ञानमय ,चैतन्य निराकार और बहुत ही विचित्र बालक रूप देखा वही आनंदरूप परमात्मा का निराकार और साकार स्वरुप है इस संसार को पार कर ईश्वर व्यक्ति मे लगा हुआ भक्तजन ही ऐसे आनंदरूप परमांनद तत्व का अनुभव करता है । निष्पाप तू भी इस अच्चयुत पद के बनाने वाले ईश्वर का अनन्य भक्त होने का अधिकारी हुआ इसलिए दृणता से अब तू अभय प्राप्त करने का प्रयत्न कर ।
वरेप्सु बोला हाँ कृपानाथ मैं गुरु की शरण मे रहकर नाश न होने वाले सर्वेश्वर परमात्मा उपासना करूँ "प्रभु
मेरे परमपूज्य गुरु तो आप ही हो और मैं अब सब तरह शरण मे पड़ा हूँ मन ,देह ,स्त्री ,धन ,भंडार ,सेना ,राज्य ,पृथ्वी और अन्त मे मेरे अच्छे -बुरे सब काम आप के ही है इन सब पर आपका ही अधिकार है और मैं सब तरह से आपका ही हूँ मेरे सब कुछ आप ही है आप की आज्ञा मानना ही मेरा पवित्र कर्तव्य है ऐसा कहकर वरेप्सु उस ऋषि पुत्र के आगे हाथ जोड़कर चुपचाप खड़ा रहा । उसकी नज़र बटुकजी के सुन्दर कोमल चरणों से पल भर भी हटती नहीं थी वह उन्ही को एक टक देखता रहा वह ऐसा जड़ हो गया मानो उसमे "जीव" नहीं है मूर्ति ही खड़ी हो ।
शरणागत
नीलम सक्सेना
राजा ने पूछा महाराज ब्रह्मदेव के एक दिन मे चौदह इन्द्रो का अधिकार होता है तो ब्रह्मदेव का दिन कितना बड़ा होता है जब सतयुग ,त्रेतायुग ,द्धापरयुग ,कलयुग चारो युग पूरे होते है इसे चौकड़ी कहते है जब यह बीत जाये तो एक दिन होता है और उतनी ही बड़ी रात । जब रात होती है ब्रह्मदेव की तो महात्मा लोग प्रलय के नाम से जानते है इस समय इस भूलोक से लेकर इंद्रलोक तक की सृष्टि जल मे डूब जाएगी और जल के सिवा कुछ नहीं रहेगा और उस समय इंद्रलोक का भी अंत हो जायेगा ।
यह सुनकर राजा वरेप्सु बोला गुरु महाराज क्या इस इंद्रलोक का भी लय हो जाता है बटुकजी ने कहा हाँ और इससे ऊपर रहने वाले महर्लोक ,जनलोक ,तपलोक और सत्यलोक का भी लय हो जाता है ब्रह्मदेव के एक दिन और रात को कल्प कहते है जब महाप्रलय होगा तब जड़ चेतन रूप सारा जगत जलरूप महाभूत मे मिल जायेगा। जल अग्निरूप महाभूत मे लीन हो जायेगा । अग्नि वायु मे , वायु आकाश मे मिल जायेगा । सबसे अंत मे महाभूत शून्य आकाश ही रह जायेगा "वरेप्सु बोला" महाराज नाश न होने वाला अविनाशी क्या है? बटुकजी ने कहा परमात्मा का स्थान, यही अविनाशी स्थान ,यही अच्युत पद यह सबसे बड़े सुख का स्थान है । यही परमानन्दपुरी यही सदा बना रहने वाला शांति का स्थान है वहाँ जाने वाला कभी नहीं लौटता। यही परवृक्ष ,यही सचिदानंद प्रभु ,यही "ॐ तत सत ब्रह्मा " है वहाँ तूने जो ज्ञानमय ,चैतन्य निराकार और बहुत ही विचित्र बालक रूप देखा वही आनंदरूप परमात्मा का निराकार और साकार स्वरुप है इस संसार को पार कर ईश्वर व्यक्ति मे लगा हुआ भक्तजन ही ऐसे आनंदरूप परमांनद तत्व का अनुभव करता है । निष्पाप तू भी इस अच्चयुत पद के बनाने वाले ईश्वर का अनन्य भक्त होने का अधिकारी हुआ इसलिए दृणता से अब तू अभय प्राप्त करने का प्रयत्न कर ।
वरेप्सु बोला हाँ कृपानाथ मैं गुरु की शरण मे रहकर नाश न होने वाले सर्वेश्वर परमात्मा उपासना करूँ "प्रभु
मेरे परमपूज्य गुरु तो आप ही हो और मैं अब सब तरह शरण मे पड़ा हूँ मन ,देह ,स्त्री ,धन ,भंडार ,सेना ,राज्य ,पृथ्वी और अन्त मे मेरे अच्छे -बुरे सब काम आप के ही है इन सब पर आपका ही अधिकार है और मैं सब तरह से आपका ही हूँ मेरे सब कुछ आप ही है आप की आज्ञा मानना ही मेरा पवित्र कर्तव्य है ऐसा कहकर वरेप्सु उस ऋषि पुत्र के आगे हाथ जोड़कर चुपचाप खड़ा रहा । उसकी नज़र बटुकजी के सुन्दर कोमल चरणों से पल भर भी हटती नहीं थी वह उन्ही को एक टक देखता रहा वह ऐसा जड़ हो गया मानो उसमे "जीव" नहीं है मूर्ति ही खड़ी हो ।
शरणागत
नीलम सक्सेना
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