राजा वरेप्सु अपने साथ सेना लेकर राज्य मे दौरा करने के लिए निकला । प्रजा सुखी है या दुखी , अपना निर्वाह कैसे करती है ,धर्म का पालन होता है या नहीं । राज्य की उत्तर सीमा वाले एक वन प्रदेश मे पहुँचा । राजा घूमते घूमते एक ऐसे वन प्रदेश मे पहुँचा जिसमे अप्सराओ सहित देवता भी अनेकवार स्वर्ग का आनंद -नंदनवन छोड़कर क्रीड़ा करने आते है, ऐसे सुन्दर रमणीक वन को देखने की इच्छा हुई वरेप्सु घोडे पर सवार होकर वन मे चला वृक्षो और फूलो फलो से लदी हुई पृथ्वी को देखकर राजा वरेप्सु आनंद मे डूब गया ।
मध्याहन का समय था राजा वरेप्सु ने नित्य कर्म करके थोड़ी देर विश्राम कर आगे बढ़ने का विचार किया वरेप्सु ने मीठे और आरोग्य वर्धक फलो को बीनकर ईश्वर को अर्पण करके स्वयं भक्षण किये फिर वह अशोक वृक्ष के नीचे लेटकर आनंद मे मग्न हो गया थोड़ी देर मे आनन्दायी नींद मे सो गया। सोते हुए उसने एक चमत्कार देखा कि कोई सुन्दर दिव्य स्त्री पास आकर अपने हाथो से उसके पैरो को दाब रही है वह मानो राजा को बहुत सुन्दर और तेजस्वी देखकर मोहित हो गयी है सुन्दर फूलो को राजा की छाती पर रखकर वहाँ से बिजली की तरह गायब हो गई ।
राजा एकदम जाग उठा अरे नींद मे मुझे यह व्यर्थ ही क्या दिखा ऐसा मन मे सोचकर बैठ गया। परन्तु उसका मन शांत नहीं हुआ अपनी शरीर पर पड़े हुए फूलो को देखकर उसको निश्चय हुआ यह स्वप्न नहीं किन्तु सत्य है ऐसा सोच ही रहा था की ठीक उसी समय एक स्त्री जाती हुई दीख पड़ी वह तुरंत खड़ा हो गया और उसके पीछे उसी दिशा मे चल पड़ा । राजा को अपने पीछे आता हुआ देखकर वह वृक्ष की ओट मे छुप गई वह धैर्य खो बैठा और उस दिव्यांगना के पास जा पंहुचा इस समय वह अपने पवित्र मुख्य धर्म को भूल गया व्यभिचारी पुरुष की तरह यह भूल गया की मैं दूसरी स्त्री की इच्छा करता हूँ इसका परिणाम क्या होगा ।
यह तरुणा स्वर्ग की एक अप्सरा थी उसका नाम तिलोत्तमा था । अप्सरा ने राजा के आगे खड़े होकर कहा ,
हे वीर ! राजन ! तुझे क्या अपनी रानी और राज्य की चिंता नहीं इस निर्जन वन मे निश्चिन्त सो रहा है सावधान हो और नगर की ओऱ जा । उस अप्सरा को देखकर राजा ने कहा मैंने पहले कभी ऐसी सुन्दर कान्तिवाली युवती नहीं देखी तुम कौन हो यह सुनकर अप्सरा बोली "हे वीर " हमारा निवास स्थान इस भूलोक से श्रेष्ठ ,अपर , सुखरूप और दिव्य है वह स्वर्ग के नाम से जाना जाता है। हम अप्सरा है हमारा कर्त्तव्य गीत और नाच द्धारा इन्द्रादिक देवो को प्रसन्न करना है ।
यह सुनकर राजा बोला, तुम्हारा स्वर्गस्थान क्या इतना उत्तम है कि उसमे मुझे प्रवेश करने का अधिकार नहीं मुझको बताओ वहाँ किसको प्रवेश करने का अधिकार है वह अप्सरा बोली हाँ हमारा स्वर्गस्थान बहुत ही उत्तम है वहां मनुष्यो को जाने का अधिकार नहीं है मनुष्यो मे जो तप ,सत्कर्म ,योगशक्ति के बल से , पुण्यवान , प्राणी जो अपने वर्णाश्रम धर्म अच्छी तरह पालन करते हुए दान ,तप,वृताचरण ,भजन ,पूजन अनेक पुण्य कर्म करता है। वह अपने मनुष्य शरीर को छोड़कर दिव्य देहघर वह जाता है और अपार सुख भोगता है।
वरेप्सु विस्मित होकर बोला अहा तो क्या मनुष्यो मे से ही स्वर्गाधिकारी हो सकते है। अप्सरा ने कहा माता पिता की सेवा करने वाला पुत्र , सच्चे प्रेम से अपने पति की सेवा करने वाली स्त्री ,अपने गुरुजनो की समर्पण सेवा करने वाला सेवक पुत्र के समान प्रजा की रक्षा करने वाला राजा अग्निहोत्री क्रिया मे लगे रहने वाला ब्राह्मण , धर्म ,और भलाई मे लगे रहनेवाले स्त्री पुरुष , युद्ध मे पीठ न दिखाकर प्राण देने योद्धा इत्यादि ,मनुष्य संसार मे धन्य है ।
वह इस देह को छोड़ने के बाद स्वर्ग के अधिकारी होते है। परंतु स्वर्ग मे सबसे श्रेष्ठ जो इंद्र का पद है वह सौ अश्वमेघ यज्ञ करने से प्राप्त होता है इसलिए इंद्रा का नाम " शतक्रतु " है इसलिए तू अपनी अभिलाषा छोड़ दे और शांत होकर अपने स्थान मे जा तथा स्वर्ग प्राप्त करने के लिए उत्तम पुण्य साधन कर ।
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