राजा वरेप्सु कौन है
राजा वरेप्सु एक क्षत्रिय पुत्र है इनके माता पिता बहुत छोटी उम्र मे इन्हें छोड़कर मृत्यु को प्राप्त हो गए । इनका लालन पालन एक ऋषि ने किया है । ऋषि ने अपने पुत्रो के साथ वेद वेदाङ्ग मे और पुरुषार्थ मे काम आने वाली धनुर्विध्या भी सिखा दी। एक समय वे ऋषि के शिष्य व पुत्रो के साथ वन मे समधादिक् लेने के लिए गए । दोपहर का समय था और धुप बहुत तेज थी, प्यास लगने लगी और वरेप्सु यह भूल गए की मैं क्षत्रिय हूँ और ऋषिपुत्रो से कहने लगे पानी पिलादो, ऋषिपुत्रो को बुरा लगा और कहने लगे कि क्षत्रिय होकर ब्राह्मण से पानी पिलाने को कह रहा है तब वरेप्सु को अपने क्षत्रिय होने का ध्यान आया उसके ह्रदय मे क्षत्रिय होने का ध्यान आया उसके ह्रदय मे क्षत्रिय धर्म का सच्चा अभिमान पैदा हुआ गुरु की कृपा से प्राप्त हुई । धनुर्विद्या का स्मरण कर बोला हे द्विज्वरो, हे गुरु पुत्रो, मुझे क्षमा करो आपने मुझे क्षत्रिय होने का आभास कराया अब मै आपकी सेवा करता हूँ ऐसा कहकर उसने तुरन्त अपनी बगल मे दबाये हुए कुश के पूले से एक सींक ऊँगली मे दबाकर मेघास्त्र बाण का मंत्र पड़ आकाश मे छोड़ा तभी निर्मल आकाश चहु ऒर से उमड़ती हुई घटाओ से घिर आया और उसी समय जल बरसने लगा प्यास से व्याकुल ऋषि बालको ने अमृत के समान जल पीकर शान्त हुए और वरेप्सु को आशिर्वाद देने लगे की तेरा कल्याण हो तेरी पड़ी हुई विघा सफल हो, दूसरे के हाथ मे गई हुई तेरी राज्य सम्रद्धि तुझे प्राप्त हो ,वरेप्सु की प्रशंसा और कल्याण की कामना करते हुए अपने आश्रम की ओर लौटने लगे थोड़ी देर मे सभी आश्रम पहुँचे सब अपनी लायी हुई वास्तु गुरु को देकर भिक्षा के लिए चले गए किन्तु वरेप्सु नहीं गया गुरु ने उदास देखकर वरेप्सु से कहा बेटा क्या बात है क्या माता पिता की याद आई है वरेप्सु ने गुरूजी से कहा गुरूजी मुझे मेरे अतीत के बारे मे बताये गुरु ने कहा तुम्हारे माता पिता विश्वपुर मे शान्ति से राज्य करते थे दुष्ट विदेशी राजा ने लड़ाई मे तुम्हारे पिता को मार दिया तुम्हारी माता तुम्हे मेरे आश्रम मे छोड़ गयी और कुछ दिनों पश्चात् मृत्यु को प्राप्त हो गयी तब से तुम मेरे पास हो और क्षत्रिय धर्म के हो मैंने तुझे धनुर्विघा इसीलिए सिखाई की तुझे उसका सदुपयोग करते हुए देखु ।

गुरु की ऐसी बातें सुनकर वरेप्सु ने कहा गुरु जी राज्य बापस लेने के लिए मेरा मन उतावला हो रहा है । गुरु जी ने कहा अपने पिता के छीना हुआ राज्य हासिल करो मै प्रसन्न हूँ ईश्वर तुम्हारी सहायता करें। वरेप्सु ने कहा मुझे आपके आशीर्वाद की आवश्यकता है और सब विध्याएँ आपकी कृपा से मुझे प्राप्त हैं आपकी सिखलाई हुई विद्या समय काम आवे । गुरु जी बोले "धन्य है बत्स " तेरे ऐसे दृढ़ विश्वास मुझे बड़ा संतोष दिया है और मुझे भरोसा है की तू अपनी इच्छा जरूर पूर्ण करेगा,गुरु जी ने वरेप्सु को अपने अस्त्र शस्त्र देकर कहा पुत्र इस समय में इन आयुधों को धारण कर कल्याण हो ।
गुरु जी के ऐसे वचन सुनकर वरेप्सु ने गुरु जी व ऋषि पत्नी के चरणों में प्रणाम किया और आशीर्वाद लिया और चल दिया अपना राज्य बापस लेने के लिए विश्वपुरी ।
वरेप्सु मन ही मन में संकल्प करने लगा की हे प्रभु मैं अपने पिता का अधिकार प्राप्त करलूँ नहीं तो मैं देह धारण नहीं करूँगा प्रभु मेरी मदद करना ऐसे विचार करते हुए विश्वपुरी पहुच गया।।
संध्या का समय था गंगा जी में स्नान किया और संध्योपासना की वरेप्सु विचार करने लगा पहले राजा को सावधान किया जाये अचानक हमला करना वीरो का धर्म नहीं पीपल के पत्ते पर अपने आने का समाचार लिखकर पुड़िया बनाकर बाण की कड़ी मे बांधकर उसे राजा के पास छोड़ दिया अकस्मात् गिरने वाला बाण देखकर सबके मन मे शंका होने लगी राजा की आज्ञा से उस बाण मे बंधी पुड़िया को खोलकर पड़ने लगे उसमे लिखा था मेरे पिता की बीमारी की अवस्था मे बिना कारण मार कर तूने राज्य अपने अधीन कर लिया है उसे मुझे शीघ्र सौप दे नहीं तो युद्ध को तैयार होना।
संध्या का समय था गंगा जी में स्नान किया और संध्योपासना की वरेप्सु विचार करने लगा पहले राजा को सावधान किया जाये अचानक हमला करना वीरो का धर्म नहीं पीपल के पत्ते पर अपने आने का समाचार लिखकर पुड़िया बनाकर बाण की कड़ी मे बांधकर उसे राजा के पास छोड़ दिया अकस्मात् गिरने वाला बाण देखकर सबके मन मे शंका होने लगी राजा की आज्ञा से उस बाण मे बंधी पुड़िया को खोलकर पड़ने लगे उसमे लिखा था मेरे पिता की बीमारी की अवस्था मे बिना कारण मार कर तूने राज्य अपने अधीन कर लिया है उसे मुझे शीघ्र सौप दे नहीं तो युद्ध को तैयार होना।
प्रथम अध्याय पूर्ण
शरणागत
नीलम सक्सेना
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