Tuesday, 31 January 2017

सनकादिक के उपदेश का ध्यान

सनकादिक के उपदेश का ध्यान

बटुकजी बोले ,पिताजी मेरा जन्म पहले अंगिरागोत्र मे ही हुआ था । वहां शास्त्र की आज्ञा के अनुसार वेदाध्ययन कर गृहस्थाश्रम मे पड़ा था।  उस जन्म मे मैं सब ऋषियों के साथ लगा  रहता था । मैंने अनेक यज्ञ किये और व्यव्हार और कर्मकाण्ड मे बहुत ही प्रवीण माना गया । उस समय ऋषि मुझे "वामदेव " नाम से जानते थे और बहुत आदर करते थे । मैं स्वर्ग की इच्छा , ऋषियों के साथ अनेक काम्यकर्म (फल इच्छा के काम ) करता और दुसरो को भी वैसा ही करने का उपदेश देता था क्योकि मैं नहीं जानता था कि इंद्रलोक और परलोक के सारे सुख अंत मे नश्वत है ।
  एक दिन सब प्राणियों के हित की इच्छा करने वाले "ब्रह्मपुत्र  सनकादिक मुनि " अनेक लोको मे भ्रमण करते हुए भूलोक मे पधारे ।
" पुनरपि जननं पुनरपि मरणं ,पुनरपि जननी जठरे शयनं " अवस्था मे दुःखित पाकर उन्हें बड़ा कष्ट हुआ । ये देवदया के वश होकर प्रजा के इस संसार के क्लेश मय  तापो को दूर करने का विचार करने लगे और हमने ब्रह्मपुत्रो को पूजादि करके संतुष्ट किया और विनयपूर्वक प्रश्न किया कि हे ब्रह्मपुत्रो ! इन दुखो के अंत होने और वास्तविक सुखानंद प्राप्ति के जो उपाय है वे कृपा कर बताये ।
यह सुनकर ब्रह्मपुत्रो मे ज्येष्ठ "मनकमुनि " बोले - स्थिर सुख का उपाय परमात्मा स्वरुप का सच्चा ज्ञान होना है ।
"संदनमुनि"ने कहा - मन का लय (नाश) करना ही परमात्मा रूप के ज्ञान होने का उपाय है ।

"सनातन मुनि" ने कहा - शुद्ध निष्काम कर्म -उपासना करना ही इच्छाओ के लय का उपाय है ।

"सनत्कुमार मुनि "ने कहा - यह सब जगत विनाशी है ऐसा विचार पूर्वक जानना और अनुभव करना द्रढ़ निश्चय करना ही निष्काम होने का उपाय है ।

यह अनमोल उपदेश देकर ब्रह्मपुत्र चारो मुनि देवलोक को चले गए । इन चारो सिद्धांतो मे तीसरा सिद्धांत यह है कि कल की इच्छा बिना कर्म करना और उसे परमात्मा के श्री चरणों मे अर्पण करना चाहिए इससे अन्तःकरण शुद्ध -पवित्र -ज्ञानरूप प्रकाश पाने के योग्य  होता है । इन बालक रूप महातेजस्वी सनकादि महर्षियो का कल्याण कारक उपदेश सुनकर मुझे तो उसी समय से भारी चोट लगी । मैं बारम्बार उनके वचनो का मनन करने लगा ,ज्यो -ज्यो मैं सृष्टि की लीला का विचारपूर्वक अवलोकन करता था त्यों-त्यों मुझको अनुभव होता था कि इस जगत की प्रत्येक वस्तु मिथ्या है अविनाशी नहीं है मुझे क्षणक्षण मे उनका उपदेश वचन याद होने लगा और मैं अपने प्रत्येक कार्य मे द्रढता  से उसका उपयोग करने लगा ,फल की इच्छा से किये जाने वाले कर्मो पर मेरी आस्था ही नहीं रही जो कर्म आवश्यक हो वही कर्म मैं करता और उसमे भी फलासक्ति नहीं रखता था । मुझको बहुत समय के अभ्यास से मालूम हुआ कि कर्मफल की आशा ही नही रखनी चाहिए । ऐसा ज्ञान होते ही मेरी सारी आशाये पूर्णरूप से स्वयं शांत हो गयी और पहले अनेक आशाओ मे भटकने वाला तथा जरा भी विश्राम न लेने वाला जो मेरा चंचल था वह बिलकुल शांत हो गया , उसने भटकना बिलकुल ही छोड़ दिया । पंचतत्वो का यह शरीर अकस्मात् प्रफुल्लित होने लगा और मैं हृष्ट पुष्ट हो गया । अंत मे आशा और संसार सक्ति इतनी शिथिल हो गई कि इस जीव ने धन ,स्त्री ,पुत्र , आश्रम सबको भूला दिया । मेरी इच्छाएं नष्ट हो गई उन महर्षियो के उपदेशानुसार परमात्मा स्वरुप के दर्शन की लालसा से और उसमे सदा लीन हो जाने के कारण शरीर भी शुद्ध स्वर्ण के समान होता गया और इस शरीर की विस्मृति हो गई  ,मन ब्रह्मविचार मे एकाग्र होने से ,ब्रह्मनिष्ठ जीववाला शरीरधारी मैं मानो जड़ ,बहरा ,गूंगा और सुधविहीन अवधूत के समान हो गया । अपनी पूर्ण एकाग्रता के फलस्वरूप ,परमात्मस्वरूप के दर्शन होने का समय मेरे समीप आ गया परन्तु ईश्वर दर्शन होने के पूर्व ही मेरा देह ईश्वर इच्छा से मृत्यु को प्राप्त हो गया इसलिए मुझको ईश्वरी नियमानुसार फिर गर्भवास मे आना पड़ा है ।

हे पिताजी ! मैंने तुम्हारे यहाँ गर्भवास का अंतिम दुस्तर अनुभव किया है परंतु गर्भवास मे महासंकट मेरा कुछ भी नहीं कर सका क्योकि मैं तो वहां पर भी ब्रह्मविचार मे मग्न था । वहां तो मेरा मन पूर्णरूप से एकाग्र हुआ क्योकि उस स्थान का निवास तो योगी लोगो के पर्वत के गुप्त से गुप्त ,एकांत से एकांत ,गुफा से भी बहुत गूढ़ एकांत वाला है । गर्भाशय के नरक के समान तीक्ष्ण दुखो के कारण जीव की संसारसाक्ति बिलकुल निर्मूल हो जाती है । ईश्वर ने वहां मुझ पर दया की । पांच भौतिक देह के ह्रदय मे अकस्मात् अदभुद प्रकाश हुआ । यह प्रकाश कैसा था इसका वर्णन कोई नहीं कर सकता हैं क्योंकि इसको तो वही जान सकता है जिसने इसका अनुभव किया है यह प्रकाश ,आनंदरूप ,महदानंद रूप ,परमानंद रूप ,परम सुखमय प्रकाश ,वायु से शून्य एकांत स्थान मे जलते हुए घी के दीपक के समान स्थिर था । इससे मैं उसको "प्रकाश"  नाम देता हूँ । उपनिषद शास्त्र ने इसे "ॐ तत ,सत, चित ,आनंद "इत्यादि विशेषण दिए है और इन सबका पूरा नाम वेद मे "ब्रह्म" नाम से वर्णन किया गया है यह वही परमात्मा स्वरुप है जिसका उपदेश मुझे उन सनकादिक महात्माओ ने दिया था यही सब दुःखो और संसार वासनाओ का अंत है यही परम सुख ,परमशान्ति ,परमआनंद यही जीव मुक्ति ,यही परम निर्वति और यही अचल पदवी तथा सर्वोत्तम धाम है मुझको स्पष्ट मालूम हुआ "अहो ! यही परमात्मा और यही मेरा मूलरूप है" । 
               बटुकजी बोले ,ऋषि जी मुझे इस समय वहाँ आनंदपूर्वक तुरंत स्मरण हो आया कि महर्षि सनकादिकों का उपदेश कितना अमूल्य है उसके बाद मैं तुरन्त जन्मा ,जन्म लेकर भी सब लोगो को सावधान करने के लिए यही काम करने को निकल पड़ा हूँ । हे जनो ! पहले मैं भी तुम्हारे समान एक था परन्तु उन सनकादिकों के उपदेश को मानकर द्रढता से ज्ञानभक्ति के साधन का आचरण करने लगा परिणाम स्वरुप परमात्मा के स्वरुप का प्रत्यक्ष दर्शन कर सुखी हुआ हूँ इसलिए तुम भी मेरे समान ही यत्न करके सुखी होओ और असावधानी त्याग दो । 
   बटुकजी  की ये बाते सुनकर सब सभा चकित हो गई और ऋषि वामदेव के पिता तो अत्यंत हर्ष के आवेश मे बटुकजी को बाहो मे भरकर आलिंगन कर बोले , मैं निसंदेह सौभाग्यशाली हूँ जो पुरुष सब लोगो का पूजनीय है वह मेरे यहाँ वामदेव ऋषि पुत्र रूप से पैदा हुए है । सृष्टि नियम के अनुसार जब आप मेरे यहाँ पुत्र रूप से पैदा हुए है तो अज्ञान के अंधकार मे पड़े हुए अपने वृद्ध माता पिता की पुत्र लालसा पूरी करने के लिए घर चलो "वामदेव" तुम्हारी माता को तुम्हारे प्रभाव का ज्ञान नहीं है इसलिए घर चल । उसको भी कृतार्थ करो । गृहस्थाश्रम का सुख भोगकर हमारी आँखों का आनंदित करो । हे वामदेव तुम दूसरी सब बातो को छोड़कर अब तू घर चल । 
   वामदेव फिर उन ऋषि को संबोधन करके बोला "पिताजी" जब एक बार जान लिया गया कि इस पदार्थ मे जहर है और इसके खाने से प्राण जाते है तो फिर वह पदार्थ चाहे मीठा हो तो भी क्या ज्ञानी पुरुष उसके खाने की सच-मुच इच्छा करता है । ऋषि ने कहा "नहीं बिलकुल नहीं " , बटुकजी बोले " तो वैसा ही मेरे लिए जानो"। 
  

                        आज से हम बटुकजी को "वामदेव" कहकर पुकारेंगे ।  

                                                                                                                                    शरणागत 
                                                                                                                                नीलम सक्सेना 



































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