वरेप्सु का मरणावृत
बटुकजी ने कहा मेरी मांग के अनुसार जो तेरा था वो सब मेरा हो गया तेरे किये हुए पाप व् पुण्य भी मेरे हुए अर्थात तेरे किये हुए पाप पुण्यो के फल ,सुख -दुःख जो तुझे भोगने थे वे भी सब अर्पण करने से मुझे भोगने पड़ेंगे तू अभी जो सोचता है की तुझे इन्द्रपद भोगना है तू तीनो लोको का अधीश्वर होगा " वत्स " इस इन्द्र पद पर आज तेरा अधिकार नहीं अब यह भी मेरा हो गया।
ऋषिपुत्र के यह अंतिम शब्द सुनते ही वरेप्सु राजा बड़े दुःख के साथ पछाड़ खाकर पृथ्वी पर गिर पड़ा और तुरंत मूर्छित हो गया राजा की ऐसी अवस्था होते ही सभा मण्डप मे बैठे हुए सब लोगो के होश उड़ गए यह क्या हुआ रानी ,प्रधान ,पुरोहित ,ऋषि,मुनि सब सेवक विवश हो गए यज्ञ क्रिया बंद हो गयी सबके ह्रदय ,अन्त:करण खेद और शोक से छा गए और सोचने लगे यह बालक याचक नहीं परन्तु कोई कारण रूप है । जम ,जमाई ,जाचक इन तीनो को दया नहीं होती अब क्या होगा दर्शक बटुक की ओर देखकर कहने लगे " रंग मे भंग "करने वाला और आनन्द मे बज्र गिराने वाला यह बालक यहाँ बालरूप होकर आया है।
राजा को सचेत करने के लिए लगातार उपाय किये गए राज वैध ने उसको सचेत करने के लिए अपार प्रयत्न किये सब व्यर्थ गये सबकी अश्रुधारा बहने लगी सबके मुँह उतर गया , कंठ बैठ गए शोक का कारण सिर्फ बटुक बालक ही था परन्तु उसके मुख पर शोक ,खेद, उदासीनता का कोई चिन्ह नहीं था आनंद मे बैठा हुआ वह बालक ईश्वर भजन कर रहा था ।
वरेप्सु की पत्नी रानी जो बड़ी पतिव्रता और बुद्धिमती थी उसका नाम विषयवाला था उठकर खड़ी हो गयी और विनयपूर्वक बोली देखो ईश्वरी माया का चमत्कार आप सबने देखा और कारण आप सब ऋषिपुत्र को मान रहे है परन्तु देवो के देव , प्रभु के प्रभु महात्मा बटुक मुनि का मन से भी अपमान करना महापाप है यह ईश्वर के समान सब मनुष्यो के पूज्यनीय है मेरी सबसे प्रार्थना है कि ऐसा न करे नहीं तो इसके दोषी मेरे पति और मैं स्वयं होऊंगी इस सब ऋषिमण्डल से मेरी विनय है कि आप सब समर्थ है , सर्वज्ञ हो देवो के भी पूज्य हो आप अपने तपोबल से और अपने योगबल से ईश्वर के समान सब तरह से समर्थ हो इसलिए मुझे इस शोकसागर से पार करो यज्ञ की पूर्ण आहुति का समय बीता जा रहा है मेरे पति अचेत अवस्था मे हैं इतना कहते कहते रानी की आँखें आंसुओ से भर गयी और गदगद कंठ हो गया धैर्य धरकर बोली अब मुझे क्या करना उचित है ?
रानी की ऐसी गंभीर वाणी को सुनकर एक बड़ा जयधारी वृद्ध ऋषि खड़ा होकर रानी को संबोधन करके बोला ,कल्याण-कल्याण मंगल - मंगल राजमाता तेरे पुण्यो का तो अंत नहीं है तू घबरा मत तू विचार कर देख कि जिसने राजा से दो ही शब्दो मे इतना बड़ा दान मांग लिया है वह महाप्रभु के सिवा और कौन हो सकता है यह कोई महा समर्थ आत्मा है यह बालक नहीं परन्तु बड़ा समर्थ ऋषियों का ऋषि देवो का देव है इसे सब छली और याचक समझते है परन्तु ज्ञान दृष्टि से यह त्रैलोक्य का स्वामी दाताओ का भी दाता और दया का भण्डार दीखता है इसलिए राजपत्नी यह बाल बटुकही तेरे मन को शान्त करने मे समर्थ है सबको छोड़कर उसी की शरण मे जा राजा ने तुझे भी दान मे दे दिया है इसलिए तू भी उसी की सम्पत्ति है इतना कहकर ऋषि चुप हो गए। ऋषि के वचनों को अमूल्य उपदेश मानकर रानी ने ह्रदय मे धीरज धारण किया वह तुरंत ही बटुकजी को प्रणाम कर नम्रता से कहने लगी हे ऋषि पुत्र मैं नहीं जानती कि आप कौन हो परन्तु हे समर्थ ,मेरे पति ने मुझे आपको अर्पण कर दिया है। मैं आपकी नम्र दासी हूँ आप तारने वाले है इसलिए मैं आपकी शरण मे आई हूँ आप कृपाकर आज्ञा दे की मैं क्या करूँ ?
बटुकजी बोले ,देवी,कल्याणी,तू क्यों शोक करती है यह संसार झूठा है सारे सम्बन्ध भी झूठे है तू देख कौन किसका संबंधी है तू राजा को अपना और राजा तुझे अपना मानता था पर वह सम्बन्ध अब कहाँ रहा वह अकेला ही चला गया और उसने तेरे मन का भाव भी नहीं पूछा अपने माने हुए इस देह को भी छोड़कर चला गया इसी तरह इस संसार मे पैदा हुए प्राणी मात्र के सम्बन्ध मे समझना चाहिए हे रानी अब तू शांत होकर आत्मकल्याण का प्रयत्न कर यह सुनकर रानी बोली हे ब्रह्मपुत्र आप जो कहते है वह सत्य है बटुकजी बोले यह संसार पानी के प्रवाह की भाँति बहता जाता है स्थिर रहने वाला कुछ भी नहीं है सब अनित्य है जो नित्य रहने वाला कल्याण है उसे प्राप्त करने के लिए ही जीवो को प्रेमयुक्त रहना चाहिए ऋण का बंधन छूटा बस फिर तो सब अपने अपने रास्ते चले जाते है।
रानी बोली ऋषिपुत्र आपके चरणों मे मेरी अंतिम प्रार्थना है कि यदि किसी भी उपाय से मेरा पति जीवित हो जाय तो मुझ अबला पर दया करो और मेरे नाथ को जीवन दान दो नहीं तो मैं भी उनके पीछे पीछे जाऊंगी पवित्रता का धर्म है कि पति की छाया के समान उसके पीछे चलने वाली हो रानी के ऐसे वचन सुनकर बटुकजी हँसकर बोले राजपत्नी तेरा कल्याण हो तेरे ऐसे पवित्र निश्चय से मुझे बढ़ा आनंद होता है तेरा कल्याण हो तेरे मन का दुःख दूर हो तेरी जैसी सती ही संसार मे कल्याण रूपा है
"सती"तू निर्भय हो, राजा को अपने ही अज्ञानवश यह दशा प्राप्त हुई है और उसकी द्रढ़ वासना से ही उसकी अमर आत्मा शरीर छोड़कर चला गया है क्योंकि उसको भारी चिंता थी कि मेरा सर्वस्व चला गया परन्तु अभी उसको इस संसार मे बहुत कुछ करना है इसलिए शीघ्र ही लौटेगा उसे इस अंतिम यज्ञ का फल मिलना आवश्यक है इसलिए पहले रानी तू ऋषियों द्धारा यज्ञ की पूर्णाहुति कर और फल उसके हाथ मे अर्पण कर ।
शरणागत
नीलम सक्सेना
बटुकजी ने कहा मेरी मांग के अनुसार जो तेरा था वो सब मेरा हो गया तेरे किये हुए पाप व् पुण्य भी मेरे हुए अर्थात तेरे किये हुए पाप पुण्यो के फल ,सुख -दुःख जो तुझे भोगने थे वे भी सब अर्पण करने से मुझे भोगने पड़ेंगे तू अभी जो सोचता है की तुझे इन्द्रपद भोगना है तू तीनो लोको का अधीश्वर होगा " वत्स " इस इन्द्र पद पर आज तेरा अधिकार नहीं अब यह भी मेरा हो गया।
ऋषिपुत्र के यह अंतिम शब्द सुनते ही वरेप्सु राजा बड़े दुःख के साथ पछाड़ खाकर पृथ्वी पर गिर पड़ा और तुरंत मूर्छित हो गया राजा की ऐसी अवस्था होते ही सभा मण्डप मे बैठे हुए सब लोगो के होश उड़ गए यह क्या हुआ रानी ,प्रधान ,पुरोहित ,ऋषि,मुनि सब सेवक विवश हो गए यज्ञ क्रिया बंद हो गयी सबके ह्रदय ,अन्त:करण खेद और शोक से छा गए और सोचने लगे यह बालक याचक नहीं परन्तु कोई कारण रूप है । जम ,जमाई ,जाचक इन तीनो को दया नहीं होती अब क्या होगा दर्शक बटुक की ओर देखकर कहने लगे " रंग मे भंग "करने वाला और आनन्द मे बज्र गिराने वाला यह बालक यहाँ बालरूप होकर आया है।
राजा को सचेत करने के लिए लगातार उपाय किये गए राज वैध ने उसको सचेत करने के लिए अपार प्रयत्न किये सब व्यर्थ गये सबकी अश्रुधारा बहने लगी सबके मुँह उतर गया , कंठ बैठ गए शोक का कारण सिर्फ बटुक बालक ही था परन्तु उसके मुख पर शोक ,खेद, उदासीनता का कोई चिन्ह नहीं था आनंद मे बैठा हुआ वह बालक ईश्वर भजन कर रहा था ।
वरेप्सु की पत्नी रानी जो बड़ी पतिव्रता और बुद्धिमती थी उसका नाम विषयवाला था उठकर खड़ी हो गयी और विनयपूर्वक बोली देखो ईश्वरी माया का चमत्कार आप सबने देखा और कारण आप सब ऋषिपुत्र को मान रहे है परन्तु देवो के देव , प्रभु के प्रभु महात्मा बटुक मुनि का मन से भी अपमान करना महापाप है यह ईश्वर के समान सब मनुष्यो के पूज्यनीय है मेरी सबसे प्रार्थना है कि ऐसा न करे नहीं तो इसके दोषी मेरे पति और मैं स्वयं होऊंगी इस सब ऋषिमण्डल से मेरी विनय है कि आप सब समर्थ है , सर्वज्ञ हो देवो के भी पूज्य हो आप अपने तपोबल से और अपने योगबल से ईश्वर के समान सब तरह से समर्थ हो इसलिए मुझे इस शोकसागर से पार करो यज्ञ की पूर्ण आहुति का समय बीता जा रहा है मेरे पति अचेत अवस्था मे हैं इतना कहते कहते रानी की आँखें आंसुओ से भर गयी और गदगद कंठ हो गया धैर्य धरकर बोली अब मुझे क्या करना उचित है ?
रानी की ऐसी गंभीर वाणी को सुनकर एक बड़ा जयधारी वृद्ध ऋषि खड़ा होकर रानी को संबोधन करके बोला ,कल्याण-कल्याण मंगल - मंगल राजमाता तेरे पुण्यो का तो अंत नहीं है तू घबरा मत तू विचार कर देख कि जिसने राजा से दो ही शब्दो मे इतना बड़ा दान मांग लिया है वह महाप्रभु के सिवा और कौन हो सकता है यह कोई महा समर्थ आत्मा है यह बालक नहीं परन्तु बड़ा समर्थ ऋषियों का ऋषि देवो का देव है इसे सब छली और याचक समझते है परन्तु ज्ञान दृष्टि से यह त्रैलोक्य का स्वामी दाताओ का भी दाता और दया का भण्डार दीखता है इसलिए राजपत्नी यह बाल बटुकही तेरे मन को शान्त करने मे समर्थ है सबको छोड़कर उसी की शरण मे जा राजा ने तुझे भी दान मे दे दिया है इसलिए तू भी उसी की सम्पत्ति है इतना कहकर ऋषि चुप हो गए। ऋषि के वचनों को अमूल्य उपदेश मानकर रानी ने ह्रदय मे धीरज धारण किया वह तुरंत ही बटुकजी को प्रणाम कर नम्रता से कहने लगी हे ऋषि पुत्र मैं नहीं जानती कि आप कौन हो परन्तु हे समर्थ ,मेरे पति ने मुझे आपको अर्पण कर दिया है। मैं आपकी नम्र दासी हूँ आप तारने वाले है इसलिए मैं आपकी शरण मे आई हूँ आप कृपाकर आज्ञा दे की मैं क्या करूँ ?
बटुकजी बोले ,देवी,कल्याणी,तू क्यों शोक करती है यह संसार झूठा है सारे सम्बन्ध भी झूठे है तू देख कौन किसका संबंधी है तू राजा को अपना और राजा तुझे अपना मानता था पर वह सम्बन्ध अब कहाँ रहा वह अकेला ही चला गया और उसने तेरे मन का भाव भी नहीं पूछा अपने माने हुए इस देह को भी छोड़कर चला गया इसी तरह इस संसार मे पैदा हुए प्राणी मात्र के सम्बन्ध मे समझना चाहिए हे रानी अब तू शांत होकर आत्मकल्याण का प्रयत्न कर यह सुनकर रानी बोली हे ब्रह्मपुत्र आप जो कहते है वह सत्य है बटुकजी बोले यह संसार पानी के प्रवाह की भाँति बहता जाता है स्थिर रहने वाला कुछ भी नहीं है सब अनित्य है जो नित्य रहने वाला कल्याण है उसे प्राप्त करने के लिए ही जीवो को प्रेमयुक्त रहना चाहिए ऋण का बंधन छूटा बस फिर तो सब अपने अपने रास्ते चले जाते है।
रानी बोली ऋषिपुत्र आपके चरणों मे मेरी अंतिम प्रार्थना है कि यदि किसी भी उपाय से मेरा पति जीवित हो जाय तो मुझ अबला पर दया करो और मेरे नाथ को जीवन दान दो नहीं तो मैं भी उनके पीछे पीछे जाऊंगी पवित्रता का धर्म है कि पति की छाया के समान उसके पीछे चलने वाली हो रानी के ऐसे वचन सुनकर बटुकजी हँसकर बोले राजपत्नी तेरा कल्याण हो तेरे ऐसे पवित्र निश्चय से मुझे बढ़ा आनंद होता है तेरा कल्याण हो तेरे मन का दुःख दूर हो तेरी जैसी सती ही संसार मे कल्याण रूपा है
"सती"तू निर्भय हो, राजा को अपने ही अज्ञानवश यह दशा प्राप्त हुई है और उसकी द्रढ़ वासना से ही उसकी अमर आत्मा शरीर छोड़कर चला गया है क्योंकि उसको भारी चिंता थी कि मेरा सर्वस्व चला गया परन्तु अभी उसको इस संसार मे बहुत कुछ करना है इसलिए शीघ्र ही लौटेगा उसे इस अंतिम यज्ञ का फल मिलना आवश्यक है इसलिए पहले रानी तू ऋषियों द्धारा यज्ञ की पूर्णाहुति कर और फल उसके हाथ मे अर्पण कर ।
शरणागत
नीलम सक्सेना
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